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Friday, April 3, 2009
शोशाबाज कहो या शीशाबाज…
म नुष्य में बनने-संवरने की चाहत बहुत पुरानी है। श्रंगार से जुड़ी तमाम प्राचीन परम्पराएं हर समाज-संस्कृति में रही हैं और लोकजीवन में इनकी छाप कायम है। श्रंगार की भावना उद्दीप्त होने के पीछे अन्य कारक का होना आवश्यक है, चाहे वह प्रकृति हो, कोई मनुष्य हो या स्वयं की छवि। यह सच है कि दूसरे को देखकर भी श्रंगार की इच्छा जागती है पर सजने की भावना सर्वप्रथम तो मनुष्य में तभी जागी होगी जब उसने खुद का प्रतिबिम्ब निहारा होगा।
मनुष्य के पास जैसे भोजन के विविध विकल्प हैं वैसे खुद की छवि निरखने के लिए हजारो वर्षों के विकास क्रम के बावजूद बहुत ज्यादा विकल्प कभी नहीं रहे। आज से करीब आठ हजार साल पहले से मनुष्य ने शीशे में अपनी छवि देखनी शुरू की। उससे पहले तक वह स्थिर जल के कुंड में ही अपनी छवि देख पाता था। लाखों सालों से उसके पास यही जरिया था। आज जिसे हम शीशा shisha कहते हैं उसका आविष्कार आज से करीब चार हजार साल पहले मिस्र में अनायास हुआ। ईसा से करीब छह हजार साल पहले से मनुष्य चमकीले ज्वालामुखी पत्थरों में अपनी छवि देखा करता था। शीशा शब्द बना है सिक्ष्य से जिसका मतलब है देखा हुआ, दर्शित। संस्कृत में एक शब्द है साक्षिन् जिसका अर्थ होता है दृष्टा अर्थात जो देख रहा हो। हिन्दी में आमतौर पर इसका रूप साक्षी sakhshi है जिसका अभिप्राय गवाह, चश्मदीद से होता है। यह बना है सह+अक्षि से। सह में सहित का भाव है और अक्षि अर्थात आंख, नेत्र, नयन। इसी तरह बना है साक्षात् शब्द। साक्षात् अर्थात सम्मुख। आईने में प्रतिबिम्ब ही हमारे सामने होता है।
अक्ष या अक्षि से ही बना है समक्ष (सम+अक्ष) जिसका अर्थ है आंखों के सामने। कबीर के पदों में साखियां बहुत प्रसिद्ध हैं। साखी शब्द भी साक्षी का ही अपभ्रंश है। परम आत्मज्ञान की शिक्षा देने वाले कबीर kabir के पदों को साखी sakhi इसलिए कहा जाता है क्योंकि कबीर स्वयं जिन अनुभवों के साक्षी हुए उसे ही उन्होंने लोगों को बतलाया है। स्वानुभूत ज्ञान, साक्षात् दर्शन ही साखी है। साक्षी से ही बना है संस्कृत का सिक्ष्य शब्द जिसका अर्थ है देखा हुआ। हिन्दी, उर्दू का शीशा शब्द इसी का अपभ्रंश है। यहां भी अक्ष् शब्द ही झांक रहा है। गौरतलब है कि अक्ष शब्द की मूल धातु है अश् जिसमें पहुंचने, संचित होने, व्याप्त होने का भाव है। समस्त दृष्यजगत नेत्रों में व्याप्त हो जाता है, अश् से बने अक्ष में यही भाव है। देखें कि सिक्ष्य से बने शीशा में अश् वाला श ही झांक रहा है।
मज़े की बात यह की हिन्दी शब्दकोशों में शीशा फारसी मूल का शब्द है न कि संस्कृत का। यह इसलिए क्योंकि अवेस्ता में भी सिक्ष्य के मिलते-जुलते रूप से फारसी ने शीशः रूप ग्रहण किया जो बरास्ता उर्दू हिन्दी में शीशा बना। भारत में अरबी-फारसी के प्रभाव से पहले दर्पण के लिए शीशा की जगह कांच शब्द का ही प्रचलन था। शीशा शब्द बने जितने भी शब्द हिन्दी में प्रचलित हैं उनमें से ज्यादातर फ़ारसी मिज़ाज से बने हैं और मुहावरों का असर रखते हैं जैसे शीशाबाज या शीशाबाजी। अर्थात धूर्त, छली, मक्कार या मक्कारी। बात यह कि शीशा शब्द में मूल भाव तो था दर्पण का, मगर कालांतर में शीशा दर्पण का पर्याय भी बना और कांच का भी। इसीलिए शीशा से शीशी शब्द बना जिसका अर्थ होता है छोटी बोतल। गौरतलब है कि अनोखीबात करने या दिखावा करने, झगड़ा-फ़साद करनेवाले को शोशाबाज या शोशाबाजी कहा जाता है। शीशाबाज या शोशाबाज, दोनों के अर्थ में काफी समानता है। यह बना है फारसी के शोशः से जिसका अर्थ होता है रेज़ा, ज़र्रा, खंड, पिंड अथवा सोने-चांदी की डली। फारसी-अरबी अक्षरों के नीचे लगनेवाला विशिष्ट चिह्न। आशय यही है कि छोटी-छोटी और अनोखी बातों से ध्यानाकर्षण करानेवाला। मगर शोशा की रिश्तेदारी इस अर्थ में ज़रूर शीशः से मिलती है कि इसमें भी चमक का भाव है और शीशा भी चमकदार होता है। शीशमहल यानी कांच के टुकड़ों से सजाया गया कक्ष, शीशादिल यानी जिसका हृदय बहुत नाजुक हो, शीशागर यानी कांच का निर्माण करनेवाला, जैसे शब्दों का उल्लेख भी इसी कड़ी में किया जा सकता है।
एक प्रसिद्ध मुहावरा है, शीशे में उतारना। जिसका मतलब होता है किसी पर जबर्दस्त प्रभाव डालना या अपना प्रभाव जमाना। आजकल इसका एक सरलीकृत अर्थ भी चल पड़ा है-उल्लू बनाना। पुराने ज़माने में फारस में कांच पर चित्रकारी की कला बड़ी मशहूर हुई थी। फाइन आर्ट के इन नायाब नमूनों में अस्ल और नक्ल का फर्क कर पाना खासा मुश्किल काम था। कलाकारों की खासियत यह थी कि नोक पलक, भंगिमा, यहां तक कि नायिका को विशिष्ट समय में हुई हरारत का असर तक वे अपने चित्र में दिखाते थे। इस कलात्मक जादूगरी के लिए ही शीशे में उतारना मुहावरा चला। यह भी संभव है कि यह अरबी संस्कृति की देन हो। मिस्र में जब कांच का आविष्कार हो गया तो उसमें प्रतिबिम्ब दिखने की खासियत से तांत्रिक-नजूमी बहुत प्रभावित हुए। भविष्यवाणियां करने के लिए वे शीशे की एक गेंद, जिसे योरप में मैंजिक बॉल, क्रिस्टल बॉल या ग्लासआई कहा गया, के जरिये पारलौकिक आत्माओं से बातचीत का ढोंग रचते थे। लोगों को यह भ्रम होता था की शीशे में वे आत्माओं को उतारते हैं, जो भविष्यवाणी करती है। एक अन्य व्याख्या के मुताबिक अरेबियन नाइट्स के प्रसिद्ध चरित्र इच्छापूर्ति करनेवाले जिन्न को बोतल में बंद करनेवाला कारनामा ही प्रभाव जमाने के अर्थ में शीशे में उतारना की वजह है।
प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर पर 2:59 AM
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13 कमेंट्स:
वडनेकर जी!
आज तो आपने शीशा दिखा कर अपने पाठकों को सचमुच शीशे में उतार दिया। शीशे की गहराई में जाकर शीशे के सच को आपने बड़ी खूबी से आँखों में उतारा है।
इसके लिए मेरे पास तो आपको देने के लिए साधुवाद ही है।
इस खोज पूर्ण लेख के लिए बधाई स्वीकार करें।
बड़े दिन बाद जो आ रहे हैं आज तो बहुत कुछ पढ़ना है सो छोटी टिप्पणी से काम चलाइए!
बहुत जानकारीपूर्ण आलेख रहा. बहुत बहुत आभार.
शोशाबाज भी जान लिया । धन्यवाद ।
"शीशा हो या दिल हो आखिर टूट जाता है "
" Mirror Mirror on the wall
Who is fairest one of all ?"
याद आ गये ..........
- लावण्या
खैर शीशे मे तो उतार ही लिया है आपने . शीशा अगर न टूटे तो शीशा ही नहीं कहलायेगा ऐसा मेरा मानना है .
हमेशा की तरह.....इस बार भी मैं लाज़वाब हो गया....रचना की बाबत कुछ भी कहने की ताब मुझमें कतई नहीं....!!
साफ़....निर्मल पोस्ट
शीशे की तरह.
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आभार
डॉ.चन्द्रकुमार जैन
बहुत अच्छी जानकारी
शीशे का ज्ञान शीश के झंझोर गया .
वाह, सुन्दर। आपने आइना दिखा दिया।
बहुत बढिया जी.
रामराम.
हमेशा की तरह रोचक व जानकारीपूर्ण आलेख।
अच्छी जानकारी है।
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