#शब्दकौतुक
जन गण मंगल की बात








वह शब्द जो अपना ही अर्थ भूल गया...
टैरिफ़ का दोहरा चरित्र
आधुनिक
आर्थिक जगत में 'टैरिफ़' एक ऐसा शब्द है जो सैकड़ों बरस पहले भूमध्यसागर
क्षेत्र के जहाजियों की लिंगुआ फ्रैंका से निकला और आगे चलकर दुनिया की लिंगुआ
फ़्रांका (सम्पर्क भाषा) इंग्लिश का बन गया। यह जानना दिलचस्प होगा कि टैरिफ़ का
जन्म अरबी ज़बान में हुआ। यह
आयातित वस्तुओं पर लगने वाला एक कर है, जिसका उद्देश्य सरकारी राजस्व बढ़ाना और घरेलू उद्योगों
को विदेशी प्रतिस्पर्धा से बचाना होता है । एक ऐसा शब्द; जो सभ्यताओं के बीच खुले संचार, पारदर्शिता और अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्य को आसान बनाने की
ज़रूरत से पैदा हुआ था, आज उसका इस्तेमाल राष्ट्रों के बीच आर्थिक दीवारें खड़ी
करने और व्यापार को मुश्किल बनाने के लिए किया जाता है । 'ज्ञान' और 'सूचना' (तारीफ़) के विचार से जन्मा यह शब्द आज आर्थिक 'अज्ञान' और संरक्षणवाद का हथियार बन गया है।
भूमध्यसागर के प्राचीन सौदागर
'टैरिफ़' शब्द की अरबी जड़ों को समझने से पहले अरबों के सौदागर चरित्र को पहचानना ज़रूरी है। उनका यह चरित्र इस्लाम के आगमन से हज़ारों साल पुराना है। प्राचीन काल से ही अरब प्रायद्वीप के निवासी, जैसे नबाती जन; यूरोप व एशिया में मसालों, लोबान और सुगन्धित पदार्थों के व्यापार पर एकाधिकार रखते थे। भूमध्यसागर अरब सौदागरों के लिए वैसा ही एक आँगन था जैसा किसी इतालवी, यूनानी या स्पेनी के लिए। उनकी नौकाएँ सदियों से इस सागर में तैर रही थीं। जहाँ विचारों और शब्दों का आदान-प्रदान पानी की लहरों उतना ही स्वाभाविक था जितना जिन्सों का लेन-देन। इसी पृष्ठभूमि ने एक ऐसी साझा शब्दावली को जन्म दिया जिसमें 'टैरिफ़' जैसे शब्दों के पनपने के लिए उपजाऊ ज़मीन तैयार की।
'ज्ञान' से 'कर' तक का सफ़र
'टैरिफ़' शब्द का स्रोत अरबी भाषा का शब्द 'तारीफ़' है । यह शब्द सामी भाषा-परिवार के तीन अक्षरों वाले मूल अराफ़ा ऐन रा फ़ा से निकला है, जिसका केंद्रीय भाव 'जानना', 'पहचानना' या 'परिचित होना' है । इस लिहाज़ से 'तारीफ़' का शाब्दिक अर्थ है- सूचना, अधिसूचना या परिभाषा । अब सवाल उठता है कि 'सूचना' जैसा अमूर्त विचार 'टैक्स' जैसे ठोस आर्थिक साधन में कैसे बदल गया? इसका जवाब मध्ययुगीन भूमध्यसागरीय व्यापार की व्यावहारिक ज़रूरतों में छिपा है । तब बन्दरगाहों पर विभिन्न वस्तुओं पर मनमाने शुल्क चुकाने होते थे। इस हेतु शासन ने वस्तुओं पर शुल्कों की एक अधिकृत सूची बनाकर उसे सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित करना शुरू कर दिया । चूँकि यह सूची टैक्स दर से सूचित कराने अवगत कराने का ज़रिया थी इसलिए धीरे-धीरे, प्रक्रिया का नाम उस दस्तावेज़ को भी मिल गया जो करों की दर बताता था। और इस तरह अरबी 'तारीफ़' यानी सूचना, का आशय 'शुल्क की सूची' हो गया ।
इतालवी मंडियों से यूरोप तक
अरबी शब्द 'तारीफ़' का यूरोप में प्रवेश भूमध्यसागर में व्यापार करने वाले इतालवी समुद्री गणराज्यों, जैसे वेनिस और जेनोआ, के ज़रिए हुआ । इन गणराज्यों के अरब जगत से गहरे कारोबारी रिश्ते थे। इतालवी भाषा ने इस अरबी शब्द को 'tariffa' (टैरिफ़ा) के रूप में अपनाया, जिसका अर्थ 'मूल्य-सूची' या 'मूल्याङ्कन' था । यहाँ से यह शब्द फ्रांसीसी में 'tarif' (टैरिफ) बना और अंततः 1590 के दशक में 'tariff' के रूप में अंग्रेजी भाषा में पहुँचा । दिलचस्प बात यह है कि उस समय इसका मतलब सिर्फ़ "गणना में सहायक सूची" या रेडी रेकनर जैसा था। सतरहवीं सदी तक इसका अर्थ बदलकर "आयात-निर्यात पर लगने वाले शुल्कों की आधिकारिक सूची" हो गया। स्पष्ट रूप में शुल्क दर का आशय ग्रहण करने में इसे अभी करीब डेढ़ सदी का वक्त लगना बाकी था। 18वीं-19वीं शताब्दी में, विशेषकर अमेरिकी अंग्रेजी में यह आज के अर्थ में दाखिल हुआ।
तारीफ़ा बन्दरगाह का दिलचस्प मिथक
'टैरिफ़' शब्द की उत्पत्ति की एक कहानी स्पेन के दक्षिणी तट पर स्थित बंदरगाह 'तारीफ़ा' (Tarifa) से भी जुड़ती है। जो बताती है कि इस शहर का नाम 710 ईस्वी में आए बर्बर सेनापति तारिफ़ इब्न मलिक के नाम पर पड़ा था । इस सिद्धान्त के अनुसार, इसी बन्दरगाह पर शुल्क वसूलने की प्रथा को शहर का नाम 'टैरिफ़ा' मिल गया, जो बाद में पूरे यूरोप में फैल गया । यह कहानी सुनने में आकर्षक लगती है, लेकिन ज़्यादातर भाषाविद् इसे 'लोक मान्यता’ ही समझते हैं और स्पष्ट रूप से अरबी शब्द 'तारीफ़' (सूचना) को ही इसका मूल बताते हैं । यह सम्भव है कि तारीफ़ा बंदरगाह का नाम और 'टैरिफ़' शब्द, दोनों की जड़ें एक ही अरबी मूल 'ع-ر-ف' में हों।
क्या स्पेन के रास्ते आया 'टैरिफ़'?
इटली के व्यापारिक मार्ग के अलावा, स्पेन पर लगभग सात शताब्दियों तक रहे इस्लामी शासन (अल-अंदलुस) की भूमिका को भी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। यह भी एक प्रबल संभावना है अल-अंदलुस ज्ञान, विज्ञान और संस्कृति के आदान-प्रदान का एक विशाल केंद्र था, जहाँ अरबी, लैटिन और स्थानीय भाषाएँ एक-दूसरे के गहरे सम्पर्क में थीं। इस दौरान प्रशासन, कृषि और व्यापार से जुड़े सैकड़ों अरबी शब्द स्पेनिश और पुर्तगाली भाषाओं का हिस्सा बने। चूँकि अधिकृत शुल्क-सूचियों की अवधारणा इस्लामी प्रशासनिक व्यवस्था का एक हिस्सा थी, यह बहुत सम्भव है कि 'तारीफ़' शब्द और इससे जुड़ी प्रथा इबेरियन प्रायद्वीप (स्पेन और पुर्तगाल) में भी गहराई से प्रचलित हुई हो और वहाँ से यूरोप के अन्य हिस्सों में फैली हो।
शब्दों का अलिखित सफ़र
किसी भाषा में एक शब्द का पहला लिखित प्रमाण यह बताता है कि वह शब्द उस समय तक उस भाषा में स्थापित हो चुका था, लेकिन यह ज़रूरी नहीं कि उसका प्रयोग तभी शुरू हुआ हो। अंग्रेज़ी में 'टैरिफ़' का पहला दस्तावेजी प्रमाण 1591 का मिलता है । लेकिन यह निष्कर्ष निकालना ग़लत होगा कि भूमध्यसागरीय क्षेत्र में यह शब्द या अवधारणा इससे पहले प्रचलित नहीं थी। जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, अरबों का भूमध्यसागर से रिश्ता बहुत पुराना और गहरा है। सदियों के व्यापारिक लेन-देन के दौरान निश्चित रूप से एक साझा शब्दावली विकसित हुई होगी, जिसे 'लिंगुआ फ़्रैंका' कहा जाता था । यह व्यापारियों और नाविकों द्वारा बोली जाने वाली एक मिश्रित भाषा थी । 'तारीफ़ा' जैसे शब्द इस अनौपचारिक व्यापारिक भाषा का हिस्सा रहे होंगे और लिखित दस्तावेज़ों में दर्ज होने से बहुत पहले से ही बोलचाल में प्रचलित रहे अरबों और यूरोपीयों के सम्बन्ध ईसा से भी पूर्व से चले आ रहे हैं।
'मारफ़त' और 'अराफ़ात' का रिश्ता
दिलचस्प यह भी है कि 'टैरिफ़' शब्द का मूल 'ع-ر-ف'
यानी
अराफ़ा उसी
शब्द-शृंखला से जुड़ा है जिससे अरबी की साहित्यिक और दार्शनिक शब्दावली के लोकप्रिय शब्द
भी निकले जैसे 'मारफ़त' व 'अराफ़ात' । यह मूल 'ज्ञान' और 'पहचान' की अवधारणा से सम्बन्धित शब्दशृङ्खला का हिस्सा है । कुछ अन्य शब्द हैं जैसे मारूफ यानी "जो ज्ञात है" । तआरुफ़ यानी "एक-दूसरे
को जानना" या आपसी परिचय । आरिफ़ का अर्थ है "जानने वाला" या ज्ञाता । अराफ़ात
के बारे
में विस्तार से वक़्फ़ शृङ्खला में बताया जा चुका है। यह
मक्का के पास स्थित मैदान का नाम है। इसी तरह तारीफ़ इस शृङ्खला का सबसे प्रसिद्ध शब्द है जो हिन्दी, उर्दू में
'प्रशंसा' के लिए इस्तेमाल होता आया है। इसका मूल अर्थ 'पहचान कराना' था, जिसके लिए अब हिन्दी उर्दू में तआर्रुफ प्रचलित है। यही ‘पहचान,’ करों की दर से अवगत कराने वाले तारीफ़ा
यानी टैरिफ़ से जुड़ गई।
टैरिफ की विकास यात्रा क्या कहती है?
यही कि वैश्वीकरण कोई नई घटना नहीं है । सदियों से संस्कृतियाँ एक-दूसरे से व्यापार करती रही हैं और विचार एवं शब्दों का आदान-प्रदान करती रही हैं। जब आज के राष्ट्र अपनी सीमाओं की रक्षा के लिए 'टैरिफ़' लगाते हैं, तो वे जिस शब्द का उपयोग करते हैं, वह स्वयं उनके साझा और परस्पर जुड़े अतीत की सबसे बड़ी गवाही देता है । कैसे एक विचार अपनी उत्पत्ति के ठीक विपरीत अर्थ धारण कर सकता है, और कैसे भाषाएँ इतिहास की सबसे जटिल परतों को भी अपने भीतर सहेजकर रखती है।
....और चलते चलते
आमतौर पर टैरिफ और कस्टम को लेकर पिछले कुछ महिनों से आम व्यक्ति भ्रमित है। हमारे
यहाँ विदेशी वस्तुओं पर लगने वाले कर के लिए सामान्यतः कस्टम ड्यूटी शब्द ही प्रचलित
है। वस्तुतः 'कस्टम' वह सरकारी विभाग या प्रशासनिक प्रणाली है, जो 'टैरिफ़' नामक कर-सूची के अनुसार शुल्कों की वसूली करता है।
हालाँकि, जब
'कस्टम
ड्यूटी' (सीमा
शुल्क) कहा जाता है, तो
इसका आशय उसी 'टैरिफ़' द्वारा निर्धारित कर से ही होता है। इस प्रकार, 'कस्टम' (विभाग) और 'टैरिफ़' (कर) में स्पष्ट अंतर है, लेकिन 'कस्टम ड्यूटी' (कर) और 'टैरिफ़' (कर) व्यावहारिक रूप से एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
शब्द-कौतुक / फँसाने-लटकाने की तरकीब
लोलुप व्यक्ति के दिल की मुराद
हिन्दी का एक बहुत ही साधारण सा, घरेलू शब्द है - ‘छीका’। आज की पीढ़ी के लिए यह एक मुहावरे का अंश भर है: "बिल्ली के भाग से छींका टूटा"। अधिकांश लोग इसे “मन की मुराद पूरा होना” से जोड़ते हैं, पर हमारा मानना है कि इसमें लोलुप व्यक्ति के दिल की मुराद बिना कोई प्रयास किए पूरी होने की बात है। लेकिन वह भौतिक वस्तु, ‘छीका’, जिसके टूटने पर बिल्ली का भाग्य चमकता था, अब हमारे घरों से लगभग अदृश्य हो चुकी है। रेफ्रिजरेटर के आने के बाद जूट या रस्सी से बनी वह जालीदार टोकरी, जो अक्सर देहात में छान-छप्पर या छत की म्याल से लटकाकर दूध, दही और मक्खन को बिल्लियों और बच्चों की पहुँच से दूर रखती थी, अब बीते दिनों की बात हो गई है। ‘छीका’ अब अतीत की स्मृति है। पर एक महत्वपूर्ण सज्जा उपकरण के तौर पर आज भी हमारे घरों का हिस्सा है।
वेदों का 'शिक्य', पुराणों का 'माखन-भाण्ड'
इस शब्द की जड़ों की तलाश हमें सुदूर अतीत में, संस्कृत भाषा के आँगन तक ले जाती है, जहाँ इसका मूल रूप ‘शिक्य’ मिलता है। यह शब्द प्राचीन भारतीय साहित्य में बहुत गहराई तक समाया हुआ है। इसका एक रूप हमें अथर्ववेद जैसे प्राचीन वैदिक ग्रंथों में मिलता है, जहाँ ‘शिक्य’ का अर्थ है ‘बोझ ढोने के लिए इस्तेमाल होने वाली रस्सी की झोली या फंदा’। भारत भर के लोकवृत्त में इसके लिए अनेक संज्ञाएँ हैं जैसे भरुका, सिकिया, उट्टी मुरुजा, टंगना, Payanthatti, मडिके, उच्चिकै आदि। लेकिन ‘शिक्य’ को अमरत्व मिला एक दूसरे, कहीं अधिक लोकप्रिय सांस्कृतिक संदर्भ से- भगवान कृष्ण की बाल-लीलाओं से। श्रीमद्भागवत पुराण में गोपियों द्वारा ऊँचाई पर लटकाए गए ‘शिक्य-भाण्ड’ (यानी छीके में रखे बर्तन) से कान्हा के माखन चुराने की कथाओं ने इस साधारण सी वस्तु को भक्ति और पौराणिक कथा के रस से सराबोर कर दिया।
द्रविड़ रिश्तों की पड़ताल
किन्तु 'शिक्य' शब्द की अपनी व्युत्पत्ति कहाँ से हुई, यह भाषाविदों के बीच एक गहन चर्चा का विषय है। एक ओर जहाँ इसका संबंध संस्कृत की ही एक अन्य संज्ञा 'शिच्' (अर्थ: जाल) से जोड़ा जाता है, वहीं दूसरी ओर एक सिद्धांत इसे द्रविड़ धातु सिक्क्/चिक्क् cikk- (फँसना, उलझना) से जोड़ता है, जो प्राकृत रूप 'सिक्कग' के बहुत निकट है। वहीं, एक अन्य मत तेलुगु के चेंकु (చెంకు) (हुक, पात्र) जैसे शब्द को इसका मूल मानती है, जो ध्वनि-परिवर्तन के बाद 'शिक्य' बन सकता था। मतभेद के साथ, ये साक्ष्य प्राचीन भाषाई लेन-देन का स्पष्ट संकेत हैं। यद्यपि "फँसने" या "उलझने" (सिक्क/चिक्क) का भाव तमिल और कन्नड़ में मौजूद है, किन्तु "लटकाने वाले उपकरण" चेंकु (చెంకు) का विशिष्ट और ठोस अर्थ तेलुगु में अधिक केंद्रित और स्पष्ट है। यह विश्लेषण 'शिक्य' के द्रविड़ मूल की परिकल्पना को और मजबूत करता है।कुल मिलाकर दोनों ही 'शिक्य' के सम्भाव्य स्रोत के तौर पर विचारणीय हो सकते हैं।
'शिक्य' से 'छीका' बनने का
सफ़र
संस्कृत के ‘शिक्य’ से हिन्दी के ‘छीका’ तक का सफर हज़ारों साल लंबा है। जब प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं का दौर आया, तो ‘शिक्य’ शब्द ने भी स्वाभाविक रूप से ध्वन्यात्मक परिवर्तन ग्रहण किए। संस्कृत की ‘श्’ ध्वनि प्राकृत में अक्सर सरल होकर ‘स्’ बन जाती थी, इसी प्रक्रिया में ‘शिक्य’ ने ‘सिक्कग’ और ‘सिक्किआ’ जैसे रूप ले लिए। यही प्राकृत रूप आगे चलकर आधुनिक भारतीय भाषाओं में ‘छीका’, ‘सीका’ और ‘शिकें’ जैसे मिलते-जुलते शब्दों का आधार बने। हिन्दी और उसके आसपास की बोलियों में इसका विकास बड़ा रोचक है। जहाँ मानक हिन्दी ने ‘छीका’ या ‘छींका’ रूप को अपनाया, वहीं ब्रजभाषा में यह प्राकृत के करीब रहते हुए ‘सींकौ’ बन गया। मालवी बोली में भी ‘सींको’ शब्द का प्रयोग होता है। हिन्दी में एक और शब्द ‘सिकहर’ भी मिलता है, जो संभवतः ‘शिक्य-धर’ यानी ‘शिक्य को धारण करने वाली रस्सी’ से बना है।
एक शब्द, अनेक भाषायी रूप
पश्चिम भारत में इसका बहुत अनूठा विकास हुआ। मराठी में जहाँ मूल अर्थ वाला शब्द ‘शिकें’ जीवित रहा, वहीं इससे एक नया शब्द ‘शिकी’ भी जन्मा, जिसका अर्थ है जहाज की पाल को नियंत्रित करने वाली रस्सी। यह अर्थ-विस्तार महाराष्ट्र के लंबे समुद्री इतिहास और नौ-संचालन परंपरा का भाषाई प्रमाण है। वहीं, गुजराती में इसका रूप ‘सीकुं’ है, लेकिन यहाँ इसने एक और सुंदर अर्थ ग्रहण किया। ‘सीकां’ शब्द का प्रयोग उन मोतियों की लड़ियों के लिए होता है, जिन्हें महिलाएँ अपने माथे पर आभूषण के तौर पर पहनती हैं। यहाँ छीके की ‘जाली’ या ‘लड़ी’ की दृश्य समानता के आधार पर एक घरेलू वस्तु का नाम सौंदर्य प्रसाधन पर लागू कर दिया गया। पूर्व भारत की ओर चलें तो बंगाली, ओड़िया और असमिया भाषाओं में यह शब्द ‘सिका’ या ‘शिकिया’ के रूप में अपने मूल अर्थ के अधिक निकट रहा, जिसका एक संभावित कारण कृष्ण-भक्ति और उनकी लीलाओं का गहरा सांस्कृतिक प्रभाव हो सकता है।
‘छींका’ केवल रसोई की वस्तु नहीं था; यह पूर्व-औद्योगिक भारतीय जीवन-शैली का एक अभिन्न अंग था, जिसकी भूमिका घर से लेकर खेत-खलिहान और परिवहन तक फैली हुई थी। इसका एक बहुत महत्वपूर्ण उपयोग कृषि कार्य में था—बैलों के मुखत्राण यानी मुँह पर बाँधी जाने वाली जाली के रूप में, जिसे ‘जाबा’ या ‘मुसका’ भी कहते हैं। जब खलिहान में दँवरी चलती थी या खेत में हल जोता जाता था, तो बैलों के मुँह पर यह जाली बाँध दी जाती थी ताकि वे अनाज या फसल को खा न सकें। इसके अलावा, बोझ ढोने वाली काँवर या बहँगी के सिरों पर सामान लटकाने के लिए भी छीके जैसी रस्सी की व्यवस्था का ही उपयोग होता था। लेकिन इसका सबसे वृहद् और प्रभावशाली उपयोग पहाड़ी क्षेत्रों में देखने को मिलता था, जहाँ नदी-नालों को पार करने के लिए इसे एक रस्सी-पुल (rope bridge) के रूप में इस्तेमाल किया जाता था। इस झूले को भी ‘छीका’ या ‘झूला’ कहते थे, जिसमें बैठकर यात्री और सामान एक किनारे से दूसरे किनारे तक पहुँचते थे।
लोकोक्ति की आत्मा, उत्सव का प्रतीक
किसी भी शब्द की असली ताकत उसकी सांस्कृतिक स्मृतियों में निहित होती है, और ‘छींका’ इस मामले में बहुत समृद्ध है। "बिल्ली के भाग से छींका टूटा" मुहावरा एक ऐसा सामाजिक-पारिस्थितिक चित्र है जो उस युग को दर्शाता है जहाँ मनुष्य, पालतू पशु (बिल्ली), खाद्य संसाधन (दूध) और प्रौद्योगिकी (छीका) के बीच एक निरंतर संतुलन और संघर्ष चलता था। यह मुहावरा मराठी ("शिक्याचें तुटलें, बोक्याचें पटलें" - छीका टूटा, बिल्ले की बन आई) और मालवी ("बिलइआ के भाग्गन सींको टूटिबो") जैसे रूपों में पूरे भारत में प्रचलित है, जो एक साझे अनुभव की गवाही देता है। इसका दूसरा सांस्कृतिक पदचिह्न जन्माष्टमी पर मनाए जाने वाले दही-हांडी उत्सव में दिखाई देता है। इस उत्सव में, ‘छीका’ या ‘सिका’ (जिस रस्सी से दही की मटकी लटकाई जाती है) एक पौराणिक कथा के साधारण पात्र से उठकर एक भव्य सार्वजनिक उत्सव का केंद्रीय प्रतीक बन जाता है।
भिन्न संस्कृतियाँ, भिन्न शब्द-संकेत
इस शब्द की यात्रा का एक वैश्विक आयाम भी है। विश्व की अन्य भारोपीय संस्कृतियों (जैसे ईरानी या यूरोपीय) में छींके जैसी व्यवस्थाएँ तो थीं, पर उनके लिए 'शिक्य' से मिलते-जुलते शब्द नहीं मिलते। उन समाजों ने 'बाँधने' या 'गूँथने' जैसी क्रियाओं से अपने अलग शब्द रचे, जो यह दर्शाता है कि हर संस्कृति अपनी विशेष सामाजिक मान्यताओं, भोजन संबंधी पवित्रता बोध और परिवेश के अनुसार अपनी शब्दावली गढ़ती है। ‘छीका’ शब्द की यह यात्रा हमें बताती है कि शब्द केवल अक्षर-ध्वनियों का समूह नहीं होते; वे सांस्कृतिक जीवाश्म (cultural fossil) होते हैं, जो अपने भीतर अतीत की जीवन-शैली, सामाजिक संरचनाओं और विश्व-दृष्टियों को सहेजे रहते हैं।
गाँव के रसोई से शहरी सौंदर्यबोध तक
भौतिक उपयोगिता समाप्त हो जाने के बाद, ‘छींका’ ने इक्कीसवीं सदी में एक नए और आकर्षक अवतार में वापसी की है। आज शहरी घरों की बालकनियों और कैफे की शोभा बढ़ाने वाले मैक्रामे (वाल हैंगिंग) के कलात्मक प्लांट हैंगर अब पारम्परिक ‘छीके’ के ही फैशनेबल अवतार हैं। यह रूपाान्तरण ग्रामीण उपयोगिता से शहरी सौंदर्यशास्त्र की ओर एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक है। वस्तु का मूल्य अब उसके कार्य (खाद्य-संरक्षण) में नहीं, बल्कि उसके रूप (सजावट) में है। कभी जूट या मूंज से बनने वाला ‘छीका’ अब नफ़ीस सूती धागों से एक नए रूप में तैयार किया जाता है और "बोहो-चिक" या "एथनिक" सजावट के शौकीन शहरी वर्ग को बेचा जाता है।
अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...बुनियादी भ्रम
स्रोत-
बहाव का उद्गम
‘स्रोत’ शब्द
संस्कृत मूल का
है, जिसकी
व्युत्पत्ति
‘स्रु’ क्रिया से मानी जाती है जिसमें बहाव का भाव है। इससे विकसित
‘स्रोतस्’ (srotas) बना, जिसका अर्थ
है – बहने की
जगह, धारा, प्रवाह का
मार्ग या उद्गम।
यही शब्द कालांतर
में हिन्दी में ‘स्रोत’ के रूप
में आया, जिसका
अर्थ है – मूल, ज़रिया, origin या अंग्रेजी का source सोर्स। मिसाल के तौर पर गंगा
का स्रोत गोमुख
है।
इस तथ्य का
क्या स्रोत है? यह
शब्द स्रवनम् (प्रवाह) से
जुड़ता है, जिसमें
तरल या अमूर्त
किसी चीज़ का
बहाव निहित होता
है।
श्रोत- जो सुनता है
‘श्रोत’ शब्द का सम्बन्ध बिल्कुल भिन्न क्रिया श्रु से है जिसका अर्थ सुनना है। संस्कृत में इससे बने अनेक शब्द हैं जैसे श्रवण, श्रोता, श्रोत्र, श्रोतृ, श्रोत्रिय आदि। श्रोतृ वह होता है जो सुनता है - listener, hearer। श्रोत्रिय वह होता है जो वैदिक श्रुति परम्परा से जुड़ा हो, जिसने शास्त्रों को श्रवण के माध्यम से ग्रहण किया हो जैसे श्रोताओं से अनुरोध है कि वे शांति बनाए रखें या वह एक विद्वान श्रोत्रिय ब्राह्मण था। ध्यान दें कि श्रोत शब्द हिन्दी में स्वतन्त्र रूप में एक बहुत ही सीमित और विशिष्ट प्रसङ्गों में ही आता है, और प्रायः ‘श्रोता’ या ‘श्रोत्रिय’ जैसे रूपों में प्रयुक्त होता है।
संस्कृत में श्रोत = स्रोत?
संस्कृत व्याकरण की
दृष्टि से ‘स्रोत’ शब्द का प्रकृत रूप ‘स्रोतस्’ है।
जब यह विभक्ति
और सन्धि से
गुजरता है, तब उसके कुछ
रूप ‘श्रोत’ के
रूप में प्रकट
हो सकते हैं।
जैसे, ‘यस्य
श्रोतः
परिपूर्णं
स्यात्’ - यह ‘श्रोतः’
रूप सप्तमी विभक्ति
एकवचन में ‘स्रोतस्’
का रूप है, लेकिन यहाँ
‘श’ नहीं बल्कि
‘स’ ही है। कुछ
भाषाविदों और कोशों
(जैसे कि आपटे अथवा Monier-Williams) में यह
उल्लेख ज़रूर मिलता
है कि कुछ
पाठों में स्रोत का उच्चारण श्रोत रूप
में भी पाया
गया है, विशेषतः
वैदिक धारा में जहाँ
उच्चारण के क्षेत्रीय
भेद या श्रुति
परम्परा के चलते
कई शब्दों में
स/श/ष
का अदल-बदल
हुआ है। किंतु
यह अपवाद हैं, और हिन्दी
में न तो यह चलन है और न ही इसे लेकर कोई भ्रम है।
क्या
‘श्रोत’ हिन्दी में स्रोत का विकल्प है?
आधुनिक
हिन्दी
में
'श्रोत' को ‘स्रोत’ का वैकल्पिक
या पर्याय रूप
स्वीकार नहीं किया
गया है। किसी
भी मान्य हिन्दी
कोश- जैसे भारतीय राजभाषा परिषद कोश, शब्दसागर, प्लैट्स, हरदेव बाहरी आदि -
में ‘श्रोत’ को
‘स्रोत’ का रूप
नहीं माना गया
है।
‘श्रोत’ यदि
आया भी है
तो वह श्रोता, श्रवण, श्रोत्रिय आदि से
जुड़ा अर्थ ही
रखता है, अर्थात
‘सुनने वाला’, ‘श्रवणकर्ता’, या ‘श्रवण
से प्राप्त ज्ञान’। यह अन्तर
संस्कृत कोशों में
भी स्पष्ट है, किन्तु आधुनिक
हिन्दी में ध्वन्यात्मक
भ्रम के
कारण यह गड्डमड्ड
होने लगा है।
अखबार, साहित्यिक रचना आचार्य के ज्ञान व सम्पादक के
चलताऊ ज्ञान प्रदर्शन आदि तमाम स्थितियों में
“श्रोत” शब्द को
“स्रोत” के अर्थ
में प्रयोग करना
अज्ञान की निशानी
है।
भाषिक
अनुशासन और व्याकरण
यह मामला केवल व्याकरण का नहीं, अर्थ-संप्रेषण की शुद्धता का भी है। ‘स्रोत’ जानकारी का उद्गम है, जबकि ‘श्रोत’ वह हो सकता है जो कान से सुनता है। एक ही वाक्य में इन दोनों के प्रयोग से हास्यास्पद स्थितियाँ उत्पन्न हो सकती हैं: जैसे इस समाचार का स्रोत अज्ञात है। अब अगर इसी वाक्य में श्रोत लिखें तो वाक्य होगा- इस समाचार का श्रोत अज्ञात है। दूसरे वाक्य में यह भ्रम होता है कि “इस समाचार को सुनने वाला कौन है, यह पता नहीं!” - जो आशय ही बदल देता है।
आख़िरी बात
‘श्रोत’ और ‘स्रोत’
शब्दों के बीच
का अंतर संस्कृत
की धातु-व्युत्पत्ति
पर आधारित है- श्रु
(सुनना) और स्रु
(बहना)। आधुनिक
हिन्दी में ‘स्रोत’ का प्रयोग
ही मान्य है
जब हम बात
कर रहे हों
किसी उद्गम, धारा, या
सूचना के मूल
स्रोत की। ‘श्रोत’ शब्द यदि
कहीं आता है
तो वह श्रोता या श्रोत्रिय जैसे सन्दर्भों
में, ‘सुनने’
के अर्थ में
ही आता है। इसलिए, *‘श्रोत’
को ‘स्रोत’ का
पर्याय मानना न
केवल अनुचित है, बल्कि यह
अर्थ का स्पष्ट
अनर्थ भी कर
सकता है। हिन्दी
में इस विषय
में सावधानी अपेक्षित
है।
🙏
16.चंद्रभूषण-
[1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8 .9. 10. 11. 12. 13. 14. 15. 17. 18. 19. 20. 21. 22. 23. 24. 25. 26.]
15.दिनेशराय द्विवेदी-[1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8. 9. 10. 11. 12. 13. 14. 15. 16. 17. 18. 19. 20. 21. 22.]
13.रंजना भाटिया-
12.अभिषेक ओझा-
[1. 2. 3.4.5 .6 .7 .8 .9 . 10]
11.प्रभाकर पाण्डेय-
10.हर्षवर्धन-
9.अरुण अरोरा-
8.बेजी-
7. अफ़लातून-
6.शिवकुमार मिश्र -
5.मीनाक्षी-
4.काकेश-
3.लावण्या शाह-
1.अनिताकुमार-
मुहावरा अरबी के हौर शब्द से जन्मा है जिसके मायने हैं परस्पर वार्तालाप, संवाद।
लंबी ज़ुबान -इस बार जानते हैं ज़ुबान को जो देखते हैं कितनी लंबी है और कहां-कहा समायी है। ज़बान यूं तो मुँह में ही समायी रहती है मगर जब चलने लगती है तो मुहावरा बन जाती है । ज़बान चलाना के मायने हुए उद्दंडता के साथ बोलना। ज्यादा चलने से ज़बान पर लगाम हट जाती है और बदतमीज़ी समझी जाती है। इसी तरह जब ज़बान लंबी हो जाती है तो भी मुश्किल । ज़बान लंबी होना मुहावरे की मूल फारसी कहन है ज़बान दराज़ करदन यानी लंबी जीभ होना अर्थात उद्दंडतापूर्वक बोलना।
दांत खट्टे करना- किसी को मात देने, पराजित करने के अर्थ में अक्सर इस मुहावरे का प्रयोग होता है। दांत किरकिरे होना में भी यही भाव शामिल है। दांत टूटना या दांत तोड़ना भी निरस्त्र हो जाने के अर्थ में प्रयोग होता है। दांत खट्टे होना या दांत खट्टे होना मुहावरे की मूल फारसी कहन है -दंदां तुर्श करदन
अक्ल गुम होना- हिन्दी में बुद्धि भ्रष्ट होना, या दिमाग काम न करना आदि अर्थों में अक्ल गुम होना मुहावरा खूब चलता है। अक्ल का घास चरने जाना भी दिमाग सही ठिकाने न होने की वजह से होता है। इसे ही अक्ल का ठिकाने न होना भी कहा जाता है। और जब कोई चीज़ ठिकाने न हो तो ठिकाने लगा दी जाती है। जाहिर है ठिकाने लगाने की प्रक्रिया यादगार रहती है। बहरहाल अक्ल गुम होना फारसी मूल का मुहावरा है और अक्ल गुमशुदन के तौर पर इस्तेमाल होता है।
दांतों तले उंगली दबाना - इस मुहावरे का मतलब होता है आश्चर्यचकित होना। डॉ भोलानाथ तिवारी के मुताबिक इस मुहावरे की आमद हिन्दी में फारसी से हुई है फारसी में इसका रूप है- अंगुश्त ब दन्दां ।