Wednesday, April 28, 2010

[नाम पुराण-8] यजमान का जश्न और याज्ञिक

vedas[55] पिछली कड़ियां-1.नाम में क्या रखा है 2.सिन्धु से इंडिया और वेस्ट इंडीज़ तक 3.हरिद्वार, दिल्लीगेट और हाथीपोल 4. एक घटिया सी शब्द-चर्चा 5.सावधानी हटी, दुर्घटना घटी 6.नेहरू, झुमरीतलैया, कोतवाल, नैनीताल 7.दुबे-चौबे, ओझा-बैगा और त्रिपाठी-तिवारी

प्रा चीनकाल में ज्ञान परम्परा से जुड़ी बातें धर्म के दायरे में आ जाती थीं। अधिकांशतः यह होता रहा कि धर्म-कर्म की जानकारियां ही किसी व्यक्ति के ज्ञान का पैमाना होती थीं। प्राकृतिक शक्तियों को ही मनुष्य ने विकास के प्रारम्भिक चरण से आजतक सर्वोपरि माना। दिन-रात की घटना से मनुष्य अचम्भित रहा। इसका रिश्ता उसने सूर्य चंद्र से जोड़ा। फिर सूर्य, चंद्र, जल, अग्नि, आकाश जैसे तत्वों से अनुभूत स्थूल जानकारियां ज्ञानघट में समानी शुरू हुईं। इसके बाद अंतरिक्ष, सौर चक्र, ग्रह-नक्षत्रों की गतियों और ऋतुक्रम के बारे में उसके अध्ययन का दायरा बढ़ा। आगे चलकर प्राकृतिक शक्तियों को विलक्षण मानते हुए उनमें देवत्व की प्रतिष्ठा हुई। ग्रह-गतियों और मौसम के अनुरूप एक जीवन पद्धति विकसित हुई जिसमें नई रीतियां, परम्पराएं, अनुष्ठान आदि जुड़ते गए। मनुष्य के नैतिक कर्तव्यों की स्थापना इसका अगला चरण थी। इस तरह एक संस्कृति विकसित होते हुए सभ्यता में बदली। स्थूल रूप में धर्म का यही आरम्भिक स्वरूप रहा होगा। यह पूर्ववैदिक युग था। वैदिक युग में चिंतन का गहन रूप देखने को मिलता है।

पनिषद काल में दर्शन का विकास उच्चतम स्तर पर दिखता है। धर्म संबंधी धारणाएं इसी दौर में स्थिर हुईं। इतना सब होने के बावजूद संचित ज्ञान की यह थाती एक वर्ग तक सीमित रही। परम्परागत रूप से ये लोग पुरोहित, याज्ञिक, विज्ञ, ज्ञानी और पंडित कहलाए।मूलतः ये सब उपाधियां थीं जो कालांतर में ब्राह्मणों के उपनाम बन गए। इस संदर्भ में राजपुरोहित, शास्त्री, वैद्य, वाजपेयी, अग्निहोत्री, पुण्डरीक-पौण्ड्रिक, पुराणिक, देवपुजारी, धर्माधिकारी, दीक्षित, जोशी, आचार्य, याज्ञिक (याग्निक), पण्डित, पुरोहित, पाण्डे, देशपाण्डे, पुजारी, ऋषि, महर्षि जैसी अनेक उपाधियों का उल्लेख किया जा सकता है। आर्य संस्कृति यज्ञ प्रधान थी। मोटे तौर पर यह प्रकृति की उपासना थी। यज्ञकर्म के जरिये पूर्ववैदिक काल के लोग जन मंगल और जन कल्याण की कामना करते थे। कालांतर में धार्मिक विधिविधानों का स्वरूप निश्चित होने के बाद प्रमुख धार्मिक अनुष्ठान के रूप में यज्ञ की महत्ता और बढ़ गई। हिन्दी उर्दू में एक शब्द है जश्न या जशन। इसका अर्थ है उत्सव, समारोह या जलसा। अपने मूल रूप में तो यह शब्द फारसी का है। पुरानी फारसी यानी अवेस्ता में यह
शास्त्रों में दो तरह के प्रमुख यज्ञ बताए गए हैं 1) श्रौत यज्ञ 2) पञ्चमहायज्ञ। दोनों प्रकार के यज्ञों में अंतर पुरोहित का है। श्रौतयज्ञ में जहां पुरोहित ही प्रमुख होता है और ग्रहस्थ की भूमिका गौण होती है वहीं पञ्चमहायज्ञ को ग्रहस्थ बिना किसी पुरोहित के सम्पन्न कर सकता है। dsc-38911
यश्नरूप में मौजूद है। संस्कृत का यज्ञ ही फारसी का यश्न है। दरअसल भारतीय आर्यो और ईरानियों का उद्गम आर्यों के एक ही कुटुम्ब से हुआ जिसकी बाद में दो शाखाएं हो गई। गौरतलब है कि प्राचीन ईरानी या फारसवासी अग्निपूजक थे। पारसी आज भी अग्निपूजा करते है । पारसी शब्द भी अग्निपूजकों के एक समूह के फारस से पलायन कर भारत आ जाने के कारण चलन में आया। यज्ञ की परंपरा भारतीय और ईरानी दोनों ही दोनों ही आर्य शाखाओं में थी। वैदिक अग्निस्टोम एवं पारसियों के होम में बहुत समानता है। पारसी आनुष्ठानिक शब्दावली संस्कृत की यज्ञ संबंधी शब्दावली से बहुत मिलती जुलती है मसलन-अथर्वन, यज्ञ, सोम, सवन, स्टोम, होतृ, आहुति, मन्त्र आदि शब्द अवेस्ता, ईरानी और पारसी में भी किंचित रूपांतरों के साथ हैं। फारसी और हिन्दी भी एक ही भाषा परिवार से संबंधित हैं। फारसी का प्राचीन रूप अवेस्ता में जिसे यश्न कहा गया है और हिन्दी के प्राचीन रूप संस्कृत में जो यज्ञ के रूप में विद्यमान है। उत्तर पश्चिमी भारत में कई लोग इसे यजन भी कहते हैं। यह माना जा सकता है कि इरान में इस्लाम के आगमन के बाद यज्ञ ने अपने असली मायने खो दिए और यह केवल जलसे और उत्सव के अर्थ में प्रचलित हो गया । जबकि भारत में न सिर्फ यज्ञ की पवित्रता बरकरार रही बल्कि यज्ञ न करने वालों के लिए एक मौका जश्न का भी आ गया।
संस्कृत और फारसी के यज्ञ/यश्न शब्द की मूल धातु है यज् जिसका मतलब होता है अनुष्ठान, पूजा अथवा आहुति देना। ये सभी शब्द कहीं न कहीं समूह की उपस्थिति, उत्सव-परंपरा के पालन अथवा सामूहिक कर्म का बोध भी कराते हैं । जाहिर है ये सारे भाव जश्न में शामिल हैं जो अंततः यज्ञ के फारसी अर्थ में रूढ़ हो गए। गुजराती ब्राह्मणों का एक उपनाम है याज्ञिक जिसका याग्निक रूप भी प्रचलित है। याज्ञिक वह व्यक्ति होता है जो यज्ञ कराता है। यज्ञ के जरिये पुण्यकामना का इच्छुक व्यक्ति यजमान कहलाता है और यजमान की ओर से प्रतिकात्मक रूप से आहुति देता है। किसी वक्त यजमान की ओर से याजकर्म करानेवाले ब्राह्मणवर्ग को हीन समझा जाता था, मगर बाद में इनका रुतबा बढ़िता चला गया। है। यज् धातु से ही बना है इससे ही बन गया यजमानः जिसके सही मायने हैं जो नियमित यज्ञ करे। वह व्यक्ति जो यज्ञ के निमित्त पुरोहितों को चुनता है और व्यय वहन करता है। दानकर्म आदि करता है। इसी तरह यज्ञकर्मी ब्राह्मण के शिष्य को भी यजमान कहा जाता है। हिन्दी में इसके जजमान, जिजमान, जजमानी वगैरह जैसे कई रूप प्रचलित हैं। समाज के धनी, कुलीन, आतिथेयी अथवा प्रमुख पुरूष को भी यजमान कहने का चलन उत्तर भारत में रहा है। चार वेदों में प्रमुख यजुर्वेद को यह नाम भी यज् धातु के चलते ही मिला है क्यों कि ज्ञान का यह भंडार यज्ञ संबंधी पवित्र पाठों का संग्रह है। इसकी दो प्रमुख शाखाएं है कृष्णयजुर्वेद और शुक्लयजुर्वेद। हिन्दी शब्दसागर के मुताबिक पीपल, खैर, पलाश आदि अनेक वृक्षों को भी याज्ञिक की संज्ञा दी जाती
शास्त्रों में दो तरह के प्रमुख यज्ञ बताए गए हैं 1) श्रौत यज्ञ 2) पञ्चमहायज्ञ। दोनों प्रकार के यज्ञों में अंतर पुरोहित का है। श्रौतयज्ञ में जहां पुरोहित ही प्रमुख होता है और ग्रहस्थ की भूमिका गौण होती है वहीं पञ्चमहायज्ञ को ग्रहस्थ बिना किसी पुरोहित के सम्पन्न कर सकता है। धर्मशास्त्र का इतिहास में महामहोपाध्याय पाण्डुरंग वामन काणे लिखते हैं कि श्रौत यज्ञ ही मूलतः वैदिक यज्ञ कहे जाते हैं। पञ्चमहायज्ञ उसके बाद के हैं हालांकि इनकी व्यवस्था भी वैदिक काल से ही मिलती है। याद रहे यज्ञ के विधि विधान ऋग्वेद की ऋचाओं के प्रणयन के साथ साथ विकसित होते रहे। ऋग्वैदिक काल में प्रातः, मध्याह्न एवं सायंकाल की अग्नियों को आहूति देने अर्थात यज्ञ करने की परिपाटी चल चुकी थी। पञ्चमहायज्ञों हैं -1) भूतयज्ञ 2) मनुष्य यज्ञ 3) पितृयज्ञ 4) देवयज्ञ और 5) ब्रह्मयज्ञ। जब सिर्फ अग्नि में समिधा दी जाए तो वह देवयज्ञ है। पितरों को तर्पण करना पितृयज्ञ है। जीवों को ग्रास या पिण्ड दिया जाता है तब वह भूतयज्ञ है। जब ब्राह्मणों या अतिथियों को भोजन दिया जाता है तो वह मनुष्य यज्ञ कहलाता है और जब स्वाध्याय किया जाता है, चाहे एक वैदिक ऋचा या वैदिक सूक्त का पाठ हो तो वह ब्रह्मयज्ञ कहलाता है।

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13 कमेंट्स:

Udan Tashtari said...

यह कड़ी भी उम्दा रही.

सहज समाधि आश्रम said...

अजित जी आप काफ़ी चिंयन करते हैं इस हेतु मैं
पत्र लिखने पर विवश हो जाता हूँ पर आप मेरे
सुझाव से नजरिया थोङा घुमा दें तो आप्के लिये बेहद
शार्टकट हो जायेगा मैने शायद इस रहस्य के बारे
में आपकी ही किसी पोस्ट में लिखा है जैसे इसी
पोस्ट में यग्य(असली ग्य इस सा.वे. में लिखता नही
है ) य का अर्थ ये ग्य का जानना अब यग्य के पूर्व
जो टाइटल है जिस हेतु है फ़ल वही है..आप जितने भी
वर्तमान हिन्दी में आधे शब्द या ऊपर नीचे जुङे शब्द है
उन्हें बदल कर इस तरह कर लें जैसे इसी पत्र में लिखा
वर्तमान= वरतमान=जो वरत रहा है वो .शब्दो के रहस्य
में र =चेतन. राम .म=माया, माना हुआ अ=चेतना से
कनेक्ट करने वाला. दूसरा आप प्रथ्वी और धर्म की उत्पत्ति
अभी के वेग्यानिक दृष्टिकोण से देखते है जबकि आप शास्त्रों
का अध्ययन भी करते हैं ये बिलकुल गलत है ..मैं अधिक नहीं
कह्ता आप कबीर के जिस ढाई अक्षर को पङने से पंडित हो जाते है
और फ़िर सब किन्तु परन्तु क्यों यों जल जाते है उसको जान लीजिये
एकहि साधे सब सधे सब साधे सब जाय
रहिमन सींचों मूल को फ़ूले फ़लें अघाय
ये इसी ढाई अक्षर के बारे में है

Shekhar Kumawat said...

-बहुत सुन्दर!

bahut khub



shkehr kumawat

संजय बेंगाणी said...

बहुत सही.

अजित वडनेरकर said...

@"..मैं अधिक नहीं
कह्ता आप कबीर के जिस ढाई अक्षर को पङने से पंडित हो जाते है
और फ़िर सब किन्तु परन्तु क्यों यों जल जाते है उसको जान लीजिये"

टिप्पणीकार मार्गदर्शक होता है। आपका लिखा इतना अस्पष्ट और उलझा हुआ क्यों है? मिसाल के तौर पर ये पंक्तियां। मुझे इनका अभिप्राय समझ में नहीं आया। वैसे तो पूरी टिप्पणी ही पल्ले नहीं पड़ी। क्या आप यह कहना चाहते हैं कि शब्दों का सफर बंद कर दूं और कबीरपंथी बन जाऊं?

निर्मला कपिला said...

AAPAKAA YE SAFAR MUJHE TO BAHUT ACHHA LAGATAA HAI HAMESHAA KUCH NAYEE JAANAKAAREE HOTEE HAI DHANYAVAAD AUR SHUBHAKAAMANAAYEN

Gyan Dutt Pandey said...

यह तो मजेदार बात है कि यज्ञकर्ता और जश्नकर्ता मौसेरे भाई हैं! :)

दिनेशराय द्विवेदी said...

यज्ञ को आप ने ठीक समझा और समझना हो तो छांदोग्य उपनिषद का उपासना खंड देखें।

dhiru singh { धीरेन्द्र वीर सिंह } said...

यज्ञ और जश्न ........... समानता

rajmohan said...

ajitji now I will have to learn all computer language for just to enjoy fully your Journey of Words-you already know I m a railway TTE so I like to travel.
The most interesting thing is that all this mental journey is a perpetual process. People just make groups and want to catch all present in their hands. but everything just fades in past the very next second. this Chetan Jagat is renewing itself each and every second and in this process a new world is created in front of our own eyes every day.
your study is marvellous. real labour and true service. God bless you. raj

उम्मतें said...

@ अजित भाई :)

प्रवीण पाण्डेय said...

उपाधि तो जन्म से मिल गयी । उसे सार्थक करने के प्रयास में खप रहे हैं ।

किरण राजपुरोहित नितिला said...

बेहद रोचक और जानकारी भरी पोस्ट .गाव शहर जाति नाम से जुडी पोस्ट मेरी पसंदीदा है .

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