ब्लाग दुनिया में एक खास बात पर मैने गौर किया है। ज्यादातर ब्लागरों ने अपने प्रोफाइल पेज पर खुद के बारे में बहुत संक्षिप्त सी जानकारी दे रखी है। इसे देखते हुए मैं सफर पर एक पहल कर रहा हूं।
शब्दों के सफर के हम जितने भी नियमित सहयात्री हैं, आइये , जानते हैं कुछ अलग सा एक दूसरे के बारे में। अब तक इस श्रंखला में आप अनिताकुमार, विमल वर्मा , लावण्या शाह, काकेश ,मीनाक्षी धन्वन्तरि और शिवकुमार मिश्र को पढ़ चुके हैं। इस बार मिलते हैं अफ़लातून से । अफ़लातूनजी जाने माने सामाजिक कार्यकर्ता हैं, अध्येता हैं। वे महात्मा गांधी के निजी सचिव रहे महादेवभाई देसाई के पौत्र है। यह तथ्य सिर्फ उनके परिवेश और संस्कारों की जानकारी के लिए है। बनारस में रचे बसे हैं मगर विरासत में अपने पूरे कुनबे में समूचा हिन्दुस्तान समेट रखा है। ब्लाग दुनिया की वे नामचीन हस्ती हैं और एक साथ चार ब्लाग Anti MNC Forum शैशव समाजवादी जनपरिषद और यही है वो जगह भी चलाते हैं। आइये जानते हैं उनके बारे में कुछ अनकही बातें जो उन्होनें हम सबके लिए लिख भेजी हैं बकलमखुद के इस सातवें पड़ाव के लिए ।
सखा समाना,मेरे नाना
आपातकाल में जेल में उन्हें लकवा मार गया । पेरोल के कागज पर अपने दस्तख़त करने में १५ - २० मिनट लग गए ।
जेपी से उम्र में बड़े और कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना के समय से उनके साथी । लकवे का असर आँखों पर भी पड़ा था । बनारस के एक नेत्र विशेषज्ञ ने पूछा क्या कभी सिगरेट पीते थे ? उन्होंने जवाब दिया , ' नेहरू के मायावी प्रभाव में सात बरस सिगरेट पीता था । तब वे ओड़ीशा के मुख्यमन्त्री थे । दूसरे कार्यकाल में इस्तीफ़ा दे कर विनोबा के साथ भूदान आन्दोलन में शामिल हुए। ओड़िशा में जमीन्दारी उन्मूलन कानून बनाने और उसे लागू करने में उनकी भूमिका रही । विनोबा की पदयात्रा में काश्मीर के पीर पंजाल और नागालैंड के किस्से उनसे सुने थे । इस्तीफा दे कर बस से अपनी पत्नी के आश्रम पहुँचे । आश्रम यानी बाजी राउत छात्रावास - आदिवासी- दलित लड़के-लड़कियों के लिए छात्रावास । यह अनुगुल में आज भी चल रहा है । नागालैण्ड का पारम्परिक लोक स्वराज्य और प्राकृतिक छटा इतनी ख़ूबसूरत लगी कि खुशी में धूम्रपान छोड़ दिया । १९६७ में कांग्रेस के खिलाफ़ विपक्ष एकजुट हो इसकी ओड़ीशा में पहल उन्होंने की । मार्क्स , गांधी और माओ का गहन अध्ययन था ।
- यह थे मेरे अत्यन्त प्रिय दोस्त जैसे नाना , नबकृष्ण चौधरी । माँ की तबीयत खराब हो और वह अस्पताल में भरती हो तब देखभाल के लिए आ जाते । जा्ड़े के दिनों में गरम पानी से हमारे पाँव धुलवा कर , वेसलीन लगा कर तब सोने भेजते । पक्षी देखने और उनके बारे में अध्ययन में गहरी रुचि थी। मुझे जेल से लिखे (इमरजेन्सी में) उनके अन्तर्देशीय पत्र अत्यन्त बारीक अक्षरों में होते। [पूर्वी बंगाल में एक पदयात्रा के दौरान बापू के साथ नानी मालतीदेवी चौधरी]
मेरी बा की सीख
१९७७ से '८४ मैं सिगरेट - बीड़ी पीता था । कोलकाता में आदत पकड़ी थी । एक बार बा ने मुँह की दुर्गन्ध सूँघ कर कहा , ' क्यों, बीड़ी पी कर आए हो ?' मैं झूट बोला , ' नहीं पी' । बा बोली , 'सिगरेट पीना नुकसानदेह है लेकिन उससे ज्यादा नुकसान झूट बोलने से होता है ।' नाना कहते , ' समाजवादी आम आदमी से तादात्म्य बनाने के नाम पर बीड़ी-तम्बाकू पीते हैं ।' बहरहाल , ८४ में अपनी बिटिया पर धुँए का प्रभाव न पड़े इसलिए धूम्रपान छोड़ दिया । सूर्ती (तम्बाकू) मात्र ६ माह पहले , हृदय रोग विशेषज्ञ के टोकने पर छोड़ी । नानी ( मालती देवी चौधरी ) के बारे में कुछ दिन पूर्व एक पोस्ट लिखी थी , जरूर पढ़िएगा । शान्ति निकेतन में विद्यार्थी के रूप में नाना - नानी मिले थे , दोस्ती और शादी हुई थी । माँ-बाप की दोस्ती सेवाग्राम के खादी विद्यालय के छात्र - छात्रा के रूप में हुई थी। बा (उत्तरा) पिताजी की तरह लगातार दौरा नहीं करती थी । गुजराती से ओड़िया की वह एक अच्छी अनुवादक थी । साहित्य अकादमी आदि द्वारा पुरस्कृत कई किताबों के अनुवाद उसने किए हैं ।
मेरा बड़ा परिवार
१९८२ से एक बड़े परिवार का हिस्सा हूँ - हमारा संगठन । समता संगठन जो अन्य समूहों के साथ मिल कर १९९१ में समाजवादी जनपरिषद बना । इस बड़े परिवार से जुड़े प्रसंग भी आप सुनना चाहेंगे , मुझे पूरा भरोसा है । अजितजी के चिट्ठे पर एक प्रसंग सुना कर शुरुआत कर रहा हूँ । अपने चिट्ठों पर सुनाता रहूँगा । मुम्बई - इलाहाबाद रेल मार्ग का बड़ा जंक्शन है - इटारसी । मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले का एक शहर । इटारसी से १८ किलोमीटर दूर केसला ब्लॉक मुख्यालय । यह आदिवासी ब्लॉक है । तीन बड़ी परियोजनाएं इस ब्लॉक में चल रही हैं । नर्मदा की सहायक तवा नदी पर बना बड़ा बाँध । बम-गोले बनाने वाली ऑर्डिनेन्स फैक्टरी और इन्हीं बम गोलों को परखने के लिए दर्जनों गाँवों को खाली करा कर बना प्रूफ रेन्ज । तीनों परियोजनाओं से आदिवासी उजाड़े गए । उजाड़े हुए परिवारों यदि पुनर्वास के नाम जमीन के पट्टे मिले तो उन पर अंकित नम्बर की जमीन का अता-पता नहीं है । जो किसी जमीन के टुकड़े पर काबिज हो पाए उन्हें उसका पट्टा नहीं मिला, गाँव के मजबूत लोगों द्वारा बेदखल किए जाने का भौ बना रहता । बाँध से इकट्ठा जल जब हटता है उस जमीन पर खेती करने पर भी लगान वसूली जाती - डूब की लगान । उनके खेत भले ही जलमग्न हुए हों । इस ब्लॉक के विस्थापित आदिवासियों को संगठित करने के काम में पहल की इटारसी के समाजवादी युवा राजनारायण और ज.ने.विश्वविद्यालय के एम.ए और एम.फिल अर्थशास्त्र के सर्वोच्च स्थान पाने वाले सुनील ने। [बड़ी बहन की गोद में अफ़लातून]
गोला गट्टू का कहर
शुरुआत में करीब ढाई हजार आदिवासी १५० किलोमी्टर पैदल चल कर भोपाल पहुँचे और मुख्यमन्त्री मोतीलाल वोरा के ड्राइंग रूम में भर गये । पीने के पानी और सिंचाई के लिए छोते बाँध की माँगें मन्जूर हुईं । आदिवासी गाँव मोरपानी में सरकारी विद्यालय का शिक्षक नहीं आता था इसके विरुद्ध महीनों राजनारायण और सुनील ने जेल काटी । उन्हें हथकड़ियाँ पहनाने को सर्वोच्च न्यायालय ने गलत माना और इस सन्दर्भ में भविष्य के लिए निर्देश जारी किए । प्रूफ रेन्ज जहाँ (जहाँ गोलों को दाग कर , उनकी जाँच की जाती है) के आस-पास के उजाड़े हुए ग्रामीण इन बम-गोलों की फूटे हुए धातु के टुकड़े बीनते हैम ,पीतल और लोहे के टुकड़े ।कई बार बिना फूटे हुए 'गोला गट्टू' बीनते वक्त फूट जाते हैं जिसके परिणामस्वरूप बीनने वाले ब्यक्ति के हाथ-पाँव उड़ने
के अलावा मौत भी हो जाती है । केसला ब्लॉक मुख्यालय से चार पाँच किलोमीतर पैदल चल आप छिन्दापानी गाँव पहुँचते हैं । इस गाँव के आधे अधिक पुरुषों के हाथ या पाँव गोला - गट्टू बीनने में उड़ गए हैं । बीने गए धातु के टुकड़ों को शहर से आए व्यापारी खरीद ले जाते हैं । छिन्दापानी गाँव के सरवनदादा मुझे अपने गाँव ले गए थे । अत्यन्त कम बोलने वाले लेकिन हर कार्यक्रम में मौजूद रहने वाले सरवनदादा । विकास की अवधारणा की बाबत समझदारी होशंगाबाद जिले के किसान आदिवासियों संघर्ष से जुड़ कर बनी। मुझे फख्र है कि इस बड़े परिवार का मै सदस्य हूँ । इस क्षेत्र में रचना और संघर्ष का जो अद्भुत सामंजस्य रहा है , उसकी चर्चा होती रहेगी ।
शुभाशीष
चिट्ठेकारी की बाबत मेरी उम्मीद मिली जुली रही है । अजित प्रेरित इस श्रृंखला में पाठकों ने रुचि ली । अभय तिवारी द्वारा 'शब्दों का सफ़र' से सुन्दर परिचय कराया गया था । अजित इस सफ़र में वाहन बदलते हुए बहुत आगे निकल गए हैं । बधाई । [समाप्त ]
आपकी चिट्ठियां
अफ़लातून की इस अनकही की पांच कड़ियों पर करीब पचास साथियों की 97 टिप्पणियां मिलीं। इस छठी कड़ी पर मिलने वाली प्रतिक्रियाएं इसमें शामिल नहीं है। इस तरह इस श्रंखला के इस सातवें पड़ाव पर मिलने वाली टिप्पणियों का आंकड़ा सौ पार कर जाएगा। अब तक जो प्रतिक्रियाएं मिली हैं उनमें सर्वश्री मैथिली , आलोक , दिनेशराय द्विवेदी, समीर लाल, अनूप शुक्ल, लावण्या शाह, संजय बैंगाणी, अरूण, काकेश, संजीत ,नीरज गोस्वामी, घुघूति बासूती, चंद्रभूषण, विजयशंकर चतुर्वेदी, सुऱेश अवस्थी, डॉ चंद्रकुमार जैन, अनिताकुमार, बेजी, नीलिमा सुखीजा अरोरा, घोस्ट बस्टर , हर्षवर्धन, विमल वर्मा, नचिकेता ,रख्शांदा, पीएनएन, प्रियंकर , यूनुस, रचना, अभिषेक ओझा, सुरेशचंद्र गुप्ता , अफ़लातून, ममता , अजित वड़नेरकर, अरविंद मिश्र, अतुल , मनीष , लवली कुमारी ,गरिमा,राज भाटिया,और राजेश रोशन हैं। आप सबका आभार ।
Friday, May 9, 2008
नेहरू के मायावी प्रभाव में धूम्रपान !!! [बकलमखुद-31]
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23 कमेंट्स:
अजित जी; आपको अनेकों धन्यवाद जो आपने ये श्रंखला चलाई.
अफलातून जी को जितना जाना, ब्लॉगजगत में उन की कृतियों से ही जाना। उन के बकलमखुद की सातों कड़ियाँ भी पढ़ीं। पटल पर उन का चित्र बना उस में स्थिरता नहीं, उसे पकड़, स्थिर करने का यत्न करता हूँ, लेकिन हर बार गायब हो जाता है। नया बनता है,लेकिन वह भी अस्थिर। कल जो टिप्पणी डायरी के पन्ने पढ़कर अनायास हुई थी, उस में मेरा कोई सायास प्रयास नहीं था। वह एक सामान्य पाठक की सहज टिप्पणी थी। टिप्पणी हो जाने के बाद यह विचार भी उपजा कि इस का प्रभाव क्या जाएगा? थोड़े अंतराल के बाद उसे हटाने के लिए फिर ब्लॉग पर आया। तब तक वह मोडरेट हो चुकी थी, और उस पर अफलातून जी की टिप्पणी आ चुकी थी।
आज सातों कड़ियाँ फिर पढ़ीं। लेकिन प्रभाव में कोई बड़ी भिन्नता नहीं। ऐसा क्यों है? इस पर सोच रहा हूँ। अफलातून जी या अन्य कोई साथी इस का उत्तर खोज पाएं तो जरुर बताएँ।
अफलातून जी से एक ही बार मुलाकात हुई है. हिन्दी ब्लॉगर मीटिंग में. वहा जिन दो लोगो के व्यवहार ने मुझे प्रभावित किया उनमे से अफलातून जी एक हैं. जितना वहा समझा और उनके साथ होने वाली कभी कभार इंटरनेट की चत्तिंग से भी जायदा प्रभावशाली सख्स हैं. अजित जी आपका विशेष रूप से धन्यवाद, जो आपने यह कड़ी की शुरुआत की. बहुत ही सुंदर.
Rajesh Roshan
आनन्द आ रहा है इस श्रृंखला में. आपको बहुत बधाई अजीत भाई और शुभकामनायें. बहुत उत्कृष्ट कार्य कर रहे हैं. सदियों दर्ज रहेगी यह बातें. बहुत बधाई.
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आप हिन्दी में लिखते हैं. अच्छा लगता है. मेरी शुभकामनाऐं आपके साथ हैं इस निवेदन के साथ कि नये लोगों को जोड़ें, पुरानों को प्रोत्साहित करें-यही हिन्दी चिट्ठाजगत की सच्ची सेवा है.
एक नया हिन्दी चिट्ठा किसी नये व्यक्ति से भी शुरु करवायें और हिन्दी चिट्ठों की संख्या बढ़ाने और विविधता प्रदान करने में योगदान करें.
शुभकामनाऐं.
-समीर लाल
(उड़न तश्तरी)
माँ जैसी रचना और संघर्ष जैसे पिता की
छत्रछाया की सौगात कोई अफ़लातून ही हो सकता है.
इस श्रृंखला की कड़ियाँ इस सच्चाई का मुक़म्मल बयान हैं.
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जीवन कभी-कभी स्वयं रचा जाता है.
अक्सर होता यह है कि गाहे बगाहे
अनजाने या अनमने ढंग से वह खुद रचता जाता है.
लेकिन अपनी कहानी खुद लिखने वालों के हिस्से
फूलों की महक के साथ काँटों की कसक भी होगी.
दोनों उसकी ज़िंदगी के अहम हिस्से होते हैं.
यही वज़ह है की वह साफ़गोई से
सब कुछ कह सकता है अफ़लातून जी की तरह.
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ये कहानी कह रही है सबसे कि -
जो भी हो सूरत-ए-हालात कहो चुप न रहो
रात अगर रात है तो रात कहो चुप न रहो.
सभार शुभकामनाएँ
डा.चंद्रकुमार जैन
काफी कुछ जानने सीखने को मिला.
अजीत जी और अफ़लातून जी का आभार.
बहुत बढिया लगा सभी भाग पढ कर.. मगर मैं भी दिनेश जी की तरह उलझन में हूं..
खैनी छोडने की बधाई, मै भी कोशिश करूगा की कल दिन से सिगरेट छोड सकू :)
समाजवादी जनपरिषद के प्रसंग अच्छे लगे। आप के चिठ्ठे पर उनका इंतजार रहेगा। अफ़लातून जी के बारे में जान कर बहुत अच्छा लगा। एक अलग ही रंग है इनकी जिन्दगी का हम से और इस रंग को पहचानना अच्छा लगा। अब से नियमित जायेगें इनके ब्लोग पर्…:)
पढ़ा, बहुत कुछ जाना, कुछ समझा, कुछ सीखा भी शायद!!
शुक्रिया!
शुभकामनाएं
जनता की तरफ से एक विशेष मांग यह आई है कि कुछ बातें अफलातूनी प्रेमकहानी पर भी यहां जरूर आनी चाहिए थीं। डॉ. स्वाति का इस जगह इतने झटके से झरोखा दर्शन देकर निकल जाना देश के स्वास्थ्य के लिए अच्छा नहीं है। लिहाजा समाजवाद, साम्यवाद, राष्ट्रवाद और अन्य वादों, संवादों, विवादों, अपवादों तथा बकवादों का तकाजा है कि इस संबंध में या तो जारी कड़ी के रूप में एक पोस्ट यहीं आए, या कोटा खत्म हो गया हो तो अफलातून जी इस विषय में अपने किसी चिट्ठे पर जल्द से जल्द लिखें।
बड़ा जीवन फ़्लैशबैक में गागर में सागर की तरह 'कम्प्रेस' कर दिया जाए तो एक अस्थिर तरलता की गुंजाइश बनती है . आत्मकथा क्रोनोलॉजिकल और सुदीर्घ होती है इसलिए तारतम्य रहता है . आत्मकथ्य में चूंकि मुख्य-मुख्य बातें ही कहनी परोसनी होती हैं तो कड़ियों के बीच एक किस्म का अन्तराल आ जाना स्वाभाविक है. अतः गैप और ओवरलैपिंग इस संक्षिप्तीकरण का ही अनिवार्य लक्षण हैं . पर ध्यान तरलता पर रहे तो एक रूपरेखा और कुछ अन्तःसूत्र पकड़ में आ जाते हैं .
मुझे ऐसा लगता है . बाकी दिनेश जी की साफ़गोई के लिए मेरे मन में झूठी प्रशंसा करने वालों से ज्यादा सम्मान है . हमारे अनुभव अलग-अलग हो सकते हैं . हम एक-दूसरे की कार्बन-कॉपी या अनुकृति थोड़े ही हैं .
@ चन्द्रभूषण जी,
देश के स्वास्थ्य के लिए स्वातिजी के लिखे लेख भी समय समय पर चिट्ठे पर जरूर आयेंगे। दो चर्चित लेखों का जिक्र अभी कर रहा हूं"शिवपति की त्रासदी"(इलाहाबाद के दौना गांव की) और "नर-नारी समता और निजी कानून" । प्रतीक्षा करें।
शुक्रिया प्रियंकर जी,
दरअसल द्विवेदीजी की प्रतिक्रिया के बारे में सोच रहा था। लगभग वही विश्लेषण था जिसे और आसान तरीके से आपने लिख दिया। द्विवेदी जी गंभीर ब्लागर है, सुधी पाठक हैं । उनकी कही बात यूं ही छोड़ देने की भी नहीं थी , उसका विश्लेषण होना चाहिए था जो आपने किया ।
खैनी छोड़ दी जानकर अच्छा लगा.
अफ्लातुनजी का परिवार विभिन्न अंचलो से आये लोगो द्वारा बना है, बहुत अच्छा लगता है, देख सुन कर.
इनके स्वास्थयपूर्ण दीर्घायू की कामना करता हूँ.
अफलातून जी के बारे मे इतने विस्तार से जानने का मौका मिला। इसके लिए अजित जी आपको धन्यवाद।
कैसे कैसे सच्चे लोग हैँ आपके परिवार मेँ अफलातून जी !
उनके सँघर्षोँ की यात्रा के आप भी एक सोपान ही तो हैँ --
सारी कडियाँ पढकर , परिवार को देख, खुशी हुई.
पुरानी पीढी के सभी को मेरे सादर प्रणाम -
आपका आभार
- लावण्या
अफलातून जी को पहली बार पढ़ा.लगा जैसे ऊपर से गहरा शांत सागर लेकिन अन्दर असीम....बहुत कुछ लिए हुए जिसे जानने की उत्सुकता और होती है.
मुझे तो अफ़सोस है कि मैं इस भले लोगों की दुनिया में इतनी देर से क्यों आया? फालतू इधर-उधर भटककर समय बर्बाद करता रहा। चलिये, अब आगे से ख्याल रखूंगा। मैं तो यह सब पढ़-जानकर उपकृत हो गया। धन्यवाद।
Memoirs of Aflatoonji will indeed inspire generation X and generation D and may be the many ahead. Specially now the residents of virtual world have world wide information at their disposal and yet ironically have lost the sense of real world.
After reading all of it, I am getting just curious to know more about mr Aflatoon ( the name reminds me of the Khaleel Zibraan's chapter though).
Thanks again to ajeetji and to mr. Aflatoon
2012 mein is blog per pahunchne wale hain toh is se hamari raftaar jaan len....jnaab Aflatoon se mera parichay internet-mandi ke madhyam se hua...unke kriya-kalapon se parichaya hota gaya....per niji jeevan ki jhalak yahin per milee...Insaan shareef hain yeh toh main maan hi raha thaa , per sharaafat viraasat mein mili hai yeh nahin jaanta thaa...sneha aur badhayee..!! ajay sinha.
आभार ऐसे खास परिचय के लिए...
Aflatoon ji se bas ek baar mulakaat huyi, aamne samne, aur laga ki bas ek aur banarasi se mil raha hun... 😊
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