Tuesday, October 7, 2008
रज़िया, हब्शी और अबीसीनिया
इथोपिया, जंजीबार आदि अफ्रीकी गुलामों की बड़ी मंडी थे उत्तर पूर्वी अफ्रीका से आने वाले गुलाम ही आमतौर पर हब्शी कहलाते थे जिनकी पहचान थी ऊंचा कद, गठा हुआ शरीर , आबनूसी रंग और घुंघराले बाल । हब्शी शब्द का प्रयोग भी हिन्दी साहित्य और इतिहास में होता आया है। आज भी देश के विभिन्न इलाकों में हब्शी मूल के लोग रहते हैं जिनका भारतीय मूल के लोगों से रक्त संबंध भी हो चुका है। गुजरात के जूनागढ़ क्षेत्र में अलबत्ता अफ्रीकी मूल के हब्शियों का समूदाय ज़रूर रहता है जिन्हें सिद्दी कहते हैं । इस समूदाय ने अपनी सांस्कृतिक पहचान काफी हद तक बचा कर रखी है।
हब्शी शब्द मूल रूप से सेमेटिक शब्द है । इसके कई रूप है मसलन हब्शी, हबशी, हबसा आदि। अरबी में इसका एक रूप है हबासत जो सेमेटिक धातु हब्स्त का रूप है। आमतौर पर यह शब्द उत्तर पूर्वी अफ्रीकी समूदाय के लोगों के लिए इस्तेमाल होता था। खासतौर पर इथियोपिया, इरिट्रिया आदि के संदर्भ में। अरबी में एक शब्द है अल-हबाशात यानी इथियोपिया के लोग। अलहबाशा ने ही यूरोपीय भाषाओं में जाकर अबीसीनिया का रूप लिया। गौरतलब है कि इथियोपिया का पुराना नाम अबीसीनिया ही था। गौरतलब है कि गुलाम वंश की रजिया सुल्तान के प्रेमी का नाम याकूत था जो एक अबीसीनियाई गुलाम ही था। रजिया तेरहवीं सदी में दिल्ली के तख्त पर बैठी थीं।
इथियोपिया नाम के पीछे भी काली रंगत ही प्रमुख है। इथियोपिया दरअसल ग्रीक मूल के एथिओप्स से बना है जिसका मतलब होता है झुलसा हुआ चेहरा। अर्थात काले रंग का। जूनागढ़ के सिद्दी मूल रूप से हब्शी हैं मगर उनके सिद्दी कहलाने की दूसरी वजह है। बताया जाता है कि सिद्दी या सिद्धी [हिन्दी वाला सिद्धि नहीं] अरबी सैय्यद का रूपांतर है। ग्यारहवीं-बारहवीं सदी में अरब और अफ्रीका से जो जहाज़ गुजरात के तट पर उतरते थे उनके कप्तान सैय्यद उपाधि लगाते थे। इन्हीं जहाज़ों से ये हब्शी लाए गए और इन्हें सिद्दी कहा जाने लगा। भारत में सिद्दियों की आबादी कुछ हजार तक सीमित है। गुजरात के अलावा ये महाराष्ट्र , कर्नाटक , केरल और कुछ संख्या में बंगाल में भी हैं। अकेले गुजरात में ही इनकी संख्या दस हजार से ज्यादा बताई जाती है।
इसी तरह नीग्रो शब्द भी अफ्रीकी मूल के लोगों के लिए प्रयुक्त होता है। यह शब्द भी रंगभेदी है। यह बना है लैटिन के निग्रम से। फ्रेंच, अंग्रेजी, स्पेनिश , पुर्तगाली में इसके नोइर, नीग्रो, नेग्रो , नेग्रे आदि रूप मौजूद हैं जिनका अभिप्राय काले से ही है। हिन्दी में काले रंग के लिए या काले रंग वाले के लिए आबनूसी शब्द का प्रयोग किया जाता है । गौरतलब है कि आबनूस भी अरबी मूल का ही शब्द है और हब्नी से बना है जिसका अर्थ होता है काली लकड़ी या काला रंग। गौर करें हब्शी और हब्नी की समानता पर। हब्नी से बने इबोनी का अंग्रेजी में तेंदू की लकड़ी या आबनूस की लकड़ी के रूप में ही प्रयोग होता है मगर इबोनी का प्रयोग अमेरिका में अश्वेत समूदाय के लिए या काले व्यक्ति के लिए भी किया जाता है।
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प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर पर 1:19 AM
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10 कमेंट्स:
सिद्दी जहाजी कप्तान के वँशज हैँ ये तो नई बात सुनी ..पिछले के साथ आगे चल रही शृँखला अच्छी लगी
-लावण्या
आबनूसी रंग पर बड़ी ट्रान्सपेरेण्ट पोस्ट। सुन्दर।
महेन्द्र नेह का गीत याद आ रहा है-
हम सब नीग्रो हैं हम सब काले हैं.....
बहुत बेहतरीन पोस्ट रही. हमेशा की तरह कई नई बातें जानी. लावण्या जी की तरह ही मैने भी पहली बार जाना. आभार आपका.
काले हैं तो क्या हुआ दिलवाले हैं
दिल की यह दास्तां रही बहुत ही उपयोगी
और मजेदार भी।
शब्दों का सफर यह
सफर यह बढ़ता रहे
बन कर सदा हमसफर
यही कामना करता है सदा
हिन्दी का प्रत्येक ईमानदार ब्लॉगर।
Bahut jankaripooran. uttam. kuchh janne ko mila, aabhar.
बहुत बढ़िया जानकारी अजित भाई शुक्रिया !
ये तो पूरी तरह शोधपरक
पोस्ट है अजित जी.
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आभार
डॉ.चन्द्रकुमार जैन
बचपन में पढ़ी एक कहानी याद आई (एक राजकुमारी जो बर्फ की तरह गोरी थी और जिसके बाल आबनूस की तरह काले थे) मैं पूछने वाला था की आबनूस भी यहीं से आया क्या? लेकिन आप कुछ छोडें तब न !
Ajit sa
khamma ghani
bahut umda jankari ke liye shukriya. aabnusi rang kabhi kabhi katha kahaniyon me padhne me mil jata hai.asal arth aaj smaj aaya hai.
aaj bahut khush hu kyonki march ki AKSHAR PARV me mere rekhachitron ko sthan mila hai. isse pahle bhi rekhachitra parakashit hote rahe hai par is patrika ki baat or hai. kiran rajpurohit
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