Sunday, February 24, 2008

तंदूर में है अल्लाह का नूर...

न्सान के मन में जब अनाज को सीधे ही आग पर भून कर खाने की जगह उसे पीस कर, भिगो कर खाने की सूझ आई तो उसने इसे पकाने की भी शैली विकसित की । इसके लिए ज़रूरी था आग को नियंत्रित किया जाए। उसने सबसे आदिम उपकरण पत्थर से ही इसकी तरकीब ईज़ाद की। पहले अग्नि को तीन ओर से पत्थर से घेर कर चूल्हा बनाया और भूनने की विधि सुगम हो गई नतीजे में भूनी हुई चीज़ लज्ज़तदार हो गई। बाद में कई तरह की ईजाद सामने आईं। इनमें ही एक था तंदूर। यह बात करीब साढ़े तीन हज़ार साल से भी ज्यादा साल पुरानी है।
तंदूर एक गहरी भट्टी को कहते हैं जिसकी भीतरी दीवार मिट्टी की बनी होती है। इस मिट्टी को आग में तपाया जाता है और फिर इसकी दीवारों पर रोटी थापी जाती है जो पकने पर अनोखा सौंधा-सौंधा स्वाद देती है जिसे तंदूरी रोटी कहते हैं। तंदूर के भीतर करीब चार सौ डिग्री सेंटीग्रेड तापमान होता है जिसके ज़रिये यह घंटों तक गर्म रह सकता है। ईरानी, पाकिस्तानी और हिन्दुस्तानी ये तीन खास ज़ायके हैं तंदूर पर पकने वाले लज़ीज़ खाने के। दुनिया का सबसे पुराना तंदूर हड़प्पा-मोहनजोदड़ो सभ्यता के दौर में पनपा था।
उर्दू-फारसी के ज़रिये हिन्दी समेत दुनियाभर में मशहूर तंदूर मूलतः सेमिटिक भाषा परिवार (अरबी, हिब्रू, आदि) का शब्द
है । इसका अरबी रूप है तनूर या तन्नूर । फ़ारसी में यह तंदूर हुआ। तनूर बना है मूल सेमिटिक धातु न्रू से जिसमें चमक, रोशनी, उजाले का भाव उजागर होता है। इससे ही बना हिब्रू का नार शब्द जिसका मतलब हुआ अग्नि। यही न्रू अरबी में नूर बनकर प्रकट हुआ । नूर शब्द हिन्दी के लिए अपरिचित नहीं है। नूर यानी प्रकाश, चमक , रोशनी। इसी नूर में उपसर्ग लगने से बना तनूर
जिसका मतलब हुआ रोटी पकाने का चूल्हा या भट्टी। इराक के कुछ हिस्सों में यह तिन्नुरू है तो अज़रबैजान में तंदिर। आर्मीनिया में इसका रूप है तोनीर वहीं जार्जिया में है तोन


उल्टा तंदूर है मीनार


न्रू धातु में समाहित प्रकाश वाले भाव से ही बना हिब्रू में मनोरा अर्थात चिराग़, लैम्प। अरबी में इसका रूप हुआ मनारा । बाद में मनारा शब्द ने मीनार का रूप भी लिया यानी प्रकाश स्तंभ। मस्जिदों के स्तंभ भी मीनार कहलाने लगे क्योंकि यहां से लोगों को जगाने का काम किया जाता था, सद्वचनों का प्रकाश यही से प्रसारित होता था।
दिलचस्प ये कि अगर गौर करें तो पता चलता है तंदूर जहां रोशनी (आग) का कुआँ है वहीं मीनार रोशनी का स्तंभ है। पुराने जमाने के लाईट हाऊस में सबसे ऊपरी मंजिल पर आग ही जलाई जाती थी।

आपकी चिट्ठियां -

सफर के पिछले पड़ाव, आइये सफर मे सोग मना लें पर खूब सी टिप्पणियां मिलीं। सभी के तेवर या तो समझाइश के थे या उलाहने के। इनमें हैं सर्वश्री संजय, लावण्यम अंतर्मन, अनूप शुक्ल, प्रमोदसिंह, उड़नतश्तरी, आशीष ,मीनाक्षी, माला तैलंग, बालकिशन, ममता, संजीत त्रिपाठी, पंकज अवधिया, दिनेशराय द्विवेदी और जोशिम-मनीष । आप सबका आभार कि आप सब सफर से जुड़े हुए हैं और जुड़े रहना चाहते हैं।

श्रीमान प्रमोदसिंह की जो टिप्पणी ब्लाग पर दर्ज है उससे अलहदा एक चिट्ठी उन्होनें मुझे मेल पर भेजी है जो मुझे बहुत पसंद आई। चिट्ठी क्या है , फटकार है। मगर क्या करें, अपन ढीट हैं और फटकार मे आनंद लेते हैं। आप भी लीजिये
प्रमोदी फटकार का आनंद।

महाराज,
कितने पढ़वैया आते हैं, या टिप्‍पणियां- इसके आसरे आप ब्‍लॉग चलाइयेगा ? और अपने को फिर सफरी कहलवाइयेगा?
माई-बाबू के अंकवार में रहते हैं फिर भी आपको नेह का अइसा अकाल है?
अच्‍छा बात नहीं है..
प्रमोद

( हुजूर, आप कृपा बनाए रखें। आप सही कहते हैं , हमें सचमुच नेह का अकाल नहीं है। आप ऐसे ही 'बरसते' रहें - अजित)

9 कमेंट्स:

Sanjay Karere said...

अब ठीक है. शब्‍दों के तंदूर की आंच तेज करते रहिए और नई नई पोस्‍ट पकाते रहिए..... खाने वाले आते रहेंगे.

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

ज्ञान भी नूर ही तो है -
- इसी तरह खोज बीन जारी रहे
...सफर भी चलता रहे इसी सद्भाव सहित,

लावण्या

दिनेशराय द्विवेदी said...

सेमेटिक की धातु न्रू पसंद आई। संस्कृत के तेज की समानार्थक लगती है।

Sanjeet Tripathi said...

बढ़िया जानकारी
तंदूर से पहले तो सिर्फ़ तंदूरी रोटी याद आती थी और अब तंदूर कांड भी।

मीनाक्षी said...

हमें तो सिर्फ तन्दूरी रोटी याद आ रही है... कितने सालों हमने उसी रोटी के सहारे 25-25 मेहमान भुगता दिए और तब याद आती अपने देश की गृहिणी जो 30-40 रोटियाँ एक ही बार में पकाती और उफ न करती.

Anita kumar said...

तंदूर शब्द इतने शब्दों से जुड़ा है पता नहीं था, जान कारी के लिए धन्यवाद

mamta said...

चलिए आप अपने मूड मे वापस आ गए। तंदूर मे अल्लाह का नूर छिपा है ये तो हम जानते ही नही थे।

रवीन्द्र प्रभात said...

बहुत बढिया जानकारी, बहुत सुंदर !

अनूप शुक्ल said...

अच्छा तंदूर चढ़ाया!

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