... शब्दों का सफरपर पेश यह श्रंखला रेडियो प्रसारण के लिए लिखी गई है। जोधपुर आकाशवाणी के कार्यक्रम अधिकारी महेन्द्रसिंह लालस इन दिनों स्वाद का सफरनामा पर एक रेडियो-डाक्यूमेट्री बना रहे हैं। उनकी इच्छा थी कि शब्दों का सफर जैसी शैली में इसकी शुरुआत हो। हमने वह काम तो कह दिया है, मगर अपने पाठकों को इसके प्रसारण होने तक इससे वंचित नहीं रखेंगे। वैसे भी रेडियो पर इसका कुछ रूपांतर ही होगा। बीते महीने यूनुस भाई के सौजन्य से सफर के एक आलेख का विविधभारती के मुंबई केंद्र से प्रसारण हुआ था। शब्दों का सफर की राह अखबार, टीवी के बाद अब रेडियों से भी गुजर रही है...
पिछली कड़िया-[चटकारा-1].[चटकारा-2].[चटकारा-3] ह म अक्सर खाना, भोजन, आहार आदि शब्दों का प्रयोग करते हैं जो उदरपूर्ति के संदर्भ में बोले जाते हैं। इनके अलावा मालवी, राजस्थानी बोलियों में जीमना शब्द भी खाने अथवा भोजन के अर्थ में इस्तेमाल होता है। जीमना शब्द बना है संस्कृत धातु जम् से जिसका मतलब होता है आहार। जम् से ही बना है जमनम् जिसमें भोजन, आहार आदि का ही भाव है। इसका एक रूप जेमनम् भी है। मराठी में इसका रूप हो जाता है जेवणं। हिन्दी में इसका क्रिया रूप बनता है जीमना और राजस्थानी में जीमणा। पूर्वी हिन्दी में इसे ज्योनार या जेवनार कहा जाता है। जीमण, ज्योनार शब्दों का लोकगीतों में बड़ा मधुर प्रयोग होता आया है। शादी में विवाह-भोज को ज्योनार कहा जाता है। यह एक रस्म है। संस्कृत की हृ धातु में ग्रहण करना, लेना, प्राप्त करना, निकट लाना, पकड़ना, खिंचाव या आकर्षण जैसे भाव हैं। हृ में आ उपसर्ग लगने से बना है आहार्य। इससे ही हिन्दी मे आहार aahar शब्द बना जिसे आमतौर पर भोजन के अर्थ में प्रयोग किया जाता है जिसका मतलब है ग्रहण करने योग्य।
भोजन शब्द बना है संस्कृत की भुज् धातु से। यह विराट भारतीय मनीषा है जिसने अपनी उदरपूर्ति के आयोजन का समारम्भ ईश्वर को भोग लगाकर करने की परम्परा चलाई। आहार हेतु अन्नकण उपलब्ध करानेवाली सृष्टि की अदृष्य किन्तु महान शक्ति के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन का यह भाव किसी अन्य संस्कृति में दुर्लभ है। हिन्दी का भोग शब्द बना है संस्कृत के भोगः से जिसका अर्थ है सुखानुभव, आनंद, खान-पान, आय, राजस्व, भोजन, दावत और उपभोग आदि। यह बना है संस्कृत धातु भुज् से जिसका संबंध उसी भज् धातु से है जिससे भग, भगवान और भाग्य जैसे शब्द बने हैं। भज् का अर्थ होता है भक्त करना अर्थात बांटना, अलग-अलग करना। इसमें वि उपसर्ग लगन से बना है विभक्त है। भज् से ही बना है विभाजन। इन दोनों ही शब्दों का अर्थ बंटवारा है। पके हुए चावल के लिए भात शब्द भी इसी भक्त की देन है। क्योंकि पकने के बाद भी चावल का एक-एक अंश विभक्त नज़र आता है। वैदिक देवता को इस भक्त की आहूति दी जाती थी। बाद मे यह उबला हुआ चावल भोजन का पर्याय भी हो गया। उपासक, सेवक, पुजारी, दास आदि के अर्थ में भक्त की व्याख्या यही है कि जो अपने प्रभु से, आराध्य से विभक्त है और भज् यानी आराधना के जरिये उसमें लीन होने का अभिलाषी है। भक्त के देशज रूप भगत और भगतिन हैं।
भुज् का अर्थ होता है खाना, निगलना, झुकाना, मोड़ना, अधिकार करना, आनंद लेना, मज़ा लेना आदि। गौर करें कि किसी भी भोज्य पदार्थ को ग्रहण करने से पहले उसके अंश किए जाते हैं। पकाने से पहले सब्जी काटी जाती है। मुंह में रखने से पहले उसके निवाले बनाए जाते हैं। खाद्य पदार्थ के अंश करने के लिए उसे मोड़ना-तोड़ना पड़ता है। मुंह में रखने के बाद दांतों से भोजन के और भी महीन अंश बनते हैं। आहार के अर्थ में भोजन शब्द बना है भोजनम् से जो इसी धातु से जन्मा है। जाहिर है यहां अंश, विभक्त, टुकड़े करना, मोड़ना, निगलना जैसे भाव प्रमुखता से स्पष्ट हो रहे है। भुज् से ही बना है भुजा या बांह शब्द। गौर करें भुजा नामक अंग का सर्वाधिक महत्व इसीलिए है क्योंकि यह विभिन्न दिशाओं में मुड़ सकती है। यहां भुज् में निहित मुड़ने, झुकाने का भाव स्पष्ट है। भोजन का अर्थ व्यापक रूप में आहार न होकर भोग्य सामग्री से से है। भज् से ही निकला है भजन अर्थात भक्तिगान। भज् से बने भाग्य में भी अंश या हिस्से का भाव स्पष्ट है। ईश्वर ने हर प्राणी के हिस्से में सुख-दुख का जो परिमाण, हिस्सा या अंश तय किया है, वही उसके हिस्से का भाग्य होता है। है। ईश्वर की पूजा अर्चना के बाद उन्हें भेंट स्वरूप जो अन्न समर्पित किया जाता है वह भोग होता है। भोग बना है भुज् धातु से जिससे भोजन बना है। भोग यानी आस्वाद लेना। सुखोपभोग करना। आहार, समर्पित पदार्थ आदि। भोग लगने के बाद वह अन्न, प्रसाद कहलाता है। प्रसाद बना है सद् धातु में प्र उपसर्ग लगने से। प्र उपसर्ग में सद् में जीने, बसने, आराम करने का भाव है। इससे बने प्रसादः का अर्थ हुआ प्रसन्नता, कृपा, मेहरबानी। भक्त के ऊपर भगवान की कृपा। प्रसाद उस चढ़ावे को भी कहते हैं जो ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए उन्हें अर्पित किया जाता है और जिसे बाद में भक्तों में वितरित किया जाता है। परसाद को अक्सर परशाद, प्रशाद भी उच्चारा जाता है। इसमें कृपा और अनुग्रह का भाव इतना प्रबल हुआ कि लोग संतान प्राप्ति के बाद उसका नाम अपने आराध्य के नाम पर ही रखने लगे जैसे रामप्रसाद, दुर्गाप्रसाद, शिवप्रसाद आदि। किसी की कृपा होने को प्रसाद मिलना या प्रसाद पाना कहा जाता है। भोजन-परसादी शब्द भी चलन में जिसका अर्थ आहार से है। [इस कड़ी के संदर्भ पिछले कुछ आलेखों से लिए गए हैं, कुछ नए हैं।]
–जारी
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16 कमेंट्स:
बस यही कह सकता हूँ अजीत भाई कि आपको पढ़ना सुखद है मेरे लिए। मुग्ध होकर पढ़ता हूँ।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
आपने रुचिकर भोजन परोसा है!
जीम कर तृप्त हो गये हैं!
जिसे चबा चबा कर खाया जाये
वो भोजन भगत बन जाये
तृप्ति के सागर में उतर जाये
स्वास्थ्य के भंवर में तर जाये
बहुत लाजवाब पोस्ट.
रामराम.
बहुत लाजवाब.
अजित जी,
रामप्रसाद, शिवप्रसाद, दुर्गाप्रसाद...इस लिहाज से तो लालू भी कोई आराध्य होंगे तभी नाम रखा गया लालूप्रसाद...
वैसे ये प्रसाद सिर्फ राबड़ी देवी पर चढ़ावे के लिए है...
जय हिंद...
इस जानकारी ने कि भुज से भोजन बना है और भुज का अर्थ अंश है, फिर इतिहास में पहुँचा दिया है। आरंभिक समाज में जिसे आदिम साम्यवाद भी कहा जाता है। समूह या परिवार एक साथ भोज्य सामग्री का अर्जन करता था और अपने समूह या परिवार के सदस्यों में आवश्यकता के अनुसार अंश में वितरित करता था। तब भोजन अंश ही था।
.....और बस घंटे भर में निकलने वाला हूँ। आज का दिन कोर्ट टाइपिस्टों के साथ बिताना है। क्षारबाग में उन की यूनियन का चुनाव है और फिर शाम को भोजन जीमण।
चटकारे लगा लगा कर पढ रही हूँ धन्यवाद इस परोसे के लिये
अजित भाई आपको भास्कर में निरंतर गंभीरता से पढ़ता रहा हूं. ब्लॉग पर भी लगातार आमद बनी रहेगी. इस बहाने कम-से-कम मेरा भाषाज्ञान शब्दकोश सुधर जायेगा.
धन्यवाद
एक और परोसिये . थोडा आग्रह न हो तो भोजन पांति का मज़ा ही क्या ?
शब्दों का प्रसाद . जन्मदिन की अग्रिम शुभकामनाये
भुज्, भज, हृ, कहां कहां से हमारे भोजन की व्यवस्था हुई है और फिर भजन भी अंत में प्रसाद पाकर तो धन्य हो गये । गुजरात में एक शहर है भुज, हो सकता है कि उस नाम की भी ऐसी ही कोई कहानी हो ।
Behatrin karya kar rahe hain ap...sadhuvad !!
भोजन करने के पहले इतना कहाँ सोचते हैं कभी :)
मेरे विचार से इश्वर प्रसन्न होकर जो भक्तों को देता है वह प्रसाद है न कि ' प्रसाद उस चढ़ावे को कहते हैं जो ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए उन्हें अर्पित किया जाता है और जिसे बाद में भक्तों में वितरित किया जाता है।' क्या ख्याल है? Baljit Basi
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