नौबत वैसे अरबी ज़बान के नौबा या नौबः (नौबाह) से बना है जिसमें बारी, अवसर जैसे ही भाव थे मगर बाद में इसमें ईश्वर की आऱाधना (बारंबार), धार्मिक कर्तव्यों का पालन करना जैसे भाव भी शामिल हो गए। नौबा के जन्मसूत्र अरबी के नाब से जुड़े हैं जिसमें सूचना देना, बताना जैसी अर्थवत्ता है । इस रूप में समय का बोध कराने के नियत समय पर लिए नक्कारा बजाया जाता था जिसे नौबत कहा जाने लगा। आमतौर पर यह परंपरा ईश्वरआराधना के लिए सावधान करने के लिए थी मगर ऐसा लगता है कि राज्यसत्ता ने बाद में इसे अपना लिया। फिर समाज के प्रभावशाली व्यक्ति अपने घर के दरवाजे पर किसी भी किस्म की सूचना करने के लिए नौबत बजवाने लगे और बजानेवाला नौबती या नौबतचीं कहलाने लगा। नौबतची का एक मतलब पहरेदार भी हो गया। इस किस्म के उल्लेख इतिहास, साहित्य में खूब मिलते हैं।
( इस पड़ाव का बेहतर आनंद लेने के लिए देखें सफर की यह कड़ी प्रहरी का जो हिन्दी में अर्थ है वही है नौबती का भी है)
इन भावों का अर्थ विस्तार हुआ और भक्ति संगीत के अर्थ में भी नौबः शब्द प्रचलित हो गया। इस्लामी दौर में नौबः विशुद्ध शास्त्रीय संगीत के अर्थ में ढल गया और दरबारी मनोरंजन के तौर पर इसे लिया जाने लगा। बादशाहों के दौर में नक्कारखाना जहां मुनादी करने की जगह थी वहीं नौबतखाना संगीतशाला थी। यूं नक्कारखाना और नौबतखाना एक ही जगह होते थे और प्रायः यह जगह राजभवन या महल के मुख्यद्वार के पास ही होती थीं ताकि यहां की आवाजें महल और आम जनता दोनों को सुनाई पड़ें। नक्कारखाने में जहां सिर्फ नगाड़ा बजाया जाता वहीं नौबतखाने में नौ तरह के वाद्य बजाए जाते जिनमें शहनाई सबसे प्रमुख था । इसके अलावा नक्कारा, तासा, रबाब, सितार, सारंगी, दिलरुबा, तानपूरा, संतूर आदि भी थे।
नौबतखाने को आमतौर पर संगीतशाला कहना सही होगा जहां लोकरंजन वाले वाद्य यंत्र तो होते ही थे मगर युद्ध के मौके पर बजाए जानेवाले वाद्यों को भी रखा जाता था। भारत के रजवाड़ों में भी इस्लामी दौर में नौबतखानों की परंपरा शुरू हो गई और प्रायः सभी राजघरानों के भव्य प्रासादों में नौबतखाने बनने लगे जहां प्रतिदिन शहनाई की मंगलध्वनि होती थी जिसके साथ नगाड़े का घोष लोगों को दैनंदिन के कामकाज की याद दिलाने के लिए काफी था। ईश्वरभक्ति से जुड़ी नौबः या नौबत की परंपरा को मनुश्य ने अपने प्रभामंडल को बढ़ाने तक सीमित कर दिया । मगर भारत में अरबी मूल की यह परंपरा फिर चल पड़ी । देश भर में राजाओं-महाराजाओं द्वारा बनवाए जितने भी प्रसिद्ध मंदिर हैं उनके परिसर में नौबतखाना ज़रूर मिलेगा जहां पूजा अर्चना के समय शहनाई और नगाड़ा बजाने की परंपरा आज भी है।
जयपुर के पास डिग्गी कस्बे में कल्याणजी का प्राचीन मंदिर बहुत प्रसिद्ध है । यहां के वार्षिक मेले में श्रद्धालु गाते हुए चलते हैं - ‘बाजै छे नौबत-बाजा म्हारा डिग्गीपुरी का राजा’ यहां नौबत शब्द का मतलब नगाड़े और शहनाई की ध्वनि से ही है।
पारंपरिक अरबी शास्त्रीय संगीत का एक खूबसूरत नमूना सुनिये। शायद शाही नौबतखाने के नौ वाद्यों में से कुछ की आवाजें इसमें हों। और कुछ न सही मगर ताल वाद्यों की बीट्स तो आनंदित करने वाली हैं।
कैसी लगी ये कड़ी, ज़रूर बताइयेगा। अगले पड़ाव पर फिर मिलते हैं शब्द और सुर के मेल सहित
10 कमेंट्स:
ये भी बहुत उपयोगी.
उपयोगी जानकारी के लिए धन्यवाद सहित बधाईा
नक्कारा कालान्तर में नकारा भी बना कि नहीं। या भविष्य़ में बनेगा?
बाराँ में भी कल्याणराय जी का मंदिर है जिसे राजकीय सहायता भी प्राप्त है। उस का नौबत खाना हमारे घर में मेरे कमरे से सिर्फ 15 फुट की दूरी पर है। यह मंदिर के मुख्य द्वार के ठीक ऊपर स्थित है। यहां सुबह मंगला आरती, दोपहर 12 बजे विश्राम, 3 बजे जागरण और संध्या आरती के समय नौबत आज भी बजती है। जब तक बारां रहे तब तक हमारी दैनिकचर्या के अनेक काम इसी नौबत बजने के समय से निर्धारित होते थे। आज भी लगता है उस पूरे इलाके की चर्या इन्हीं नौबतों से निर्धारित है।
प्रिय भाई!
हमारी स्मृति में 'बाजै ...' लोकगीत में पहली पंक्ति में 'नौबत बाजा' है . देखिएगा .
प्रियंकर जी, एकदम ग़लती की तरफ ध्यान दिलाने के लिए आभारी हूं। अब ठीक कर लिया है।
उपयोगी जानकारी!
प्रसिद्ध उपन्यासकार विमल मित्र नें अपने उपन्यास "बेगम मेरी विश्वास" में नौबतखाने का बढ़िया वर्णन किया है।
वाह अजीत जी अब कक्षा में संगीत भी बजेगा क्या बात है , बहुत ही खूब जानकारी दे रहे हैं आप …।धन्यवाद
अब संगीत भी... मधुर :)
वाह, अरबी शास्त्रीय संगीत सुन कर आनंद आ गया।
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