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प्रस्तुतकर्ता
अजित वडनेरकर
पर
2:55 AM
बहुत शोधपरक, उपयोगी और महत्वपूर्ण जानकारियां। हिंदी में इतनी संलग्नता के साथ ऐसा परिश्रम करने वाले विरले ही होंगे।
'शब्दों का सफर' मुझे व्यक्तिगत रूप से हिन्दी का सबसे समृद्ध और श्रमसाध्य ब्लॉग लगता रहा है।
आप के समर्पण और लगन के लिए मेरे पास ढेर सारी प्रशंसा है और काफ़ी सारी ईर्ष्या भी।
सच कहूँ ,ब्लॉग-जगत का सूर और ससी ही है शब्दों का सफ़र . बधाई.... अंतर्मन से
लिखते रहें. यह मेरे इष्ट चिट्ठों मे से एक है क्योंकि आप काफी उपयोगी जानकारी दे रहे हैं.
थोड़े में कितना कुछ कह जाते हैं आप. आपके ब्लाँग का नियमित पारायण कर रहा हूं और शब्दों की दुनिया से नया राब्ता बन रहा है.
आपकी मेहनत कमाल की है। आपका ये ब्लॉग प्रकाशित होने वाली सामग्री से अटा पड़ा है - आप इसे छपाइये !
बेहतरीन उपलब्धि है आपका ब्लाग! मैं आपकी इस बात की तारीफ़ करता हूं और जबरदस्त जलन भी रखता हूं कि आप अपनी पोस्ट इतने अच्छे से मय समुचित फोटो ,कैसे लिख लेते हैं.
सोमाद्रि
इस सफर में आकर सब कुछ सरल और सहज लगने लगता है। बस, ऐसे ही बनाये रखिये. आपको शायद अंदाजा न हो कि आप कितने कितने साधुवाद के पात्र हैं.
शब्दों का सफर मेरी सर्वोच्च बुकमार्क पसंद है -मैं इसे नियमित पढ़ता हूँ और आनंद विभोर होता हूँ !आपकी ये पहल हिन्दी चिट्ठाजगत मे सदैव याद रखी जायेगी.
भाषिक विकास के साथ-साथ आप शब्दों के सामाजिक योगदान और समाज में उनके स्थान का वर्णन भी बडी सुन्दरता से कर रहे हैं।आपको पढना सुखद लगता है।
आपकी मेहनत को कैसे सराहूं। बस, लोगों के बीच आपके ब्लाग की चर्चा करता रहता हूं। आपका ढिंढोरची बन गया हूं। व्यक्तिगत रूप से तो मैं रोजाना ऋणी होता ही हूं.
आपकी पोस्ट पढ़ने में थोड़ा धैर्य दिखाना पड़ता है. पर पढ़ने पर जो ज्ञानवर्धन होताहै,वह बहुत आनन्ददायक होता है.
किसी हिन्दी चिट्ठे को मैं ब्लागजगत में अगर हमेशा जिन्दा देखना चाहूंगा, तो वो यही होगा-शब्दों का सफर.
निश्चित ही हिन्दी ब्लागिंग में आपका ब्लाग महत्वपूर्ण है. जहां भाषा विज्ञान पर मह्त्वपूर्ण जानकारी उपलब्ध रह्ती है. 
good,innovative explanation of well known words look easy but it is an experts job.My heartly best wishes.
चयन करते हैं, जिनके अर्थ को लेकर लोकमानस में जिज्ञासा हो सकती हो। फिर वे उस शब्द की धातु, उस धातु के अर्थ और अर्थ की विविध भंगिमाओं तक पहुँचते हैं। फिर वे समानार्थी शब्दों की तलाश करते हुए विविध कोनों से उनका परीक्षण करते हैं. फिर उनकी तलाश शब्द के तद्भव रूपों तक पहुंचती है और उन तद्बवों की अर्थ-छायाओं में परिभ्रमण करती है। फिर अजित अपने भाषा-परिवार से बाहर निकलकर इतर भाषाओँ और भाषा-परिवारों में जा पहुँचते हैं। वहां उन देशों की सांस्कृतिक पृष्टभूमि में सम्बंधित शब्द का परीक्षणकर, पुनः समष्टिमूलक वैश्विक परिदृश्य का निर्माण कर देते हैं। यह सब रचनाकार की प्रतिभा और उसके अध्यवसाय के मणिकांचन योग से ही संभव हो सका है। व्युत्पत्तिविज्ञान की एक नयी और अनूठी समग्र शैली सामने आई है।
16.चंद्रभूषण-
[1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8 .9. 10. 11. 12. 13. 14. 15. 17. 18. 19. 20. 21. 22. 23. 24. 25. 26.]
15.दिनेशराय द्विवेदी-[1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8. 9. 10. 11. 12. 13. 14. 15. 16. 17. 18. 19. 20. 21. 22.]
13.रंजना भाटिया-
12.अभिषेक ओझा-
[1. 2. 3.4.5 .6 .7 .8 .9 . 10]
11.प्रभाकर पाण्डेय-
10.हर्षवर्धन-
9.अरुण अरोरा-
8.बेजी-
7. अफ़लातून-
6.शिवकुमार मिश्र -
5.मीनाक्षी-
4.काकेश-
3.लावण्या शाह-
1.अनिताकुमार-
शब्दों के प्रति लापरवाही से भरे इस दौर में हर शब्द को अर्थविहीन बनाने का चलन आम हो गया है। इस्तेमाल किए जाने भर के लिए ही शब्दों का वाक्यों के बाच में आना जाना हो रहा है, खासकर पत्रारिता ने सरल शब्दों के चुनाव क क्रम में कई सारे शब्दों को हमेशा के लिए स्मृति से बाहर कर दिया। जो बोला जाता है वही तो लिखा जाएगा। तभी तो सर्वजन से संवाद होगा। लेकिन क्या जो बोला जा रहा है, वही अर्थसहित समझ लिया जा रहा है ? उर्दू का एक शब्द है खुलासा । इसका असली अर्थ और इस्तेमाल के संदर्भ की दूरी को कोई नहीं पाट सका। इसीलिए बीस साल से पत्रकारिता में लगा एक शख्स शब्दों का साथी बन गया है। वो शब्दों के साथ सफर पर निकला है। अजित वडनेरकर। ब्लॉग का पता है http://shabdavali.blogspot.com दो साल से चल रहे इस ब्लॉग पर जाते ही तमाम तरह के शब्द अपने पूरे खानदान और अड़ोसी-पड़ोसी के साथ मौजूद होते हैं। मसलन संस्कृत से आया ऊन अकेला नहीं है। वह ऊर्ण से तो बना है, लेकिन उसके खानदान में उरा (भेड़), उरन (भेड़) ऊर्णायु (भेड़), ऊर्णु (छिपाना)आदि भी हैं । इन तमाम शब्दों का अर्थ है ढांकना या छिपाना। एक भेड़ जिस तरह से अपने बालों से छिपी रहती है, उसी तरह अपने शरीर को छुपाना या ढांकना। और जिन बालों को आप दिन भर संवारते हैं वह तो संस्कृत-हिंदी का नहीं बल्कि हिब्रू से आया है। जिनके बाल नहीं होते, उन्हें समझना चाहिए कि बाल मेसोपोटामिया की सभ्यता के धूलकणों में लौट गया है। गंजे लोगों को गर्व करना चाहिए। इससे पहले कि आप इस जानकारी पर हैरान हों अजित वडनेरकर बताते हैं कि जिस नी धातु से नैन शब्द शब्द का उद्गम हुआ है, उसी से न्याय का भी हुआ है। संस्कृत में अरबी जबां और वहां से हिंदी-उर्दू में आए रकम शब्द का मतलब सिर्फ नगद नहीं बल्कि लोहा भी है। रुक्कम से बना रकम जसका मतलब होता है सोना या लोहा । कृष्ण की पत्नी रुक्मिणी का नाम भी इस रुक्म से बना है जिससे आप रकम का इस्तेमाल करते हैं। ऐसे तमाम शब्दों का यह संग्रहालय कमाल का लगता है। इस ब्लॉग के पाठकों की प्रतिक्रियाएं भी अजब -गजब हैं। रवि रतलामी लिखते हैं कि किसी हिंदी चिट्ठे को हमेशा के लिए जिंदा देखना चाहेंगे तो वह है शब्दों का सफर । अजित वडनेरकर अपने बारे में बताते हुए लिखते हैं कि शब्द की व्युत्पत्ति को लेकर भाषा विज्ञानियों का नज़रिया अलग अलग होता है। मैं भाषाविज्ञानी नहीं हूं, लेकिन जज्बा उत्पति की तलाश में निकलें तो शब्दों का एक दिलचस्प सफर नजर आता है। अजित की विनम्रता जायज़ भी है और ज़रूरी भी है क्योंकि शब्दों को बटोरने का काम आप दंभ के साथ तो नहीं कर सकते। इसीलिए वे इनके साथ घूमते-फिरते हैं। घूमना-फिरना भी तो यही है कि जो आपका नहीं है, आप उसे देखने- जानने की कोशिश करते हैं। वरना कम लोगों को याद होगा कि मुहावरा अरबी शब्द हौर से आया है, जिसका अर्थ होता है परस्पर वार्तालाप, संवाद । शब्दों को लेकर जब बहस होती है तो यह ब्लॉग और दिलचस्प होने लगता है। दिल्ली से सटे उत्तर प्रदेश के नोएडा का एक लोकप्रिय लैंडमार्क है- अट्टा बाजार। इसके बारे में एक ब्लॉगर साथी अजित वडनेरकर को बताता है कि इसका नाम अट्टापीर के कारण अट्टा बाजार है, लेकिन अजित बताते हैं कि अट्ट से ही बना अड्डा । अट्ट में ऊंचाई, जमना, अटना जैसे भाव हैं, लेकिन अट्टा का मतलब तो बाजार होता है। अट्टा बाजार । तो पहले से बाजार है उसके पीछे एक और बाजार । बाजार के लिए इस्तेमाल होने वाला शब्द हाट भी अट्टा से ही आया है। इसलिए हो सकता है कि अट्टापीर का नामकरण भी अट्ट या अड्डे से हुआ हो। बात कहां से कहा पहुंच जाती है। बल्कि शब्दों के पीछे-पीछे अजित पहुंचने लगते हैं। वो शब्दों को भारी-भरकम बताकर उन्हें ओबेसिटी के मरीज की तरह खारिज नहीं करते। उनका वज़न कम कर दिमाग में घुसने लायक बना देते हैं। हिंदी ब्लॉगिंग की विविधता से नेटयुग में कमाल की बौद्धिक संपदा बनती जा रही है। टीवी पत्रकारिता में इन दिनों अनुप्रास और युग्म शब्दों की भरमार है। जो सुनने में ठीक लगे और दिखने में आक्रामक। रही बात अर्थ की तो इस दौर में सभी अर्थ ही तो ढूंढ़ रहे हैं। इस पत्रकारिता का अर्थ क्या है? अजित ने अपनी गाड़ी सबसे पहले स्टार्ट कर दी और अर्थ ढूंढ़ने निकल पड़े हैं। --रवीशकुमार [लेखक का ब्लाग है http://naisadak.blogspot.com/ ]
मुहावरा अरबी के हौर शब्द से जन्मा है जिसके मायने हैं परस्पर वार्तालाप, संवाद।
लंबी ज़ुबान -इस बार जानते हैं ज़ुबान को जो देखते हैं कितनी लंबी है और कहां-कहा समायी है। ज़बान यूं तो मुँह में ही समायी रहती है मगर जब चलने लगती है तो मुहावरा बन जाती है । ज़बान चलाना के मायने हुए उद्दंडता के साथ बोलना। ज्यादा चलने से ज़बान पर लगाम हट जाती है और बदतमीज़ी समझी जाती है। इसी तरह जब ज़बान लंबी हो जाती है तो भी मुश्किल । ज़बान लंबी होना मुहावरे की मूल फारसी कहन है ज़बान दराज़ करदन यानी लंबी जीभ होना अर्थात उद्दंडतापूर्वक बोलना।
दांत खट्टे करना- किसी को मात देने, पराजित करने के अर्थ में अक्सर इस मुहावरे का प्रयोग होता है। दांत किरकिरे होना में भी यही भाव शामिल है। दांत टूटना या दांत तोड़ना भी निरस्त्र हो जाने के अर्थ में प्रयोग होता है। दांत खट्टे होना या दांत खट्टे होना मुहावरे की मूल फारसी कहन है -दंदां तुर्श करदन
अक्ल गुम होना- हिन्दी में बुद्धि भ्रष्ट होना, या दिमाग काम न करना आदि अर्थों में अक्ल गुम होना मुहावरा खूब चलता है। अक्ल का घास चरने जाना भी दिमाग सही ठिकाने न होने की वजह से होता है। इसे ही अक्ल का ठिकाने न होना भी कहा जाता है। और जब कोई चीज़ ठिकाने न हो तो ठिकाने लगा दी जाती है। जाहिर है ठिकाने लगाने की प्रक्रिया यादगार रहती है। बहरहाल अक्ल गुम होना फारसी मूल का मुहावरा है और अक्ल गुमशुदन के तौर पर इस्तेमाल होता है।
दांतों तले उंगली दबाना - इस मुहावरे का मतलब होता है आश्चर्यचकित होना। डॉ भोलानाथ तिवारी के मुताबिक इस मुहावरे की आमद हिन्दी में फारसी से हुई है फारसी में इसका रूप है- अंगुश्त ब दन्दां ।
34 कमेंट्स:
निर्वाण की गति वही हुई जो समाधि की हुई।
सत्य-वचन।
सफर अच्छा चल रहा है।
सुंदर जानकारी .
अज्ञेय की एक पंक्ति याद आ रही है।
'मौन ही अभिव्यंजना है, जितना तुम्हारा सच है उतना ही कहो।' एक पोस्ट 'ण' वर्ण पर लिखिए।
ग़जब की गरिमा है इस वर्ण में। निराला रचित 'सरोज स्मृति' की प्रारम्भिक पंक्तियाँ देखें।
………………… क्योंकि मृत्यु के बाद तो मौन ही मुखरित होता है।सफ़र किये बिना आजकल दिन ही पूरा नही होता भाऊ।
आज का सफ़र बहुत अच्छा लगा
क्या आत्मा है? किसी नें तथागत बुद्ध से पूँछा। बुद्ध नें कहा अप्पदीपो भव! अपना प्रकाश स्वयं बनों। दुःखं-दुःखं, क्षणिकं-क्षणिकं, शून्यं-शून्यं की परंपरा में निर्वात से निर्वाण का बनना अधिक समीचीन लगता है। धातुओं से नये शब्द बनाये जासकते हैं किन्तु परंपरा भी देखनीं पड़ेगी।
गम्भीर और महत्वपूर्ण शब्दों की जानकारी दे रहे हैं आप । आभार ।
चिंता चिता और समाधी से लेकर निर्वाण तक की अनुपम शब्द यात्रा में सम्मिलित होकर अनिर्वचनीय आनंद प्राप्त किया मैंने ....
यह महज शब्द विवेचन ही नहीं रहा,बल्कि इसने सत्संग का आनंद दिया....
आपका बहुत बहुत आभार इन सुन्दर आलेखों के लिए....वस्तुतः ये शब्द / विचार मेरे मन के बड़े ही निकट हैं..इसलिए इनका सानिध्य बड़ा सुखकर लगा.
निर्वाण का अर्थ तो वाणी का लोप होना है।
@दिनेशराय द्विवेदी
निर्वाण का शब्दिक अर्थ अब मृत्यु लगाया जाता है, इस रूप में शरीर का शांत होना मुहावरा भी हिन्दी में प्रचलित है। किन्तु "वाणी का लोप होना" यह कहना निर्वाण का सरलीकरण है। यूं भी निर्वाण शब्द में मौन-साधना का अर्थ या परम शांति अधिक ध्वनित होती है। मृत्यु तो इसका प्रतीकार्थ है जो अब असल अर्थ समझा जाने लगा है।
आप ने सही कहा। शब्द काल के साथ अर्थ बदलते हैं। यहाँ तक कि आने वाला कल जाने वाला कल हो जाता है। अगला पिछला और पिछला अगला हो जाता है। अब वो बात थोड़े न है।
शरीरिणः का अर्थ आत्मा लिया जाता है जब कि मूल तो वह वह पदार्थ है जिस से शरीर का निर्माण हुआ है, वह मिट्टी जिस से घड़ा, दीपक आदि सब बनते हैं।
मेरा आशय मूल अर्थ से ही था। परवर्ती या प्रचलित से नहीं।
@सुमंत मिश्र कात्यायन
यहां आपसे सहमत नहीं हूं कात्यायनजी। समाज नए शब्द गढ़ता है। भाषा विज्ञान का काम तो उनमें धातुओं की तलाश करना है। सिर्फ परम्परा नहीं, इतिहास, दर्शन, परिवेश सबकुछ देखना होता है वर्ना परम्परावादी तो ग्रीक अलेक्जेंडर की व्युत्पत्ति अलिकसुंदर से लेकर अलक्ष्येंद्र तक बताते है पर तर्क की कसौटी पर नहीं। निर्वात से निर्वाण की व्याख्या मेरी समझ से बाहर है। आध्यात्मिक और दार्शनिक और भाषा वैज्ञानिक संदर्भों में भी कहीं ऐसा उल्लेख मेरे देखने में नहीं आया जिसमें निर्वात को निर्वाण का पुरखा बताया गया हो। शून्य और अनंत की अर्थवत्ता में यहां वह दार्शनिकता नहीं बनती जो निर्वाण में है। विष्णु सहस्रनाम में भगवान का एक नाम निर्वाण भी है।
अजी आपके कहने से हम चुप नहीं होने वाले ...:O
वीनस केसरी
ये तो अपने पसब्द की पोस्ट हो गयी. ऐसे और शब्दों का विवरण आना चाहिए.
निर्वणा नामक एक म्युझिकल ग्रुप भी यहाँ पर है - अच्छा लगा ये पडाव भी
- लावण्या
विष्णु के लिये निर्वाण शब्द बौद्ध धर्म के आविर्भाव से पूर्व मे दिया गया या बाद मे ? यह प्रश्न बुद्ध को विष्णु के एक अवतार के रूप मे प्रसिद्ध करने के षडयंत्र के फलस्वरूप उपजा है.
@शरद कोकास
महत्वपूर्ण बात। जहां तक जानकारी मिलती है, महाभारत का रचनाकाल ईसा पूर्व नवीं से चौदहवीं सदी का बताया जाता है। यह समय निश्चित ही बौद्धकाल से तो पहले का ही है। यूं भी, इस पोस्ट में विष्णु नाम तो प्रसंगवश आया है। मूल उद्धेश्य तो निर्वाण शब्द की व्याख्या-विवेचना ही है। आर्य-अनार्य झगड़े या अगड़ों-पिछड़ों के निहायत छद्म बौद्धिक झगड़ों में उलझने की कतई कोई मंशा शब्दों के सफर की नहीं है शरद भाई।
पोर्चुगीज भाषा में आज भी x क्ष एवं श के रुप में प्रयोग किया जाता है। उसी का प्रभाव गोवा में आज भी दिखता है। मैनें वहाँ कई ड़ीड्स की थीं। एक xama क्षमा रोड्रिक्स थीं। एक xhitis क्षितीश परेरा थे। मड्गाँव से कोलवा बीच की ओर जानें पर कोलवा चर्च से पहले बाऎं हाथ पर एक रेस्ट्राँ है उसके बोर्ड़ पर लिखा है xanti शांन्ती रेस्ट्राँ। ओल्ड़ टेस्टामेन्ट के हिंदी अनुवाद में एस्तर नामक अध्याय में राजा क्षयर्ष के राज्य का उल्लेख है। यह पुस्तक बाइबिल सोसाइटी आफ इण्ड़िया नें प्रकाशित की है।
तथागत बुद्ध आत्मा और ईश्वर को नहीं मानते थे किन्तु पुनर्जन्म मानते थे। यही बौद्ध दर्शन की विशिष्टता है। समझनें वाली बात यह है कि जो आत्मा को नहीं मानता, परमात्मा को नहीं मानता उस विचारधारा में जिस निर्वाण शब्द का प्रयोग किया गया है उसका अर्थ उन्हीं की अवधारणा से निर्धारित होगा। इसीलिए निर्वाण मोक्ष का समानार्थी या पर्याय नहीं है। कृपया आलेख के पैरा दो को देखें। निर्वाण की व्युत्पत्ति ( निर्+वा गतौ+क्त) आप्टे एवं हलायुध आदि कोष में देख लें। विष्णुसहस्रनाम में मैं निर्वाण शब्द नही ढूढ़ पाया। पाण्डुराव जी की पुस्तक के पृष्ठ २३६ एवं ४१४ पर क्रमशः दो श्लोक मिलते है किन्तु वहाँ ‘अनिर्विण्णः’ शब्द का प्रयोग हुआ है जिसका निर्वाण से कोई सम्बन्ध नहीं है।
तथागत बुद्ध की मृत्यु चुन्दकर्मार पुत्र के यहाँ विषाक्त मांसयुक्त भोजन करनें से हुई थी।म्रूत्यु के समय उन्हें काफी पीड़ा थी। किन्तु उन्हें यह चिन्ता थी कि कहीं लोग चुन्दकर्मार पुत्र को दोषी मान प्रताड़ित न कर॥ अतएव उन्होंने आनन्द से कहा कि समस्त भिक्षुओं से कह दो कि उनके जीवन में दो भोजन उनके (बुद्ध) के लिए वरदान सिद्ध हुए। एक वह भोजन जिससे उन्हें बोधिसत्व प्राप्त हुआ और दूसरा वह जिससे निर्वाण का दरवाजा खुल गया। इस प्रकरण से बुद्ध की करुणा का तो पता लगता ही है मृत्यु के पूर्व की स्थिति का भी अनुमान होता है।
जहाँ तक वाणी की बात है तो परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी में वैखरी ही मनुष्यों के बोलनें के काम आती है। अन्य तीनों ध्वन्यात्मक हैं। वैखरी की उत्पत्ति सूर्य बननें के बाद होती है इसीलिए उसे सौरी वाक भी कहाजाता है। कहा है अग्निः सर्वा भूत्वा मुखं प्राविशत्। पाणिनी (१९०५), काशकृत्स्न (२४११), जैनेन्द्र (१४७८),चान्द्र (१५७५), कातन्त्र (१८५८), शाक्टायन (१८५१), हेमचन्द्र (१९८०), कविकल्पद्रुम (२३५८) आदि के धातु कोशों के अतिरिक्त मेरे संज्ञान में नहीं है। सर्वाधिक धातु २४११ काशकृत्स्न एवं सबसे कम १४७८ जैनेन्द्र के कोश में हैं। कृपया कोई नया धातुकोश उपलब्ध हो तो बताऎ मैं अवशय लेना चाहूँगा।
सुमन्त मिश्र ‘कात्यायन’ जी की विशुद्ध शोधपरक टिप्पणी ने प्रस्तुत आलेख में चार चाँद लगा दिए ! ओशो रजनीश के प्रवचनों में निर्वाण की बड़ी सरल व्याख्या मिलती है जो पांडुरंग राव के विचार से मेल खाती है कि शरीर को साधन बनाकर आत्मा के आलोक में विलीन होना ही निर्वाण है .
निर्वात तो काल्पनिक है निर्वात का विचार विपस्सना से जन्मा होगा क्योंकि विपस्सना निर्वाण स्थिति को समझने की प्रथम सीढ़ी है जिसमें मौन की बड़ी महत्ता है .
कुछ दिनों के लिए शहर से बाहर हूं। शब्दों का सफर पर जल्दी ही मुलाकात होगी।
@RDS जी, साधना सूत्र पृ० २८६ के अन्तिम पैरे में ‘ऒशो’ कहते हैं :-
“बुद्ध से जिन्दगी भर लोग पूछते रहे कि क्या होता है उस परम घड़ी में? तो बुद्ध कहते थे, जैसे दीया बुझ जाता है, बस ऎसा ही होता है। तुम बुझ जाओगे, जैसे दीए की ज्योति बुझ जाती है,फिर कोई पूछता नहीं कि कहाँ गई ज्योति? ऎसे ही तुम भी बुझ जाओगे। ज्योति कहाँ गई, यह पूछना व्यर्थ हो जाएगा। इसलिए बुद्ध नें मोक्ष शब्द का उपयोग नहीं किया, निर्वाण शब्द का उपयोग किया। निर्वाण का अर्थ है, दीए का बुझ जाना। मोक्ष शब्द से ऎसा लगता है कि तुम बचोगे मुक्त हो कर, लेकिन तुम बचोगे जरूर। बुद्ध कहते हैं, तुम बचोगे ही नहीं, क्योंकि तुम द्वन्द्व का ही हिस्सा हो। इसका यह मतलब नहीं कि कुछ भी नहीं बचेगा। सब कुछ बचेगा। जो बचनें योग्य है, वह बचेगा। लेकिन उसके लिए बुद्ध कहते हैं, मैं कोई शब्द न दूँगा, क्योंकि सभी शब्द विपरीत से बनें हैं, और विपरीत संसार का हिस्सा है”।
ध्यान की विभिन्न अष्टांग योग सहित विभिन्न पद्धतियाँ है। विपश्यना भी ध्यान की पद्धति ही है न कि लक्ष्य। स्थूल रूप से विपश्यना दो प्रकार की होती है। सांवृतिक जिसमें दृष्ट स्थूल पदार्थ पर ध्यान केन्द्रित किया जाता है। दूसरी विधि में शून्यता पर।
इस निर्वाण चर्चा को पढ कर बस निर् वाणी ही होना है । सुंदर ।
निर्वाण ,,,कुछ कहना भी नहीं
निर्वाण और समाधि - जो भी है, हमींनस्तो, हमीनस्त!
@katyayan
काश, आपके पास जैसी ज्ञानसामग्री और soochna-sampannta है, उसका शतांश भी मेरे पास होता.
मेरे पास कोई भी संस्कृत धतुकोश नहीं है. इन्टरनेट पर उपलब्ध संस्कृत-सामग्री और आप्टे, मोनियर विलियम्स के विश्वप्रसिद्ध संस्कृत-इंग्लिश कोश तथा कई अन्य भाषायी कोशों की मदद से शब्दों को समझाने का प्रयास रहता है. शब्दों के samajik sanskritik और vyavhaarik aayaamon की padtaal के लिए vibhinn sandarbhon
की talash rahti है. osho adbhut vyakhyakar the. "निर्वाण का अर्थ है, दीए का बुझ जाना" इस बात को आप antim saty न maane. balkii एक vyakhya का aayaam matr mane. moksha, mukti, nirvana जैसे शब्द darshnik arthon में एक doosre के poorak भी हैं. tatparya यही है की nirvan से chetnaa की param avasthaa का bodh होता है. buddh जिसे "दीए का बुझ जाना" कहते हैं darasal वह sansariktaa और bhoutiktaa के nash yani lop की aur ishaaraa करते हैं.
sabhar
ajit
# 'खामोशी'पर भी कितना बयाँ कर गये है आप,
साथी बलागरों ने भी पूरा दिया है साथ.
# दीपक बुझाके रौशनी और तेज़ कर गए,
शब्दों को वाणी दे के भी 'निर्वाण' कर गए.
म. हाश्मी
@katyayanji
निर्वाण शब्द का उल्लेख विष्णु सहस्त्रनाम में है। पांडुरंग राव लिखित सहस्त्रधारा पुस्तक के पच्चीसवें अध्याय और पृष्ठ क्रमांक 288 पर इससे संबंधित श्लोक-62 का उल्लेख है-
त्रिसामा samagah साम निर्वाणं भेणजं भिषज।
(agala pad hindi men nahin likha jaa raha....)
पुस्तक के 290 पृष्ठ पर निर्वाण की व्याख्या -विवेचना की गई है।
filhaal main yatraa par hoon aur hindi likhne ki suvidha se door hoon.
धन्यवाद अजित जी, वह श्लोक मिला और उसे देखा। जहाँ तक मैं समझ पाया हूँ वहाँ आशय और प्रयोजन यह है कि जिस भांति कर्मेन्द्रियों या शरीर को विश्राम की आवश्यकता होती है, वैसे ही ज्ञानेन्द्रियों को भी। और भेषज या औषधि के रूप में मौन या निशब्द होंना ही उसका निदान है।
मूल दृष्टि भेद इतना ही था कि बौद्ध दर्शन परंपरा में चूंकि आत्मा के आवागमन का सिद्धान्त नही है अतः वहाँ जीव की यात्रा का पर्यावसान निर्वाण पर हो जाता है। निर्वाण बौद्ध दर्शन का पारिभाषिक शब्द है और उसकी निश्चित प्रक्रिया और अर्थ है। यह दर्शन यह नहीं बताता कि यदि कोई व्यक्त्ति किसी की हत्या कर दे तो इस पाप का द्ण्ड़ उसे कैसे मिलेगा? राजकीय द्ण्ड़ विधान यदि उसे मृत्यु दण्ड़ भी देता है तो यह सामाजिक व्यवस्था बनाये रखनें का काम तो करता है किन्तु इससे न तो मृतक और न ही उसके प्रियजनों को शांति मिलती है और न ही पापकर्म का प्रायश्चित।
जबकि सनातन वैदिक परंपरा में जीवात्मा-परमात्मा का अंश माने जानें के कारण मौन या चित्तवृत्तियों का निरोध एक पड़ाव है और आगे की यात्रा विभिन्न सोपानों का क्र्म तय करती है तथा परम लक्ष्य मोक्ष है। मोक्ष या मुक्ति दो प्रकार से हो सकती है सद्योमुक्त्ति अर्थात प्रज्ञान होते ही जीव तक्षण सर्वत्र व्याप्त ब्रह्म में विलीन हो जाता है। क्रममुक्ति में कर्मानुसार जीवात्मा देवयान (मार्ग) या पितृयान (मार्ग) का अनुसरण करती है। अन्ततः समस्त कर्मों के क्षयोपरांत ही जीव ब्रह्म में विलीन हो पाता है और पुनः जन्म नहीं लेता।
मुझे लगता है कि यह चर्चा ज्यादा दार्शनिक क्षेत्र में चली गयी है, अतः इसे यहीं विराम देना, शब्दों के सफर के सुधी पाठकों के हित के लिए श्रेयस्कर होगा। यात्रा शुभ और सार्थक हो। शुभस्तु पन्थानम्।
@कात्यायन जी ,
जीवन के सफर की तरह शब्दों का सफ़र भी अनंत ही शुमार किया जाता है, इसमें विराम की स्थिति हो सकती है; लेकिन पूर्ण विराम न लगाये,कृपया! अजित जी के साथ आपकी सार्थक बहस ने बहुत उपयोगी ज्ञान दिया है. आध्यात्म,धर्म और दर्शन में गौते लगाने के लिए ही जो् पाठक शब्दों के इस सफर पर आते है उन्हें नि:शब्द होकर निराश न करे. इस विषय पर आप दोनों विद्वानों के पास और भी कोई जानकारी उपलब्ध हो तो स्वागत है.
म.हाश्मी
अब क्या कहें ?
आप ही बताएँ...बस यही कि
मौन ही भावना की भाषा है.
=========================
आभार
डॉ.चन्द्रकुमार जैन
अजितजी
धन्यवाद। आपका शब्दोंका सफर
प्रायः जानकारी पूर्ण और
मनोरंजकभी होता है।
एक बहुत आवश्यक पहलुकी
जानकारी जिसे आप प्रसृत करते
हैं, हिंदीकी गरिमाको और बढा
देता है।
गम्भीर और महत्वपूर्ण जानकारी... बहुत अच्छा लेख....बहुत बहुत बधाई....
__
निर्वाण शब्द जैन धर्म में भी प्रयुक्त हुआ है| अतः इसे मात्र बौद्ध धर्म की देन न माना जाए. यदि रुचि हो तो जैन आगमों के उदहारण मेरे पास हैं.
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