... प्रत्याशियों के चरित्र को देख कर वोटर से समर्पण की अपेक्षा नहीं की जा सकती, जो वोटिंग का मूलभूत उद्धेश्य है।...
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प्रस्तुतकर्ता
अजित वडनेरकर
पर
1:49 AM
लेबल:
government
16.चंद्रभूषण-
[1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8 .9. 10. 11. 12. 13. 14. 15. 17. 18. 19. 20. 21. 22. 23. 24. 25. 26.]
15.दिनेशराय द्विवेदी-[1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8. 9. 10. 11. 12. 13. 14. 15. 16. 17. 18. 19. 20. 21. 22.]
13.रंजना भाटिया-
12.अभिषेक ओझा-
[1. 2. 3.4.5 .6 .7 .8 .9 . 10]
11.प्रभाकर पाण्डेय-
10.हर्षवर्धन-
9.अरुण अरोरा-
8.बेजी-
7. अफ़लातून-
6.शिवकुमार मिश्र -
5.मीनाक्षी-
4.काकेश-
3.लावण्या शाह-
1.अनिताकुमार-
मुहावरा अरबी के हौर शब्द से जन्मा है जिसके मायने हैं परस्पर वार्तालाप, संवाद।
लंबी ज़ुबान -इस बार जानते हैं ज़ुबान को जो देखते हैं कितनी लंबी है और कहां-कहा समायी है। ज़बान यूं तो मुँह में ही समायी रहती है मगर जब चलने लगती है तो मुहावरा बन जाती है । ज़बान चलाना के मायने हुए उद्दंडता के साथ बोलना। ज्यादा चलने से ज़बान पर लगाम हट जाती है और बदतमीज़ी समझी जाती है। इसी तरह जब ज़बान लंबी हो जाती है तो भी मुश्किल । ज़बान लंबी होना मुहावरे की मूल फारसी कहन है ज़बान दराज़ करदन यानी लंबी जीभ होना अर्थात उद्दंडतापूर्वक बोलना।
दांत खट्टे करना- किसी को मात देने, पराजित करने के अर्थ में अक्सर इस मुहावरे का प्रयोग होता है। दांत किरकिरे होना में भी यही भाव शामिल है। दांत टूटना या दांत तोड़ना भी निरस्त्र हो जाने के अर्थ में प्रयोग होता है। दांत खट्टे होना या दांत खट्टे होना मुहावरे की मूल फारसी कहन है -दंदां तुर्श करदन
अक्ल गुम होना- हिन्दी में बुद्धि भ्रष्ट होना, या दिमाग काम न करना आदि अर्थों में अक्ल गुम होना मुहावरा खूब चलता है। अक्ल का घास चरने जाना भी दिमाग सही ठिकाने न होने की वजह से होता है। इसे ही अक्ल का ठिकाने न होना भी कहा जाता है। और जब कोई चीज़ ठिकाने न हो तो ठिकाने लगा दी जाती है। जाहिर है ठिकाने लगाने की प्रक्रिया यादगार रहती है। बहरहाल अक्ल गुम होना फारसी मूल का मुहावरा है और अक्ल गुमशुदन के तौर पर इस्तेमाल होता है।
दांतों तले उंगली दबाना - इस मुहावरे का मतलब होता है आश्चर्यचकित होना। डॉ भोलानाथ तिवारी के मुताबिक इस मुहावरे की आमद हिन्दी में फारसी से हुई है फारसी में इसका रूप है- अंगुश्त ब दन्दां ।
10 कमेंट्स:
अंग्रेजी का वाऊ vow इसी श्रंखला का शब्द है जिसका मतलब होता है प्रार्थना, समर्पण और निष्ठा के साथ अपनी बात कहना।"
इतना सारगर्भित शब्द है वाऊ vow ? मंद-मति बहुत से शब्दों को अर्थ-च्युत कर देता हूँ अपनी चेतना में । धारणा बन जाती है, यह शब्द निरर्थक होगा ।
भाई वडनेकर जी!
मतपत्र, मतदान, मतदानकेंद्र, मतगणना, मताधिकार, सहमत, असहमत सभी मेरी मति में निष्ठा के साथ समा गये हैं।
लोकतन्त्र में निष्ठावान नेता बचे ही कितने हैं, ऐसे में वोटर निष्ठावान
कैसे हो सकता है?
वह मुँह से बोलता नहीं, अपना मत देता है ।
मत हा वोटर की जबान है।
शब्दों का सफर अच्छा चल रहा है।
शब्द से अधिक अर्थ को महत्ता देता आलेख ! प्रारम्भिक शब्द जो भूमिका बतौर लिखे है सूक्ति समान हो गए हैं.
" चुनाव की ऋतु में विभिन्न प्रकार के वचन सुनने को मिलते हैं। इन वचनों में याचना, संदेह, आरोप, भय, संताप, प्रायश्चित, प्रतिज्ञा, प्रार्थना आदि कई तरह के भाव होते हैं जिनका लक्ष्य आम आदमी होता है जो लगातार मौन रहता है।"
कमाल का दृष्य रचा है | मंतव्य भी और व्यंग्य भी |
इस मत से असहमत नहीं हुआ जा सकता कि वर्तमान दशाओं और लोलुपता के युग में प्रत्याशियों के चरित्र को देख कर वोटर से समर्पण की अपेक्षा नहीं की जा सकती, जो वोटिंग का मूलभूत उद्धेश्य है। अब जन प्रतिनिधियों में देश के प्रति वह डिवोशन कहाँ जो उन्हें चरित्रवान बनाए रखे !
एकदम समीचीन आलेख अभिभूत कर देने वाला | अनंत साधुवाद |
- RDS
आपका लेखन बहुत पसंद है, मैं समय मिलते ही इसे पढ़ती हूँ कभी कभी एक साथ तीन चार पोस्ट भी देखनी पड़ जाती है. सुन्दर लेखन की बधाई.
अपनी मति के अनुसार ये मत प्रकट कर रहा हूं कि आप शब्दों के ज़ादुगर हैं।
भाई अजीत जी ,आपके शब्दों का सफर बुद्धि को परीमार्जित करता है .आपने सही लिखा है ... वोट एक प्रार्थना भी है, जिसे मतपत्र के जरिये वह मतपेटी में काल के हवाले करता है, इस आशा में की उसकी वांछा पूरी होगी। ...सामयिक शब्दों ,मत वोट, का खूब विश्लेषण किया है आपने ...साथ ही निष्ठा ,समर्पण जैसे शब्दों और वैदिक कालीन शब्दों की व्युत्पत्ति -व्याख्या -समानता तो लगातार पिछली पोस्ट से देखती आरही हूँ ...बधाई..आपका सफर निर्बाध गति से चलता रहे यही कामना है
मत का दान क्यों किया जाए क्योकि दान करने के बाद हम उस पर अपना अधिकार छोड़ देते है इसलिए मत ऋण दे और बीच बीच मे व्याज भी वसूले और पांच साल के बाद हिसाब साफ़ करे .
हमारा अभिमत है कि
इसमें दो मत नहीं कि
आपने हमें
'मतदान-मंथन' का अनोखा अवसर दिया.
वैसे हम पहले भी कहते आये हैं कि
सफ़र की कड़ियाँ मति-सन्मति दायक हैं,
इसके प्रस्तोता सचमुच 'अक्षर-विधायक' हैं.
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आभार
डॉ.चन्द्रकुमार जैन
शब्दों का सफर अपनी गरिमा के मुताबिक है। पर मोदी एक ही काफी नहीं है क्या?
वोटम और के vow बारे में जाना रोचक रहा !
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