Thursday, October 23, 2008

सुख भी भोगो , दुःख भी भोगो

IMG_0715
kulcha-002a1
अक्सर पढ़ते-सुनते हैं कि बाज़ारवाद के दौर में  उपभोक्ता प्रमुख हो गया है। सवाल है उपभोक्ता कब प्रमुख नहीं था ? लेन-देन , अदला-बदली तो मनुश्य के स्वभाव में है। सामान्य अर्थ में इस्तेमाल या प्रयोग करने में आनंद का अनुभव ही उपभोग कहलाता है। उपभोग करनेवाला हुआ उपभोक्ता। इस अर्थ में मनुश्य अनादिकाल से ही उपभोक्ता रहा है। बस, कुछ नया जुड़ा है तो वह है बाजार । उपभोग और उपभोक्ता के इर्दगिर्द ऐसे कई शब्द है जिन्हें हम रोज़ इस्तेमाल करते हैं। बारीकी से देखें तो इनमें अंतर्संबंध स्पष्ट दिखाई देता है।
पभोग शब्द बना है भोगः शब्द से जिसका अर्थ है सुखानुभव , आनंद , खान-पान, आय, राजस्व, भोजन, दावत और उपभोग आदि। यह शब्द बना है संस्कृत धातु भुज् से। भुज् धातु का संबंध उसी भज् धातु से है जिससे भग, भगवान और भाग्य जैसे शब्द बने हैं। भज् का अर्थ होता है हिस्से करना, विभक्त करना , अंश करना आदि। पके हुए चावल के लिए भात शब्द भी इसी भक्त की देन है। क्योंकि पकने के बाद भी चावल का एक-एक अंश विभक्त नज़र आता है इसीलिए इसे भक्त कहा गया जिससे भात शब्द प्रचलित हुआ। भात आज दुनिया की आधी आबादी के भोजन का पर्याय है।  
भुज् का अर्थ होता है खाना, निगलना, झुकाना, मोड़ना, अधिकार करना, आनंद लेना , मज़ा लेना आदि। गौर करें कि किसी भी भोज्य पदार्थ को ग्रहण करने से पहले उसके अंश किए जाते हैं। पकाने से पहले सब्जी काटी जाती है। मुंह में रखने से पहले उसके निवाले बनाए जाते हैं। खाद्य पदार्थ के अंश करने के लिए उसे मोड़ना-तोड़ना पड़ता है। मुंह में रखने के बाद दांतों से भोजन के और भी महीन अंश बनते हैं। इसी तरह राजकोष में जाने वाली राशि राजस्व कहलाती है वह क्या है ? करदाताओं की ओर से दिया जाने वाला अंश । राजस्व से राजा के आमोद और प्रजा के कल्याण के कार्य होते हैं। दोनो ही प्रयोजन सुखकारी हैं। भोग में निहित भाव यहां स्पष्ट हो रहे हैं साथ ही भज् और भुज् धातुओं में  साम्यता भी । हाथों के लिए भुजा शब्द भी इसी भुज् की देन है। भुज् में निहित मोड़ने , झुकाने का भाव यहां उजागर है। भोग शब्द में आनंद या सुख अनुभव करने का भाव निहित है जो भुजाओं के जरिये ही होता है। सर्प के लिए भुजगः या भुजंग शब्द में वक्रता, टेढ़ापन जैसे गुण स्पष्ट हो रहे हैं। आहार के अर्थ में भोजन शब्द बना है भोजनम् से जो इसी धातु से जन्मा है। जाहिर है यहां अंश, विभक्त, टुकड़े करना, मोड़ना , निगलना जैसे भाव प्रमुखता से स्पष्ट हो रहे है। 
भोजनम् का एक अर्थ संपत्ति, दौलत आदि भी होता है क्योंकि उसका उपभोग किया जाता है। एक मुहावरा है भुक्तभोगी जिसका अर्थ होता है स्वानुभुत या कटु अनुभव से गुजर चुकना। भुक्त शब्द भी भुज् धातु से ही बना है जिसमें खाया हुआ, अनुभव किया हुआ, उपयोग किया हुआ जैसे भाव हैं। भुक्तनीय  शब्द से बना हिन्दी का भुगतना जो आमतौर पर सज़ा, दुख, कष्ट से गुज़रने के अर्थ में प्रयोग होता है।  सुखानुभव तक सीमित भोग शब्द का प्रयोग बाद में इतना व्यापक हुआ कि दुख भी भोगा जाने लगा। भोग के साथ सुख का रिश्ता कितना गहरा है इसका गवाह है आहार-व्यंजनों में छुपा सुखानुभव जो राजभोग, छप्पनभोग और मोहनभोग के रूप में सामने आया।धारा नगरी के प्रसिद्ध राजा भोज का नाम भी इसी मूल से जुड़ा हुआ है जिसका अर्थ है स्वामी, ऐश्वर्यशाली, प्रसिद्ध, अधिकारी आदि। भोज दसवी सदी में हुए थे और संस्कृत विद्वान के तौर पर भी उनकी ख्याति थी। उनका लिखा सरस्वती कंठाभरण ग्रंथ प्रसिद्ध है।
...सुखानुभव तक सीमित भोग शब्द का प्रयोग बाद में इतना व्यापक हुआ कि दुख भी भोगाजाने लगा...
भोजन का अर्थ व्यापक रूप में आहार न होकर भोग्य सामग्री से है। ईश्वर की पूजा अर्चना के बाद उन्हें भेंट स्वरूप जो अन्न समर्पित किया जाता है वह भोग होता है। भोग लगने के बाद वह अन्न प्रसाद कहलाता है। शब्दकोशों में इस शब्दश्रंखला के हर संदर्भ में हर बार स्त्री का भोग्या, प्रसाद , वारांगना आदि के रूप में उल्लेख मिलता है । इससे साफ है कि इस शब्द के साथ ये तमाम अर्थ तब जुड़े जब ईश्वर आराधना की परंपरा में कुरीतियों का प्रवेश हुआ और देवदासी प्रथा जैसी अपसंस्कृति समाज पर हावी हो गई। शासक स्वयं को भगवान का अवतार समझने लगें तब उसके उपभोग का दायरा आहार तक कहां सीमित रहता है ? किसी वक्त उपभोग में मूलतः भोजन सामग्री और उसका सुखोपयोग शामिल था और ऐसा करने वाला ही उपभोक्ता था।
इसे भी ज़रूर देखें-
Pictures have been used for educational and non profit activies. If any copyright is violated, kindly inform and we will promptly remove the picture.

11 कमेंट्स:

अविनाश वाचस्पति said...

भोगो सिर्फ

भागो मत

ठाकरे को

ठोको सब।


करे वो

भरे सब

भोगें अब

भागें मत।


बाकी कल दिन में शब्‍दों के सफर पर प्रतिक्रिया ध्‍यान से उजाले में पढ़कर आलोकित करूंगा।

दिनेशराय द्विवेदी said...

भुक्तभोगी ऐसा शब्द है जहाँ एक ही मूल के दो शब्द मिल कर तीसरे की रचना कर रहे हैं।

Asha Joglekar said...

उपभोक्ता से शुरु हुआ ये सफर ,भोजन, भाजन,सुखोपभोग और दुख भोगने तक पहुँच गया । हमेशा की तरह जानकारी से पूर्ण लेख ।

युग-विमर्श said...

विद्वत्तापूर्ण और ज्ञानोपयोगी विश्लेषण.

ravindra vyas said...

हां, आपने बिलकुल ठीक कहा कि अब दुःख भी भोगने की चीज हो गया है। मीडिया भी इसी दुःख का भोग लगाकर अपनी थाली को स्वादिष्ट बनाकर परोस रहा है और उपभोक्ता भी उसका पूरा मजा ले ही रहे हैं।

कुश said...

भूख लग गयी मुझे तो..

Abhishek Ojha said...

भोगी और योगी में यही तो अन्तर है भोगी सब कुछ भोगता है, योगी कुछ नहीं... भोग से दूर !

Gyan Dutt Pandey said...

रामकृष्ण परमहंस याद आते हैं - मैं विजोग (घटाना, भाजन) नहीं करूंगा।
और गणित नहीं सीखा उन्हॊंने! और बहुत कुछ सीख लिया!

रंजना said...

अति सुंदर और सार्थक विवेचना है.

siddheshwar singh said...

हे भगवान , अब समझ आया भगवन!
ध्न्य भाग!!

समीर यादव said...

भज से भजन भी होता हो..शायद.
जो भजन से से भागे वो भोगी हुए.
भोग में लिप्त होकर भगवान हुए
और भोग्या की सूची लम्बी करते गए.

हमेशा की तरह 'सफर' ज्ञान से सराबोर.

नीचे दिया गया बक्सा प्रयोग करें हिन्दी में टाइप करने के लिए

Post a Comment


Blog Widget by LinkWithin