... धन के भौतिक रुप को ही अन्तिम सत्य समझना मूर्खता है...धन के कई रूप हैं। बल्कि जीवन स्वयं ही धन है…
Saturday, January 31, 2009
धीरज, धर्म, मित्र अरु नारी...[सिक्का-16]
प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर 26 कमेंट्स पर 3:26 AM
Friday, January 30, 2009
रंग लाएगी फ़ाक़ामस्ती एक दिन [संत-1]…
प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर 22 कमेंट्स पर 3:34 AM लेबल: god and saints
Thursday, January 29, 2009
जड़ में मट्ठा डालिये…[खानपान-5]
प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर 17 कमेंट्स पर 4:00 AM
Wednesday, January 28, 2009
लस्सी दा जवाब नहीं…[खानपान-3]
लस्सी तरावट पैदा करती है इससे यह न समझा जाए कि यह सिर्फ गर्मियों में पीने की चीज़ है। लस्सी बारहों महिने पी जा सकती है…
प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर 11 कमेंट्स पर 3:22 AM
Monday, January 26, 2009
बंदरगाह से बंदर की रिश्तेदारी ! [आश्रय-6]
बंदरगाह शब्द फारसी का है जिसमें इसकी दो व्युत्पत्तियां मिलती हैं।
प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर 31 कमेंट्स पर 8:10 PM लेबल: government, shelter
सूरज की रस्सियां
रस्सी शब्द बना है संस्कृत शब्द रश्मिः से जिसका हिन्दी रूप रश्मि है। इस शब्द से हमारा परिचय प्रकाश किरण के रूप में ही है। दरअसल रश्मि शब्द बना है संस्कृत धातु अश् से जिसमें व्याप्ति, भराव, पहुंचना, उपस्थिति, प्रविष्ट होना जैसे भाव हैं। जाहिर है प्रकाश-रेख, अंशु या किरण में ये तमाम भाव मौजूद हैं। कोई भी प्रकाशपुंज अंधकार को आलोकित करते हुए स्वयं वहां प्रवेश नहीं करता बल्कि उसकी रश्मियां वहां प्रकाश को भरती हैं। सूर्योदय के समय देखते-ही देखते एक एक कर सहस्रों रश्मियां जल-थल में व्याप्त हो जाती हैं। ये किरणें ही ज्योतिपुंज से उत्सर्जित ऊर्जा की वाहक होती हैं। रश्मि में भाव है पुण्य का। आलोकित करना-प्रकाशित करना ये पुण्यकर्म हैं। जीव-जगत को, प्रकृति को कलुष से, तमस से, अंधकार से मुक्ति दिलाने से बड़ा पुण्य और क्या हो सकता है ? रश्मिरथी ऐसे व्यक्ति को कहते हैं जो पुण्यात्मा हो। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर का प्रसिद्ध खंडकाव्य है रश्मिरथी जो कर्ण के महान चरित्र पर लिखा गया है। गौरतलब है कि कर्ण कौरवों के पक्ष में थे परंतु वे तेजस्वी, पुण्यात्मा थे।
दरअसल ये रश्मियां डोर हैं। माध्यम हैं प्रकाश को भूलोक पर पहुंचाने का। सूर्योदय या सूर्यास्त के समय ये रश्मियां नज़र भी आती हैं और सचमुच सूर्य और पृथ्वी के बीच तनी हुई डोर की तरह ही जान पड़ती हैं। रश्मि का ही अपभ्रंश रूप है रस्सी। इसका पुल्लिंग हुआ रस्सा जिसका आकार या मोटाई रस्सी से अधिक होती है। रस्सी एक माध्यम है। माध्यम की
सूर्योदय के समय देखते-ही देखते एक एक कर सहस्रों रश्मियां जल-थल में व्याप्त हो जाती हैं।
आवश्यकता व्याप्ति के लिए होती है। रस्सी की मदद से पहाड़ पर चढ़ा जाता है, खाई में उतरा जाता है। कुंएं से पानी खींचा जाता है। ये तमाम क्रियाएं प्रविष्ट होने, उपस्थित होने, व्याप्त होने, पहुंचने से जुड़ी हैं।रस्सी से ही बना है रास शब्द जिसका मतलब होता है लगाम। गौर करें लगाम के जरिये सारथी अपने अपना आदेश जुए में जुते पशु तक पहुंचाता है। लगाम ढीली छोड़ना और लगाम कसना जैसे मुहावरों में काम के संदर्भ में आदेश-निर्देश के नरम अथवा कठोर होने का पता चल रहा है। रास थामनामुहावरे का अर्थ है मार्गदर्शन करना, नेतृत्व करना। रास का एक अन्य अर्थ कमरबंद या करधनी भी होता है। तनातनी के अर्थ में रस्साकशी एक आम मुहावरा है। यह बना है रस्सा+कशी(कश-खींचना) अर्थात यह संकर शब्द है जो फारसी और संस्कृत के मेल से बना है। हालांकि कश शब्द मूलतः संस्कृत की कर्ष् धातु से जन्मा है जिसमें खींचने का भाव है।
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प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर 27 कमेंट्स पर 3:06 AM
Saturday, January 24, 2009
शुक्रिया साथियों, फिर मिलेंगे...[बकलमखुद-85]
ब्लाग दुनिया में एक खास बात पर मैने गौर किया है। ज्यादातर ब्लागरों ने अपने प्रोफाइल पेज पर खुद के बारे में बहुत संक्षिप्त सी जानकारी दे रखी है। इसे देखते हुए मैं सफर पर एक पहल कर रहा हूं। शब्दों के सफर के हम जितने भी नियमित सहयात्री हैं, आइये , जानते हैं कुछ अलग सा एक दूसरे के बारे में। अब तक इस श्रंखला में आप अनिताकुमार, विमल वर्मा , लावण्या शाह, काकेश ,मीनाक्षी धन्वन्तरि ,शिवकुमार मिश्र , अफ़लातून ,बेजी, अरुण अरोरा , हर्षवर्धन त्रिपाठी , प्रभाकर पाण्डेय अभिषेक ओझा और रंजना भाटिया को पढ़ चुके हैं। बकलमखुद के चौदहवें पड़ाव और तिरासीवें सोपान पर मिलते है पेशे से पुलिस अधिकारी और स्वभाव से कवि पल्लवी त्रिवेदी से जो ब्लागजगत की जानी-पहचानी शख्सियत हैं। उनका चिट्ठा है कुछ एहसास जो उनके बहुत कुछ होने का एहसास कराता है। आइये जानते हैं पल्लवी जी की कुछ अनकही-
सीखा है ज़िंदगी से बहुत कुछ....
कहते हैं न की जिंदगी हर कदम पर कुछ न कुछ सिखाती है!मेरे लिए तो ये बात एकदम खरी साबित हुई! जीवन के अच्छे बुरे अनुभवों से जितना मैंने सीखा ,उतना कोई टेक्स्ट बुक और टीचर नहीं सिखा पाए!और खासकर कड़वे अनुभव तो कुछ ज्यादा ही सिखा गए!बचपन से ही कुछ वाकये ऐसे हुए जिनसे मैंने एक बात गाँठ बाँध ली कि किसी भी रिश्ते में कभी किसी को बाँध के नहीं रखना है! जब मैं सरस्वती शिशु मंदिर में पढ़ती थी तब मेरी एक बहुत पक्की सहेली हुआ करती थी! सही पूछो तो दोस्ती का मतलब ही उससे दोस्ती होने के बाद पता चला! पूरे स्कूल में हमारी दोस्ती मशहूर थी! तीन साल तक हम गहरे दोस्त रहे लेकिन आठवी क्लास के बाद स्कूल बदला और हम सरकारी स्कूल में पढने चले गए! वहाँ बहुत सारी नयी लड़कियों से पहचान हुई!पता नहीं क्यों मेरी दोस्त को मेरा किसी और लड़की से बात करना बुरा लगने लगा! मैंने उसे कई बार कहा कि मेरी बेस्ट फ्रेंड वही है लेकिन उसने शर्त रख दी कि यदि मैं किसी और से बात करुँगी तो वो दोस्ती ख़तम कर देगी! मेरे लिए उसकि बात मानना संभव नहीं था! फाइनली हमारी दोस्ती सिर्फ हाय हेलो तक सीमित होकर रह गयी! तब से मैंने सोच लिया कि कभी किसी पर खुद का लादना नहीं चाहिए!अनिच्छा से व्यक्ति दो चार बार तो आपकी बात मान लेगा फिर कब आपसे दूर होता जायेगा ,पता भी नहीं चलेगा! लेकिन आज भी जब दोस्तों कि बात चलती है तो सबसे पहले वही याद आती है!
कम से कम अपेक्षाएं..
वक्त जैसे जैसे बीतता गया खुद में बहुत सारे बदलाव आते गए! इस सीखने के क्रम में एक और जो बहुत महत्वपूर्ण चीज़ मैंने सीखी वो ये कि अपनी अपेक्षाओं को कम ही रखना चाहिए! पहले अगर मैं किसी के लिए कुछ करती थी तो बदले कि चाह रहती थी और जब कभी वो व्यक्ति मेरे लिए कुछ नहीं करता था तो बहुत दुःख होता था ! यहाँ तक कि बहुत दिन तक मैं उसके व्यवहार से दुखी रहती थी!फिर धीरे धीरे मैंने इस बारे में सोचा और चूंकि अपेक्षाएं पूरी तरह ख़त्म तो नहीं की जा सकती लेकिन जितनी कम की जा सकती हैं उतना मैं कर चुकी हूँ! अब कोई कुछ करे या न करे कोई ख़ास फर्क नहीं पड़ता! क्योकी मैं ना सुनने के लिए मानसिक रूप से तैयार हूँ!
थोडा सैलानीपन...थोड़ी आवारगी...
मुझे बचपन से ही घूमने और नयी नयी जगह देखने का बहुत शौक था लेकिन पढाई के कारण ज्यादा घूमने का मौका नहीं मिला!फिर नौकरी में आकर और ज्यादा व्यस्तता बढ़ गयी तो शुरुआत के तीन चार साल तो कहीं जा ही नहीं सकी! लेकिन चार साल पहले एक जनवरी को नए साल के रेजोल्यूशन के रूप में मैंने सोच लिया , चाहे जो हो साल में एक बार छुट्टी लेकर कहीं न कहीं घूमने ज़रूर जाउंगी! और उसके बाद से कश्मीर, गोवा, मसूरी, वैष्णोदेवी जा चुकी हूँ और आज राजस्थान जाने की तैयारी कर रही हूँ!आज शाम की ही ट्रेन है!सोचती हूँ अपने मतलब के संकल्प इंसान कितनी जल्दी पूरे करता है...यूं तो बरसों से कोई न कोई रेजोल्यूशन रहता ही था मसलन सुबह जल्दी उठकर पढाई करना, स्कूल में टॉप करना, कोई नयी भाषा सीखना वगैरह वगैरह...लेकिन इन सबमे मेहनत की ज़रुरत थी लिहाजा कोई भी पूरा न हो सका! पर मुझे उम्मीद है ये घूमने वाला ज़रूर ताजिंदगी चलता रहेगा!
शुक्रिया दोस्तों...बनें रहें साथ
यूं तो लिखने को बहुत कुछ है लेकिन यहाँ हर चीज़ को नहीं समेटा जा सकता है! इसलिए अब अपनी गाथा यही ख़त्म करुँगी! अजित जी का दिल से आभार मानती हूँ क्योंकि उनके कहने पर लिखना शुरू किया तो ऐसा लगा जैसे पूरी लाइफ रीवाइंड हो गयी है! बकलमखुद लिखते लिखते अपने बचपन से लेकर आज तक की सारी जिंदगी मानो फिर से जी ली! साथ ही अजित जी के धैर्य से भी मैं खासी प्रभावित हूँ क्योंकि लगातार लिखकर देते रहने के वायदे के बावजूद व्यस्तताओं के कारण मैं कई कई दिनों तक उन्हें लिख कर न दे सकी लेकिन उन्होंने एक भी बार खीझ व्यक्त नहीं की! न ही जल्दी लिखकर देने को कहा! मैं अपने आप को खुशकिस्मत मानती हूँ की मेरी जिंदगी में दोस्तों की कोई कमी नहीं! हर जगह मुझे हमेशा बहुत अच्छे लोग मिलते रहे हैं! मेरी सबसे अच्छी दोस्त मेरी मम्मी हैं और रोज़ सुबह उनसे फोन पर बात करके ही मेरा दिन शुरू होता है! ब्लॉगिंग में कदम रखने के बाद भी कई अच्छे लोगों से परिचय हुआ और नए दोस्त बने! अनुराग, कुश, सुजाता अच्छे दोस्त बन गए! अजित जी ,समीर जी, रवि रतलामी जी से मुलाकात का अवसर भी मिला ! इसके साथ ही आप सभी ने मुझे पढ़ा और मेरे बारे में आपकी टिप्पणियों ने आत्म विश्लेषण का एक और अवसर दिया है! सभी का बहुत बहुत शुक्रिया....
[समाप्त]
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प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर 21 कमेंट्स पर 11:55 PM लेबल: बकलमखुद
Friday, January 23, 2009
रुक्का, रोकड़, रोकडिया [सिक्का-15]
'रुक्का' शब्द भी शायद लिख कर दिए जाने वाले 'नोट' को ही ध्वनित करता प्रतीत होता है |"
रकम यूं तो अरबी ज़बान का लफ्ज है और फारसी-उर्दू के ज़रिये हिन्दी में दाखिल हुआ मगर इस शब्द की रिश्तेदारी संस्कृत के रुक्म जिसका अर्थ है चमकदार , उज्जवल से भी मानी जाती है। इससे बने रुक्म: का मतलब होता है सोने के आभूषण या जेवर। इसी तरह रुक्मम् का मतलब होता है सोना या लोहा। श्रीकृष्ण की पत्नी रुक्मिणी और उसके भाई रुक्मिन् का नामकरण भी इसी रुक्म से हुआ है।
यही रुक्म अरबी भाषा में रकम के रूप में नज़र आता है। यहा इसके मायने हैं लिखना, चिह्नित करना या अंकन करना अथवा अंक। यह बना है रक्म से (संस्कृत रुक्म से समानता पर गौर करें) जिसमें लिखने का भाव है। हिब्रू में रकम का अर्थ होता है कशीदाकारी करना या एम्ब्रॉयडरी करना जबकि फिनिशी ज़बान में इसका मतलब निकलता है बुनाई करना। फिनिशी और हिब्रू में रक़म के अर्थों पर गौर करें। कशीदाकारी और बुनाई मूल रूप से वस्त्र को और समृद्ध बनाने की कलाएं हैं। कला यूं भी समाज को समृद्ध ही करती हैं। बुनाई, सिलाई और कशीदाकारी से वेल्यू एडिशन हो रहा है। वस्तु कीमती हो रही है। वह रकम बन रही है अर्थात मूल्यवान बन रही है। मालवी में तो गुणवान मनुष्य के लिए भी रकम का प्रयोग होता है। हालांकि अब इसका प्रयोग संदर्भित व्यक्ति के परले दर्जे के चालबाज या शातिर होने के अर्थ में ज्यादा होता है कि फलां व्यक्ति बहुत बड़ी रकम है अर्थात चलता पुर्जा है।
रकम में शामिल लिखने और अंकन करने के अर्थ से साफ है कि जेवरात पर सोने चांदी की बारीक कारीगरी से लेकर धातु के टुकड़ों पर मूल्यांकन, हिसाब-किताब का लेखन आदि भाव भी इसमें शामिल हैं। रक्म से बने बने रकमी शब्द का मतलब होता है कीमती चीज़ या लिखा हुआ कागज। गौरतलब है कि पुराने ज़माने में दस्तावेज़ों की एक किस्म होती थी रकमी दस्तावेज़ अर्थात अंकित प्रपत्र। रकम के लिखने संबंधी अर्थ से जुड़ता हुआ हिन्दी–उर्दू का एक और शब्द है रुक्का । यह भी अरबी भाषा का है और इसका सही रूप है रुक़अ: यानी काग़ज की पर्ची, चिट्ठी-पत्री आदि। दरअसल यही रुक़्का
... नकदी, कैश, जमा, पूंजी, धन आदि के अर्थ में रोकड़ शब्द हिन्दी की बोलियों सहित द्रविड़-परिवार की विभिन्न भाषाओं में भी प्रचलित है।...
रकम है। जाहिर है कि इस रुक्का का मतलब मौद्रिक लेन-देन संबंधी कागजात से ही है मसलन हुंडी, प्रोनोट वगैरह। ये कागजात भी तो धन यानी रकम ही हुए न? नवाबी दौर में ये रुक्के खूब चला करते थे। यूं रुक्के का सामान्य अर्थ काग़ज़ का टुकड़ा, चिट, पुर्जा भी होता है। शायरों को भी रुक्के दौड़ाने की खूब आदत थी और आशिक-माशूक के बीच भी रुक्के दौड़ते थे।रुक्म की रिश्तेदारी रोकड़ से भी जुड़ती है। नकदी, कैश, जमा, पूंजी, धन आदि के अर्थ में रोकड़ शब्द हिन्दी की बोलियों सहित द्रविड़-परिवार की विभिन्न भाषाओं में भी प्रचलित है। जॉन प्लैट्स के हिन्दी-उर्दू-अंग्रेजी कोश के मुताबिक रोकड़ का जन्म संस्कृत धातु रोकः से हुआ है मगर वाशि आप्टे के प्रसिद्ध संस्कृत-हिन्दी कोश में रोकः शब्द का उल्लेख तक नहीं है। तो भी यह तय है कि रुक्म में निहित चमक ओर इससे बने रुक्मम् का अर्थ सोना रोकड़ के नकदी वाले अर्थ को सिद्ध करता है। रोकड़ का रोकड़ा शब्दप्रयोग भी आम है। कैशियर के लिए इससे ही बना है रोकड़िया। वाणिज्यिक शब्दावली में अक्सर रोकड़ खाता या रोकड़ बही जैसे शब्द इस्तेमाल होते हैं जिसका मतलब उस रजिस्टर से है जिसमें नकदी लेन-देन के विवरण दर्ज होते हैं। हिसाब-किताब करने को रोकड़ मिलाना भी कहा जाता है।
अक्तूबर 2007 में प्रकाशित पुराने आलेख पर तब जिन साथियों की टिप्पणियां मिली थीं, वे जस की तस यहां हैं-
... Anonymous said...
तो ये था रुक्के से रक़म का रिश्ता। जानकारी बढ़ाने का शुक्रिया। पोल-पहेली की पहल भी शानदार है। हमने भी टिक कर दिया है। आपका ब्लाग लगातार निखरता जा रहा है। ऐसे ही लिखते रहें।
October 27, 2007 3:33 AM
अनामदास said...
देखिए, शब्द कहाँ से चलते हैं, किस रूप में कहाँ पहुंचते हैं, कितने अर्थ बदलते हैं. मैं जितना जानता हूँ, अरब जगत में रकम का मतलब अब नंबर से है, संख्या और आंकड़ा. फ़ोन नंबर, अकाउंट नंबर, गाड़ी का नंबर प्लेट सब रकम हैं.
October 27, 2007 3:37 AM
अनामदास said...
और हाँ, बांग्ला को कैसे भूल सकते हैं जहां रकम का आशय प्रकार से है.
की रकोम, किस तरह, किस प्रकार...
October 27, 2007 3:38 AM
अजित said...
वाह वाह अनामदासजी, मज़ा आ गया बांग्ला रकोम की कैफ़ियत जानकर । शुक्रिया जानकारी के लिए।
October 27, 2007 3:50 AM
काकेश said...
कि रोकम आपनी इतू भालो लिखछेन...
आप किस तरह इतना अच्छा लिखते हैं.
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अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...
प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर 18 कमेंट्स पर 2:53 AM
Wednesday, January 21, 2009
नोट करें, नोट लें, नोट दें...[सिक्का-14]
काग़ज़ी मुद्रा की तत्कालीन व्यवस्था बहुत कुछ आज की व्यवस्था जैसी ही थी। शासन की ओर से एक काग़ज़ का खरीता जारी किया जाता था जिस पर उसके बदले भुगतान की जानेवाली राशि दर्ज होती थी। इस राजकीय प्रमाण पत्र को मुद्रा के स्थान पर प्रयोग किया जा सकता था। आवश्यकता पड़ने पर राजधानी आकर इसके मूल्य के बराबर राशि का भुगतान भी प्राप्त किया जा सकता था। याद करें भारतीय नोट पर रिजर्व बैंक के गवर्नर का लिखा वह वचन- ‘मैं धारक को सौ रुपए अदा करने का वचन देता हूं।’ मुद्रा-भुगतान की यह प्रणाली चीन में बहुत कारगर साबित हुई । यूरोपीय यात्री मार्कोपोलो(1254-1324) ने भी अपने यात्रा वृत्तांत में चीन की आश्चर्यजनक काग़ज़ी मुद्रा का उल्लेख किया है। शुरुआती दौर में इसे वहां फ्लाइंग-करंसी या उड़न-मुद्रा कहा गया क्योंकि तेज हवाओं से यह अक्सर हाथ से उड़ जाती थी। संयोग नहीं कि बेहिसाब खर्च के लिए रुपए उड़ाना जैसा मुहावरा काग़ज़ी मुद्रा की वजह से पैदा हुआ हो। उड़ने के साथ मुद्रा में बहने का स्वभाव भी है। अर्थशास्त्र का विकास होने पर इसमें तरलता(लिक्विडिटी) के गुण का भी पता चला। इसे आसान भाषा में समझना चाहें तो मौद्रिक तरलता से अभिप्राय किसी भी व्यवस्था में नकदी की उपलब्धता या उसके प्रसार में बने रहने से ही है।
आज हम जिस काग़ज़ी मुद्रा को नोट के रुप में जानते हैं उसका चलन यूरोप से शुरु हुआ है। चीन में काग़ज़ी मुद्रा का प्रचलन आम होने की कई सदियों बाद यूरोप ने काग़ज़ी मुद्रा को अपनाया।
यूरोपीय यात्री मार्कोपोलो(1254-1324) ने भी अपने यात्रा वृत्तांत में चीन की आश्चर्यजनक काग़ज़ी मुद्रा का उल्लेख किया है। शुरुआती दौर में इसे वहां फ्लाइंग-करंसी या उड़न-मुद्रा कहा गया क्योंकि तेज हवाओं से यह अक्सर हाथ से उड़ जाती थी।
रोजमर्रा के अन्य क्षेत्रों में धातु का बढ़ता प्रयोग, धातु की उपलब्धता में कमी, सिक्कों की ढलाई में बढ़ता लागत खर्च और इसे एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुंचाने की परेशानी के चलते आखिरकार यूरोप ने भी काग़ज़ी मुद्रा को अपना लियाजिसकी शुरुआत 1660 में स्टाकहोम बैंक ने की। शुरुआती दौर में सीमित दायरे में इन बैंक नोट्स का प्रसार हुआ। ये बैंक नोट काफी हद तक चीन में प्रचलित नोटों जैसे ही थे अलबत्ता इनमेंइस्तेमाल होने वाली सामग्री में यूरोप की औद्योगिक क्रांति के दौरान लगातार बदलाव आता रहा और काग़ज़ी मुद्रा को लगातार टिकाऊ बनाए रखने पर आज भी निरंतर प्रयोग चल रहे हैं।दुनिया भर में जिस पेपर करंसी को आज नोट के नाम से जाना जाता है वह दरअसल अधूरा शब्द है। इसका पूरा नाम है बैंक-नोट जो एक तरह का हवाला-पत्र, वचन-पत्र था एक निर्धारित मूल्य के भुगतान हेतु। इसे खरीदा-बेचा भी जा सकता था। अपने कई गुणों की वजह से धीरे धीरे पूरी दुनिया में बैंक नोट अर्थात काग़ज़ी मुद्रा ही चलन में आ गई। हर देश में वहां का प्रमुख बैंक ही सरकार की तरफ से मुद्रा जारी करता है। सिक्कों का चलन अब सिर्फ फुटकर मुद्रा के तौर पर होता है। नोट शब्द मूलतः इंडो-यूरोपीय भाषा परिवार का शब्द है। नोट(note) का मतलब होता है परीक्षण, गौर करना, ध्यान देना, चिह्न, जानकारी आदि। गौरतलब है कि नोट उसी gno धातु से बना है जिससे अंग्रेजी का know और संस्कृत का ज्ञान gnjyan शब्द बना है। इन दोनों में ही निरीक्षण, परीक्षण, अवगत होना, कराना, जानकारी रखन, देखना-समझना आदि भाव हैं। मूल रूप से प्राचीन लैटिन के gnoscere से gnata का रूप लेते हुए अंग्रेजी का नोट अस्तित्व में आया । लैटिन के notare से यह फ्रैंच मेदाखिल हुआ। जहां इसका रूप बना noter जिसका अर्थ है चिट्ठी, ध्यानार्थ आदि। इसी धातु मूल से अंग्रेजी का नोटिस शब्द भी बना। गौरतलब है कि नोट और नोटिस दोनों ही शब्द हिन्दी-उर्दू में बहुत ज्यादा प्रचलित शब्दों में हैं। नोट और नोटिस दोनों ही वस्तुएं ली और दी जा सकती है। नोट करना अर्थात लिखना तो खैर एक महत्वपूर्ण क्रिया है ही।
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प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर 15 कमेंट्स पर 9:55 PM लेबल: business money
Monday, January 19, 2009
भद्र बनें, शिष्ट बनें, शालीन बने...
उपयोग व्यापक है और उन्ही में से एक है हेड-शेविंग यानी मुंडन। कृपया आगे स्पष्ट करें कि मुंडन
के लिए राजस्थान में लोक व्यवहार में प्रचलित शब्द 'भदर' के मूल में क्या है?
भदर शब्द मेरे विचार से भद्र से ही बना है जिसकी व्युत्पत्ति भंद् धातु से हुई है। संस्कृत में हजामत या मुंडन के लिए भी भद्राकरणम् शब्द ही है। भंद से बने भद्र के सभ्य, शिष्ट, शालीन, श्रेष्ठ, मंगलकारी, समृद्धशाली, अनुकूल, प्रशंसनीय जैसे अर्थ उजागर हैं। बौद्ध श्रमणों व भिक्षुओं के लिए आदरसूचक भदंत शब्द की व्युत्पत्ति का आधार भी यही है। इसी का अपभ्रंश रूप भंते होता है। ये अलग बात है कि भोंदू, भद्दा जैसे शब्दों का जन्म भी इसी भद्र से हुआ है जो भद्र शब्द की अवनति है। भद्र से कुछ और शब्द भी बने हैं। राजस्थान के श्रीगंगानगर में एक कस्बा है भादरा। दरअसल प्राचीनकाल में यह भद्रा था जिसका नाम स्वर्णभद्रा नदी के नाम पर पड़ा। उत्तर प्रदेश के एक जिले का नाम सोनभद्र भी इसी मूल का हैभद्रा ज्योतिषीय शब्दावली में एक करण का नाम है। पृथ्वी का एक नाम सुभद्रा भी है। पूर्वी क्षेत्रों में भद्र का उच्चारण भद्दर किया जाता है। वहां बलभद्र हो जाएगा बलभद्दर! इसी तरह राजस्थानी में भद्र का भदर रूप बना।
मुंडन दरअसल उपनयन जैसे मांगलिक संस्कार पर हो या मृत्यु संस्कार पर, भद्र अथवा भदर का उद्देश्य अनुकूलन, मंगलकारी ही है। शिशु का मुंडन उसके जन्म के समय के बाल हटाना होता है ताकि नए घने बाल आ सकें इसके पीछे बालों की स्वच्छता का दृष्टिकोण ज्यादा है। ग्रंथों में इसकी कई दार्शनिक व्याख्याएं हैं जिनका संबंध बुद्धि-मेधा की प्रखरता से है। उपनयन अर्थात विद्यारम्भ संस्कार के वक्त मुंडन के पीछे भी यही भाव रहता है कि बालक के व्यक्तित्व में एक विद्यार्थी को शोभा देने वाला गाम्भीर्य, शालीनता, शिष्टता और गरिमा दिखाई पडे। शैशव की चंचल छवि के विपरीत वह शिक्षार्थी जैसा भद्र दिखे इसीलिए विद्यारम्भ के वक्त बटुक का मुंडन संस्कार किया जाता है।
द्विजों में मृत्यु-संस्कार के तहत भी दसवें दिन सबसे अंत में मुंडन का प्रावधान है। उद्धेश्य वहीं है- मृत्यु के दुख से उबरने और समाज के साथ अनुकूल होने की प्रक्रिया का शुभारंभ हो सके। यह सब पिंड दान की रस्म के बाद होता है। पिंडदान की रस्म को भात की रस्म भी कहा जाता है। तर्पण के लिए जो पिंड बनाए जाते हैं वे चावल से बने होते है। चावल के लिए संस्कृत में भक्त शब्द है जिससे भात बना है। दारुण अवस्था में स्वजन की देखभाल व अन्ततः उसके न रहने के वियोग से अस्त-व्यस्त व्यक्ति सिर के बाल कटवाकर व्यवस्थित, शिष्ट और गंभीर नजर आए, भद्र नजर आए। शोकाकुल व्यक्ति को फिर से भद्र बनाने की प्रक्रिया ही भदर कहलाती थी ताकि वह समाज में समरस हो सके। भद्र का अपभ्रंश ही भदर हुआ। इसके तहत
धीरे धीरे हिन्दुओं के प्रायः सभी समुदायों में मुंडन अनिवार्य हो गया और इसे रूढी की तरह किया जाने लगा। हिन्दी क्षेत्रों में पुराने ज़माने में और आज भी भदर/मृत्युभोज की परंपरा ग्रामीण क्षेत्रों में किसी भी गरीब परिवार पर बहुत भारी पड़ती है।
मृतक के ज्येष्ट पुत्र के सिर के बाल उतारे जाते हैं। बाद के दौर में हिन्दुओं के प्रायः सभी समुदायों में मुंडन अनिवार्य हो गया और इसे रूढी की तरह किया जाने लगा। हिन्दी क्षेत्रों में पुराने ज़माने में और आज भी भदर/मृत्युभोज की परंपरा ग्रामीण क्षेत्रों में किसी भी गरीब परिवार पर बहुत भारी पड़ती है। राजस्थान में किसी ज़माने में राजा के निधन पर पूरी रियासत द्वारा भदर कराने का उल्लेख है।महामहोपाध्याय डॉ पाण्डुरंग वामन काणे लिखित धर्मशास्त्र का इतिहास पुस्तक के अनुसार मुंडन संस्कार के प्राचीन नाम चौल, चूड़ाकरण, चूड़ाकर्म आदि हैं। संस्कृत में चूड़ा का अर्थ होता है सिर पर बंधा केश गुच्छ, शिखा, आभूषण, शिखर, चोटी आदि। चंद्रचूड़ का अर्थ हुआ जिसके सिर पर चंद्र विराजमान हैं अर्थात शिव। सिर पर धारण किए जाने वाले एक आभूषण को चूड़ामणि कहते हैं। भारतीय महिलाओं द्वार कलाई में पहने जाने वाले दुनियाभर में मशहूर आभूषण चूड़ी का जन्म भी इसी मूल से हुआ है। पहले यह चूड़ा ही था, बाद में इसका चूड़ी रूप भी प्रचलित हो गया। केश गुच्छ के लिए जूड़ा शब्द की व्युत्पत्ति कुछ लोग इस चूड़ा शब्द से भी मानते हैं। वैसे जूड़ा शब्द जुट् धातु से बना है जिससे जटा शब्द का निर्माण हुआ है। जुट् शब्द की रिश्तेदारी भी यु धातु से है जिससे सम्मिलित होने, एक साथ होने का भाव है जैसे युक्त-संयुक्त आदि।
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प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर 25 कमेंट्स पर 11:59 PM
हजामत का दिन यानी बालदिवस...
इस सिलसिले में हजामत बड़ा दिलचस्प शब्द है। यह बना है अरबी के हजामाह, हजामा या हिजामा से जिनका रिश्ता हज्म धातु से है। हज्म का मतलब होता है काटना, चीरा लगाना, आकार देना या सुधारना। दरअसल यह शब्द प्राचीन अरबी चिकित्साशास्त्र से आया है जिसके तहत शरीर के खास-खास स्थानों पर चीरा लगाकर अशुद्ध रक्त को निकाला जाता था ताकि विभिन्न व्याधियों से मुक्ति मिले ओर शरीर स्वस्थ रह सके। दरअसल यह एक्यूपंक्चर की तरह हजारों साल पुरानी चीनी चिकित्सा पद्धति(कपिंग) है जिसे ताओवादियों ने ईजाद किया था। यूं प्राचीन भारत और यूरोप में भी इस विधि का प्रचलन रहा है। प्राचीन अरब में यूं तो बाल कटवाना अधार्मिक कृत्य समझा जाता था मगर जब भी इसी परिपाटी आम हुई होगी, बाल काटने के लिए भी हजामा शब्द चल पड़ा। इसका फारसी रूप हुआ हजामत और इसे करनेवाले के लिए शब्द बना हज्जाम। इसके यही रूप हिन्दी-उर्दू में
...अरबी हिजामा या ईरानी हजामत का तरीका देखिये इस वीडियो में। भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में भी यह पद्धति प्रचलित है...
भी प्रचलित हो गए। हिन्दी में तो हजामत बनाना मुहावरा भी चल पड़ा जिसका अर्थ है जेब खाली कराना, खूब पैसा खर्च कराना। जाहिर सी बात है कि हज्म धातु में शामिल आकार देने का भाव बाल काटने में उजागर हो रहा है और रक्त शोधन संबंधी चिकित्सा संबंधी भाव चीरा लगाने जैसे अर्थ से स्पष्ट है। यह पद्धति भारत में आज भी प्रचलित है और नीम हकीमों के द्वारा अपनाई जाती है। इस पद्धति में शंकु के आकार के कप लेकर सुई से खास तौर पर पीठ पर दोने कंधों के बीच में चीरा लगाया जाता है। इस कप में एक छिद्र होता है जिसके जरिये इसमें से हवा खींच कर निर्वात(वैक्यूम) पैदा किया जाता है ताकि ऊपरी रक्तवाहिनियों से खुद-ब-खुद अशुद्ध रक्त बाहर आने लगता है।कटिंग के लिए अंग्रेजी में शेव शब्द भी है। मगर हिन्दी समाज की अदभुत माया है कि शेव शब्द का इस्तेमाल सिर्फ दाढ़ी के बाल काटने के लिए होता है। शब्द प्राचीन इंडो-यूरोपीय भाषा परिवार की धातु ker बड़ी महत्वपूर्ण है। संस्कृत की कृ धातु इसी श्रंखला की कड़ी है। अंग्रेजी में कैंची को कहते हैं सीज़र । हिन्दी की कतरनी और अंग्रेजी की सीज़र आपस में मौसेरी बहने हैं। shave का रिश्ता भी लैटिन के scabere से है जिसमें काटने, खुरचने का भाव समया है। प्राचीन भारोपीय धातु ker का ओल्ड जर्मनिक में रूप हुआ sker जिसका मतलब होता है काटना, बांटना। अंग्रेजी के शेअर यानी अंश , टुकड़े, हिस्से आदि और शीअर यानी काटना इससे ही बने हैं।
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प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर 14 कमेंट्स पर 4:04 AM
Sunday, January 18, 2009
गधे पंजीरी खा रहे है...[ खानपान-2]
पंजीरी के बारे में भी एक कहावत मशहूर है कि गधे पंजीरी खा रहे हैं...इसका मतलब होता है अक्षम व अयोग्य व्यक्ति का प्रभावशाली होना। हालांकि गधा अयोग्य होता है ये हम नहीं मानते। गधे अगर अयोग्य-अक्षम होते तो दुनियाभर के धोबी भूखों मर जाते! इससे यह तो जाहिर है कि पंजीरी कुछ विशिष्ट किस्म का खाद्य पदार्थ है जिसे खाना श्रेष्ठता का प्रतीक है। हालांकि पंजीरी को लेकर एक मुहावरा है पंजीरी फांकना अर्थात अभाव में रहना। गधों के पंजीरी खाने की बात से साफ है कि किसी ज़माने में पंजीरी खाना शान की बात थी और यह बेहद राजसी पदार्थ रहा होगा। बाद के दौर में जब पाक कला का और विकास हुआ और विभिन्न देशों, खास तौर पर अरबी और फारसी मिठाइयों की हिन्दुस्तान में आमद हुई तो पंजीरी की क़द्र थोड़ी घट गई और इसे ईश्वर के भोग तक सीमित कर दिया गया। पंजीरी की क़द्र घटी है यह इस तथ्य से भी जाहिर होता है कि गरीब विद्यार्थियों को स्कूल तक लाने के लिए केंद्र सरकार की दोपहर भोजन योजना में कई राज्यों में खाना पकाने की ज़हमत से बचने के लिए पंजीरी बांटी जा रही है। सीधी सी बात है सरकारों को यह रोटी-सब्जी से भी सस्ती पड़ रही है, इसके जरिये गधे पंजीरी खा रहे हैं और बच्चे पंजीरी फांक रहे हैं।
पंजीरी आमतौर पर आटे से बना पदार्थ माना जाता है मगर इसके नाम पर गौर करें तो इसमें से झांकता पंच भी नज़र आएगा। पंच अर्थात पांच पदार्थ। इसके नाम का दूसरा हिस्सा है जीर्ण, इस तरह पंजीरी बना है पंच+जीर्ण=पंचजीर्णकः से। विकासक्रम कुछ यूं रहा- पंचजीर्णकः.> पंजीर्णक > पंजीरअ > पंजीरी। जीर्ण शब्द संस्कृत धातु जृ से बना है जिसमें सूखना, मुरझाना, घुलना, नष्ट होना, पचाना आदि अर्थ समाहित हैं। जृ से बने जीर्ण में कमजोर, टूटा हुआ, बरबाद,
... इतिहास गवाह है कि दुनियाभर के खलनायक विभक्त और खंडित व्यक्तित्व वाले ही होते हैं...
ध्वस्त, कुचला-पिसा हुआ, फटा-पुराना, पचा हुआ जैसे भाव हैं। गौरतलब है कि पंजीरी मूलतः आटे से बनती है। आटा अर्थात चूर्ण। जीर्ण में निहित कुचलने-पीसने का भाव ही पंजीरी में उभर रहा है। कभी पंजीरी पांच पदार्थों से बनाई जाती थी जिसमें गेहूं, चना, गोंद, सोंठ और शर्करा का चूर्ण शामिल हैं। यूं इन पदार्थों को घी में सम्मिलित कर भूनने से पंजीरी जैसे स्वादिष्ट पदार्थ का निर्माण होता था। पाककला-प्रवीण लोगों ने इसमें खोपरा-मेवे जैसे पदार्थों का सम्मिश्रण कर इसे और भी स्वादिष्ट बना दिया। इसका सेवन समृद्ध-सम्पन्न लोग ही करते थे। पंजीरी अन्य कई पदार्थों-अनाजों के आटे से बनती है जैसे बाजरा, ज्वार, खसखस, नारियल, धनिया, राजगीरा वगैरह।खराब दशा के लिए जीर्ण-शीर्ण, जीर्णावस्था शब्द इसी मूल से उपजे है। वृद्धावस्था के लिए जरा शब्द भी जृ धातु से ही बना है जिसका अर्थ निर्बल, टूटा-फूटा, विभक्त, अशक्त, बुढ़ापा आदि होता है। वयोवृद्ध, अशक्त, निर्बल अथवा खंडहर के लिए जराजीर्ण या जरावस्था शब्द भी प्रचलित है। पौराणिक चरित्र जरासंध के नाम का जन्मसूत्र भी इसी जरा में छुपा हुआ है। वह बृहद्रथ नाम के राजा का पुत्र था और जन्म के समय दो टुकड़ों में विभक्त था। जरा नाम की राक्षसी ने उसे जोड़ा था तभी उसका नाम जरासंध पड़ा। जरा राक्षसी ने जोड़ा हो या न जोड़ा हो, मगर पुराणों में कौरवों का साथी होने के नाते जरासंध खलनायक की तरह ही उल्लेखित है। जरा नाम में ही विभक्त का भाव है जिसे बाद में संधि मिली। यानी एक आधे-अधूरे व्यक्तित्व का स्वामी। इतिहास गवाह है कि दुनियाभर के खलनायक विभक्त और खंडित व्यक्तित्व वाले ही होते हैं, उनका बाहरी रंग-रूप चाहे जैसा हो। जरासंध का अंत भी खंडित व्यक्तित्व का अंत था। भीम नें उसके शरीर को दो हिस्सों में विभक्त कर मृत्यु प्रदान की थी।
मालवी चिट्ठी
आहार श्रंखला पर सफर की पहली कड़ी पहले पेट पूजा, बाद में काम दूजा [आहार-1]पर भोपाल के श्री आरडी सक्सेना की मालवी बोली में लिखी, प्रेमपगी चिट्ठी मिली। इससे प्रभावित होकर हम जब सक्सेना जी के ब्लाग पर पहुंचे तो पाया एक बेहद संवेदनशील व्यक्ति का ब्लाग जो मालवी संस्कृति से इतना प्यार करता है कि उसने अपने ब्लाग का नाम ही Spreading fragrance of Malwa रखा है।
अपने ब्लाग का परिचय वे यूं देते हैं- मालव मिट्टी की सुगंध से श्रेष्ठतर इस ब्रह्माण्ड में भला कुछ और हों सकता है ? हम इसे पढ़ कर गदगद इसलिए हैं क्यों कि हम भी खुद को मराठी माणूस कम और मालवी मिनख ज्यादा समझते हैं। जन्मे सीहोर में और पले-बढ़े राजगढ़-ब्यावरा में। सक्सेना जी से इतना ही कहना चाहेंगे कि-आरडी भाया, तमारी चिट्ठी पढ़ के म्हारे भी घणो आनंद हुयो। तमसे अबै अतरी सी बात केणी हे के शब्दां का सफर संगे दूर तक लग्या-लग्या चालजो। जै जै।
बडनेरकर जी , तमारा गुन कसे गावाँ ?
पेलां हूँ सोचतो थो कि 'दीतवार' आखो मालवी आणे देहाती नाँव है 'रविवार' को | बी बी सी आला कैलाश बुधवार हमेसाँ ईके इतवार ई बोलता | कईं-कईं का श्रोता ने एतराज़ करयो कि भई या कईं बात ? आप 'रविवार' के उर्दू में 'इतवार' क्यों बोलो ? कैलाश बुधवार ने बड़ी मिठास में समझायो कि इतवार उर्दू नी है | बल्कि ऊ तो संस्कृत का आदित्य से बन्यो है - आदित्य -> आदित्यवार -> दीतवार -> इतवार | समझ में आयो कि मालवी को 'दीतवार' तो संस्कृत को ई है | आज तमारा लेख ने पाछी खुसी दी कि मालवी को 'जीमणो' संस्कृत की धातु 'जमणम' से चल के बन्यो | मैंने तो ठान ली कि जद भी मौको मिल्यो, ने न्योता छप्या, कि 'प्रीतिभोज' की एवज में 'ज्योनार' ई छपउवाँ |
मालवी की इज्ज़त बढाने वास्ते तमारो भोत भोत धन्यवाद !
-आर डी सक्सेना भोपाल
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प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर 18 कमेंट्स पर 3:29 AM लेबल: food drink
Saturday, January 17, 2009
पहले पेट पूजा, बाद में काम दूजा.[खानपान-1].
हम अक्सर खाना, भोजन, आहार आदि शब्दों का प्रयोग करते हैं उदरपूर्ति के संदर्भ में बोले जाते हैं। इनके अलावा मालवी, राजस्थानी बोलियों में जीमना शब्द भी खाने अथवा भोजन के अर्थ में इस्तेमाल होता है। जीमना शब्द बना है संस्कृत धातु जम् से जिसका मतलब होता है आहार। जम् से ही बना है जमनम् जिसमें भोजन, आहार आदि का ही भाव है। इसका एक रूप जेमनम् भी है। मराठी में इसका रूप हो जाता है जेवणं। हिन्दी में इसका क्रिया रूप बनता है जीमना और राजस्थानी में जीमणा। पूर्वी हिन्दी में इसे ज्योनार या जेवनार कहा जाता है। जीमण, ज्योनार शब्दों का लोकगीतों में बड़ा मधुर प्रयोग होता आया है। शादी में विवाह-भोज को ज्योनार कहा जाता है। यह एक रस्म है।
आम बोलचाल में किसी भी समय के भोजन को खाना khana कहा जाता है। यही नहीं, उदरपूर्ति की क्रिया ही खाना कहलाती है। यह शब्द बना है संस्कृत के खाद् से जिसमें शिकार करना, काटना, निगलना, खिलाना जैसे अर्थ शामिल हैं। खाद् से बना खाद्य शब्द जिसका अर्थ होता है भोज्य पदार्थ। खाद् से खादनम्, खादनः जैसे शब्द बने जो खादणअ > खाअण > खाना में रूपांतरित हो गए। खाना शब्द का मुहावरेदार प्रयोग खूब होता है जैसे खा जाना अर्थात हड़प जाना, खाना-पीना अर्थात सुखोपभोग में लीन रहना या काना-कमाना अर्थात गुज़र बसर करना। मगर आजकल खाना-कमाना और खाना-खिलाना अनैतिक कमाई के संदर्भ में खासतौर पर रिश्वतखोरी के लिए इस्तेमाल किए जाते हैं। गौरतलब है कि पेड़ पौधों को बढाने के लिए, भूमि के उपजाऊपन के लिए खाद्य रूप में जो पदार्थ भूमि में डाले जाते हैं उसके लिए बना खाद शब्द इसी मूल से उपजा है। जो खाने योग्य न हो उसे अखाद्य कहते हैं।
संस्कृत की हृ धातु में ग्रहण करना, लेना, प्राप्त करना, निकट लाना, पकड़ना, खिंचाव या आकर्षण जैसे भाव हैं। हृ में आ उपसर्ग लगने से बना है आहार aahar शब्द जिसे आमतौर पर भोजन के अर्थ में प्रयोग किया जाता है। आहार्य का मतलब है ग्रहण करने योग्य। बैंकिंग शब्दावली में विदड्रॉल शब्द के संदर्भ में आहरण शब्द का प्रयोग होता है जो इससे ही बना है। हृदय शब्द भी इसी मूल का है जिसमें आकर्षण, खिंचाव के भाव हैं। इसीलिए कहां जाता है कि मन लगाकर भोजन करना चाहिए।
खाना शब्द के बाद आहार के अर्थ में सर्वाधिक प्रयुक्त शब्द भोजन bhojan है जो भुज् धातु से बना है जिसका अर्थ होता है अंश, टुकड़ा, हिस्सा, खाना, निगलना, झुकाना, मोड़ना, काटना, अधिकार करना, आनंद लेना, मज़ा लेना आदि। गौर करें कि किसी भी भोज्य पदार्थ को ग्रहण करने से पहले उसके अंश किए जाते हैं। पकाने से पहले सब्जी काटी जाती है। मुंह में रखने से पहले उसके निवाले बनाए जाते हैं। खाद्य पदार्थ के अंश करने के लिए उसे मोड़ना-तोड़ना पड़ता है। मुंह में रखने के बाद दांतों से भोजन के और भी महीन अंश बनते हैं। भोजन को मुंह में रखने के लिए हाथ को कलाई के पास से मुड़ना पड़ता है। इसी लिए हाथ के लिए भुजा शब्द बना है। पेटू आदमी के लिए भोजन भट्ट शब्द इस्तेमाल किया जाता है। उदरपूर्ति सर्वाधिक महत्वपूर्ण है इसीलिए भूखे भजन न होई गोपाला, ले ल आपन कंठी माला जैसी उक्ति अक्सर दोहराई जाती है।
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प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर 20 कमेंट्स पर 3:45 AM लेबल: food drink