... अली सरदार ज़ाफरी साहब ने एके सेन की हिन्दुइज्म पुस्तक से एक बेहतरीन नजी़र दी है जो बाऊल क्या हैं, यह बताती है। सेन साहब ने ज्वार के वक्त गंगातट पर बैठे एक बाऊल से पूछा कि वे आने वाली पीढ़ियों के लिए अपना वृत्तांत क्यों नहीं लिखते। बाऊल ने कहा कि हम तो सहजगामी है, पदचिह्न छोड़ना ज़रूरी नहीं समझते। उसी वक्त पानी उतरा और मांझी पानी में नाव धकेलने लगे। बाऊल ने सेन महाशय को समझाया, ‘क्या भरे पानी में कोई नाव निशान छोड़ती है ? केवल वही मांझी जो मजबूरी की वजह से कीचड़ में नाव चलाते हैं, निशान छोड़ते हैं। बाऊल केवल बाऊल है। वह किसी भी वर्ग से आए, कोई कारनामा नहीं करते। वे सहज में मिल जाते है। ’
अ गर आप संगीत प्रेमी हैं और बाऊल संगीत नहीं सुना तो आपको अभागा माना जा सकता है । क्योंकि बाऊल तो भक्ति संगीत की एक ऐसी धारा है जिसमें डुबकी लगाए बिना गंगासागर में स्नान का पुण्य भी शायद निरर्थक है। बंगाल भूमि से उपजे इस भक्तिनाद में माधुर्य और समर्पण का ऐसा राग-विराग है जो श्रोता पर परमात्मा से मिलने की उत्कट अभिलाषा का रहस्यवादी प्रभाव छोड़ता है। बाऊल भी इस देश की अजस्र निर्गुण भक्ति धारा के महान अनुगामी हैं जिनमें सूफी फ़कीर भी हैं तो वैष्णव संत भी। बाऊल बंगाल प्रांत के यायावर भजनिक हैं। ये आचार-व्यवहार से वैष्णव परिपाटी के होते हैं और चैतन्यमहाप्रभु की बहायी हुई भक्तिधारा का इन पर प्रभाव स्पष्ट है। मगर इन्हें पूरी तरह से वैष्णव कहना गलत होगा। बाऊल सम्प्रदाय में हिन्दू जोगी भी होते हैं और मुस्लिम फकीर भी। ये गांव-गांव जाकर एकतारे के साथ निर्गुण-निरंजन शैली के गीत गाते हैं। न सिर्फ बंगाल भर में बल्कि अब तो दुनियाभर में ये बेहद लोकप्रिय हैं। आप अगर बाऊल संगीत सुन सकें तो हिन्दी फिल्मों के कई गीत याद आ जाएंगे, जो इस सरल संगीत शैली से प्रभावित हैं।
इस सम्प्रदाय में सूफी मत से लेकर बौद्धों के तंत्र-मंत्रवादी रहस्यवाद का भी प्रभाव मिलता है। वैष्णवों की प्रेमपगी भक्तिसाधना तो इनकी पहली पहचान ही है।
बाऊल शब्द के विषय में कई तरह के
मत प्रचलित हैं। एक मत के अनुसार यह शब्द फारस की सूफी परम्परा बा’अल से निकला है। यह पंथ बारहवीं सदी में यमन के प्रसिद्ध सूफी
संत अली बा अलावी अल हुसैनी Ali Ba'Alawi al-Husaini के नाम से शुरू हुआ था। इस्लाम की सहज-सरल समानतावादी दृष्टि की शिक्षा देने वाले इस
पंथ के सूफियों का भारत आगमन हुआ और बंगाल की संगीतमय पृष्ठभूमि में इन्हें अपने अध्यात्म को जोड़ते देर नहीं लगी। एक अन्य मत के अनुसार बंगाल में बाऊल संगीत कब से शुरू हुआ कहना कठिन है मगर इसका रिश्ता संस्कृत के
वातुल शब्द से है। वातुल बना है
वात् धातु से जिसका मतलब है वायु, हवा। गौरतलब है कि शरीर के तीन प्रमुख दोषों में एक वायुदोष भी माना जाता है। बाहरी वायु और भीतरी वायु शरीर और मस्तिष्क पर विभिन्न तरह के विकार उत्पन्न करती है। आयुर्वेद में इस किस्म के बहुत से रोगों का उल्लेख है।
वातुल शब्द में वायु से उत्पन्न रोग का ही भाव है। आमतौर पर जिसकी बुद्धि ठिकाने पर नहीं रहती उसके बारे में यही कहा जाता है कि इसे गैबी हवा लग गई है। बहकना शब्द पर ध्यान दीजिए। इसे आमतौर पर पागलपन से, उन्माद से ही जोड़ा जाता है। संस्कृत की वह् धातु का अर्थ भी वायु ही होता है अर्थात जो ले जाए। वायु की गति के आधार पर यह शब्द बना है। वह् का रूप हुआ बह जिससे बहाव, बहना या बहक-बहकना जैसे शब्द बने। किसी रौ में चल पड़ना, या जिसका मन-मस्तिष्क किसी खास लहर पर सवार रहता हो, उसके संदर्भ में ही यह क्रिया बहक या बहकना प्रचलित हुई। जाहिर है, यहा वायुरोग के लिए ही संकेत है। वातुल के दार्शनिक भाव पर गौर करें। अपनी धुन में रहनेवाले, मनमौजी लोगों को भी समाज में पागल ही समझा जाता है। तमाम सूफी संतों, फकीरों, औलियाओं और पीरों की शख्सियत रहस्यवादी रही है। परमतत्व के प्रति इनकी निराली सोच, उसे पाने के अनोखे मगर आसान रास्ते और प्रचलित आराधना पद्धतियों-आराध्यों से हटकर अलग शैली में निर्गुण भक्ति का रंग इन्हें बावला साबित करने के लिए पर्याप्त था।
स्पष्ट है कि वातुल से ही बना है बाऊल। इसी तरह वातुला से बना है बाउला या बावला। इसका एक अन्य रूप है बावरा। प्रख्यात गायक बैजू बावरा के नाम के साथ जुड़ा बावरा शब्द इसी वातुल से आ रहा है। बैजू की संगीत के प्रति दीवानगी के चलते उसे दीनो-दुनिया से बेखबर बनाती चली गई। सामान्य अर्थों में वह सामाजिक नहीं था, सो वातरोगी के लिए, उन्मादी के लिए प्रचलित बावला शब्द अपने दौर के एक महान गायक की पदवी बन गया।
किन्हीं विशिष्ट अवसरों पर चाहे आह्लादकारी हों या विशादकारी, प्रभावित व्यक्ति के विचित्र क्रियाकलापों को बौराना कहा जाता है। कुछ लोग इसे आम्रबौर से जोड़ते हैं। यह ठीक नहीं है। यह बौराना दरअसल बऊराना ही है यानी वातुल से उपजे बाऊल की कड़ी का ही शब्द। जिस मूल से बावरा जैसा शब्द बना है, उससे ही बौराना-बऊराना भी बना है।
एक अन्य दृष्टकोण के अनुसार निर्गुण वैष्णव भक्तिमार्गियों के इस विशिष्ट सम्प्रदाय के लिए बाऊल शब्द के मायने इनकी उत्कटता, लगन और परमतत्व से मिलने की व्याकुलता है। व्याकुल शब्द ने ही ब्याकुल और फिर बाऊल रूप लिया। यूं देखा जाए तो वात या वातुल शब्द से बाऊल की व्युत्पत्ति का आधार मुझे ज्यादा तार्किक लगता है क्योंकि उसके पीछे भाषावैज्ञानिक और सामाजिक दृष्टिकोण अधिक प्रभावी है। अली सरदार जा़फरी भी अपनी कबीरबानी में इन्हें बाऊल=बावला अर्थात उन्मत्त लिखते हैं जो सभी परम्परागत बंधनों से मुक्त होकर हवा की तरह मारे मारे फिरते हैं।
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20 कमेंट्स:
अच्छी जानकारी !!
वैसे बाउल संगीत का थोडा बहुत इस्तेमाल फिल्मी दुनिया में भी हुआ है !!
अल्ला मेघ दे पानी दे, ..'आंखें फाड़े दुनिया देखे हाय ये तमाशा, हाय रे विश्वास मेरा, हाय मेरी आशा। अल्ला मेघ दे। यह बाउल शैली का महान गीत है।
बावरा, बाउल, बावला की व्याख्या बहुत ही सुन्दर ढंग से की गयी है।
बौराना का सही शब्द बउराना तर्कसंगत है।
बधाई स्वीकार करें। पागल कैसे बना है?
इसकी भी आगामी किसी कड़ी में चर्चा कर दें तो अच्छा रहेगा।
"बाऊल केवल बाऊल है। वह किसी भी वर्ग से आए, कोई कारनामा नहीं करते। वे सहज में मिल जाते है।"
कथन कितना सारगर्भित है!
न जाने व्याकुलता क्यों भर गयी है मन में, इस पोस्ट को पढ़कर ! कैसे कहूँ कि टिप्पणी अपरिहार्य हो चली है ।
बाउल शब्द का उद्गम कुछ भी हो। बाउल संगीत तो हृदय की गहराई से ही निकलता है।
मुझे हर रोज़ नया सीखने को मिलता है ...शुक्रिया आपका
वाह!शानदार हमेशा की तरह्।
बाउन शैली के संगीत के बारे में जानकर प्रसन्नता हुई।
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तस्लीम
साइंस ब्लॉगर्स असोसिएशन
बैजू बावरा के सन्दर्भ मे उन्माद और बावलापन की शिद्दत महसूस हुई. शमा-परवाने सन्दर्भ मे दिवानगी का क्या खूब चित्रण हुआ है-मीर के इस शेर मे:-
कुछ न देखा फिर बजुज़ एक शोअलए पूर पेच-ओ-ताब,
शमअ तक हमने तो देखा था कि परवाना गया.
[खुद को ख़त्म कर लेने की ह्द तक ] . बाउल् / दीवाने का सफ़र अच्च्छा लगा .
-मंसूर अली हाशमी
बाउल संगीत एकबार सुनने का अवसर प्राप्त हुआ था तो मेरे एक मित्र बोले ये संगीत तो उनके लिए है जो दिन-दुनिया से बेखबर , सब कुछ छोड़ के भगवन में लीन होना चाहते है , ये तुम क्यों सुन रहे हो अभी तुम्हारी उम्र नहीं हुई है इसे सुनने की .
आज पता चल भी गया की उन्होंने गलत नहीं कहा था ये उन्ही के लिए है जो परम्परागत बंधनों से मुक्त होकर हवा की तरह मारे मारे फिरते हैं.
जब तक बाबला न हो किसी विषय के लिए तब तक न ज्ञान मिलता है न आनंद
बचपन में घर के सामने से एक बंगाली फकीर रोज़ जाता था हाथ में इकतारा लिए और कुछ गाते हुए। भीख वो नहीं मांगता था बस अपनी धुन में बंगला में कुछ गाते हुए जाता था। शायद बाउल जैसा ही कुछ था।
I am amazed by the ocean of your knowledge! Especially, your knowledge of languages!
Wonderful!
God bless
RC
prabhaavee aalekh
हम तो सफ़र के दीवाने हो गए हैं.
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डॉ.चन्द्रकुमार जैन
नयाँ बर्ष २०६६ सालको उपलक्ष्यमा हजुर र हजुरको परिबारमा सुख, समृद्दि, सुस्वास्थ्य औ दीर्घ जीवनको हार्दिक मंगलमय शुभकामना !!!
बाउल संगीत सुनने का सुख-सौभाग्य आज तक नहीं मिला। इसके बारे में, सचिन दा' (स्वर्गीय श्री सचिन देव बर्मन) से बहुत ही विस्तार से सुना था। सचिन दा' के संगीत पर बाउल संगीत की घनी छाया सहजता से अनुभव की जा सकती हे। सचिन दा' ने विस्तार से बताया था कि कैसे वे, परिजनों के निषेध का निषेध कर, बाउलों के पीछे बावले की तरह घूमा करते थे।
कृतार्थ किया आपने ! अपने श्रम से हमारी पिपासा शांत की |
अनहद नाद की ताल और तान पर मतवाला बावला बाउल ! संगीत जो झर झर झरता है अंतरतम में हमारी अंतस्रावी ग्रंथियों के रस की तरह.. | उपासना का इससे श्रेष्ठ कोई उपाय नहीं |
गागर में सागर जैसा आपका आलेख बार बार गोते लगाने योग्य सिन्धु की तरह ही तो है | खेद हुआ कि देर से बांचा | अभी और गोता लगाना बाकी है | प्रणाम |
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