Friday, May 16, 2008

बेजी की दुनिया में बदलाव...[बकलमखुद-36]

ब्लाग दुनिया में एक खास बात पर मैने गौर किया है। ज्यादातर ब्लागरों ने अपने प्रोफाइल पेज पर खुद के बारे में बहुत संक्षिप्त सी जानकारी दे रखी है। इसे देखते हुए मैं सफर पर एक पहल कर रहा हूं। शब्दों के सफर के हम जितने भी नियमित सहयात्री हैं, आइये , जानते हैं कुछ अलग सा एक दूसरे के बारे में। अब तक इस श्रंखला में आप अनिताकुमार, विमल वर्मा , लावण्या शाह, काकेश ,मीनाक्षी धन्वन्तरि ,शिवकुमार मिश्र और अफ़लातून को पढ़ चुके हैं। बकलमखुद के आठवें पड़ाव और तैतीसवें सोपान पर मिलते हैं दुबई निवासी बेजी से। ब्लाग जगत में बेजी जैसन किसी परिचय की मोहताज नहीं है। उनका ब्लाग मेरी कठपुतलियां हिन्दी कविताओं के चंद बेहतरीन ब्लाग्स में एक है। वे बेहद संवेदनशील कविताएं लिखती हैं और उसी अंदाज़ में हमारे लिए लिख भेजी है अपनी वो अनकही जो अब तक सिर्फ और सिर्फ उनके दायरे में थी।

और फूलों में महक हुई तेज...

भाई के बारहवीं करने के बाद पहली बार भाई से दूर हुए। अकेलेपन का अहसास हुआ।
पहली बार किसी की नज़रों को अपने ऊपर दौड़ते महसूस किया। मन को बिना नियंत्रण उड़ते पाया। शीशे में निहारना शौक बन गया।
बिना सोचे समझे सपनों और विचार के पड़ाव आने लगे।
पढ़ाते हुए टीचर पर कभी नज़र अटक जाती, कभी उन्हे हमें देख कनफ्यूज्ड पाते। माँ की कोई बात सीधी तरह नहीं मानते। पापा से दूरी बनाने लगे। सपनो में खोना आम बात हो गई। लड़कों के सामने बदल जाते। अदायें, नजाकत....हर तरह से इम्प्रेस करने की कोशिश।
भाई इंजीनियरिंग के आरईसी कॉलेज में। वह भी बातें छिपाने लगा। रैगिंग, हौस्टेल, संघर्ष....पढाई...वह कई बातों से जूझ रहा था। एक ऐसी दुनिया में जिसके बारे में हम में से किसी को कुछ पता नहीं था। मैं चिंतित रहती। खोद खोद कर उसकी डायरी पढ़ती। खत लिखती। साथ रहती।
पर मैं तेजी से बदल रही थी। जुल्फों में हवा रुकने लगी....चुन्नी में पलने लगी....ओस की बूँद में रंग खिलने लगे....बारिश की बूँदों में नूर....बादल में सपनों की दुनिया.....हरा रंग जोश से खेतों में, फूलों में महक तेज हुई.....अपनी अंगड़ाई पर आप ही प्यार आने लगा....
अजीब अहसास थे। चूड़ियों की खनक सपनों पर दस्तक दे देती। पायल पहन मोर की तरह नाचने का जी होता।
मम्मी यह देखकर परेशान होती। जहाँ यौवन में संवरती बेटी पर नाज़ था वहीं बाकी कई चिन्ताएं सता रही थी। यह सपने कहीं बीच में ही नहीं छोड़ दें। उन्हे महसूस होने लगा था कि मैं दुनिया को कई शेड्स में देख रही हूँ। ऐसे शेड्स जो उन्हे नहीं दिख रहे थे। और जिन्हे वह देखना भी नहीं चाहती थी। उनके लिये हम सबके जीवन का एक मकसद था। मेरा ऐसे मकसद का नहीं होना उनके मकसद को खोने जैसा था।
एक द्वन्द्व उठने लगा। माँ-बेटी, अनुभव और कल्पना, सच और स्वप्न के बीच।
मैं एक साथ बहुत स्तरों पर दिशा तय कर रही थी। सही गलत का मापदण्ड, अपने जीवन साथी की छवि, आगे क्या बनना है.....। मम्मी जानती थी कि यह समय यह तय करने का नहीं बल्कि अध्ययन करने का है। बारहवीं के परिणाम में थोड़ा पिछड़ गई। मेडिकल में दाखिला हुआ पर मनचाहे कॉलेज में नहीं। खुश होने से ज्यादा मम्मी परेशान थी। जानती थी कि उन्हे मेरी बागडोर समय के ही हाथ में देनी होगी।
मेडिकल में पहुँचते पहुँचते भाई सँभल चुका था। समय की जगह मम्मी के हाथ से बागडोर उसने सँभाली। उसे सब बता सकती थी। ट्रेन की बीच की बर्थ में रात को उठकर एक आदमी को घूरते हुए देखने पर जहन में उठा डर। किसी लड़के की मुस्कुराहट पर उड़ान भरता मन। धर्म में कही गई बातों से अलग विचार।
हाथ पकड़ कर बाहर की दुनिया दिखाने ले गया। किताबें, संगीत, मूवीज़, फिलॉसफी, जगह, विकल्प....। भाई कंप्यूटर इंजीनियर बना....परिणाम निकलने से पहले ही कैम्पस सेलेक्शन में नौकरी मिल गई। उसका टेक ऑफ टाइम था।
मैं मेडिकल कॉलेज पहुँची। प्रमुख स्वामी मेडिकल कॉलेज करमसद में दाखिला मिला। कॉलेज नया था। जगह खूबसूरत। सरदार वल्लभ भाई पटेल की अपनी जगह। आनन्द से कुछ दूरी पर। एकदम गाँव में हरियाली के बीच बसा हुआ कॉलेज। आसपास गन्ने के खेत। एक गाँव..गाँववाले, तंदुरुस्त गायों का झुंड, बेरी के पेड़.... और बड़े बड़े हरे भरे पेड़। गाँव की नवरात्रि और उस समय सज सँवर कर गागरा चोली में , “घूमतो घूमतो जाय”
प्राइवेट कॉलेज था। जिसकी करीबन आधी सीट्स ओपन कोटा के लिये थी। बाकी मैनेजमेन्ट की। शायद यही वजह थी की कॉलेज में अजीब सी संस्कृति थी। एक बिरादरी उन लोगों की जिन्होने संघर्ष से सब हासिल किया। और एक ऐसी जिन्हे उँगली उठाने से पहले आसमान मिल जाता।
मेरे लिये यह संस्कृति काफी कुछ रावतभाटा और गुजरात के सीखे हुए पाठ को दोहराने जैसी थी। लिहाजा दोनो ही तरफ के लोगों में अपने ढूँढे। मेरे दोस्त बहुत अटपटे थे। कुछ लोग ऐसे थे जिनकी मम्मियाँ कार से हौस्टेल आती, अच्छा खाने, पीने , पहनने का लाती। जिनके पास जूतों के बारह तेरह जोडे़ होते।
कुछ ऐसे जो खादी ही पहनने में विश्वास रखते। बॉलपेन के रीफिल पैक भी सोच समझ कर खरीदते।
जहाँ कभी लगता कि मैं सभी को समझती हूँ वहीं कभी ऐसा भी लगता कि मैं दोनों की तरह ही नहीं हूँ। जो भी हो...इन दोनों जुटों की एक दूसरे के साथ कभी बनी नहीं...और सिद्धान्त के हिसाब से दोनो बिल्कुल अलग थे।
प्रीति मेरे साथ नहीं आ सकी। उसे जामनगर मेडिकल कॉलेज में दाखिला मिला। लक्ष्मी बीएससी करने आनंद पहुची।
करमसद में मेरी रूम पार्टनर थी अनु। और मुझसे दोस्ती की जास्मिन ने।
जास्मिन काठियावाड़ी गुजराती है। हमारी दोस्ती में कुछ और लोग जुड़े- नेह, हेमन्त और तपस्वी। यह गुट गाँधीवादी टाइप था। ऐसे लोग जो समाज को कुछ देना चाहते थे।
जास्मिन सबसे होशियार छात्रा थी। लेकिन कुछ शर्मीली, कुछ सहमी हुई। उसे मैं पसंद थी...और मेरे लगातार उसे भाव ना देने पर भी वह मेरे साथ, मेरे पास रही। उस समय मैं सोचती थी की मेरा साथ उसे देकर शायद मैं कुछ अहसान करती रही। लेकिन आज बहुत अच्छे से जानती हूँ कि यह मेरा भाग्य ही था जो मुझे जास्मिन मिली।
हौस्टेल की रूखी सूखी के समय जास्मिन अपने घर ले जाती। डेबरा, थेपला, बाखरी, खमण, फाफड़ा...इनका असली स्वाद जास्मिन के हाथ के जरिये पता चला। घर के सारे काम जास्मिन के जिम्मे थे। रात को जास्मिन किताब खोलकर पढ़ती और सब कुछ उसकी फोटोग्राफिक मेमरी में दर्ज। कॉलेज में जास्मिन ने मेरे जीवन में वही भूमिका निभाई जो कभी प्रीति ने निभाई थी।
दूसरे बरस मेरिट कम चॉइस के ऊपर मेरा सूरत तबादला हो गया। जास्मिन पीछे छूट गई। सूरत में आने वाले हम चार लोग थे। दो लड़के और मैं और ममता। लड़के दोनों बेहद अच्छे दोस्त थे...सूरत के ही निवासी।
सूरत मेडिकल कॉलेज....पिछले कॉलेज के तुलना में एकदम रूखा सूखा था। देखकर ही मन बुझने लगा। हमारे साथ के दोनो लड़के अपने शहर में पहुँचने की खुशी में दूर हो गये। ममता और मैं एक ही कमरे में पहुँचे। साथ में वैशाली।
ब्लॉगजगत के अनुराग...डॉ अनुराग आर्या की सहपाठी थी वैशाली। हमारे कमरे के बाजू में थे उनकी ही क्लास की बाकी लड़कियाँ जो ठेठ हिंदी वाले थे और उनसे हमें एक खास लगाव था।
सूरत एकदम सूरत था। शहर,गंदा, कौनक्रीट का जंगल। पर फिर भी यहाँ के दिन कुछ कम हसीन नहीं थे। कॉलेज बंक करना, पिक्चर देखना, ब्लैक में टिकट खरीदना, सिनेमा हॉल में अपर में सबसे आगे बैठकर देखना....यह सब सूरत की बदौलत। बिंदास और खुश..उन दिनों अजीब सा अहंकार सा था। उस समय लिखी एक कविता-

हवा हूँ....
चल रही थी....चल रही हूँ......
किसे छुआ...किसे नहीं...
पता नहीं...
कुछ याद है...कुछ भूल गई...
पर रुकी नहीं...
तभी किसीने रोका....
और पूछा...
तुमने मुझे छुआ...
क्यों ........??????


अरे हवा हूँ.....
चल रही थी....
चल रही हूँ......
किसे छुआ...
किसे नहीं...


पता नहीं... पढ़ाई में दिल लगाया। लगाते लगाते दिल यहाँ वहाँ भी लगने लगा। बहुत नोट्स बनाये, अपनी चिन्ता किये बिना पढ़ाया लिखाया......। पता नहीं कौन सी लैला मज्नू की कहानी से प्रेरित थी।
खैर। जिन दो लड़कों को पसंद किया....उन्होने कहा.... “तुम एक बहुत प्यारी दोस्त हो...उसके आगे कभी सोचा नहीं।”
मुझे जिसने पसंद किया मैने उनसे कहा , “तुमने इस लायक समझा बहुत अच्छा लगा....किंतु तुम्हे मुझसे बेहतर कई लड़कियाँ मिल सकती हैं।”
बात की बात यह कि चाह कर भी हम इश्क नहीं कर सके। हाँ कुछ हिन्दी वालों की तरफ झुकाव की वजह से हिन्दी में लिखना जरूर शुरु किया।

कब से जुगनुओं के पीछे हूँ
उन्हे पकड़ मुट्टी में रख
उनसे वफाओं के वादे करती हूँ
और जब विश्वास से मुट्टी खोलती हूँ
जुगनू मुझे छोड़
अपनी रोशनी ले
दूर उड़ जाता है
कुछ देर पीछे भागती हूँ
फिर यह सोच कि यह तो
उसकी अपनी रोशनी है
रुक जाती हूँ

कहाँ हो तुम
मेरी रोशनी?!
सायों के अँधेरों में अपने
संदेशों को खोजती हूँ
अंदेशों को ढूँढ़ती हूँ

भावनायें
संभावनायें

फिर जैसे सब उस अँधेरे में खो जाता है
उन सायों की धुँधली लकीरें मिट जाती हैं
और होता है एक घना अँधेरा

क्या तुम तन्हा नहीं?
तुम्हे मेरी आरज़ू नहीं?
क्या तुम बेताब नहीं?

हवा पर कान लगा कर हर सन्नाटे को सुनती हूँ
शायद तुम्हारी आहट सुनाई दे
सागर के किनारे हर पदचिन को देखती हूँ
शायद कोई तुम्हारा हो
पर वो लहरें
न जाने क्यों
हर निशां मिटा चली जाती हैं

कितनी बार अरमानों के चौकट पर आ
लौट जाती हूँ
हर सदा को
तुम्हारी पुकार समझ जवाब देती हूँ

और तुम ना जाने कहाँ हो
हर बात से बेखबर
अपनी मंजिल से अनजान
निर्मोही,निष्ठुर

कितने सपने संजोये खड़ी हूँ मैं
.....
तुम और तुम्हारे साथ मैं
मेरी अंजली में तुम्हारा स्पर्श
दीवानापन, विश्वास ,हर्ष
लम्हों का मंदिर
यादों का मंजर

तेरे लिये मैं…
रागिनी
दामिनि
शालिनि
संजीवनी

पर…
अब यह इंतज़ार
तुम्हारी बेरुखी
ख्वाईश
सही नहीं जाती

कोई गुमनाम दास्ताँ सुना
जब हौले से निशा सुला जाती है
तब ख्वाबों में तुम्हारी जानी पहचानी सी
धुँधली सी तस्वीर
और उसे साफ देखने की मेरी कोशिश
सही नहीं जाती

किस तरह पुकारूँ तुम्हे?
किन वर्तमान के पन्नों को पलटूँ?
कौन सा रास्ता?
कौन सी पगडंडी?
किस पेड़ की छाया के नीचे सुस्ताऊँ?
अब यह सवाल
और उनके जवाब ढूँढ़ने की चेष्ठा
सही नहीं जाती

वर्तमान के कँधों पर चड़
भविष्य को छू सकूँ
क्या ऐसा हो सकता है?
मालूम नहीं!!

पर अब यह अधूरापन
एक हमसफर की जरूरत
सही नहीं जाती

कहाँ हो??!
चले आओ
उन भटके हुए
भविष्य की राहों को छोड़
मेरे पास

वर्तमान में…

तुम्हारा इंतज़ार है......


इन्ही दिनों लिंडा गुडमैन की सनसाइन्स की किताब मिली। शुरु से लेकर अंत तक पूरी पढ़ ली। फिर लव साइन्स पर दावा बोला।
अंत में जीवनसाथी की एक छवि तैयार की। जिसमें हमारे मनपसंद सब गुण थे।
कुछ ऐसा-
कन्या राशि, जो कि तुला के करीब हो, लँबा लड़का ( खुद पाँच फुट की ही हूँ), चश्मेबद्दूर, मूँछ वाला, सिगरेट शराब से दूर, अपने बल पर बना हुआ...।
एक बात बता दें। हम पूरे मन से कुछ माँग लें तो हमें वो मिल ही जाती है।भरी बस में सीट मिल जाती है। पार्किंग की जगह हमेशा मिल जाती है। हमें पूरा (अँध) विश्वास था। सो मन लगाकर माँग लिया।
मैडिकल की फाइनल इयर की वह शाम नहीं भूल सकते। घर गये। घर पर ही एक नौजवान लड़का खड़ा था। लँबा लड़का, चश्मेबद्दूर, मूँछ वाला.......हमारे होश उड़ गये। बात ही बात में राशी पूछी। कन्या कहा तो नीचे से ज़मीन खिसक गई। तारीक तुला के पास थी। सातवी संतान, गरीब माता पिता, स्कॉलरशिप्स के बलबूते पढ़ा लिखा लड़का....गुजरात में अपनी पहली नौकरी पर। जारी

[संपादन में वर्तनी का ख्याल रखा गया है। बेजी ने भी एक बार फिर इस पूरे आयोजन के बचे हुए अंशों को पढ़ा है( ये उनका बड़प्पन है )फिर भी उसमें कुछ चूकें थीं और उन्हें दुरुस्त कर दिया है, कुछ जानबूझ कर छोड़ दी हैं ताकि आप ध्यान ज़रूर दिलाएं ]

28 कमेंट्स:

विजयशंकर चतुर्वेदी said...

बेजी आज से हमारी बहन है क्योंकि वह जिंदगी के हर गोशे में सिर्फ और सिर्फ कविता ढूंढ़ लाती है. कहना तो बहुत कुछ है लेकिन मुख्तसर इतना ही के-

'फूलों का, तारों का सबका कहना है,
एक हज़ारों में मेरी बहना है.
सारी उमर हमें संग रहना है....'

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

बेजी जी,
" जब कोई किसी से,
सच्चा प्यार करता है तब,
सारी कायनात
उन्हेँ मिलवाने मेँ
जुट जाती है "
ये "ओम शान्ति ओम " का फिल्मी dailogue है पर,
काफी दम है इस मेँ ;-)
है ना ?
आप का मनमानस
(डाक्टर हैँ फिर भी)
एकदम साफ, निर्मल है
जो आपके लिखे से
हम भी जान रहे हैँ
..keep writing
स्नेह,
-- लावण्या

विजयशंकर चतुर्वेदी said...

...और तौबा करता हूँ कि आज के बाद टाइपिंग पर कोई बात न करूंगा वरना मेरी क्या मज़ाल कि अफलातून जैसे मेरे फादरफिगर और प्रियंकर जैसे अपने प्रिय कवि से जूतयाँ खाऊँ!

यहाँ यह बता देना समीचीन होगा कि अफ़लातूनजी ने ही मुझे ब्लॉग जगत में इन्तरोड्यूज किया था.

दिनेशराय द्विवेदी said...

कहते हैं, भोज के राज्य में सभी कवि थे।
संवेदनशीलता ही कवित्व उत्पन्न करती है। जीवन से अनुराग,और उसे उस की हर शै में जीना। यही है वह चीज जो उस इंन्सान की हर रचना को कविता बनाता है, चाहे वह किसी घाव को दुरूस्त करना हो या फिर घर में रोटी बेलना। बेजी, आप पूरे वक्ती कवि हैं।

Udan Tashtari said...

बहुत कम पढ़ा हूँ साहित्य के मामले में-मगर जितना भी पढ़ा है उस आधार पर यह कह सकता हूँ कि ऐसा आत्म कथ्य अब तक नहीं पढ़ा. हद है उचांईयों की कथनी की.

बेजी के बाद इस स्तंभ को बंद कर दिजियेगा-आगे ऐसा लिखा जाना संभव नहीं. यह हॉल ऑफ फेम का बेंच मार्क आलेख है..बेजी को अनेकों शुभकामनाऐं एवं बधाई.

और अजित भाई, आपको तो बधाई है ही!!

बहुत ही उम्दा.

काकेश said...

क्या कहने हैं बेजी जी के. सभी भाग एक से बढ़कर एक.शुक्रिया.

विजय गौड़ said...

बहुत ही सहज और स्वाभाविक ढंग से लिखे गये इस आत्मकथ्य को पढवाने के लिये आभार. पिछ्ले काफ़ी समय से लगातार पढ रहा हूं. एक खास तरह की सह्जता सभी में है.

सुजाता said...

अरे , पिछले अंक मिस हो गये । अभी सहेज कर पढने बैठती हूँ ।

बेजी का लेख कितना आनन्ददायी होता है ।

Shiv said...

अद्भुत शैली है लिखने की...लगता है जैसे जीवन के हर पल का वर्णन है.
आगे की कड़ियों का इंतजार है.

Dr. Chandra Kumar Jain said...

लगा जैसे आपका बीता हुआ एक युग
हमारे सामने आ गया.
संदेशों को खोजता,अंदेशों को ढूँढते कैशोर्य
और भावनाओं-संभावनाओं से आपूरित
आपके अतीत के सारे शेड्स
इतनी स्वाभाविक,अचंचल और निष्कंप रीति से
हमारे मानस में रंग भर गये कि लगता है
भरी गर्मी में बारिश की बूँदों के नूर को जी लिया.
=================================
यादगारों की पोटली कोई खोले तो इस तरह !
=================================
वरना विकल मन का कल न तो आज को
जीने देता है, न कल के सपने बुनने देता है.
आपकी कहानी स्वप्न और सच के बीच
झूलते आनंद की बस्ती में
अपने लिए अच्छी,सुंदर और
मनचाही ज़गह बना लेने,उम्र के हर पड़ाव के
इशारों और दरारों को पढ़ लेने के
अचूक कौशल का बेजोड़ शायराना बयान है.
यक़ीन मानिए एक साँस में पढ़कर,दूसरी साँस में
इतना(अधिक)सब कुछ कह गया.
===================================
बधाई बेजी-बोल के लिए !
आभार अजित-रोल के लिए !!
सदा सफ़र के साथ...
डा. चंद्रकुमार जैन

anuradha srivastav said...

बेजी के बारे में जानकर अच्छा लगा। भाषा की गत्यात्मकता उम्र के पडाव और बदलती विचारधारा व भावनाऒं की गति को गति प्रदान कर रही है। बहुत ही अच्छा लिखा है।

Anonymous said...

अजित जी ,
बस एक ही लफ़्ज़ मिला - 'ख़्वाहिश'उसे होना था!

PD said...

चश्मेबद्दू.. क्या कहने आपके आत्मकथ्य को.. एक नया आसमान खड़ा कर दिया है आपने.. मैं समीर जी कि बातो से सहमत हूं.. पहली बार ब्लौग जगत में कुछ संजो कर रखने को जी चाह रहा है.. नहीं तो सोचता था की सभी कुछ तो नेट पर है ही, भला क्यों सुरक्षित करूं..

Abhishek Ojha said...

शुरुआत में लगा की आज का आलेख कुछ बड़ा है, पर बिना रुके एक ही बार में समाप्त... बहुत रोचक .

Ghost Buster said...

बहुत खूबसूरत.

Sanjeet Tripathi said...

बहुत ही शानदार!
लंबा होना अखरा नही बस शब्दों के साथ बहते चले गए हम!

ghughutibasuti said...

बेजी जी को जितना जानती हूँ यह लेख उसके बिल्कुल अनुरूप है। ठीक जीवन की तरह लेखन में भी एक बहाव है। बस बहते ही जाना है सा भाव है।
घुघूती बासूती

Priyankar said...

जिए गए जीवन के बारे में सच कहना बहुत मुश्किल काम है . ऐसे में सच को एक छंद का सहारा चाहिए होता है . वह छंद बेजी के पास है .

गुजरात के एक बड़े -- बहुत बड़े -- सपूत ने सत्य के कुछ प्रयोग हमारे सामने एकदम खरे और खड़े गद्य में रखे थे . गुजरात रिटर्न बेजी में भी सच के प्रति उसी आग्रह की झलक है ,अलबत्ता थोड़ी काव्यात्मक झलक .

पुरुष की अपेक्षा एक स्त्री के लिए सच कहना और भी जोखिम भरा है . बेजी का आत्मकथ्य नई/उभरती लेखिकाओं के लिए एक 'मॉडल' हो सकता है .

नीलिमा सुखीजा अरोड़ा said...

बेजी तो बेजी ही हैं, उनकी बातें उनको पिछले दो बार से पढ़ रही हूं पर पता नहीं क्यों कमेंट नहीं कर पा रही थी। किनती ईमानदारी से अपनी जिन्दगी की किताब खोल कर बयान कर दी, सचमुच बहुत हिम्मत चाहिए। हैट्स आफ टू हर।
अजीत जी बेजी से यह सब कहलवाने के लिए आपको भी बधाई।

Anita kumar said...

बेजी जी आज आप के बारे में और जान कर अच्छा लगा। वैसे आप की हिम्मत को शत शत प्रणाम तो करना ही है। बकलम खुद लिखने के वक्त हम अपने यौवन की आहटों के बारे में लिखने से हिचक गये थे और कई छलागें लगा कर आज में पहुंच गये थे। आप की शैली के तो पहले ही कायल हो गये थे आज आप के बेबाकपन के कायल हो लिए। अगली कड़ी का इंतजार, और समीर जी की बात से हम भी सहमत्।

Manish Kumar said...

पिछले भागों जैसा ही सजीव आत्मकथ्य !

VIMAL VERMA said...

बेजी,
आपकी इतना अच्छा लिखती हैं,जैसे जो आप लिख रहीं हैं वो चित्र बनकर नज़रों के सामने घूम रहा हो जैसे.... कमाल है आपका...और अजित जी आपकी ये श्रंखला तो गज़ब ढा रही है...आभार अगली कड़ी का बेसब्री से इंतज़ार है...

अनूप शुक्ल said...

अद्भुत। इसके अलावा और कुछ सूझ नहीं रहा है टिपियाने को।

Asha Joglekar said...

बेहद खूबसूरत और रोमांस से भरा हुआ पहली कडियाँ भी सुंदर पर िसका तो जवाब नही । अजित जी का आभार ।

मीनाक्षी said...

आत्मकथ्य पढ़कर 'लबबन्द' नाम का एक मीठा पकवान याद आ रहा है जिसमें सेवैयाँ खूब ज़्यादा चाशनी में पकाई जातीं. रमादान के दिनों में आज़मगढ़ का मित्र परिवार इफ़्तार पर बुलाते तो लबबन्द ज़रूर बनाते जिसे खाकर लब बन्द हो जाते ..यही हाल यहाँ हो रहा है.

रजनी भार्गव said...

कितनी सहजता से सब कुछ कह दिया. बेजी बहुत अच्छा लिखा है. अजित जी आभार के साथ.

कंचन सिंह चौहान said...

beji ham to padhte jaa rahe hai.n aur murid hue jaa rahe hai.n..itani saafgoi se apni baat kahana ... kya baat hai...! bahut kuchh sikhnae ko mil raha hai... thanks

Yunus Khan said...

हम्‍म कॉलेज से भी ट्रांसफर ।

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