... वृद्धावस्था होने पर तपस्वी अक्सर इच्छा मृत्यु चुनते थे जिसके तहत वे आहार त्याग कर निरंतर भाव-चिन्तन में लीन रहते। इन्ही क्षणों में वे देहत्याग करते जिसे समाधि कहा जाने लगा ...
अ न्तिम संस्कार के सर्वाधिक प्रचलित तरीकों में एक है मृतदेह को भूमि में दबाना जिसे दफ़्न करना कहते हैं इसके बाद आता है दाहसंस्कार जो हिन्दू धर्म तथा उससे निकले कुछ पंथो में प्रचलित है। ईसाइयों, मुस्लिमों, यहूदियों समेत कई अन्य समाज-संस्कृतियों में शवों को दफ़नाने की परम्परा है। मुस्लिम समाज में शवों को जहां गाड़ा जाता है उसे कब्रिस्तान कहते हैं। हिन्दुओं में उस स्थान को श्मशान कहते हैं।
हिन्दुओं में आमतौर पर दाहसंस्कार की परम्परा है मगर उसके कुछ पंथो में शवों को दफ़नाया भी जाता है जिसे समाधि देना कहते हैं। हिन्दी के समाधि शब्द में कई अर्थ छिपे हैं। आमतौर पर चिंतन-मनन की मुद्रा अथवा ध्यानमग्न अवस्था को भी समाध कहते हैं और कब्र को भी समाधि कहते हैं। समाधि शब्द बना है आधानम् से जिसका अर्थ होता है ऊपर रखना, प्राप्त करना, मानना, यज्ञाग्नि स्थापित करना आदि। इसके अलावा कार्यरूप में परिणत करना भाव भी इसमें शामिल है। आधानम् में सम् उपसर्ग लगने से बनता है समाधानम्। जब सम् अर्थात समान रूप से बहुत सी चीज़ें अथवा तथ्य सामने रखे जाते हैं, गहरी बातों को उभारा जाता है तो सब कुछ स्पष्ट होने लगता है। यही है समाधानम् या समाधान अर्थात निष्कर्ष, संदेह निवारण, शांति, सन्तोष आदि।
समाधि इसी कड़ी का हिस्सा है जिसमें संग्रह, एकाग्र, चिंतन, आदि भाव हैं। जब बहुत सारी चीज़ों को सामने रखा जाता है तब उनमें से चुनने की प्रक्रिया शुरू होती है। भौतिक तौर पर विभिन्न वस्तुओं के बीच इसे चुनाव कहा जाता है। पर जब यह प्रक्रिया मन में चलती है तब यह भाव चिन्तन कहलाती है। यह भाव-चिन्तन ही मनोयोग है, तपस्या है, समाधि है। आमतौर पर ऋषि-मुनि, तपस्वी ही समाधि अवस्था में पहुंचते हैं। ऐसे लोगों की आत्मा जब देहत्याग करती थी तो उसे मृत्यु न कह कर समाधि लगना कहा जाता था। मृत्यु यूं भी जीवन की सभी समस्याओं का समाधान है। दरअसल वृद्धावस्था होने पर तपस्वी अक्सर इच्छा मृत्यु चुनते थे जिसके तहत वे आहार त्याग कर निरंतर भाव-चिन्तन में लीन रहते। इन्ही क्षणों में वे देहत्याग करते जिसे समाधि कहा जाने लगा। बाद में कब्र या मृत्यु स्मारक अथवा छतरी के लिए भी समाधि शब्द रूढ़ हो गया।
तपस्वियों की देह को समाधि मुद्रा में ही भूमि में दबाने की परम्परा रही है। बाद में इस स्थान पर एक चबूतरा बनाया जाता है। दाह-संस्कार स्थल पर भी यूं चबूतरे बनाए जाते रहे हैं। राजा-महाराजा आदि के दाह संस्कार के बाद उस स्थान पर गोल गुम्बद बनाया जाता था जिसे छतरियां कहते हैं। देशभर में जितनी भी पुरानी रियासतें रही हैं वहां ऐसी छतरियां खूब हैं।समाधियां जहां होती हैं उसे समाधिस्थल, छतरी-बाग या छार-बाग कहा जाता है। छार बाग शब्द से अभिप्राय निश्चित तौर पर क्षार से ही होगा। दाहसंस्कार से पैदा होने वाली राख को ही संस्कृत में क्षार कहते हैं। राख शब्द इसी क्षार का विपर्यय रूप है।
किसी ज़माने में प्राचीन भारत के आर्यों में भी शवों को दफ़नाने की परम्परा रही होगी। आजकल श्मशान उस स्थान को कहते हैं जहां मुर्दों को जलाया जाता है मगर भाषा-विज्ञान के नज़रिये से श्मशान शब्द कुछ और तथ्य बताता है। श्मशान शब्द के बारे में यास्क के निरुक्त में कहा गया है-शरीर के लेटने की जगह। आप्टे कोश के मुताबिक यह बना है
शी+आनच से। संस्कृत की
शी धातु में निंद्रा, विश्राम, शांति का भाव है।
शी से ही बना है
शयन जिसमें नींद का भाव है। पूर्ववैदिक काल में
शरीर का अर्थ
काया न होकर शव अर्थात मृतदेह ही था।
शरीर के लिए तब काया अथवा देह शब्द प्रचिलित था। इसीलिए श्मशान का अर्थ हुआ शरीर के लेटने का स्थान। जाहिर है
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प्राचीनकाल में श्मशान दरअसल कब्रिस्तान ही था जहां शवों को दफ़नाया जाता था। भाषाविज्ञानियों के साथ नृतत्वविज्ञानी भी यह मानते हैं कि विभिन्न आर्य समुदायों में दफ़नाने की परम्परा थी। शवदाह की प्रथा उन्होंने अनार्यों से सीखी। बौद्धों के चैत्य या स्तूप मूलतः समाधि ही हैं। चैत्य शब्द चिता की कड़ी में आता है जिसमें चुना हुआ, संग्रहित जैसे भाव हैं। गौर करें कि चिता लकड़ियों का चुना हुआ, संचित किया हुआ आधार ही होता है।
शवों को दफ़नाने के स्थान को अरबी में कब्र कहते हैं जो सेमिटिक भाषा परिवार की धातु क़-ब-र q-b-r से बना है जिसमें संरक्षण, सुरक्षित, ढकी हुई जगह, घिरे हुए स्थान का भाव है। इससे बने कबारा का मतलब होता है छुपा हुआ, अदृश्य आदि। शव को दफ़नाने के लिए खोदे गए गढ़े में दबा कर ऊपर से मिट्टी डाल दी जाती है जिसे कब्र कहते हैं। इस तरह देह पूरी तरह अदृश्य हो जाती है। जिस कब्र के ऊबर गुम्बद या अन्य कोई निर्माण किया गया हो उसे मकबरा कहा जाता है। जहां कब्र खोदी जाती है उस जगह को कब्रिस्तान या कब्रगाह कहते हैं। किसी के अहित के लिए किए जाने वाले कार्य के संदर्भ में कब्र खोदना मुहावरा प्रचलित है। वृद्धावस्था की बीमारी या अंतिम अवस्था को कब्र में पैर लटकाना जैसे मुहावरे से व्यक्त किया जाता है।
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16 कमेंट्स:
एक अच्छी पोस्ट,जिसमे विभिन्न सम्प्रदायो की अंतिम यात्रा और उससे सम्बन्धित जानकारी अच्छी लगी..........जानकारी देने के लिये बहुत बहुत धन्यावाद
रोचक जानकारी।
अब ऐसा लगता है कि आपके पास इतना संकलन हो गया है कि एक पुस्तक प्रकाशित हो सकती है. इस बारे में आपको सोचना चाहिए.
बहुत अच्छा लगा ये पढ़...
वैसे समधी और समाधी में भी कोई रिश्ता है क्या?
गम्भीर ज्ञानवर्धक प्रविष्टि । धन्यवाद ।
वाकई आज की पोस्ट अद्भुत है .....
वडनेकर जी।
जानकारियों से भरी पोस्ट के लिए धन्यवाद।
महत्वपूर्ण तथ्य कि 'आर्यों ने शवदाह की प्रथा उन्होंने अनार्यों से सीखी' जानकारी में आया।
पता नहीं महर्षि पातंजलि अष्टांगयोग के अन्तिम सोपान में किस समाधि की बात करते हैं। मेरा ख्याल है कि एक योगी जाग्रत भी होता है और समाधिस्थ भी।
dhnya ho ajit ji,
aaj bahut jaldi me hoon iske baavjood aapke aalekh ko padhne ka moh tyag nahin paaya...
yon hi anand karaate raho
badhaai !
जो शीर्ण होता है उसे शरीर कहते हैं, जो तनुता है विकसित होता है उसे तन कहते हैं, जो दहति अर्थात ताप से युक्त होता है उसे देह कहते हैं और जो स्थान घेरता है उसे काया कहते हैं। पहले पैरे में यह कहा गया है कि हिन्दू धर्म और उससे निकले कुछ पंथों में दाह संस्कार प्रचलित था पुनः अंतिम से पहले पैरे में भाषा विज्ञान के हवाले से कहा गया है कि पहले श्मशान मे जलाया नहीं दफनाया जाता था। चिता पर भी लिटाया ही जाता है। ऋगवेद में जलानें का विस्तृत विवरण मिलता है। हाँ परिस्थितिवशात् गाड़्ने का भी विधान मिलता है।
@सुमंत मिश्र कात्यायन
टिप्पणी के लिए शुक्रिया कात्यायन जी। देह, तन, काया की जो आपने व्याख्या की है उसके बारे में शब्दों का सफर के अंतर्गत लिख चुका हूं और भास्कर में यह प्रकाशित हो चुकी है। संभवतः ब्लाग पर तन, तनु वाली कड़ी में उल्लेख होगा अन्यथा इन्हें नए रूप में अभी ब्लाग पर डालना बाकी है। इस पोस्ट में तो चलते-चलते संदर्भ आ गया। शरीर का शीर्णता से रिश्ता तार्किक है। सरपत वाली पोस्ट मूलतः घास के प्रकारों पर केंद्रित होने से इस पर ज्यादा नहीं लिखा जा सका था। आपने सूत्र दिया है तो इसे भी संशोधित कर लूंगा।
साभार
The Subject is quite morbid ..
but is this true ?
" किसी ज़माने में प्राचीन भारत के आर्यों में भी शवों को दफ़नाने की परम्परा रही होगी। "
अच्छी और रोचक जानकारी.
अंतिम संस्कार के बारे विभिन्न विधियों का प्रावधान है धर्मो के अनुसार . परन्तु पारसी धर्म में तो बहुत विचित्र तरीका है उसकी भी कभी जिक्र करे प्रतीक्षा रहेगी
रक्षाबन्धन: सात्विक व्रत का संकल्प दिवस
रक्षाबन्धन कर्तव्य नहीं,
सात्विक-व्रत का संकल्प दिवस है।
रक्षाबन्धन है पवित्रता का पर्व,
एक सात्विक साहस है।
सत-व्रत की देवी को, अपना सर्वस्व समर्पण है।
व्रत की याद दिलाने आया यह रक्षाबन्धन है।।१।।
जब कर्मवती ने निज रक्षाहित,
वीर हुमायूँ को इसकी सौगन्ध दिलायी।
धर्म से, व्रत से हुआ आबद्ध जब वह,
बहन रक्षा के लिए, निज प्राण की बाजी लगायी।
त्योहारों में श्रेष्ठ सुमति का यह नन्दन है।
व्रत की याद दिलाता यह रक्षाबन्धन है।।२।।
सात्विक व्रत के इस महापर्व में,
होता बन्धु-भगिनि का सात्विक अभिसार।
राखी बाँध पवित्र बनाती,
अब होवे रक्षाव्रत साकार।
सभी अपशकुन नष्ट हो रहे, देखो! उनका ही क्रन्दन है।
व्रत की याद दिलाता यह रक्षाबन्धन है।।३।।
देखो! पूरब के अम्बर में,
वह धूमकेतु दिखता कराल।
सात्विकता पर संकट आया,
वह निकट आ रहा भीषण काल।
युग की पुकार सुन बोलो अब, 'आवश्यक रक्षाबन्धन है'।
व्रत की याद दिलाता यह रक्षाबन्धन है।।४।।
जागो! निज व्रत को याद करो!
तुम डरो नहीं, हाँ निर्भय हो।
उठ जाओ! अरि पर टूट पड़ो,
तम पर सात्विकता की जय हो।
काली बदली के भेदक, सत रवि का बन्दन है।
व्रत की याद दिलाता यह रक्षाबन्धन है।।५।।
कर महायुद्ध उस दुर्विनीत से,
सात्विकता की दिग्विजय करो!
उठ जाओ शीघ्र! आवश्यक हो,
तो कलम त्याग असि शीघ्र वरो!
है जग की सब सम्पदा शून्य, तेरा व्रत ही सच्चा धन है।
व्रत की याद दिलाता यह रक्षाबन्धन है।।६।।
अशोक सिंह सत्यवीर{प्रकाशन: वर्ष 2005, पत्र-'श्रमिक-मित्र', सहारनपुर से साभार}
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