Monday, May 19, 2008

निखट्टू, लानत है तुझ पर !!

निकम्मे-नाकारा लोगों की दुनिया में बड़ी दुर्गति होती है । ऐसे लोगों की न सिर्फ कोई कद्र नहीं करता बल्कि उन्हें अपने पास भी कोई फटकने देना चाहता। काम का न काज का , दुश्मन अनाज का जैसी कहावतें इन्हीं लोगों के लिए कही जाती हैं। ये कहावतें समाज ने ही अपने अनुभवजनित ज्ञान के आधार पर बनाई। मगर समाज में हर चीज़ के दो पहलू कई बार इस अंदाज में सामने आते हैं मानों चित भी मेरी, पट भी मेरीमलूकदास जी का वह प्रसिद्ध दोहा भी याद कर लीजिए –

अजगर करे न चाकरी , पंछी करे न काम ।
दास मलूका कह गए , सबके दाता राम ।।


अब इस दोहे से क्या सीख मिल रही है ? यही न कि रामजी सबकी भली करते हैं , बेफिक्र रहें ! चाहे न मिल रही हो मगर लोग तो इसका भावार्थ यही बताते हैं कि काम करने की ज़रूरत क्या है ? यूं अजगर और पक्षी का संदर्भ तो मलूकदास जी ने इसलिए दिया है कि मनुश्य का जन्म ही कर्म करने के लिए हुआ है सो कर्म करो, फल की चिन्ता मत करो। शायद यही है उनका भावार्थ। रामजी सबको देंगे !!!
बहरहाल बात हम कर रहे हैं आलसी , नाकारा और निकम्मों की । ऐसे ही लोगों के लिए हिन्दी में निखट्टू जैसा शानदार शब्द भी है और खूब इस्तेमाल होता है। आलसियों को चाहे निकट न फटकने की समझाइश दी जाती हो मगर निखट्टू और निकट शब्द में तो गहरी रिश्तेदारी है। जानते हैं ।
संस्कृत में एक धातु है कट् जिसमें जाना, स्पष्ट करना , दिखलाना आदि भाव समाहित हैं। संस्कृत-हिन्दी का एक प्रसिद्ध उपसर्ग है नि जो शब्दों से पहले लगता है और कई भाव प्रकट करता है। नि में निहित एक भाव है पास आने का , सामीप्य का। कट् धातु में जब नि उपसर्ग का निवेश होता है तो बनना है- नि+कट्=निकटकट् यानी जाना, इसमे नि जुड़ने से हुआ पास जाना, पाना आदि। इससे मिलकर संस्कृत का शब्द बनता है नैकटिक जिसका मतलब हुआ, नज़दीक का, पास का, पार्श्ववर्ती, सटा हुआ आदि। एक अन्य शब्द बना नैकटिकः जिसका मतलब हुआ साधु, सन्यासी या भिक्षु।

नैकटिक में संन्यासी या वैराग्य का भाव समझना आसान है। कट् धातु मे स्पष्ट करना , दिखलाना जैसे भाव तो पहले ही उजागर हैं जो संत-सन्यासियों का प्रमुख कर्तव्य है। अब मनुश्य सन्यास लेता ही इसलिए है ताकि वो खुद को पा सके । शास्त्रों में आत्मा को ही ब्रह्म कहा गया है । जिसने अपनी अंतरात्मा को पा लिया अर्थात् खुद को पा लिया वही, ज्ञानी। संन्यस्त होने का सुफल उसे मिल गया। इसीलिए उसे नैकटिकः कहा गया। यही नैकटिकः दरअसल निखट्टू है।
संत मलूकदास के कहे को समझे बिना लोगों ने उस पर अमल शुरू कर दिया तो नैकटिकों के ऐसे सम्प्रदाय को यानी भिक्षुकों को निखट्टू कहा जाने लगा। बुद्ध से बुद्धू और पाषंड से पाखंड और पाखंडी जैसी अर्थगर्भित नई शब्दावली बनाने वाले समाज ने अगर इधर-उधर डोलने वाले, आवारा, जिससे कुछ काम न हो सके अथवा नाकारा-निकम्मे के लिए नैकटिकः से निखट्टू जैसा शब्द बना लिया हो तो क्या आश्चर्य ? किसी ज़माने में भिक्षावृत्ति सिर्फ सन्यस्त लोगों के लिए आहार जुटाने की प्रणाली थी मगर बाद में इसकी अवनति इतनी हुई कि – जाओ, भीख मांगो, जैसे उलाहने प्रचलित हुए जो मुहावरा बन गए।

ज़रूर देखें-

बुद्ध और पाखंड

15 कमेंट्स:

विजयशंकर चतुर्वेदी said...

अरे मैं डर गया! शीर्षक पढ़ कर लगा कि आपने मुझ पर कोई टिप्पणी कर दी. मेरी बीवी रोज मुझसे ऐसा ही बोलती है, अब और अपनी पोल क्या खुलवाएं.

भाई उड़नतस्तरी ने (हालांकि फोटू देख कर तो वह उड़ने की हालत में कहीं से भी नहीं लगते!) तो बेजी के बाद आपका स्तम्भ बंद कर देने की सलाह दी है. अपना बकलम ६०७वें पृष्ठ तक पहुँच गया था. अब रोने से क्या फायदा? आपको फ़ोन भी नहीं कर पाया कि पहले मेरा वाला चढ़ा दो, भले ही आपके पास स्वनामधन्यों का बहुत स्टॉक हो.

ऐसे दुर्भावनापीड़ित लोगों को उड़ने के लिए भेज दो, हाँ!

विजयशंकर चतुर्वेदी said...

अजित भाई माफ़ कर दीजियेगा. यह आपके लिए नहीं; आपके बहाने करोड़ों लोगों के लिए है. 'पार्श्ववर्ती' सही है जैसे कि पार्श्वगायक; लेकिन 'पार्ष्ववर्ती' टाइपिंग की गलती से हुआ होगा.

मैंने प्रण किया था कि अब टिप्पणी नहीं करूंगा. लेकिन हिन्दी ब्लॉग की खासियत यही तो है कि यह जिंदा लोगों को स्फूर्तिमान कर देता है. मुर्दों की बात नहीं कर रहा, जो बिना इजाज़त लिए कभी-कभार कब्र से निकलते हैं और समझते हैं कि दुनिया उनकी दीवानी है.

मगर आप जैसे धुरंधर की इस टाइपिंग पर विदवज्जन ही कोई राह निकालेंगे कि आप 'संन्यासी' को 'सन्यासी' टाइप करें. अज्ञानता की वजह से हिन्दी पत्रकारिता में यह दशकों से होता आया है. इस शब्द की वजह से अपनी पत्रकारिता के बचपन में ही मेरी राहुल देवजी से बहस हो गयी थी. और वह बहस मुम्बई की हिन्दी पत्रकारिता में विख्यात है. (माफ़ कीजियेगा, थोड़ा अपनी लाल कर रहा हूँ).

लेकिन यह राहुल जी का बड़प्पन था कि 'जनसत्ता' की खचाखच भरी पूरी न्यूज डेस्क के सामने उन्होंने यह बात स्वीकारी थी.

Udan Tashtari said...

अरे विजय भाई

जैसे कितना भी लज़ीज खाना खाने के बाद मिठाई के लिये तो स्पेशल कम्पार्टमेन्ट खाली ही रहता है, उसका मजा अलग है. आपका लेखन तो आयेगा ही. इन्तजार रहेगा. यें बंद कर देने वाली हम जैसों के लिए थी, आपका तो स्वागत है.

अजीत भाई, आप जारी रहें. :)

Gyan Dutt Pandey said...

बापरे! यहां तो ढ़ेरों नैकटिकों का जमावड़ा होने जा रहा है। सटका जाये!

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

ये निखट्टू और बजरबट्टू कैसे बने ?
हमेशा की तरह,
सोचने को बाध्य करती पोस्ट !
- लावण्या

विजय गौड़ said...

भाषा की पडताल करने का यह अंदाज खूब है.

Arun Aditya said...

अरे ये निखट्टू तो बड़ी ऊंची चीज थे । बेचारे बेवजह लानत मलामत के शिकार हो गए।

Sanjeet Tripathi said...

हेडिंग ही नई पूरी पोस्ट हमीं पे बना दिए हो ;)

Dr. Chandra Kumar Jain said...

अजित जी,
आपकी लाज़वाब फ़ितरत है कि
आप हर काज को मय ब्याज
ठिकाने तक पहुँचा देते हैं !
मसलन जो न काम के हैं,न काज के,
उनकी महानता पर चर्चा शुरू की और आज
उनके आलसी-नकारा-निकम्मे किरदार को
भरपूर सम्मान दे दिया .....लगे हाथ !
मेरा ख्याल है कि न-काम और न-काज वाले तो
फिर भी भले हैं ....मुसीबत तो
वो लोग पैदा करते हैं जो
बिन-काज तफरीह पर निकल जाते हैं.
उनसे राम बचाएँ !
बाबा तुलसीदास जी ने तो उन्हें
बंदहुँ प्रथम....कहकर
ऋण चुका दिया है !...आपने भी....
इस पोस्ट के ज़रिए कुछ वैसा ही किया है क्या ? ==================================
आपके सफ़र का हर पड़ाव
काम का है...काज का है
शब्द-संपदा के राज़ का और
समग्र मानव समाज का है.
आभार
डा.चंद्रकुमार जैन

Ghost Buster said...

नैक टिक लेने दो भइया. अभी अभी तो आये हैं.

डॉ .अनुराग said...

बाप रे निखट्टू पर इतना ज्ञान ......

Anita kumar said...

अजीत जी पोस्ट तो हमेशा की तरह बड़िया है पर इस बार हमें एक शिकायत है, निखट्टू के साथ इत्ते प्यारे से कुत्ते की तस्वीर? भई बहुत ज्यास्ती है बिचारे के साथ, सारी रात आप के साथ बैठा बोर होता रहा जब आप ये पोस्ट लिख रहे थे और अब जरा सुस्ताने क्या बैठा आप ने उसे ही निखट्टू का खिताबदे दिया, मान हानि का दावा करने के लिए कागज पत्तर तैयार करने का काम वो हमें सौंप गया है…॥:)

Asha Joglekar said...

नैकटिक: से लेकर निखट्टू तक का सफर काफी रोचक रहा । सदा ही जिसके निकट रहने से घरवाल ेतंग आजायं वह निखट्टू य़ वेसे संन्यासी भी सांसारिक लोगों के हिसाब से तो निखट्टू ही हुए ।

paulinho said...

paulo gomes

अजित वडनेरकर said...

@विजयशंकर चतुर्वेदी
संन्यास ही सही है । मूल संस्कृत में भी संन्यास ही है । दरअसल ज्ञानीजन आधे 'न' की वजह से यह मानते हैं कि काम हो गया । व्युत्पत्ति के नज़रिये से यह सं + न्यास है । यह जो 'सं' है उसे 'सम्' माना जाना चाहिए । मोनियर विलियम्स भी यह कहते हैं । इस पर एक अलग पोस्ट बनानी होगी

नीचे दिया गया बक्सा प्रयोग करें हिन्दी में टाइप करने के लिए

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