Sunday, December 26, 2010

सुयेनच्वांग की भारत-यात्रा

logo_thumb202_thumb6रविवारी पुस्तक चर्चा में इस बार शामिल किया है छठी सदी में चीन से भारत याए प्रसिदध बौद्ध श्रमण सुयेनच्वांग के यात्रावर्णन पर लिखी जगमोहन वर्मा की पुस्तक सुयेनच्वांग की भारतयात्रा को। इसे पिलग्रिम्स पब्लिशिंग हाऊस, बनारस ने प्रकाशित किया है। इसके पैपरबैक, पॉकेटबुक साईज के संस्करण का मूल्य 75 रु है और पृष्ठ संख्या 210 है । ...

वृ हत्तर भारत की सभ्यता संस्कृति का अपने पड़ोसी
abook 002दिल्ली के प्रगति मैदान में शनिवार से पुस्तक मेंला शुरू हो चुका है। सफ़र के जो पाठक इस मौके पर वहाँ जाने की सोच रहे हैं, वे कृपया राजकमल प्रकाशन के स्टाल पर ज़रूर जाएं और शब्दों का सफ़र के प्रकाशित क़िताबी रूप को भी ज़रूर देखें। हो सके तो ख़रीदें भी।
देशों जैसे चीन, भूटान, नेपाल, मंगोलिया, अफ़गानिस्तान, ईरान के जन-जीवन पर गहरा प्रभाव रहा है। इसके पीछे महान बौद्ध धर्म भी एक बड़ी वजह रहा। बौद्ध धर्म देखते ही देखते पूरी दुनिया में लोकप्रिय हो गया था जिसकी वजह थी कुरीतियों और कर्मकांडों पर उसकी शिक्षाओं की चोट। संस्कृति के चार अध्याय में रामधारीसिंह दिनकर ने लिखा है कि बौद्ध धर्म कोई नया धर्म नहीं, बल्कि हिन्दुत्व का ही संशोधित रूप है। समाज में जो वर्ण ब्राह्मण से जितना दूर था, वह बौद्ध धर्म की ओर उतनी ही तेजी से खिंचा। बौद्ध धर्म की इसी सहजता से एक सामाजिक संकट भी उत्पन्न हुआ कि समाज के हर वर्ग से लोग घरबार छोड़कर सन्यासी बनने लगे। हालांकि संन्यास की व्यवस्था हिन्दू धर्म में प्राचीनकाल से ही रही किन्तु वह आश्रम व्यवस्था के तहत क्रमिक रूप से थी जबकि बुद्ध ने क्या बालक, क्या युवा और क्या वृद्ध, सभी को संन्यास लेने का मार्ग प्रशस्त किया। पूरा देश मठों और विहारों से भर गया था। यह प्रवृत्ति चीन जैसे देश में भी थी जहाँ बुद्ध से प्रभावित भिक्षुक ज्ञान पिपासा में भारत आने लगे। चीन से भारत आने वाला ऐसा ही एक भिक्षुक था सुयेनच्वांग।
चीन देश से बौद्ध श्रमणों के भारत आने की लम्बी परम्परा रही है जिनमें फाह्यान, सुंगयुंन, इत्सिंग तथा सुयेनच्वांग विशेष रूप से प्रसिद्ध चीनी यात्री हैं। इन सभी यात्रियों ने अपने देश लौटकर दीर्घ यात्रा वृत्तांत लिखे जो आज से सैकड़ों वर्ष पहले के भारत की सांस्कृतिक, राजनीतिक और सामाजिक दशा बताते हैं। संन्यास परम्परा में देशाटन का महत्व है और प्रायः सभी यात्रियों ने देश के सुदूर अंचलों तक पदयात्रा की और विभिन्न प्रान्तों, वनस्पतियों, smita ajit 010जनपदों के जनजीवन और राजनीतिक परिस्थितियों का वर्णन किया है। सुयेनच्वांग आज से करीब डेढ़ हजार साल पहले यानी छठी सदी ईस्वी में भारत आया था। इन सभी में सुयेनच्वांग का विवरण सबसे विशद है जिसका नाम चीनी भाषा में सी-यू है यानी पश्चिम देशों की पुस्तक। इसके विभिन्न रूपान्तर अंग्रेजी में प्रकाशित हो चुके हैं जगमोहन वर्मा ने आम हिन्दी पाठक को ध्यान में रखते हुए सुयेनच्वांग का यात्रा वृत्त लिखा है जिसे पिलग्रिम्स ने प्रकाशित किया है। पुस्तक में बौद्ध श्रमण के जीवन से मृत्यु तक का वृत्तांत समेटा गया है। सुयेनच्वांग के पितामह का नाम कोंग था और वे पांचवीं-छठी सदी के चीन में माने हुए विद्वान थे और तत्कालीन पेकिंग के विश्वविद्यालय के प्रधान आचार्य थे। तत्कालीन चीन में राजाज्ञा से सर्वसाधारण के बीच से सर्वश्रेष्ठ भिक्षुक का चयन होता था। सर्वप्रथम भिक्षुक बनने के ले लिए परीक्षा देनी होती थी फिर भिक्षुक के लिए चयन होता था उसके बाद राजकीय खर्च पर उनका भरण-पोषण होता था। इस परीक्षा में सुयेनच्वांग अल्पवय में ही चुन लिए गए थे।
युवावस्था में ही सुयेनच्वांग के मन में भारत यात्रा की इच्छा जागी। राजाज्ञा न मिलने के बावजूद वे छुपते हुए भारत के लिए रवाना हो गए। जगमोहन वर्मा ने उनकी यात्रा के अधिकांश विवरणों को कुशलता से एक सूत्र में पिरोया है। उन्होंने अफ़गानिस्तान के रास्ते भारत में प्रवेश किया फिर कश्मीर, पंजाब, सिंध आज का हरियाणा, कन्नौज, प्रयाग, अयोध्या और काशी होते हुए वे पाटलिपुत्र पहुंचे जहाँ बोधगया और नालंदा में उन्होने दर्शन का गहन अध्ययन किया। देशाटन के दौरान सुयेनच्वांग महाराष्ट्र और द्विड़ क्षेत्रों की यात्रा पर भी निकले। इसी क्रम में वे गुजरात, मालवा और नर्मदातटीय क्षेत्रों में भी खूर रहे। यह दौर हर्षवर्धन का था। चीन लौटकर उन्होंने प्राप्त ज्ञान के आधार पर वहाँ प्रचलित बौद्धधर्म की मान्यताओं और परम्पराओं का परिष्कार किया। वे अपने साथ सैकड़ों महत्वपूर्ण ग्रन्थ ले गए थे। प्राचीन यात्रावृत्तों में दिलचस्पी रखनेवालों के लिए यह एक उपयोगी पुस्तक है।

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8 कमेंट्स:

dhiru singh { धीरेन्द्र वीर सिंह } said...

उस समय तो चीन अफ़ीमचियो का देश होता होगा शायद .

प्रवीण पाण्डेय said...

यह यात्रा भारतीय इतिहास के विवादित तथ्यों को उत्तर दे ती है।

दिनेशराय द्विवेदी said...

इस पुस्तक को प्राप्त करना होगा।
बिटिया पूर्वा कल दिल्ली पुस्तक मेले में पहुँची वहाँ राजकमल की स्टाल पर 'शब्दों का सफर' उपलब्ध नहीं थी। बता रही थी कि वे केवल पाँच प्रतियाँ लाए थे। सब बिक गईं।(बधाई!) उस ने एक प्रति का मूल्य चुका कर बुक करवाई। अब पुस्तक राजकमल वाले मेरे पते पर कोरियर करेंगे। संभावना है आज पुस्तक मेले में फिर से उपलब्ध रहेगी। हाँ, वहाँ यह पुस्तक 20 प्रतिशत छूट पर मिल रही है यानी 600 के स्थान पर 480 रुपए में।

गिरिजेश राव, Girijesh Rao said...

रोचक लगी यह जानकारी।
जगमोहन जी ने कहीं यह बताया है क्या कि अनुवाद मूल चीनी भाषा से है या किसी अन्य भाषा के अनुवाद से?

Satish Chandra Satyarthi said...

पुस्तकें तो दोनों खरीदने लायक मालूम होती हैं पर समस्या यह है कि यहाँ मंगवाने पर किताब के मूल्य से ज्यादा शिपिंग चार्ज लग जाता है.. कोइ वहाँ से आएगा तो मंगवाता हूँ..

अजित वडनेरकर said...

ये तो बढ़िया खबर है दिनेशजी। आपके पास जल्दी पहुंच जाएगी पुस्तक।

अजित वडनेरकर said...

गिरिजेश भाई, जगमोहन वर्मा ने भूमिका में इसका उल्लेख नहीं किया है। मेरा अनुमान है कि यह अनुवाद मूल चीनी से न होकर अंग्रेजी ग्रंथों पर आधारित ही होगा।

shyam gupta said...

इनका नाम तो अब तक ह्वेन्सान्ग पढते आये हैं, यह नाम कबसे बदल गया...

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