Wednesday, January 14, 2009

अरब की रद्दी, चीन का काग़ज़ [पर्चा-1]

कई सदियों तक चीनियो की काग़ज़ बनाने की तकनीक गुप्त रही मगर आखिरकार सातवीं आठवीं सदी के आसपास किसी तरह यह तरकीब उज्बेकिस्तान के प्राचीन शहर समरकंद तक पहुंच गई
बीरदास की प्रसिद्ध उक्ति मसिकागद छूयो नहीं, कलम गहि नहीं हाथ में काग़ज़, कलम और सियाही की महिमा उभर रही है। इसमें भी सियाही और कलम तब तक बेमानी हैं जब तक काग़ज़ न हो। ये काग़ज़ क्या है और कहां से आया ?

संवाद-संकेतों और तथ्योंको दस्तावेजी स्परूप प्रदान करने के लिए प्राचान काल से ही मनुष्य विभिन्न माध्यमों को तलाशता रहा है। पाषाणकालान शैलाश्रयों (रॉक शैल्टर्स) में आदिमानव द्वारा उत्कीर्ण पशु पक्षियों के रेखा चित्र, सुमेरी सभ्यता में मिट्टी की ईंटों पर मिले संकेत चिह्न, सिन्धु घाटी की सभ्यता में पकी हुई मिट्टी पर उत्कीर्ण चिह्न इन्हीं प्रयासों को साबित करते हैं। सभ्यता के विकास के साथ मानव ने वृक्षों की छाल को लिखने का माध्यम बनाया । पूर्वी देशों में यह खूब प्रलित हुआ। अरब देशों में जानवरों की पतली सूखी खाल पर लिखने के प्रयोग चलते रहे। हिन्दी-उर्दू-फारसी में प्रचलित काग़ज़ kaghaz शब्द इन भाषाओ में अरबी से आया है मगर यह शब्द मूलतः अरबी का भी नहीं है बल्कि चीनी भाषा से आया है।

ह स्थापित तथ्य है कि काग़ज़ का आविष्कार पश्चिम में नहीं बल्कि पूर्व में हुआ था। ईसा से करीब एक सदी पहले चीन के उत्तर पश्चिमी गांसू प्रांत में त्साई लिन नामक एक उद्यमशील राजकीय कर्मचारी ने किया था। चीन में इस पदार्थ को नाम मिली गू-झी अर्थात Gu zhi । चीनी भाषा में इसका अर्थ हुआ लेखन सामग्री। कई सदियों तक चीनियो की काग़ज़ बनाने की तकनीक गुप्त रही मगर आखिरकार सातवीं आठवीं सदी के आसपास किसी तरह यह तरकीब उज्बेकिस्तान के प्राचीन शहर समरकंद तक पहुंच गई जहां इसका तुर्की नाम हुआ काघिद। बरसों तक फारस, अरब और तुर्किस्तान में यह समरकंदी काघिद के तौर पर विख्यात रहा। अरब में इसका उच्चारण हुआ काग़ज़ जिसे फारसी के साथ उर्दू ने भी अपनाया। भारत की उत्तर से दक्षिण तक कई भाषाओं में इसके विभिन्न प्रतिरूप देखने को मिलते हैं जैसे मराठी, राजस्थानी,पूर्वी में कागद, तमिल में कागिदम्, मलयालम में कायितम् और कन्नड़ में कायिता। चीनी में गू-झ़ी के अलावा इसकी एक अन्य व्युत्पत्ति
कोग-द्ज के रूप में भी मिलती है जिसका अर्थ होता है एक खास किस्म के शहतूत के रेशे से बना पत्र।

शुरूआती दौर में काग़ज़ हस्तनिर्मित होता था। यूरोपवालों ने मध्यकाल में इसे मशीनों से उत्पादित करने की तरकीबें ईज़ाद कीं।

राजस्थान में काग़ज़ का कारोबार करनेवालों को कागदी भी कहा जाता है। सागानेर समेत देश में कई स्थानों पर कुटीर उद्योग के तौर पर हस्तनिर्मित काग़ज़ बनाया जाता है।

काग़ज़ के संदर्भ में ही अक्सर रद्दी का भी जिक्र आता है। हिन्दी में आमतौर पर इस्तेमाल शुदा काग़ज़ को रद्दी या रद्दी काग़ज़ कहते हैं। रद्दी शब्द मूलतः अरबी का है और इसके दायरे में सिर्फ काग़ज़ ही नहीं वे सब पदार्थ आते हैं जो अनुपयोगी हैं, फेंकने लायक हैं अथवा त्याज्य हैं। रद्दी बना है अरबी के रद्द शब्द से जिसका मूल अर्थ है खारिज़ करना, अस्वीकार करना अथवा नापसंद करना। रद्द शब्द रद का ही रूपांतर है जिसका मूलार्थ है उलटी अथवा वोमिट करना। गौर करें कि शरीर ने जिसे अस्वीकार कर दिया वही है मितली अथवा उलटी। अस्वीकार का यही भाव रद्द से बने तमाम शब्दों में प्रमुखता से उभरा है। रद्द से इस्लामी शब्दावली का एक प्रमुख शब्द रिद्दाह भी जन्मा है जिसका अर्थ होता है इस्लाम से इनकार करना। जाहिर है ऐसा व्यक्ति इस्लाम की निगाह में काफिर होगा। रद्द से ही बने रद्दे-अमल अर्थात किसी बात अथवा कार्य की प्रतिक्रिया और रद्दो-बदल यानी परिवर्तन अथवा बदलाव आदि शब्द भी हिन्दी में आमतौर पर इस्तेमाल होते हैं। बहरहाल यह तो निर्विवाद है कि काग़ज़ का आविष्कार चीन में हुआ और यह शब्द भी मूल चीनी शब्द का ही रूपांतर है। शुरूआती दौर में काग़ज़ हस्तनिर्मित होता था। यूरोपवालों ने मध्यकाल में इसे मशीनों से उत्पादित करने की तरकीबें ईज़ाद कीं। पर्यावरण और स्वास्थ्य के मद्देनजर हस्तनिर्मित काग़ज़ का इस्तेमाल अब बढ़ रहा है। दिलचस्प यह कि इसके निर्माण की प्रमुख सामग्री कपड़े और काग़ज़ की रद्दी ही है।

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16 कमेंट्स:

अनामदास said...

मिस्र गया था तो कई पुरानी हस्तलिखित पांडुलिपियाँ देखने को मिली जो एक पौधे के तने से बनाए गए भोजपत्र नुमा कागज़ पर लिखी गई थीं, नाम था पपायरुस. फराओ के दौर की पांडुलिपियाँ उसी पर लिखी गई थीं, यानी ईसा से एक-डेढ़ हज़ार साल पहले. यह दरअसल अरबी का नहीं बल्कि ग्रीक का शब्द है जो बाद में यूरोप पहुँचा जिससे अँगरेज़ों ने पेपर शब्द बनाया. अरबी में इसे वज़्द और त्वफ़ी (विकीपीडिया) के नाम से जाना जाता रहा. जिस पेपर का इस्तेमाल करके बड़े बड़े शोध अँगरज़ों ने लिखे, जिस कागद को हम सबने काला किया, उसमें सब कुछ हमारा ही था, या हमारा कुछ नहीं था...ये दुनिया ऐसी ही है..शायद इस दुनिया में इंसान के एक होने के सबसे बड़े गवाह शब्द हैं, हालाँकि उनकी अलग-अलग पहचान बताने के लिए भाषाशास्त्रीय विश्लेषण भी एक आम तरीक़ा है, कितनी बड़ी विडंबना है, शायद वैसे ही जैसे हर इंसान का ख़ून एक जैसा है लेकिन अलग-अलग ब्लड ग्रुप हैं. एक सुंदर पोस्ट के लिए साधुवाद.

sanjay vyas said...

आपका काग़ज़ के उत्स में चीन तक जाना और अनामदास जी का मिस्र पहुँचाना साबित करता है की अभिव्यक्ति की तकनीक के विकास में मानव की साझा बुद्धि सभ्यताओं की भौगोलिक सीमाओं का अतिक्रमण करती रही है. हम जिसे काग़ज बनाने जी पारंपरिक तकनीक समझते आए है वो तो चीन से ही विकसित मानी जाती है. साधुवाद.

विवेक सिंह said...

अच्छी जानकारी मिली ! आभार !

dhiru singh { धीरेन्द्र वीर सिंह } said...

न जाने कितने कागज़ रद्दी कर दिए मैंने . कभी ध्यान नही दिया था कागज़ कैसे बना जो बना उसे कागज़ क्यो कहाँ . आपके द्वारा पता चल ही गया . चीन के अफीम्चियो ने भी क्या नायाब चीज बनाई . धन्यबाद

दिनेशराय द्विवेदी said...

हस्त निर्मित कागज तो आज भी बहुत खूबसूरत और मजबूत होता है। राजस्थान में तो यह निमंत्रण छापने के लिए बहुत प्रयोग में लिया जाता है।

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी said...

हमेशा की तरह ज्ञानबर्द्धक पोस्ट। बड़ी मात्रा में कागज का आधुनिक उत्पादन पर्यावरण में जंगलों और वनस्पतियों की कमी का एक कारण है। अब जमाना पेपरलेस ऑफिस का आ रहा है।

एक और शोधपरक पोस्ट का आभार।

Dr. Chandra Kumar Jain said...

रद्दे अमल....रद्दो बदल !
कमाल है भाई !
=============
डॉ.चन्द्रकुमार जैन

महेन said...

बहुत खूब!!

Ashok Pande said...

रद्दी के कारोबार में लगे हम कबाड़ियों के बहुत मतलब का मटेरियल परोसने का शुक्रिया अजित भाई!

उत्तम पोस्ट. अनामदास जी ने जो अतिरिक्त सूचना मुहैया कराई, उस के लिए उनका आभार.

अजित वडनेरकर said...

अनामदास जी आप बिल्कुल ठीक कह रहे हैं। वृक्ष की छाल पर दस्तावेज बनाने की परंपरा पर मैं अगली कड़ी में लिखनेवाला था। पश्च्चिम एशिया में पशुओं की पतली खाल पर लिखने की परंपरा थी। दफ्तर का मूल अर्थ काग़ज़-पत्तर ही था जो डिप्थेरा यानी पतली झिल्ली से बना है। विस्तार से यहां देख सकते हैं। यह शब्द भी ग्रीक-हिब्रू में है। मगर काग़ज़ का आविष्कार लेखन संबंधी ऐसी तकनीक थी जिसमें सब कुछ मनुष्य के नियंत्रण में था। चीनियों की यह देन इसी लिए महत्वपूर्ण है।

एस. बी. सिंह said...

बहुत सारगर्भित जानकारी। धन्यवाद

विजय गौड़ said...

"हम रद्दी कागजों की तरह उड रहे है बच्चों
हमें अपने बोझ से दबाओ"
भाई राजेश सकलानी की कविता पंक्तियाँ याद आ गईं |

Abhishek Ojha said...

कागज का सफर पूर्व से ही चालु हुआ था. बहुत अच्छी जानकारी.

Vinay said...

बहुत बढ़िया और काम की जानकारी
मकर संक्रान्ति की शुभकामनाएँ
मेरे तकनीकि ब्लॉग पर आप सादर आमंत्रित हैं

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लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

मकर सँक्राति पर आपको सपरिवार शुभकामनाएँ ये पोस्ट भी हमेशा की तरह रोचक रही

Unknown said...

बहुत सही दादा,रद्दी की सही व्याख्या की है.

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