बोधिभाई को कुछ दुर्लभ दिखाने की फिक्र अभी से खाई जा रही है। करता हूं कुछ जुगाड़। न हो सका तो उनकी संभावित भोपाल यात्रा में अड़ंगा लगाने कोशिश की जाएगी। |
अ जित भाई, आप मुझे कुछ दुर्लभ दिखा सकते हैं? बोधिसत्व ने चलने से कुछ देर पहले हमसे पूछा था। यह सुनकर हम अचकचा गए थे। बात बनाने के लिए कह दिया था कि आप अगली बार हमारे घर ही मुकाम करिए, तब शायद कुछ ढूंढ कर दिखा सकूं। यहां बात हो रही है हिन्दी के ख्यात कवि बोधिसत्व की जो अपने दोस्त हैं और गुरुवार को भोपाल में थे। उक्त संवाद हमारे घर का है। बोधिभाई ने भोपाल आने की सूचना बुधवार को ही दे दी थी। हमने तभी कर लिया था कि शुक्रवार को सांची जाया जाएगा जो कि प्रसिद्ध बौद्धतीर्थ है और भोपाल से मुश्किल से तीस किमी की दूरी पर है। बोधिभाई से बात होने के बाद हम रसोई में कुछ खटराग फैलाने लगे। घर पर मैं और अबीर ही थे। फ्रीजर में रखे पाषाणवत घी को तेज़ चाकू से कड़ाही में डालने की कोशिश में चाकू तेज़ी से बाईं हथेली में जा घुसा। बात की बात में अस्पताल जाना पड़ा। चार टांको के साथ हथेली सिलवानी पड़ी। डेढ़ घंटा उसमें खर्च हो गया क्योंकि अस्पताल से लौटते वक्त कार पंक्चर हो गई। फिर स्टेपनी बदली और फिर टायर की मरहमपट्टी का सिलसिला शुरु हुआ। हमारे साथ ये अक्सर होता रहता है। मगर मरहमपट्टी के बाद लौटते ही पूरी लगन के साथ दाल फ्राई की गई। कहना ये चाहते हैं कि बोधिभाई के लिए ली गई छुट्टी उसी दिन हथेली के जख्म को नजर हो गई और सांची का कार्यक्रम बिना मेहमान से पूछे रद्द हो चुका था। वजह यह कि उस दिन दर्द के चलते हम दफ्तर नहीं जा पाए नतीजतन बोधि के हिस्से की छुट्टी कैंसिल हो गई। नौकर पत्रकार अपने जीवन पर अक्सर इसीलिए लानत भेजता है। खैर, अगले दिन यानी शुक्रवार की सुबह ठीक साढ़े नौ बजे हम बोधिभाई जिंदाबाद…तस्वीरें ली है
अबीर ने। बोधिभाई ने अबीर को बताया कि उन्हें अपनी तस्वीरें छपी देखने में बहुत सुख मिलता है। साहबजादे ने इसे गंभीरता से नहीं लिया और कुल जमा तीन तस्वीरें ही खींची। वर्ना उनकी खुशी के लिए हम यहां दर्जनों फोटू छापने करने को राजी थे।
बोधिभाई को लेने उनके संबंधी के घर के लिए निकल तो पड़े मगर उनका घर ढूंढने में ही खप गए। आखिरकार उन्हें ही उस जंगल में आना पड़ा जहां हम अटके खड़े थे। खैर किसी तरह उनसे भेट हुई और फिर हम उन्हें अपने घर लिवा लाए। बोधिभाई ने कई बार आग्रह किया कि कार वे ड्राईव कर लेंगे क्योंकि उन्हें हमारे जख्मी हाथ की चिन्ता सता रही थी, पर हम भी जख्मी हाथ के सहारे उन्हें अपनी ड्राईविंग के जौहर दिखाने की ठाने बैठे थे, सो वो आड़ी-तिरछी वडनेरकरिया, राजगढ़िया इस्टाईल में गाड़ी चलाई कि बोधिभाई प्रवचन की मुद्रा में आ गए। उनकी जगह “सुजाता” होती तो प्रवचनों को खीर समझ कर ग्रहण करते और हम सम्बुद्ध यानी समझदार हो जाते। पर क्यों होते? कोरी समझाईश सुनकर तो सिर्फ समझदारी से सिर हिलाया जा सकता है, असली समझदारी समझाईशों को खारिज कर देने में ही होती है, सो वही हमने किया भी और लगातार ट्रैफिक रूल तोड़ते हुए घर आ पहुंचे। बोधि को शायद दुर्लभ की तलाश तभी से होने लगी थी। बोधिभाई के भोपाल प्रवास का उद्धेश्य कला-साहित्य से जुड़े यहां के एक प्रतिष्ठित सरकारी संस्थान के प्रतिष्ठित प्रकाशन के अतिथि संपादक बनने से जुड़ा था। हालांकि उनसे यह हमारी पहली मुलाकात नहीं थी। इलाहाबाद की बहुचर्चित और विवादास्पद ब्लागर कांफ्रेस में हम बीते साल उनसे मुलाकात हो चुकी है। बोधिभाई एक सुदर्शन, सजीले व्यक्तित्व के धनी हैं। टीवी-फिल्मों की दुनिया में भी घुसे पड़े हैं। मीडिया की मोटाई-पतलाई सब जानते हैं। कई खूबियों वाले किरदार हैं। मगर हमारी उनकी पटरी सिर्फ इसलिए बैठती है क्योंकि वे भी किताबों के जबर्दस्त शौकीन हैं और हम भी। शब्दों का सफर के वे शुरुआती साथियों में हैं। हमारे संग्रह को बोधि देखते रहे। हमने अपने मामा कमलकांत बुधकर की ताजी पुस्तक “मैं हरिद्वार बोल रहा हूं” भेंट की। यह किताब इस पुण्यतीर्थ के करीब दो सदी पुराने चित्रों के साथ कही गई इतिहास से वर्तमान तक की कहानी है। पुस्तक चर्चा में इसका उल्लेख विस्तार से होगा। काफी देर हम इस पर ही चर्चा करते रहे कि हम हिन्दुस्तानी डाक्यूमेंटेशन के मामले में बहुत गैरजिम्मेदार हैं। अगर लिखत-पढ़त वाले लोग अपने मूलस्थान के बारे में तथ्यात्मक जानकारियों को एकत्रित कर उन्हें प्रकाशित कराने का काम शुरु कर दें तो सामाजिक इतिहास के क्षेत्र में बहुत बड़ा काम हो जाएगा। पर यह सब हमारे खून में नहीं है। इसके लिए हमें किसी गोरी कौम का ही मुंह देखना पड़ता है। वे सिखा कर चले भी जाते हैं, तो भी हमारी तंद्रा नहीं टूटती।
कवि, कविताई का धर्म, हिन्दी कवि के कुटैव, कवि की परमगति, दुनिया की रफ्तार, दीगर कलाओं के हाल के बारे में भी बतरस हुआ। हमने कहा कि हर विधा का फनकार आज बदल रहा है मगर हिन्दी का बहुसंख्यक कवि नहीं बदलता। वहीं घिसापिटा माहौल। राजनीति, छपास, आत्ममुग्धता, लिजलिजी भावुकता, परपीड़न वगैरह वगैरह से ग्रस्त है यह वर्ग। “तुम मुझे निराला कहो, मैं तुम्हें पंत” जैसे अनुबंध, संधियां या दोस्ताने यहां दशकों से जारी हैं। इसे काव्य रसिकता कहा जाता है। वे राजी दिखे। हमें ध्यान आया कि खुद भी कवि हैं और इस वक्त इनके सारथी हम हैं सो संभव है दिखावा कर रहे हों। पर बाद में लगा कि सच्ची में वे हमारी बात से सहमत थे। बोधिभाई को कवि मित्र और भास्कर के मैगजीन एडिटर गीत चतुर्वेदी से भी मिलना था सो यूं पूरा हुआ एक बेहतरीन शख्सियत से मिलने का दौर। बोधिभाई को कुछ दुर्लभ दिखाने की फिक्र अभी से खाई जा रही है। करता हूं कुछ जुगाड़। न हो सका तो उनकी संभावित भोपाल यात्रा में अड़ंगा लगाने कोशिश की जाएगी। और कुछ न हुआ तो रसोई का खटराग फैलाऊंगा। अपना हाथ जगन्नाथ। इस बार मिलने ही नहीं जाऊंगा, बहाना कर दूंगा कि ज़ख्मी हो गया हूं। पर डर ये भी है कि बोधि घर देख गए हैं। मिजाजपुर्सी को ही आ जाएंगे!!!! ये सफर आपको कैसा लगा ? पसंद आया हो तो यहां क्लिक करें |
20 कमेंट्स:
बढिया लगी दो मित्रों के मिलने की रिपोर्ट, बोधिसत्व जी को उनके ब्लाग से ही जाना है और उनके धनी व्यक्तित्व के सभी कायल हैं।
ब्लागर मित्रों से जो जो वसूल करना है उसकी लिस्ट में आपका दालफ़्राई भी जुड गया है, देखें कब नसीब होता है :)
अपने हाथ की मिजाजपुर्सी करवा लीजिये, कम से कम आपको पूछने वाले तो हैं, हम तो इस हाल में हैं कि,
पडिये गर बीमार तो कोई न हो तीमारदार..
पिछले छ: दिनों से गर्दन थामे बैठे हैं जो देर रात टीवी देखते देखते सोफ़ा पर रेत में शुतुरमुर्ग की तरह ढेर हो जाने का दर्द सह रही है।
"तीन तस्वीरे तो कम है...हा हा हा.. कुछ पल यादगार बन जाते है.. जय हो"
मुझे तो लग रहा है कि भोपाल में ब्लागीरों के लिए एक तीर्थ होता जा रहा है आप का आवास। जहाँ जाए बिना भोपाल यात्रा अधूरी रहती हो।
ये पिता पुत्र रसोई घर में क्यों ? 'जमें हुए पर' धारदार हथियार का इस्तेमाल ? कुछ टांके ? यक़ीनन कवि मित्र की दुर्लभ देखने की चाह आपको तनाव दे रही है ! आप शांत रहिये...सहज रहिये , आजकल ये ही दुर्लभ है !
'बोध' उम्दा मिला 'सफ़र' पर आज,
'पंत' कह कर 'निराला' बन जाना !.
क्यों बने शिष्य ? संत कह कर के,
चाँद कह कर सितारा बन जाना !
हाय-हाय, वहाँ हम क्यों न हुए।?
अब तो हम ईर्ष्यालु हुए जा रहे हैं।
बोधि जी को वर्धा बुलाता हूँ, और आप को भी...
ई बताईये कि फोटू खींचने वाला टांड पर बैठा था क्या? मार सर उठा-उठा के पोज़ दे रहे हैं आप लोग?
क्या अजीत भाई....आपने तो मेरे हाथ से सब कुछ छीन लिया। अब मैं क्या लिखूँगा...
लेकिन चिरंजीव अबीर और आप से मिलना बहुत अच्छा लगा। अबीर के लिए हार्दिक शुभ कामनाएँ आपका आभार।
मैं हरि भटनागर जी की पत्रिका रचना समय का अतिथि संपादन कर रहा हूँ। खास कर शमशेर जी और नागार्जुन बाबा की जन्म शती पर दो अंको का।
दो मित्रों का आत्मीय मिलन विवरण पढ़कर अच्छा लगा लेकिन भैया ऐसे रसोई में आप पाषाणवत चीजों से युद्ध लड़कर क्यों जख्मी होते हैं। सरेंडर करना ही बेहतर ;)
ध्यान रखें हाथ का, ज्यादा उठापठक न करें।
बोधि भाई साहब से जब भी फोन पर बात हुई है आत्मीयता ही मिली है।
बाकी दिनेशराय द्विवेदी जी के कथन से सहमति है।
kaash हम भी होते saath आपके तो समा कुछ और hota
आप दोनों के मिलन के बारे में पढना बड़ा रोचक रहा... अबीर के द्वारा की गयी पुस्तक की समीक्षा भी बेहतरीन है...
दुर्लभ चीज़ों का इंतज़ार रहेगा.. :)
अजित भाई, यह बोधि भाई हैं बहुत अच्छे मित्र । हम लोग अक्सर फुनियाते रहते हैं . कभी कभी मुलाकात भी हो जाती है । लेकिन यह समझ में नहीं आया कि आप इतने उत्साह में कैसे आ गये कि बात चार टाँकों तक पहँच गई । ठीक है अब बोधि भाई से टाँका भिड़ा है तो ऐसा ही होगा ना ।खैर हम समझ सकते हैं ..
और उनकी यह दुर्लभ देखने की फरमाइश कुछ समझ में नहीं आई । खैर हमने तो देख लिया अजित वडनेरकर के हाथ में बन्धी पट्टी वाला दुर्लभ दृश्य ।
ये वडनेरकरिया स्टाइल की ड्राइविंग का लाइसेंस कुछ अलग से मिलता है क्या ?
और खीर का ज़िक्र आया तो आपके यहाँ खाई हुई सुस्वादु खीर का स्वाद याद आ गया ।
बहरहाल आपके ज़ख्म जल्दी भर जायें इसके लिये शुभकामनायें ।
मजेदार मुलाकात और विवरण!
अपने अपने शहर के बारे में लिखने की बात जायज लगने की हद तक सही है। मामाजी की किताब बांचने का जुगाड़ भिड़ाते हैं।
वैसे आपकी पोस्ट का शीर्षक पढ़कर कोई भी सजग आप पर तोहमत लगा सकता है कि आप न तो ब्लॉगर हैं न ही अखबार वाले। अगर दोनों में से कोई भी मन लगाकर होते तो इस पोस्ट का शीर्षक रखते- ब्लॉगर मीट में चाकू चला, चार टांके लगे।
मित्रों का सुखद मिलन ।
वे दुर्लभ देखना चाहते हैं.उन्हें भोपाल का माधव राव सप्रे स्मृति समाचार पत्र संग्रहालय दिखाइये. वहाँ कुछ दुर्लभ संग्रह मिलने की संभावना है.
मुहावरा है कि सीधी उंगली सी घी नहीं निकल सकता. मतलब कि हरेक काम में जुगाड़ लगाना पड़ता है. आप ने बेसब्री और जलदबाज़ी की. खैर, आप की उंगली का अफ़सोस है.
घी को बाहर रखिये भाई और हाथ बचाइय़े!
वाकई बोधि भाई कमाल का व्यक्तित्व हैं, हम तो केवल २ बार ही मिले हैं और उनके पंखे हो गये हैं।
बोधिसत्व जी से आपकी मुलाकात का विवरण अलग सा लगा । आपकी शब्दों के सफर की आदी जो हो चुकी हूँ । आशा है हथेली का जख्म अब ठीक हो रहा होगा ।
विवेक जी और कोकास जी सुबह-सुबह कोई और नहीं मिला.....
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