अतिथि शब्द की महिमा निराली है । तैत्तिरीयोपनिषद की की प्रसिद्ध उक्ति अतिथि देवो भवः उसे पूजनीय बनाती है। मगर मेहमान को मुसीबत समझने की परंपरा भी पूरी दुनिया में प्राचीनकाल से ही रही है। रोमन विद्वान प्लाटियस का कथन- कोई भी अतिथि इतना श्रेष्ठ नहीं कि तीन दिन बाद भी अपने मेजबान को बुरा न लगे यही साबित करता है।
इसके बावजूद अतिथि शब्द के हिस्से में ज्यादातर रुतबा और सम्मान ही आए हैं। अतिथि शब्द की कुछ लोग बड़ी दिलचस्प व्युत्पत्ति बताते है। वे इस शब्द का संधि विच्छेद करते हुए (अ+तिथि) साबित करते हैं कि जिसके आने की कोई तिथि न हो वह अतिथि है। वैसे यह बात बड़ी मज़ेदार लगती है और एक हद तक तार्किक भी क्योंकि मेहमान कभी भी टपक पड़ता है और इस शब्द में इसकी व्याख्या भी छुपी है। मगर यह सही नहीं है।
संस्कृत धातु अत् से बना है यह शब्द । अत् में इथिन् प्रत्यय लगने से हुआ अतिथि। अत् का मतलब होता है घूमना, फिरना, चक्कर लगाना आदि। आज चाहे अतिथि का अर्थ आगंतुक, अभ्यागत या मेहमान हो गया है मगर प्राचीन काल में इसका अर्थ कहीं गूढ़, दार्शनिक और मानवीय था। अत् धातु में निहित लगातार गमनशील रहना है। जिसके जीवन का उद्देश्य ही चरैवेति-चरैवेति हो यानि चलते रहो, रुको मत, इसे जीवनसूत्र बनाने वाला कौन हुआ ? जाहिर है वह ज्ञानमार्गी है , यायावर है, संत है, परिव्राजक है। अथवा जीवन को कर्म मानते हुए निकला कोई कर्मयोगी है। यही है अतिथि का अर्थ । सामान्य पथिक भी इसी श्रेणी में आता है। अब लगातार कर्मशील रहना एक सात्विक और नैतिक बात हो सकती है मगर ठहराव तो शरीर की आवश्यकता है। ऐसे ही आगंतुक जब प्राचीनकाल में कहीं ठहराव की इच्छा प्रकट करते तब अतिथि का अर्थ मेहमान अथवा आगंतुक में स्थापित हुआ, अन्यथा अतिथि का अर्थ यात्री हुआ। और ऐसे व्यक्ति की अभ्यर्थना करना, उसे आश्रय उपलब्ध कराना महत्वपूर्ण माना गया।
अतिथि से ही बना आतिथ्य अर्थात आवभगत करना, स्वागत सत्कार करना। आतिथेय यानी मेज़बान भी इससे ही बना है। डा राजबली पांडेय हिन्दू धर्मकोश में अतिथि के बारे कहते हैं कि-
यस्य न ज्ञायते नाम न च गोत्रं स्थितिः।।
अकस्माद् गृहमायाति सो तिथिः प्रोच्यते बुधैः।।
अर्थात् जिसका नाम, गोत्र , स्थिति नहीं पता हो और जो अचानक घर पर आता है वही अतिथि है।
Wednesday, February 6, 2008
अतिथि तो यायावर ठहरा [ किस्सा ए यायावरी-9 ]
प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर पर 3:29 AM
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10 कमेंट्स:
रोचक जानकारी है.
आभार ज्ञानवर्धन के लिये. जारी रहें.
डा. राजबली के अनुसार तो अतिथि चयन जैसी बात नहीं होनी चाहिये। पर इतना विकृति तो हो ही गयी है। लोग अपनी जाति-कुल आदि का ध्यान सत्कार में रखने लगे हैं।
अतिथि को भोजन देना भी भारतीय धर्म का एक नियम रहा है
(जो परदेस जाकर , याद आता है )-
भारत के ग्रामवासी , अनजान इंसान को भी भोजन देते थे --
गाँवों में तो आज भी अतिथि सत्कार किया जाता है . शब्दों के इस सफर में प्रवास करते हुये लग रहा है कि अब दिमाग पर जमी परतें धीरे धीरे खुलने लगी हैं ,इथिन्, तुमुन् प्रत्यय जिन्हें कहीं भूल गये थे याद आने लगे हैं । यह सफर अनवरत् चलता रहे यही शुभेच्छा ....
रोचक जानकारी!
शुक्रिया!
बहुचर्चित सूत्रवाक्य में मेरे ख्याल से भवः की जगह भव का प्रयोग होना चाहिए। श्लोक में लघु अ का निशान उपलब्ध न होने के चलते अतिथि की जगह तिथि पढ़ लिए जाने का खतरा पैदा हो गया है। इस बार की पोस्ट में थोड़ा सीधा निकल गए लगते हैं। मुकाम तक पहुंचने से पहले थोड़ा इधर-उधर भी टहल लेते हैं तो ज्यादा आनंद आता है।
आदरणीय अजित जी, आपका ब्लोग देखा काफ़ी अच्छा लगा। आपने मेरे लेख "मारवाड़ी देस का न परदेस का" में रूचि दिखाई, इसके लिये आपका अभारी हूँ। कृ्पाभाव बनाये रखेगें - शम्भु चौधरी
उम्दा post. ज्ञानवर्धन के लिए आभार.
A1bhai
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