Tuesday, November 4, 2008
गुनिया की गुनियाई...[सयाना-3]
आ
दिवासी ग्रामीण क्षेत्रों में झाड़-फूंक, तंत्र-मंत्र और इलाज करनेवालों को ओझा, सयाना आदि कहा जाता है। बैगा एक जाति होती भी होती है जो गोंड समाज का अंग है। ये सभी शब्द मूल रूप से ज्ञान, बुद्धि, कौशल से जुड़े हैं। ओझा शब्द की व्युत्पत्ति उपाध्याय > उवज्झाय> उअज्झाय > उअज्झा > ओझा के क्रम से हुई है जिसमें अध्ययन-अध्यापन का भाव है। बैगा की व्युत्पत्ति विज्ञ > बिग्य > बिग्ग > बैगा के क्रम में हुई है। इसी तरह सयाना शब्द संज्ञान > संयान > सयान > सयाना के क्रम में समझी जा सकती है। इस कड़ी का अगला शब्द है गुनिया ।
गुनिया शब्द बना है संस्कृत की गुण् धातु से जिसमें धर्म, उपदेश, निमंत्रण आदि भाव हैं। हिन्दी संस्कृत का गुण इससे ही बना है जिसका अर्थ है स्वभाव, विशेषता, भलाई, लाभ, प्रभाव, परिणाम, फल, आवृत्ति यानी गुणा , सूत, रस्सी आदि। धर्म किसी भी पदार्थ के विशिष्ट लक्षण को कहते हैं । यही दरअसल उसका स्वभाव है इसीलिए गुण में स्वभाव या विशेषता का भाव प्रमुख हो जाता है। गुण में यूं तो उदासीन भाव है मगर दुर् या सत् जैसे उपसर्गों के जरिये दुर्गुण और सद्गुण जैसे शब्द भी बने हैं। मनुश्य की स्वभावगत खूबियां ही सकारात्मक अर्थों में समाज में व्यक्तित्व के विशिष्ट लक्षणों के तौर पर मानक बनीं जिसे गुण कहा गया । बाद में कला, शिक्षा, वीरता आदि भी इसमें माने गए। ऐसे लक्षणों वाले व्यक्ति गुणी और समूह के रूप में गुणीजन कहलाए। आवृत्ति के अर्थ में गुणन, गुणा जैसे शब्दों में भी अध्ययन और अभ्यास का भाव है। धर्मग्रंथो में छह प्रकार के गुण बताए गए हैं-ज्ञान , शक्ति , प्रतिभा, बल, पौरुष एवं तेज । गुण दरअसल प्रकृति का हिस्सा है और इसके तीन वर्ग हैं सत्व अर्थात प्रकाश, रजस् अर्थात गति अथवा क्रिया और तमस् अर्थात अंधकार। इन्द्रियजन्य विषयों को भी गुण ही कहा जाता है जैसे रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द।
...मानव की स्वभावगत खूबियां हीं सकारात्मक अर्थ में व्यक्तित्व के विशिष्ट लक्षणों का मानक बनीं और सद्गुण कहलाईं...
दरअसल तंत्र-मंत्र अथवा जादू-टोना जैसी क्रियाएं सभ्य समाज में चाहे आज नकारात्मक दृष्टि से देखा जाता हो मगर मूलतः ये सभी विद्याएं रही हैं। इनकी उत्पत्ति और प्रयोजन का उद्देश्य प्रारंम्भ में मंगलकारी , हितकारी था। मनुश्य जब ज्ञानमार्ग पर चलता है तो कुछ अनुष्ठानों का प्रपंच भी रच लेता है जिसकी तात्कालिक तार्किक व्याख्या उसके पास रहती है मगर आनेवाली पीढ़ियों तक यह सम्प्रेषित नहीं हो पाती है। कहीं न कहीं बीच की कड़ियां गायब हो जाती है। बीच की ये गायब कड़ियां ही ज्ञान-विज्ञान के प्रदूषण – संक्रमण की वजह बनती हैं। अक्सर लोगों को राह दिखानेवाले ही उन्हें भटकाते भी हैं। नाखुदा हम जिसे समझ बैठे, उसी कमबख्त ने डुबोना था....आस्था जब चमत्कार की अभिलाषा करती करती है तब तंत्र-मंत्र प्रमुख होने लगते हैं। अन्यथा मंत्र तो आस्था के सूक्त हैं और तंत्र महज़ विधियां हैं। जादू जैसी मनोरंजन कला झाड़-फूंक में बदलती है...ये सारे कर्म बेहद बुद्धिमान मगर चालाक-धूर्त वृत्ति वालों के द्वारा किये जाते रहे। समाज में इन व्यक्तियों की छवि ओझा, बैगा, सयाना अथवा गुनिया के तौर पर प्रतिष्ठित होती चली गई जबकि शुरुआत में ये सभी शब्द सकारात्मक अर्थवत्ता लिए थे और आज भी ग्रामीण संस्कृति की पहचान इनसे है।
गोंडी भाषा में गुनिया से गुनियाई शब्द बनता है , ठीक उसी तरह जैसे ओझा से ओझाई। गुनियाई यानी झाड़-फूंक , जादू-टोना करना। आदिवासी समाज में गुनिया चिकित्सक होता है और इलाज करता है। गुनिया को जड़ी-बूटियों का खूब ज्ञान होता है और वही उससे दवाएं भी बनाता है। यही नहीं गुनिया पोथी-पत्रा भी पढ़ता है, जंत्री देखकर शकुन-विचार भी बताता है। इसके अलावा गुनिया में और भी अनोखे गुण होते हैं। मसलन वह खेती-किसानी के मामलों में भी सलाहकार है। फसलों के मुहूर्त बताता है और मौसम की भविष्यवाणी करता है। गुनिया अपने कान धरती से लगाकर पातालपानी की आवाज़ सुन लेता है। उसकी बताई जगह पर ही कुआं खोदा जाता है।
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प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर पर 3:00 AM
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6 कमेंट्स:
अभिषेक भाई,
शुक्रिया ...मैने एक बार सुबह मेल चेक की थी । कुछ आश्चर्य हुआ कि एक भी साथी की प्रतिक्रिया नहीं थी। सोचा , कि शायद लेखन का स्तर गिरता जा रहा है...कोई कमेंट क्यों करे। मन में ठान लिया कि कुछ और मेहनत की जाएगी। स्वांन्तः सुखाय ही सही , आखिर है तो सार्वजनिक स्पेस का मामला। लोगों का समय नष्ट नहीं होना चाहिए...वगैरह वगैरह
अभी शाम को आपकी पोस्ट देखी तो चक्कर समझ में आया। अंकित बाबू को बताया तब उन्होने कुछ राह निकाली।
ओझाई, गुनियाई का प्रयोग एक साथ भी तो होता है... साधारणतया अंधविश्वास के लिए जैसे: 'ओझाई-गुनियाई के चक्कर में ना ही पडो तो अच्छा है'
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और आपको लेखन के स्तर की चिंता करने की जरुरत नहीं ये एक ओझा का कहना है :-)
औझा और गुनिया में फर्क है। गुनिया तो सगुन देखने का काम अधिक करता है। वह हर तरह के मुहूर्त निकालता है। जब कि ओझा शब्द का झाड़ फूंक करने वाले के साथ रुढ़ हो गया है।
पुनः
अजित जी, चक्कर यह भी है कि केवल लिखने वाला बक्सा खुला हुआ है। दूसरा गायब है। वह पॉपअप में खुल रहा है। आज टिप्पणी करने में शायद इसी लिए परेशानी आ रही है।
यह भी खूब है.
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डॉ.चन्द्रकुमार जैन
अजित जी शानदार, अनवरत रहें....पाठकों की संख्या की चिंता कतई न करें, हाँ उनकी प्रतिक्रिया पर चिंतन जरुर कर लिया करें.
अजित भाई ,
मैं आपका ब्लॉग रोज़ पड़ता हूँ. शब्दों के साथ समय की गांठें भी खुलती हैं.
इधर कुछ दिनों से मैं स्वयं भी अपनी भाषा के कुछ शब्दों को जासूस नज़र से देख रहा हूँ. शायद आपको बचकाना लगे ,सीमान्त मारवाड़ी मैं मुंह के अन्दर वाले हिस्से को बाका कहते हैं और शरीर विज्ञान में buccal cavity
शब्द है ही , बताएं की क्या स्थानीय भाषाओं में ये शब्द बरास्ता संस्कृत ही आया है?
संजय व्यास
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