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Wednesday, January 13, 2010
माया महाठगिनी और लुटेरे, ठग, पिंडारी…
भारतीय इतिहास की बीती दो सदियां लुटेरे पिंडारी या ठगों की करतूतों से रंगी हुई हैं। ये ठग पीढ़ी दर पीढ़ी यात्रियों के काफिलों को लूटते रहे । यात्रियों को लूटना इनकी फितरत थी और उन्हें जीवित न छोड़ना उनका धर्म। पुराने ज़मानें में यात्राएं बेहद दुरूह होती थीं। यात्रियों के लम्बे काफिले चलते थे। उस दौर में हथियार साथ रखना ज़रूरी था-वजह था ठगों का आतंक। ठगों का शिकार अक्सर व्यापारियों के काफिले बनते थे जो दूरदेशों में अपना माल बेचकर, वज़न हल्का कर लौट रहे होते थे। इनकी अंटी भरी होती थी। मुखबिरों के जरिये ठगों को इनके लौटने की राह, ठिकाना और नावां-पत्ता की सुभीते से खूब खबर लग जाती थी। ठगों-बटमारों का इतिहास बहुत प्राचीन है। श्रम और उसके असंतुलित विभाजन के साथ ही आसानी से धन कमाने की सहज मानवीय वृत्ति इसके मूल में रही है। करीब दो सदी पहले तक ठगों का इतना आतंक था कि अंग्रेजों को उनके खात्में के लिए अलग दस्ता तैनात करना पड़ा था जिसका नेतृत्व एक आला अंग्रेज अफसर विलियम स्लीमैन करते थे। इतिहास में स्लीमैन का नाम इसलिए हमेशा याद रखा जाएगा क्योंकि उसने समूचे मध्योत्तर भारत को दुर्दान्त ठगों के जाल से मुक्ति दिलाई थी। अब थैली है और उसमें माल मत्ता भी हो तो ठगी की गुंजाईश तो रहती ही है।ऐसा संयोगवश नहीं है बल्कि थैली और ठग दोनों में रिश्तेदारी है।
स्थ धातु से बना बना है स्थग् जिसमें विद्यमानता के साथ उस वस्तु के गोपन का भाव भी था। अर्थात किसी वस्तु को ढकना-छिपाना आदि। इससे ही बना स्थग शब्द जिसका अर्थ हुआ जालसाजी, बेईमानी आदि। स्थग का ही देशज रूप हुआ ठग। कालांतर में स्थग में धूर्त, छली, बेईमान, निर्लज्ज, लापरवाह के साथ साथ धोखेबाज और प्रपंची का भाव भी जुड़ गया। गौर करें कि ठग जो कुछ भी करता है गोपनीय तरीके से करता है। ठगी का भाव उसके मन में होता है जिसे वह उजागर नहीं करता। जिसे छुपाया जाए वहीं धोखा है इसीलिए ठग को धोखेबाज भी कहा जाता है। बेईमान भी हमेशा छुपाकर काम करता है। धूर्त व्यक्ति के चरित्र में ही गोपनीयता होती है। सच को हमेशा पारदर्शी कहा जाता है। आज तो दूसरों के माल पर अपना कब्जा जमा लेने वाले को ही ठग कहा जाता है। ठगिनी या ठगनी, ठग का स्त्रीवाची है। दार्शनिक अर्थों में कबीरदास ने कई जगह पर माया अर्थात धन-सम्पत्ति-काम को ठगनी की संज्ञा दी है। स्थग शब्द का प्राकृत रूप हुआ ठग। हिन्दी में किसी तय अवधि में किए जाने वाले कार्य, अथवा योजना के अगली तिथि तय होने तक टलने को स्थगित होना कहते हैं। मूलतः स्थगित में ढकने, छुपाने का ही भाव है। पहले किसी कार्य के विलम्बित होने पर उसके आगामी कार्यान्वयन की जानकारी सामान्य तौर पर सार्वजनिक नहीं की जाती थी क्योंकि मुहूर्त-तिथि में भरोसा करनेवाले समाज के हाथो में यह था भी नहीं। फिर से पुरोहित आएगा तभी अगली घड़ी या तिथि-काल पता चलेगा। इसीलिए स्थगित का अर्थ गुप्त, ढका हुआ अथवा छुपा हुआ में जो भाव है वह अदृष्ट भविष्य का साफ संकेत कर रहा है। ठगौरी कहते हैं ठगी विद्या को। ठगो का शिकार हमेशा काफिले हुआ करते थे। अपनी वाकचातुरी के बल पर ठग इन काफिलों में सामान्य यात्री बनकर शामिल हो जाते थे और फिर काफिले के सदस्यों को नशीले लड्डू खिलाकर बेहोश कर देते थे। इन लड्डुओं को ठगमोदक या ठगलाडू कहते थे।
भारत में प्राचीन काल से ही ठगी पेशा रही है। एक बड़ा वर्ग था जो पूर्ण कालिक तौर पर ठगी के पेशे में लगा था। पिंडारी भी इनमें ही शामिल थे। वृहत प्रामाणिक हिन्दी कोश में इन्हें दक्षिण भारत के मुस्लिम लुटेरों का एक वर्ग बताया गया है जबकि हिन्दी शब्दसागर में दक्षिण भारत की एक जनजाति का नाम पिंडारा बताया गया है। ये कर्नाटक और समूचे महाराष्ट्र में छितरे खेतिहर-पिछड़े समुदाय से थे। बाद में इनके एक बड़े हिस्से ने इस्लाम अपना लिया। इसके बावजूद हिन्दू पिंडारियों की स्वतंत्र पहचान बनी रही इसलिए पिंडारी शब्द के साथ दक्षिण के एक मुस्लिम समुदाय जैसी पहचान जोड़ना सरलीकरण है। जो पिंडारी इस्लाम में दीक्षित नहीं हुए थे उनमें और मुस्लिम पिंडारियों में रहन-सहन का मोटा फर्क गोमांस भक्षण और हिन्दू व्रत-त्योहारों का पालन करना था। मराठों के उत्कर्ष तक पिंडारियों की ठगी चर्चित नहीं थी क्योंकि तब तक ये मराठों की फौज के वेतनभोगी थे। मराठों के पतन के बाद इनमें से ज्यादातर बेरोजगार हो गए। दक्षिण में अंग्रेज और मुस्लिम शासक मराठों के सहयोगियों के साथ सख्ती से पेश आए। पिंडारियों को छुप कर मध्यप्रान्त और महाराष्ट्र के सीमांत क्षेत्र में रहना पड़ा। सत्रहवीं सदी के उत्तरार्ध से लेकर अठारहवीं सदी तक इनका आतंक रहा। वारेन हेस्टिंग्ज को इनका अंत करने का श्रेय जाता है।
पिंडारी शब्द की व्युत्पत्ति के बारे में भाषाविद् एकमत नहीं हैं इसके बावजूद जो भी अंदाज़ इस संदर्भ में सामने आए हैं वे कहीं न कहीं एक दूसरे से जुड़ते ज़रूर हैं और महाराष्ट्र या दक्षिण भारत का इससे रिश्ता है। लुटेरे पिंडारी लूट और ठगी की वारदात को अंजाम देने के अंतिम क्षणों में नशे का सेवन करते थे। इस संदर्भ में एक पुरानी शराब पिंडा का उल्लेख आता है जिसका संभवतः पिंडारी सेवन करते थे। इसका कोई ठोस आधार नहीं है। बीदर bidar का उल्लेख किया जाता है। आम मान्यता है कि कंपनी राज में महाराष्ट्र के विदर्भ को बीदर कहा जाने लगा। मगर इसका चलन तो इससे भी सैकड़ों साल पहले मुस्लिम राज के दौरान हो चुका था। पिंडारी से बीदर का साम्य, प और ब ध्वनियों के आपसी बदलाव और विदर्भ क्षेत्र में उनकी सर्वाधिक मौजूदगी के चलते व्युत्पत्ति का यह आधार सामने आता है। विदर्भ से बीदर, फिर पिन्दर और फिर पिंडारी। यह अनुमान मात्र है। एक अन्य व्युत्पत्ति है संस्कृत के पिण्ड से जिसका मतलब होता है वजन, घन, ठोस, गोला, समूह, सेना, दल समूह आदि। समूह के तौर पर पिण्ड का प्रयोग पंजाबी में जनसमूह या ग्राम के रूप में भी होता है। पिण्ड शब्द मराठी समेत दक्षिण भारतीय भाषाओं में इस्तेमाल होता है। संभव है, पिंडार नें समूहवाची के रूप में उक्त अर्थवत्ता हासिल की हो।
गौरतलब है कि मराठों की सेना में भारी तादाद में मुस्लिम-अफ़गान योद्धा भी थे। मुगल सेना के छिटके हुए या अफ़गानिस्तान से पलायित कई लड़ाकों को मराठों की फौज में जगह मिलती रही थी। फौज का हिस्सा बनना हर काल में आजीविका का जरिया रहा है। प्रायः हर शासक की फौज में विदेशज मूल के योद्धा भी होते थे। ऐसा लगता है, पिंडारी मूलतः फौज के लश्करी अर्थात भारवाहक थे यानी सेना के साजो-सामान को ढोने वाले हथियारों के जखीरे की सार-संभाल करनेवाले श्रमजीवी। जो भारी और मेहनत का काम करें, वे पिंडारी। रोजगार छिनने पर आजीविका के लिए ठगी-लूट जैसा पेशा अपनाने की मजबूरी समझी जा सकती है। इसके मूल में संभवतः सांस्कृतिक-विभेद रहा हो। एक एक अन्य व्युत्पत्ति भी स्थान विषयक ही है और इसे पंढर क्षेत्र से जोड़ा जाता है। यह इसलिए मान्य नहीं है क्योंकि पंढर क्षेत्र दरअसल पंढरपुर के नाम से जाना जाता है जो भगवान पाण्डुरंग अर्थात विठोबा का घर है। मूलतः यह नाम भगवान पाण्डुरंग के नाम से पाण्डुरंगपुर कहलाया जो बाद में पंढरपुर बना।
प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर पर 5:00 AM लेबल: government, व्यवहार, सम्बोधन
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23 कमेंट्स:
आज पता चला संसद बार बार स्थगित क्यों होती है . स्थग व्यक्तियों के समूह के बैठने की जगह को तो संसद नहीं कहते है कही ?
अजित जी,
मुझे तो आज अमेरिका ही दुनिया का सबसे बड़ा ठग नज़र आता है...
जय हिंद...
बुकमार्क कर लिया है. बाद में पढ़ता हूं.
बढियां जानकारी , ठगी की यह परम्परा आज भी कायम है .
पिंडारी के लिए यह व्याख्या ही सब से तर्कसंगत प्रतीत होती है। "पिंडारी मूलतः फौज के लश्करी अर्थात भारवाहक थे यानी सेना के साजो-सामान को ढोने वाले हथियारों के जखीरे की सार-संभाल करनेवाले श्रमजीवी। जो भारी और मेहनत का काम करें, वे पिंडारी।"
बढियां जानकारी
अजित जी, पिंडारी ग्लेशियर के नामकरण के बारे में क्या कहते हैं आप?
छुप कर जो प्यार करते है ! क्या वोह भी ठगी है?
आसन त्याग देते है! क्या वोह भी ठगी है??
यूँही करोड़ों दान मैं मिलते नहीं जनाब,
'कोड़ा' को जो पिलाए 'मधु' वोह भी ठगी है.
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अब स्थगन की बात में मसलो का हल छुपा,
अब तो है राहगीर सरे आम भी लुटा,
पेशे से ठग थे उनका सफाया भी हो गया,
लेकिन सफ़ेद पोशो से नहीं पिंड है छुटा.
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-मंसूर अली हाशमी
आजादी के पहले बुंदेलखंड और खासतौर से सागर जिले में पिंडारियों का जबर्दस्त आतंक था। उन्होंने यहां कई बार खूनखराबा और लूटपाट किया।
शानदार पोस्ट है अजित भैय्या ,....मैंने पढ़ा था की पिंडारी मराठो की फ़ौज की अवैतनिक सिपाही थे ,और अपना गुजारा लूट मार कर किया करते थे..
Very Nice, I hope i read ur blog regular base
महाराष्ट्र मे अभी भी ठग के लिये कहीं कहीं पिंडारी मुहावरे के रूप मे प्रचलित है ।
१.ठग और स्थगन का आप ने बहुत अच्छा मेल बिठाया, धन्यवाद.
२.पंजाबी में एक 'मोमोठ्गना'(जो मीठी बातों से भ्रमा ले)शब्द है, क्या यह हिंदी में भी है? इसमें मोमो का क्या भाव हुआ? क्या यह मोम से कुछ जुड़ा है?
३. ठग तो अंग्रेजी में भी थग(THUG) और थगरी (THUGGERY) के रूप में खूब प्रचलत शब्द हैं, लेकिन अर्थ कुछ बदल गए.यहाँ thug खूंखार व्यक्ति, या हत्यारा हो गया.
४. इसका एक सुजाति अंग्रेजी शब्द है स्तेगोसौरुस stegosaurus जो एक प्रकार का डिनोसौर है. इसमें steg 'स्थग' जैसे ही ढकने वाले भाव देता है.
नई जानकारी मुताबिक पिंडारियों की अंग्रेजों के साथ लड़ाई पर आधारत अनिल शरमा ने एक फिल्म बनाई हैं जिसका नाम है "वीर" जो इस २२ जनवरी को रिलीज होगी.
हे विठ्ठल! पाण्डुरंग से पिंडारी! भगवान कहां से कहां चलते हैं शब्दों में!
लोहिड़ी पर्व और मकर संक्रांति की हार्दिक शुभकामनाएँ!
वडनेरकरजी,
इटारसी-जबलपुर रेल मार्ग पर एक पडने वाले एक रेलवे स्टेशन का नाम घाट पिंडरई है जो पिंडारियों का ही एक प्राचीन गाँव माना जाता है । उधर दतिया जिले में इन्दरगढ से सटा एक गाँव भी ठगों के गाँव के रूप में कुख्यात रहा है । कहा जाता है कि लाल बुझक्खड इसी गाँव का था । बातों ही बातों में अपने शिकार का सर्वस्व लूट लेने की कला इस गाँव वासियों के लिये गौरव का प्रतीक थी ।
गप्पी और बातों में कुशल ठगों की अभी भी कमी नही । पढ लिख लेने के बाद तो ये ठग सफेदपोशी के कारण अधिक अबूझ और अव्यक्त हो गये हैं । यदि तुलसीदास जी अब मानस की रचना करते तो सर्वप्रथम इन्ही की वन्दना करते । ठगों की संसद को समेकित प्रणाम !
बढिया जानकारी, हमेशा की तरह, हमारा श्ब्द-ज्ञान बढाती हुई.
कुछ लोग कहते हैं कि मराठों के अवसान के बाद उनके सिपाहियों का एक बड़ा वर्ग जो बेरोजगार हो गया था-और पूरे देश भर में फैला हुआ था-वहीं पिंडारी बन गया। ये वर्ग महाराष्ट्र से बाहर की जनता के लिए 'एलियन' की तरह भी था और लोग इनके लूटमार से त्रस्त भी थे। जाहिर है, लोग इन्हे पसंद नहीं करते थे-और इन सिपाहियों के लिए ठगी, लूट और चोरी के अलावा बहुत चारा भी नही... और देखेंं बचा।यूं मराठा सेना में कुछ मुसलमान भी थे, लेकिन बहुतायत तो हिंदुओं की ही थी-फिर पिंडारियों को मुस्लिम गिरोह कैसा मान लिया गया-यहां कुछ घालमेल है। अंग्रेजी दस्तावेज कहते हैं कि बिलियम बेंटिक के वक्त पिंडारियों का दमन हुआ। यूं आजादी के वक्त तक एक पिंडारी रियासत जो ज्ञात थी वो राजस्थान के कोटा या टोंक के आसपास थी जिनके अधिकांश वंशज आज बुरी हालत में रह रहे हैं। इतना तय है कि इन्हे सिर्फ मराठों के अवसान से जोड़कर देखना सही नहीं होगा-और इनकी उत्तपत्ति पहले भी रही होगी-यूं पराजित सैनिकों का चोरी-डकैती करना कोई नई बात नहीं थी-और हो सकता है पिंडारी शब्द इसी वर्ग के लिए उपयुक्त होता हो। हलांकि इस पर कुछ और शोध करने की आवश्यकता लगती है।
सुशांत आप ठीक कहते हैं। दरअसल शब्द व्युत्पत्ति के संदर्भ में हम सिर्फ उसकी पृष्ठभूमि देख सकते हैं। इससे ज्यादा गहराई में गए तो यह शुद्ध इतिहास का विषय हो जाएगा। शब्दों का सफर के जरिये हमारा काम तो सिर्फ उस विषय के किन्हीं चर्चित आयामों तक पहुंचाना भर है ताकि शब्द की अर्थवत्ता और चरित्र से परिचित हुआ जा सके। इसके आगे जिसकी जितनी जिज्ञासा हो उतना ज्ञानार्जन करता जाए। तमाम रास्ते खुले हैं। कुछ और पता चले तो हमें भी बताए, जैसे आपने बताया। साझेदारी बनी रहे,सफर चलता रहे।
सदैव की भाति ज्ञानवर्धक और सारगर्भित प्रविष्टि । आभार ।
बहंत सुंदर. हालांकि इस लेख को बुकमार्क तो कई दिन पहले कर गया था पर पढ़ आज ही पाया. सुघड़ जानकारी के लिए आभार.
पिंडारियों के नाम पर ही छत्तीसगढ के बिलासपुर जिले में िस्थत हमारे कस्बे का नाम पेंड्रा पडा है.
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