Friday, September 14, 2012

भरोसे की भैंस, पाडो़ ब्यावै

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मा लवी ज़बान में एक कहावत है, “भरोसे की भैंस, पाड़ो ब्यावै” अर्थात गाभन भैंस से अगर मादाशिशु की उम्मीद रखेंगे तो वह नरशिशु को जन्म देती है । यानी भैंस का काम ‘रामभरोसे’ चलता है । मज़े की बात यह की शुरुआत में ‘रामभरोसे’ में सकारात्मक अर्थवत्ता थी और इसका अर्थ तो ‘रामआसरे’ यानी राम की कृपा के सहारे है मगर अविश्वास के दौर में इसमें नकारात्मक अर्थवत्ता समा गई । अर्थात ऐसी व्यवस्था या तन्त्र जिसमें कुछ भी सुचारू होने की संभावना न हो । इसी तर्ज़ पर भरोसीराम जैसा संज्ञानाम भी बन गया ।  शब्द निर्माण प्रक्रिया ईंट-ईंट जोड़ कर दीवार बनने से अलग, कहीं गूढ़ और रहस्यमय होती है । विश्वास, यक़ीन अथवा एतबार के अर्थ में ‘भरोसा’ शब्द का प्रयोग बोलचाल की हिन्दी में खूब होता है । इतना कि इसमें फ़ारसी का ‘मन्द’ प्रत्यय लगाकर दौलतमन्द, हौसलामन्द की तर्ज़ पर भरोसेमन्द जैसा शब्द भी बना लिया गया जिसका अर्थ होता है विश्वसनीय । मगर ‘भरोसा’ शब्द की अर्थवत्ता विश्वास अथवा यक़ीन की तुलना में कहीं व्यापक है । इसके बारे में बाद में चर्चा करेंगे, पहले जानते हैं इसकी व्युत्पत्ति कैसे हुई ।
‘भरोसा’ शब्द की व्युत्पत्ति पर भाषाविद् एकमत नहीं हैं और हिन्दी-इंग्लिश-मराठी के प्रमुख कोशकारों ने भरोसा शब्द की व्युत्पत्ति तलाशते हुए कल्पना के घोड़े खूब दौड़ाए हैं । हिन्दी शब्दसागर में भरोसा की व्युत्पत्ति वर + आशा दी हुई है । संस्कृत के ‘वर’ में चाह, इच्छा, मांग, पसंद, मनोरथ, चुनाव का भाव है । इस तरह ‘वर’ और आशा के मेल से इच्छापूर्ति का आशय उभरता है । इस व्युत्पत्ति का दोष यह है कि वर+आशा से वराशा > भरोसा बनने की क्रिया अटपटी लगती है । आमतौर पर ‘व’ की प्रवृत्ति ‘ब’ में बदलने की है और ‘ब’ का रूपान्तर ‘भ’ में होता है । ‘व’ वर्ण सीधे ‘भ’ में नहीं बदलता । हिन्दी की किसी भी बोलियों में अगर वरोसा, बरोसा जैसे शब्द भी मिलते तो वर + आशा से भरोसा की व्युत्पत्ति को भरोसेमन्द माना जा सकता था ।
जॉन प्लैट्स के प्रसिद्ध कोश “अ डिक्शनरी ऑफ़ उर्दू, क्लासिकल हिन्दी एंड इंग्लिश” में भरोसा की व्युत्पत्ति भद्र + आशा दी हुई है । यहाँ भद्र + आशा से ‘भद्राशा’ होते हुए कल्पना की गई लगती है कि ‘द’ वर्ण का लोप हुआ होगा और ‘र’ शेष रहा होगा और ‘श’ वर्ण ‘स’ में तब्दील हुआ होगा । इस तरह ‘भराशा’ से ‘भरोसा’ बना होगा । शब्द रूपान्तर की प्रवृत्ति के हिसाब से यह व्युत्पत्ति भी त्रुटिपूर्ण लगती है । ‘भद्र’ शब्द का अपभ्रंश रूप भद्द, भद्दा बनते हैं । भद्र के साथ जुड़ने वाले ‘आशा’ का आद्यक्षर ‘आ’ है जो स्वर है, व्यंजन नहीं सो भद्र + आशा से भद्राशा बनेगा । इसका अगला रूप ‘भद्दासा’ या ‘भदासा’ हो सकता है, ‘भराशा’ नहीं, जिससे भरोसा बनने की कल्पना की जा रही है । भद्र का ‘द’ तभी भेदखल हो सकता था जब आशा के ‘आ’ के स्थान पर कोई व्यंजन होता, क्योंकि दूसरे पद के आद्यक्षर का स्वर तो प्रथम पद के अन्त्याक्षर के व्यंजन से जुड़ जाएगा ।
र रॉल्फ़ लिली टर्नर भी काल्पनिक व्युत्पत्ति का सहारा लेते हैं मगर उनकी व्युत्पत्ति को तार्किक साबित करते कुछ प्रमाण हमारे पास हैं । टर्नर अपने ‘अ कम्पैरिटिव डिक्शनरी ऑफ़ इंडो-आर्यन लैग्वेजेज़’ नामक कोश में भरोसा की व्युत्पत्ति संस्कृत के ‘भारवश्य’ bharavashya से बताते हैं । इसी तरह रामचन्द्र वर्मा भी ‘भरोसा’ का रिश्ता ‘भार’ से जोड़ते हैं जिसमें सहारे का भाव है । परिमाणवाची अर्थवत्ता से हट कर ‘भार’ शब्द में निर्वहन, कर्तव्य, जिम्मेदारी जैसी मुहावरेदार अर्थवत्ता है, उसका प्रयोग भाषा में ज्यादा होता है । यह भाव भार की मूल धातु ‘भृ’ से आ रहा है जिसमें उठाना, थामना, अवलम्बन, सम्भालना, पालना जैसे आशय निहित हैं मोनियर विलियम्स के कोश में भी ‘भार’ शब्द की अर्थवत्ता के विविध आयामों के अन्तर्गत- “task imposed on any one” भी दर्ज़ है । वज़न के अर्थ में भार शब्द का प्रयोग व्यवहार में विरल है । “इस वस्तु का भार कितना है ” जैसे वाक्य की बजाय “इस चीज़ का वज़न कितना है ” यही वाक्य सुनाई पड़ता है । भार शब्द की मुहावरेदार अभिव्यक्ति “काम करने”, “जिम्मेदारी निभाने”, “कर्तव्यपालन” जैसे सन्दर्भों में “भार डालना”, “भार उठाना”, “भार सम्भालना” जैसे मुहावरे हिन्दी में खूब प्रचलित हैं ।
कार्यभार, कार्यभारित जैसे शब्दों से भी जिम्मेदारी और कर्त्तव्य-निर्वाह के सन्दर्भ उभरते हैं । ‘भारवश्य’ शब्द के सन्दर्भ में विचार करें तो ‘भार’ अर्थात जिम्मेदारी, यह स्पष्ट है । इसका दूसरा पद है “वश्य” । मोनियर विलियम्स वश्य का अर्थ बताते हैं-“ obedient to another's will” अर्थात किसी के प्रति जिम्मेदार होना । इसमें सेवक या मातहत का भी भाव है । यह स्पष्ट है कि भरोसा ‘भार’ महत्वपूर्ण है । इसमें वर, भद्र या आशा नहीं है । जो व्यक्ति ‘भार’ के अधीन हो उसे ‘भारवश्य’ कहा जाएगा । गौर करें निर्भर या निर्भरता शब्द के भीतर भी ‘भृ’ या ‘भार’ है । निर्भरता यानी अलम्बन, सहारा, सपोर्ट । सेवक के लिए हिन्दी की तत्सम शब्दावली में ‘भृत्य’ शब्द मिलता है । भृत्य bhritya वह है जो अलम्बित हो, सपोर्टेड हो । अर्थात जिसका भरण किया जाता हो । जिसे काम की एवज में भृति यानी मजदूरी मिलती हो और इसी वजह से जो ‘भारवश्य’ (भार के वश में यानी कार्य के अधीन ) हो यानी दूसरे के द्वारा दिया गया काम करने के लिए पाबन्द हो । अधीन के अर्थ में ‘वश’ या ‘वश्य’ से ही हिन्दी, उर्दू में ‘बस’ शब्द बना है जैसे “यह बात मेरे बस में नहीं है” या “मैं तो आपके बस में हूँ” ।
राठी में भरोसा को “भरवसा” कहते हैं । विद्वानों ने चाहे भरोसा में वर + आशा या भद्र + आशा देखी हो मगर मराठी के “भरवसा” को देख कर टर्नर के ‘भारवश्य’ पर भरोसा होने लगता है । सिन्धी के ‘भरवसो’ का भी क़रीब क़रीब ऐसा ही रूप है । निश्चित ही ‘भरवसा’ और ‘भरवसो’ का विकास किसी काल में ‘भारवश्य’ जैसे संज्ञारूप से हुआ होगा । हालाँकि यह जानना दिलचस्प होगा कि मराठी व्युत्पत्ति कोश के रचनाकार कृ.पा. कुलकर्णी संस्कृत के ‘विश्रम्भ’ में भरोसा की व्युत्पत्ति देखते हैं । वा.शि. आप्टे के संस्कृत कोश में ‘विश्रम्भ’ में विश्वास, भरोसा, पूर्ण घनिष्ठता, अन्तरंगता के साथ आराम, विश्राम जैसे आशय भी बताए गए हैं । कुलकर्णी के अलावा अन्य किसी कोश में यह व्युत्पत्ति नहीं बताई गई है । कुलकर्णी यह संकेत भी नहीं करते हैं कि ‘विश्रम्भ’ से भरोसा के रूपान्तर का क्रम क्या रहा होगा क्योंकि अर्थसाम्य तो यहाँ है मगर ध्वनिसाम्य नज़र नहीं आता । ‘विश्रम्भ’ को तोड़कर देखा जाए तो जो ध्वनियाँ हाथ लगती हैं वे हैं : व-श-र-म-भ । यह विचारणीय है कि जो ‘भरवसा’ बड़ी आसानी से ‘भारवश्य’ से बन रहा है उसे व-श-र-म-भ (विश्रम्भ) से हासिल करने में कितनी कठिनाई हो रही है । इसे हम वर्णविपर्ययका उदाहरण मानते हुए उल्टे क्रम में चलते हुए अन्तिम वर्ण ‘भ’ को सबसे पहले लाते हैं । फिर अनुनासिक ‘म’ का लोप करते हैं । उसी क्रम में हम ‘भ’ के बाद ‘र’ को रखते हैं फिर एकदम आदिस्थानीय व्यंजन ‘व’ को तीसरे क्रम पर रखते हैं और अन्त में ‘श’ को ‘स’ में बदलते हुए ‘भरवसा’ का निर्माण करते हैं । यह अव्यावहारिक लगता है । हालाँकि प्राचीन मराठी में ‘भरवसा’ के स्थान पर ‘र’ में अनुनासिकता थी अर्थात यह भरंवसा था । इसके बावजूद वर्णविपर्यय के जरिये इस शब्द के निर्माण की बात गले नहीं उतरती । भरवसा के आगे कुलकर्णी ने सिर्फ़ विश्रम्भ लिखने के अलावा और कोई संकेत नहीं दिया है ।
मतौर पर भरोसा को विश्वास का पर्याय ही समझा जाता है पर दोनों की अर्थवत्ता में अन्तर है ।‘भरोसा’ का मुख्य भाव है किसी पर जिम्मेदारी आयद कर उस पर निर्भर रहना । इसमें किसी उद्धेश्य की कार्यसिद्धि ज़रूरी है । किन्हीं परिस्थितियों में इससे विश्वास का भावबोध भी होता है । ज़ाहिर है पुरातन समाज में भरोसा के भीतर नैतिक बाध्यता थी कि काम होना ही है । मगर बाद के दौर में भरोसा परनिर्भरता का पर्याय बन गया तब ‘रामभरोसे’ जैसी कहावतें सामने आईं यानी भरोसे पर नहीं रहना चाहिए । रामचंद्र वर्मा शब्दार्थ विचार कोश में हजारी प्रसाद द्विवेदी के प्रसिद्ध उपन्यास बाणभट्ट की आत्मकथा का उद्धरण देते हैं “ भट्टिनी मेरे ऊपर विश्वास भले ही रखती हो, भरोसा नहीं रखती ” भाव यही है कि उसे मेरे चरित्र और सज्जनता पर कोई संदेह नहीं, मगर मैं सहारा या अवलम्ब बनूंगा, इसकी आशा नहीं है ।  नए सन्दर्भ में इसे यूँ समझ सकते हैं – “मनमोहन सिंह पर विश्वास तो है, मगर भरोसा नहीं ।

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10 कमेंट्स:

प्रवीण पाण्डेय said...

पर वास्तविक जीवन में भी वर आशा बस भरोसा बन कर रह गयी है..

दिनेशराय द्विवेदी said...





इस का रिश्ता भरपूर और आस शब्दों के आसपास क्यों तलाशा जाए?

देवेन्द्र पाण्डेय said...

भरवसा, भारवश्य, भरोसा के अधिक निकट लगता है।

अजित वडनेरकर said...

@दिनेशराय द्विवेदी
'भार' के अनेक भाषिक प्रयोगों से यह तय है कि भरोसा में भार है । भरोसा में प्रमुख बात आशा नहीं, विश्वास है । आशा की तुलना में विश्वास अवलम्ब है । भरोसा अवलम्ब है । भार भी अवलम्ब है । भरोसा की मुहावरेदार अभिव्यक्ति, जिसमें भरोसा की, विश्वास से भी ज्यादा मज़बूत स्थिति को कमज़ोर किया है, समाज के नैतिक पतन की देन है जहाँ विश्वास भी लगातार टूटते हैं, आस्थाएँ भी ध्वस्त होती हैं और भरोसा भी नहीं टिकता । भौतिक दुनिया के अवलम्ब भी तो भरभराकर ढह रहे हैं ।

Astrologer Sidharth said...

“भरोसे की भैंस, पाड़ो ब्यावै” अर्थात गाभन भैंस से अगर मादाशिशु की उम्मीद रखेंगे तो वह नरशिशु को जन्म देती है ।

इस कथन से असहमत हूं। एक प्रतिशत आशंका है कि मैं गलत हो सकता हूं, लेकिन वास्‍तव में इस कहावत का अर्थ यूं है कि

"अगर गर्भिणी भैंस को किसी के भरोसे छोड़कर चले जाओगे तो पाडा पैदा होने की ही सूचना मिलेगी" यानी मादा बच्‍चे को नर से बदलकर पेश कर दिया जाएगा...

इसलिए भैंस के प्रसव के दौरान किसी पर भरोसा नहीं करना चाहिए.. खुद मौजूद रहो..

अजित वडनेरकर said...

@सिद्धार्थ जोशी
वाह सिद्धार्थ भाई,

क्या बात है । मज़ा आ गया । निश्चित ही समाज में गिरती नैतिकता के मद्दनज़र उक्त कहावत की यह व्याख्या ज्यादा सही लग रही है ।
बहुत आभार

आपकी जै हो ।
सस्नेह
अजित वडनेरकर

Mansoor ali Hashmi said...

कितनी मुश्किल से 'भरोसे' का है 'उद्गम' निकला !
फिर भी 'विश्वास' यही है कि बहुत कम निकला.

'वर' से कुछ 'आस' नहीं, 'भद्र' भी करता है निराश,
'मंद' जब देखा 'भरोसे' को तो 'विश्रम्भ' निकला.

'भार' में कुछ तो वज़न है कि 'भरोसा' करले !
'वश्य' को जोड़ के देखा तो ये 'हमदम' निकला.
http://aatm-manthan.com

Mansoor ali Hashmi said...

कितनी मुश्किल से 'भरोसे' का है 'उद्गम' निकला !
फिर भी 'विश्वास' यही है कि बहुत कम निकला.

'वर' से कुछ 'आस' नहीं, 'भद्र' भी करता है निराश,
'मंद' जब देखा 'भरोसे' को तो 'विश्रम्भ' निकला.

'भार' में कुछ तो वज़न है कि 'भरोसा' करले !
'वश्य' को जोड़ के देखा तो ये 'हमदम' निकला.

भैंस क्या जानती है ? यह 'रामभरोसे' ठहरी,
'पर-भरोसे' पे दिया काम तो जोखम* निकला ! *Risky
http://aatm-manthan.com

Mansoor ali Hashmi said...

जानती= "जनती"

Baljit Basi said...


टर्नर की वुत्पति तार्किक है. पंजाबी कहावतों और गुरबानी में भरवासा शब्द का इस्तेमाल हुआ है:
इस भरवासे जो रहे बूडे काली धार- कबीर
तेरी टेक भरवासा तुम्हरा जपि नामु तुम्हारा उधरे-अर्जन देव
किसु भरवासै बिचरहि भवन-अर्जन देव

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