... सफ़र के पाठक बलजीत बासी को सिर्फ़ एक साथी के तौर पर जानते हैं। बासी जी मूलतः पंजाबी के कोशकार हैं। पंजाब विश्वविद्यालय के अंतर्गत पंजाबी अंग्रेजी कोश की एक बड़ी परियोजना से दो दशकों तक जुड़े रहे। ज़ाहिर है शब्द व्युत्पत्ति में उनकी गहन रुचि है।बाद में वह प्रोजेक्ट पूरा हो जाने पर वे अमेरिका के मिशिगन स्टेट में जा बसे। अब कभी कभार ही इधर आना होता है। वहाँ भी वे अपना शौक बरक़रार रखे हैं। अमेरिका में खासी तादाद में पंजाबीभाषी बसे हैं और इसीलिए वहाँ कई अख़बार, मैग़ज़ीन आदि इस भाषा में निकलते हैं। इनमें से एक है शिकागो, न्यूयॉर्क और सैनफ्रान्सिस्को से प्रकाशित होने वाला साप्ताहिक पंजाब टाइम्स, जिसमें वे नियमित स्तम्भ लिखते हैं। बासी जी ने इसके ताज़ा अंक में सफ़र के पुस्तकाकार आने के संदर्भ में एक परिचयात्मक आलेख लिखा है जिसका गुरुमुखी से देवनागरी में किया मशीनी अनुवाद खुद उन्होंने हमें भेजा है। उन्होंने ताक़ीद किया है कि इसमें से हम जो चाहें काट सकते हैं, सिवाय उन अल्फ़ाज़ के जो उन्होंने हमारी तारीफ़ में कहे हैं। हम पूरा आलेख दो किस्तों में छाप रहे हैं। आप समझ ही गए होंगे क्यों। अब सेल्फ प्रमोशन और मार्केटिंग का ज़माना है, सो हम भी पूरी बेशर्मी से अपने ही ब्लॉग पर मियाँ मिट्ठू बनने की हिमाक़त दिखा रहे हैं।
शब्दों का मुसाफ़िर-1/-
बलजीत बासी व ह बुनियादी तौर पर हिंदी का पत्रकार है। पिछले पच्चीस वर्षों से प्रिंट और टीवी के साथ जुड़ा हुआ है। जन्म से मराठीभाषी है, मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में रहता है, ननिहाल हरिद्वार में हैं। बचपन में कुछ अर्सा पंजाब के होशियारपुर जिले के टांडा कस्बे में रहकर यहाँ के राजमा और चना-सरसों के साग का स्वाद चख चुका है। हरिद्वार में उसके ननिहाल घर के पड़ोस में गुरुद्वारा होता था, जहाँ से बचपन में गुरबानी के कीर्तन का रस उसके कानों में दिन रात घुलता रहता थी। वह हिंदी अख़बार दैनिक भास्कर के भोपाल एडीशन में न्यज़ एडिटर के तौर पर काम कर रहा है, परन्तु शब्दों की तितलियाँ पकड़ना उसका चस्का है। शब्दों की निरुक्ति दर्शाता शब्दावली नाम का उसका चिट्ठा ( हिंदी वाले ब्लाग को चिट्ठा कहते हैं ) लगभग हर रोज़ अपडेट होता है, जिसके पाठकों की संख्या एक हज़ार पार कर चुकी है। 15000 के आसपास हिंदी के ब्लॉगों में से पाठकों की तादाद के पक्ष से उसका नंबर दूसरे स्थान पर है। यह एक चमत्कार ही है कि निपट शब्दों के आसपास घूमते एक ब्लॉग के इतने सारे रसिया हैं।
पंजाबी के किसी मासिक त्रैमासिक की इतनी संख्या नहीं है जितने पाठक रोज़ाना इस ब्लॉग पर आते हैं। इतना ही बस नहीं, कई बड़े हिन्दी अख़बार, ब्लॉग तथा वेबसाइटें उसके आलेखों को लगातार प्रकाशित करते रहते हैं। हर रोज़ बेसब्री के साथ सफ़र की नई पोस्ट का इंतजार करनेवाले उसके पाठकों में हिंदी के साहित्यकार, भाषाविज्ञानी, प्राध्यापक, कंप्यूटर विशेषज्ञ और बुद्धिजीवी शामिल हैं। उसने अपने विशाल ज्ञान, तार्किक विवेचना और क़िस्सागो शैली के साथ पाठकों के पल्ले यह बात डाल दी है कि सामान्य शब्दों के आवरण नीचे हमारी संस्कृति, इतिहास और पुरातत्व आदि का कितना कुछ छिपा पड़ा है। इस प्रतिभाशाली शब्दार्थी का नाम है अजित वडनेरकर। क़रीब दो साल पहले मुझे किसी लेख के लिए साग-सब्जी के चित्र की ज़रूरत थी। चित्र ढूँढने के लिए मैं ने गुग्गल बाण छोड़ दिया और नतीजे में अजित वडनेरकर के ब्लॉग का हवाला मेरे सामने आ खड़ा हुआ। तब हिंदी मुझसे झोली झोली ही पढ़ी जाती थी परन्तु उसकी लेखनी इतनी रोचक, जानकारीपूर्ण और तार्किक थी कि मुझे पता ही न लगा, कब हिंदी मेरे लिए एकदम सरल-सहज हो गई। और तो और, मैं ने उसकी पोस्टों पर टिप्पणियाँ देनीं शुरू कर दीं। अजित भाई ने गंभीरता के साथ मेरा नोटिस लेना शुरू कर दिया। कभी कभी हमारे में नोक-झोंक भी होने लगी। वह मेरे से नाराज़ हो जाता और झीकता - “ मैं हड़बडी में रहता हूँ, ध्यान के साथ नहीं पढ़ता” वगैरह वगैरह। उस की बात अक्सर ठीक होती परन्तु मैं ने भी शब्दों पर दो दशक से ज्यादा वक्त लगाया है। वह मेरी टिप्पणियों का विस्तृत जवाब देता -ईमेल के द्वारा, निजी तौर पर भी और ब्लाग के द्वारा भी। कोश महकमों के लंबे तजुर्बो ने मुझे सिखाया था कि शब्दों के अर्थ को बहुत सावधानी के साथ खोजना चाहिए। गाँव देहात की गलियों, बोलियों में टहलते डोलते शब्दों का बाहरी चोला चाहे देशी हो, उनकी आत्मा अंतरराष्ट्रीय होती है। इन के मर्म तक पहुँचने के लिए अंतरराष्ट्रीय दृष्टि अपेक्षित है। वडनेरकर कई बारी मेरी बात मानकर अपने लेख का संशोधन कर लेता। परन्तु मुझे भी बहुत बार उलाहने झेलने पड़े। आखिरकार हमारे तेज़-तुर्श और नोक-झोक वाले रिश्तों में मधुरता आ ही गई। वडनेरकर की शब्द निभाने की ख़ूबसूरती इस बात में है कि वह निरुक्ति सुलझाने के लिए शब्द के मूल में गहरा उतर जाता है। उस का शब्द-ज्ञान सीमित नहीं बल्कि विस्तृत अध्ययन से उपजा है जिस में वेद, शास्त्र, पुराण और विश्व भर का किताबी घसमाण शामिल है। बहुत से भाषाविज्ञानी विराट जीवन से निखुट्टे शब्द जाल में ही घुसे रहते हैं, जिससे भाषा विज्ञान संबंधी लेखन खुश्क और नीरस जान पड़ता है। सुलझे हुए वडनेरकर की शैली बोझिल नहीं बल्कि सधी हुई, प्रौढ़, दुनियादार और अक्सर उदात्त है, जिस में से एक निराली विधा उदयमान हो रही प्रतीत होती है। वह भारत की तकरीबन सभी, ख़ास तौर पर उत्तरी भाषाओ की निराली रूह का वाकिफ है। मेरे देखते-देखते ही वह कहीं का कहीं पहुँच गया है ; अब तो दुनिया भर की बोलियों को सहज भाव से ही अपने मूल सफ़र के कलेवर में ले लेता है। लगातार गतिशील शब्दों के सफ़र में अब वह ग़ैर-भारोपीय भाषाओं की भारोपीय भाषाओँ के साथ साझेदारी भी प्रमाणित करने लगा है।
-जारी
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12 कमेंट्स:
क्षमा भाऊ, मुझे इसमें प्रशंसा के शब्द नहीं मिले। सब वास्तविकता है। अब आप कहेंगे कि प्रशंसा वास्तविकता से दूर होती है क्या? या दूर ही होनी चाहिए?
प्रशंसा या निन्दा कैसे जो वास्तविकता से दूर न हों? न समझे? कवि दृष्टि से देखें।
आशा है कि अगली कड़ी में बस्सी जी अधिक उदार होंगे। प्रशंसित व्यक्तियों से प्रशंसा पाने में जो अनुभूति होती है, उसकी तासीर अलग ही होती है। ;)
बधाई।
बासी जी और गिरिजेश जी दोनो से पूर्णतः सहमत हूँ।
बस्सी जी के बारे में जानकार सुखद आश्चर्य हुआ .
अब तो अपनी चवन्नी भी चलना बंद हो गयी यार
दोस्तों पहले कोटा में ही किया पुरे देश में अपनी चवन्नी चलती थी क्या अपुन की हाँ अपुन की चवन्नी चलती थी ,चवन्नी मतलब कानूनी रिकोर्ड में चलती थी लेकिन कभी दुकानों पर नहीं चली , चवन्नी यानी शिला की जवानी और मुन्नी बदनाम हो गयी की तरह बहुत बहुत खास बात थी और चवन्नी को बहुत इम्पोर्टेंट माना जाता था इसीलियें कहा जाता था के अपनी तो चवन्नी चल रही हे ।
लेकिन दोस्तों सरकार को अपनी चवन्नी चलना रास नहीं आया और इस बेदर्द सरकार ने सरकार के कानून याने इंडियन कोइनेज एक्ट से चवन्नी नाम का शब्द ही हटा दिया ३० जून २०११ से अपनी तो क्या सभी की चवन्नी चलना बंद हो जाएगी और जनाब अब सरकरी आंकड़ों में कोई भी हिसाब चवन्नी से नहीं होगा चवन्नी जिसे सवाया भी कहते हें जो एक रूपये के साथ जुड़ने के बाद उस रूपये का वजन बढ़ा देती थी , दोस्तों हकीकत तो यह हे के अपनी तो चवन्नी ही क्या अठन्नी भी नहीं चल रही हे फिर इस अठन्नी को सरकार कानून में क्यूँ ढो रही हे जनता और खुद को क्यूँ धोखा दे रही हे समझ की बात नहीं हे खेर इस २०१० में नही अपनी चवन्नी बंद होने का फरमान जारी हुआ हे जिसकी क्रियान्विति नये साल ३०११ में ३० जून से होना हे इसलियें नये साल में पुरे आधा साल यानि जून तक तो अपुन की चवन्नी चलेगी ही इसलियें दोस्तों नया साल बहुत बहुत मुबारक हो ।
नये साल में मेरे दोस्तों मेरी भाईयों
मेरे बुजुर्गों सभी को इज्जत मिले
सभी को धन मिले ,दोलत मिले ,इज्जत मिले
खुदा आपको इतना ताकतवर बनाये
के लोगों के हर काम आपके जरिये हों
आपको शोहरत मिले
लम्बी उम्र मिले सह्तयाबी हो
सुकून मिले सभी ख्वाहिशें पूरी हो
जो चाहो वोह मिले
और आप हम सब मिलकर
किताबों में लिखे
मेरे भारत महान के कथन को
हकीकत में पूरा करें इसी दुआ और इसी उम्मीद के साथ
आप सभी को नया साल मुबारक हो ॥ अख्तर खान अकेला कोटा राजस्थान
आप के बारे में बलजीत भाई का लिखा तो पढ़ लिया। हम आप के ब्लाग पर बलजीत भाई के बारे में इस से भी अधिक जानना चाहेंगे।
बहुत बधाई हो, मूल में उतरने के गुण के बहुत लाभ हैं, चाहे विषयों में हो या शब्दों में।
बासी जी की कलम से अजित जी का परिचय पढ़ना आनंददायक है.
शब्द 'बल' 'जीत' गया,
'बासी जी' रीझ गया,
छोड़ कर तीर-कमां,
बन वह मनमीत गया.
'शब्द' का जादू चला,
अर्थ भी फूला फ़ला,
पुस्तकी सूट पहन,
देखो अमरीका चला.
हो बधाई! कि 'अजित',
देखकर तुमको विजीत,
गर्व 'अक्षर' को हुआ,
और 'साहित्य' विस्मित!!!
--mansoorali हाश्मी
http://aatm-manthan.com
नव वर्ष शुभ और मंगलमय हो |
आशा
एक तथ्यगत भूल है. १५ हजार हिंदी ब्लॉग तो बाबा आदम के जमाने के आंकड़े हैं. अब तो कोई ३ लाख से ऊपर हिंदी ब्लॉग बन चुके हैं, और औसतन ५ हजार से अधिक रोज पोस्टें हो रही हैं - तमाम प्लेटफ़ॉर्मों में!
बहरहाल, बधाई!
बासी जी की ताज़ी ताज़ी की गई प्रंशंसा भा गई मन को .
बासीजी मज़ा आ गया...आपने बिलकुल सही फ़रमाया...अजित भाई के इस सफ़र का मई भी एक हमसफ़र हूँ...
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