Thursday, February 7, 2008

जात न पूछो कल्लू की....

हर शहर में फुटपाथ पर चाय और पान सिगरेट की दुकानें होती हैं और वे तमाम खाने पीने की चीज़े भी रखते हैं। पास में ही एक पानी की टंकी होती है । चमकदार स्टील या पीतल की। एक नौकरनुमा छोकरा होताहै जो जूठे गिलास प्लेट धोता है। मालिक होता है वह या तो चाय बनाता है या पान लगाता है। वह कल्लू ,रामदीन, भगवत, सलीम , बलभद्दर या कोई भी हो सकता है। यहां आसपास के दफ्तरों के लोग आते हैं। आसपास के क्षेत्रों के लोग जो रोजमर्रा के काम निपटानें आते हैं वे भी इनमें होते है। सब बडे़ मजे़ में यहां खाते पीते हैं। ।ये चायवाला या पानवाला बड़ा खास होता है। सभी से मीठा बोलता है , कभी तड़ी में भी बोलता है। अच्छे भले सूटबूट वाले उससे उधारी का रिश्ता रखते हैं। देर शाम घर जाने वाले छुपाकर गिलास में दारू पीने का रिश्ता भी बना लेते हैं। दफ्तर का फ्रस्ट्रेशन भी इससे शेयर कर लेते है। कुछ भाई कल्लू से उसकी जात भी पूछ लेते हैं और उस पर भरोसा कर लेते हैं, मगर ज्यादातर नहीं पूछते। कमोबेश यही हाल राजमार्गों के ढाबों पर होता है। ये तस्वीर आम हिन्दुस्तान की है। यहां जातिवाद की गंद क्यों नज़र नहीं आती?

मोहल्ला में ये जो हमारा कूड़ेदान है में दिलीप जी ने मेरी टिप्पणी को पोस्ट का मूल आधार बनाया है। दिलीपभाई भी मेरे उन गिने-चुने मित्रों में हैं जिनसे बौद्धिक ऊर्जा ग्रहण करने का सुख मिलता है। एक दलित पत्रकार की तलाश वाली पोस्ट पर मैने उक्त टिप्पणी की थी । कुछ बातें अंतर्विरोध जैसी लगी थी इसीलिए वह प्रतिक्रिया जन्मी।

सबसे पहले अरविंद शेष की बात । अरविंदजी मेरे सामने जब सच आया ही नहीं तो उसका स्वाद कैसे बता सकता हूं? मुहावरे में सच का स्वाद कड़वा बताया गया है मगर सच का स्वाद मैने हमेशा मधुर ही पाया है। वादी -प्रतिवादी के झमेले में पड़ूं तो यह स्वाद सापेक्ष होगा।

दिलीप जी , आप स्वयं कह रहे हैं कि शहरों की स्थिति अलग है । उनियाल जी की जिस कालजयी रिपोर्ट का आप हवाला दे रहे हैं उनमें प्रेस क्लब की लिस्ट की बात कही गई है। पूरी दिल्ली की भी बात मान लें तो भी बात तो शहर पर ही सिमट गई। सर्वे के नाम से जाहिर हो रहा है कि शायद यह अंग्रेजी में है । मैं अनुमान लगा रहा हूं कि इसमें ज्यादातर अंग्रेजी के पत्रकार ही होगे। अंग्रेजी में हो सकता है पिछड़े ,दलित पत्रकार न हों या कम हों तब, मगर अब तो हैं। जहां तक हिन्दी पत्रकारिता का सवाल है यहां तो शर्तिया हैं। मेरे इर्द-गिर्द हैं। प्रकाशन केंद्र तो शहरों में ही हैं न..... तो अनुभव शहरों से ही आएंगे। पूर्वी भारत की तुलना में मध्यप्रदेश में हमें अपने आसपास वैसे अमानवीय जातीय जुमले सुनाई नहीं पड़ते जिनसे कहानियां बनती हैं। दीप्ति भी शायद यही कहना चाहती है।
मेरा ऐतराज अनावश्यक तौर पर ब्राह्मणों को कोसने पर है। मुझे जो कहना था मैं कौन हूं, शर्मा या वडनेरकर पोस्ट में कह चुका हूं। मैने कभी खुद को ब्राह्मण जाहिर नहीं किया और न ही गर्व करने लायक कुछ नज़र आता है। मैं जहां हूं उसमें एकमात्र आधार योग्यता है। अलबत्ता जातिवादी समाज में जब मुझे खुद को गैर ब्राह्मण समझे जाने के संकेत मिलते हैं तो मज़ा आता है। मैने अभी तक जातिसूचक कालम में हिन्दू ही लिखा है। ब्राह्मणों के अत्याचारों पर बात कर कई बार सजातीय सहकर्मियों या संबंधियों की नाराजगी भी मोल ली है। इस पूरे आलेख में मैने सिर्फ अपनी बात कही है , आपकी किसी पोस्ट से असहमति नहीं जताई है । प्रभु ने जब भी चाहा है , भले काम हमारे हाथों हुए हैं।

आज चंदूभाई से फोन प्रसंगवश इस विषय पर चर्चा हुई। उन्होंने आपके मुद्दों का समर्थन किया मगर यह भी कहा कि दरअसल आलोचना किसी भी वर्ग के ताकतवर पक्ष की हो रही होती है मगर उससे नुकसान सबसे ज्यादा कमजोर पक्ष का होता है। कमजोर यानी वह वर्ग जहां से दीप्ति और मेरे जैसे लोग आते हैं। हमारे ब्राह्मण संस्कारों के बीज रूप में कहीं यह नही रोपा गया कि अवर्णों से घ्रणा करना है। छुआछूत बरतना है वगैरह। ब्राह्मण हूं, पर शर्म नहीं । जैसा मेरे संस्कारों ने बनाया वैसा हूं। अपने होने से किसी को लजाया नहीं है। कहां कितने दलित हैं,कहां कितने मुसलमान है जैसी अजायबघर टाइप की सोच से हटते हुए एकमात्र विकल्प शिक्षा को ही मानता हूं इन तमाम बुराइयों को मिटाने का। जागरुकता बढ़ेगी तो सदियों पुरानी चीजें अपने आप खत्म होंगी। हो रही है।

8 कमेंट्स:

Sanjay Karere said...

मैं इस बात का पूरा समर्थन करता हूं कि यहां मध्‍यप्रदेश में वैसे जातिवादी ताने कभी नहीं सुनाई देते जिन्‍हें अगले दिन सुर्खियों में शामिल करने की विवशता होती है. लेकिन पत्रकारों में दलितों की तलाश के बारे में जो कुछ कहा जा रहा है उससे सहमत नहीं हूं. मैने ऐसे कई लोगों के साथ काम किया है जिन्‍हें दलित कहा जाता है.
आज से पहले कभी आवश्‍यकता नहीं पड़ी इसलिए आज याद करना पड़ रहा है और लिस्‍ट बहुत लंबी होती जा रही है. लेकिन मुझे यह देख कर हैरानी भी होती है कि जो लोग खुद को जात-पात से ऊपर होने का प्रदर्शन करते हैं उन्‍होंने अभी तक अपने नाम के आगे से जाति सूचक शब्‍दों को हटाने का दुस्‍साहस नहीं दिखाया है.
आपकी यह बात बिल्‍कुल सही है बड़े भाई कि यह अजायबघर टाइप मानसिकता है और केवल शिक्षा से ही यह असमानता समाप्‍त होगी. अंतिम बात यह कि मैं न ब्राह्मण हूं न दलित, जब भी लिखवाया गया तो हिंदू लिखा, भारतीय लिखा. अब तक इससे ज्‍यादा जानने की जरूरत न कभी पड़ी है न आगे पड़ेगी. फिर भी यदि कोई मुझसे जानना चाहता है तो उनके लिए मैं कल्‍लू चमार हूं... पेशे से पत्रकार हूं... :)

दिनेशराय द्विवेदी said...

अजित जी। सच न छुपता है और न समाप्त होता है। आप ने जो बात कही उस की आवश्यता नहीं थी। हम जानते हैं कि जाति को लेकर भेद अभी कायम हैं। लेकिन न्ए भेद भी उत्पन्न हुए हैं। हम उन असमानताओं के विरुद्द मोर्चा भी लगाते हैं। लेकिन हम क्यों छुपाएं अपनी पहचान। अनेक ऐसी जातियों के मैं सम्पर्क में हूँ जो ब्राह्मण न होते हुए भी शर्मा उपनाम का प्रयोग कर रही हैं। अनेक ऐसों से ब्राह्मणों से भी जो खुद के लिए अनुसूचित जाति का प्रमाण पत्र प्राप्त करना चाहते हैं। यह कौनसी मानसिकता है जो खुद के लिये अजायबघर में स्थान ढूंढती है। मुझे जो संस्कार प्राप्त हुए हैं वे तो ये हैं कि एक बुजुर्ग ने बहस करते हुए किसी बात का जवाब न बन पड़ने पर जब मुझ से यह कहा कि तुम तो कम्युनिस्ट हो गए हो (तब यह शब्द गाली के रुप में इस्तेमाल किया गया था) और जवाब में मैं ने यह कहा कि मैं कम्युनिस्ट हो गया हूँ तो क्या मेरी बात का उत्तर आप नहीं देंगे? तो मेरे पिता जी ने मुझे अकेले में इस बात के लिये डांट लगाई थी कि जो तुम हो नहीं कहते क्यों हो।
तब मैं ने जानने का प्रयत्न किया था कि कम्युनिस्ट क्या होता है।
हम अपनी पहचान क्यों छुपाएँ? उस से कितना ही नुकसान क्यों न होता हो।

दिलीप मंडल said...

अजित जी, शायद ये मेरे लिखे का ही दोष है कि ब्राह्मणवाद के विरोध से किसी खास जाति के विरोध का स्वर आता है। ब्राह्मणवादी होने के लिए ब्राह्मण होने की जरूरत कहां है? जातिवाद का सबसे विकृत रूप जो हमें दिखता है, वो ज्यादातर मझौली जातियों से जुड़ी कहानियां है।

लेकिन मीडिया का ब्राह्मणवाद अभी तक सवर्ण परिघटना है। आज रात आपके लिए एक और पहलू लाने की तैयारी में हूं। आज के नवभारत टाइम्स के संपादकीय पेज पर मेरा मुख्य लेख पढ़िए।

नीरज गोस्वामी said...

मैने कभी खुद को ब्राह्मण जाहिर नहीं किया और न ही गर्व करने लायक कुछ नज़र आता है। मैं जहां हूं उसमें एकमात्र आधार योग्यता है।"
अजीत जी
आप ने बहुत सार गर्भित पोस्ट लिखी है....इंसान का विभाजन होना ही नहीं चाहिए चाहे आधार कोई भी हो जाती धर्म या वर्ण...क्यों हमने आपने आप को इतने खानों में बाँट रखा है समझ नहीं आता...और फ़िर ये खाने में पड़े लोग जब एक दूजे से लड़ते हैं हैं तो इंसान और जानवर का भेद लुप्त हो जाता है दोनों एक समान ही लगने लगते हैं...मैं आप की सोच से 100% सहमत हूँ...
नीरज

Sanjeet Tripathi said...

सहमत-सहमत!!
ब्राह्मण होने पर आज गर्व करने लायक मुझे भी कुछ नही दिखता।

पंकज सुबीर said...

मैं शत प्रतिशत ही सहमत हूं वास्‍तव में तो हम सभी मानव हैं और किसी का कोई समाज या धर्म का होना उसको महान नहीं बनाता है ।

Tarun said...

आशा है कुछ सालों बाद आपकी ऐसी किसी पोस्ट का शीर्षक हो - जात ना पूछो इंडियन की

Asha Joglekar said...

पढने लिखने को जिन्होने पेशा बनाया है उन सबकी
जात एक ही है उपनाम चाहे कुछ ही क्यूं न हो । असल में हमारी सरकार ही नही चाहती की जातिभेद मिटे तभी तो हर फॉर्म में हमसे जाति और धर्म पूछती रहती है । ऐसा करे भी कैसे जाति के नाम पर राजनीति कर लोगों को बरगलाने का मौका जो नही मिलेगा। जाति में गर्व करने जैसा कुठ है भी नही जिसमें हमारा योगदान शून्य है । मेरे कई दलित मित्र हैं जो सवर्णों से किसी तरह कम नहीं है,और मेहनत से अपना मुकाम हासिल करने में विशवास रखते हैं ।

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