Sunday, January 18, 2009

गधे पंजीरी खा रहे है...[ खानपान-2]

किसी ज़माने में पंजीरी खाना शान की बात थी और यह बेहद राजसी पदार्थ रहा होगा। बाद के दौर में जब पाक कला का और विकास हुआ और विभिन्न देशों, खास तौर पर अरबी और फारसी मिठाइयों की हिन्दुस्तान में आमद हुई तो पंजीरी की क़द्र थोड़ी घट गई
हावत है– ग़रीबी में आटा गीला यानी मुश्किल वक्त में और मुसीबत। बचपन में इसे सुनकर दो सवाल मन में आते थे कि आटा अगर गीला न हो तो उससे रोटी बने कैसे? दूसरा ये कि क्या अमीर लोग सूखा आटा खाते हैं? सूखा आटा खाते तो किसी को नहीं देखा गया अलबत्ता आटे से बनी पंजीरी ज़रूर खूब खाई है जो बेहद स्वादिष्ट लगती है।

पंजीरी के बारे में भी एक कहावत मशहूर है कि गधे पंजीरी खा रहे हैं...इसका मतलब होता है अक्षम व अयोग्य व्यक्ति का प्रभावशाली होना। हालांकि गधा अयोग्य होता है ये हम नहीं मानते। गधे अगर अयोग्य-अक्षम होते तो दुनियाभर के धोबी भूखों मर जाते! इससे यह तो जाहिर है कि पंजीरी कुछ विशिष्ट किस्म का खाद्य पदार्थ है जिसे खाना श्रेष्ठता का प्रतीक है। हालांकि पंजीरी को लेकर एक मुहावरा है पंजीरी फांकना अर्थात अभाव में रहना। गधों के पंजीरी खाने की बात से साफ है कि किसी ज़माने में पंजीरी खाना शान की बात थी और यह बेहद राजसी पदार्थ रहा होगा। बाद के दौर में जब पाक कला का और विकास हुआ और विभिन्न देशों, खास तौर पर अरबी और फारसी मिठाइयों की हिन्दुस्तान में आमद हुई तो पंजीरी की क़द्र थोड़ी घट गई और इसे ईश्वर के भोग तक सीमित कर दिया गया। पंजीरी की क़द्र घटी है यह इस तथ्य से भी जाहिर होता है कि गरीब विद्यार्थियों को स्कूल तक लाने के लिए केंद्र सरकार की दोपहर भोजन योजना में कई राज्यों में खाना पकाने की ज़हमत से बचने के लिए पंजीरी बांटी जा रही है। सीधी सी बात है सरकारों को यह रोटी-सब्जी से भी सस्ती पड़ रही है, इसके जरिये गधे पंजीरी खा रहे हैं और बच्चे पंजीरी फांक रहे हैं।

पंजीरी आमतौर पर आटे से बना पदार्थ माना जाता है मगर इसके नाम पर गौर करें तो इसमें से झांकता पंच भी नज़र आएगा। पंच अर्थात पांच पदार्थ। इसके नाम का दूसरा हिस्सा है जीर्ण, इस तरह पंजीरी बना है पंच+जीर्ण=पंचजीर्णकः से। विकासक्रम कुछ यूं रहा- पंचजीर्णकः.> पंजीर्णक > पंजीरअ > पंजीरीजीर्ण शब्द संस्कृत धातु जृ से बना है जिसमें सूखना, मुरझाना, घुलना, नष्ट होना, पचाना आदि अर्थ समाहित हैं। जृ से बने जीर्ण में कमजोर, टूटा हुआ, बरबाद,

... इतिहास गवाह है कि दुनियाभर के खलनायक विभक्त और खंडित व्यक्तित्व वाले ही होते हैं...

ध्वस्त, कुचला-पिसा हुआ, फटा-पुराना, पचा हुआ जैसे भाव हैं। गौरतलब है कि पंजीरी मूलतः आटे से बनती है। आटा अर्थात चूर्ण। जीर्ण में निहित कुचलने-पीसने का भाव ही पंजीरी में उभर रहा है। कभी पंजीरी पांच पदार्थों से बनाई जाती थी जिसमें गेहूं, चना, गोंद, सोंठ और शर्करा का चूर्ण शामिल हैं। यूं इन पदार्थों को घी में सम्मिलित कर भूनने से पंजीरी जैसे स्वादिष्ट पदार्थ का निर्माण होता था। पाककला-प्रवीण लोगों ने इसमें खोपरा-मेवे जैसे पदार्थों का सम्मिश्रण कर इसे और भी स्वादिष्ट बना दिया। इसका सेवन समृद्ध-सम्पन्न लोग ही करते थे। पंजीरी अन्य कई पदार्थों-अनाजों के आटे से बनती है जैसे बाजरा, ज्वार, खसखस, नारियल, धनिया, राजगीरा वगैरह।

राब दशा के लिए जीर्ण-शीर्ण, जीर्णावस्था शब्द इसी मूल से उपजे है। वृद्धावस्था के लिए जरा शब्द भी जृ धातु से ही बना है जिसका अर्थ निर्बल, टूटा-फूटा, विभक्त, अशक्त, बुढ़ापा आदि होता है। वयोवृद्ध, अशक्त, निर्बल अथवा खंडहर के लिए जराजीर्ण या जरावस्था शब्द भी प्रचलित है। पौराणिक चरित्र जरासंध के नाम का जन्मसूत्र भी इसी जरा में छुपा हुआ है। वह बृहद्रथ नाम के राजा का पुत्र था और जन्म के समय दो टुकड़ों में विभक्त था। जरा नाम की राक्षसी ने उसे जोड़ा था तभी उसका नाम जरासंध पड़ा। जरा राक्षसी ने जोड़ा हो या न जोड़ा हो, मगर पुराणों में कौरवों का साथी होने के नाते जरासंध खलनायक की तरह ही उल्लेखित है। जरा नाम में ही विभक्त का भाव है जिसे बाद में संधि मिली। यानी एक आधे-अधूरे व्यक्तित्व का स्वामी। इतिहास गवाह है कि दुनियाभर के खलनायक विभक्त और खंडित व्यक्तित्व वाले ही होते हैं, उनका बाहरी रंग-रूप चाहे जैसा हो। जरासंध का अंत भी खंडित व्यक्तित्व का अंत था। भीम नें उसके शरीर को दो हिस्सों में विभक्त कर मृत्यु प्रदान की थी।

मालवी चिट्ठी

आहार श्रंखला पर सफर की पहली कड़ी पहले पेट पूजा, बाद में काम दूजा [आहार-1]पर भोपाल के श्री आरडी सक्सेना की मालवी बोली में लिखी, प्रेमपगी चिट्ठी मिली। इससे प्रभावित होकर हम जब सक्सेना जी के ब्लाग पर पहुंचे तो पाया एक बेहद संवेदनशील व्यक्ति का ब्लाग जो मालवी संस्कृति से इतना प्यार करता है कि उसने अपने ब्लाग का नाम ही Spreading fragrance of Malwa रखा है।
अपने ब्लाग का परिचय वे यूं देते हैं- मालव मिट्टी की सुगंध से श्रेष्ठतर इस ब्रह्माण्ड में भला कुछ और हों सकता है ? हम इसे पढ़ कर गदगद इसलिए हैं क्यों कि हम भी खुद को मराठी माणूस कम और मालवी मिनख ज्यादा समझते हैं। जन्मे सीहोर में और पले-बढ़े राजगढ़-ब्यावरा में। सक्सेना जी से इतना ही कहना चाहेंगे कि-आरडी भाया, तमारी चिट्ठी पढ़ के म्हारे भी घणो आनंद हुयो। तमसे अबै अतरी सी बात केणी हे के शब्दां का सफर संगे दूर तक लग्या-लग्या चालजो। जै जै।

बडनेरकर जी , तमारा गुन कसे गावाँ ?
पेलां हूँ सोचतो थो कि 'दीतवार' आखो मालवी आणे देहाती नाँव है 'रविवार' को | बी बी सी आला कैलाश बुधवार हमेसाँ ईके इतवार ई बोलता | कईं-कईं का श्रोता ने एतराज़ करयो कि भई या कईं बात ? आप 'रविवार' के उर्दू में 'इतवार' क्यों बोलो ? कैलाश बुधवार ने बड़ी मिठास में समझायो कि इतवार उर्दू नी है | बल्कि ऊ तो संस्कृत का आदित्य से बन्यो है - आदित्य -> आदित्यवार -> दीतवार -> इतवार | समझ में आयो कि मालवी को 'दीतवार' तो संस्कृत को ई है | आज तमारा लेख ने पाछी खुसी दी कि मालवी को 'जीमणो' संस्कृत की धातु 'जमणम' से चल के बन्यो | मैंने तो ठान ली कि जद भी मौको मिल्यो, ने न्योता छप्या, कि 'प्रीतिभोज' की एवज में 'ज्योनार' ई छपउवाँ |
मालवी की इज्ज़त बढाने वास्ते तमारो भोत भोत धन्यवाद !
-आर डी सक्सेना भोपाल



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18 कमेंट्स:

dhiru singh { धीरेन्द्र वीर सिंह } said...

पंजीरी की उत्पत्ति समझी .उसकी कहावते भी पढ़ी . एक बात है कहावतें कितनी सटीक होती है . बिल्कुल ठीक लिखा आपने, गधे पंजीरी खा रहे है और जो इस लायक थे वह वेचारे पंजीरी फांक रहे है

Udan Tashtari said...

क्या क्या कहावतें हैं.

बेहतरीन जानकारी, आभार.

विष्णु बैरागी said...

आपने पंजीरी की नई किस्‍म से परिचित कराया। मालवा में तो पंजीरी, पिसे धनिये की बनती है-वह भी जन्‍माष्‍टमी पर्व पर। पिसा धनिया, शकर और घी इसके प्रमुख कारक होते हैं। (प्रसूता को खिलाया जाने वाला)सोंठ का लड्डू भी कभी-कभार इसमें मिला दिया जाता है। मालवा में इसे 'कृष्‍ण-जन्‍म' से जोडा हुआ है।
कुछ वैद्यों को, अपने रोगियों को इसका सेवन दवाई के रूप में करने का परामर्श देते हुए भी देखा है मैंने।

Dr. Chandra Kumar Jain said...

हम भी धनिया वाली
पंजीरी से ही परिचित हैं,
किंतु आपने तो नायाब जानकारी दी है.
उससे भी बड़ी बात यह कि
आपने सक्सेना जी
से हमारा परिचय करवाया....आभार.
=============================
डॉ.चन्द्रकुमार जैन

दिनेशराय द्विवेदी said...

आज शब्दों के सफर को सक्सेना जी के पत्र ने विशिष्ठ बना दिया है। पंजीरी के साथ ही इस के भ्राता सत्तू का स्मरण हो आया। शायद अगला आलेख उसी पर हो।

ताऊ रामपुरिया said...

बडनेरकर जी, हूं रेऊं तो इन्दोर म, मालवी समझ संकूं पण लिखणो बोलणो ढंग से नी करि सकूं. कारण तम जाणो कि हूं हरयाणवी मिनख. :)

घणी ज्ञानवर्धक जानकारी, आपके साथ साथ भाई आर.डी.सक्सेना जी को भी घणी बधाई.

रामराम.

अविनाश वाचस्पति said...

पंजीरी का खाना
गधों के हिस्‍से में ही
यूं ही नहीं आया होगा
'एक गधे की आत्‍मकथा'
भी उन्‍हीं के हिस्‍से में आई।

पता नहीं कुत्‍ते पंजीरी क्‍यों नहीं खाते
'एक कुत्‍ते की आत्‍मकथा'
का भी अभी तक पता नहीं है।

जब गधे साहित्‍य में अपनी आत्‍मकथा
लिखकर योगदान कर सकते हैं तो
कुत्‍ते, भेड़ें, घोड़े, तोते, मैना,
शेर, बाघ, बकरी इत्‍यादि की भी
आत्‍मकथाएं आनी चाहिएं
शायद इससे उन्‍हें भी
पंजीरी खाने का सुख नसीब हो सके।

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी said...

आपकी पोस्ट भी किसी स्वादिष्ट पंजीरी से कम नहीं है। भाषा विन्यास, व्याकरण, व्युत्पत्ति, मूल उद्‌भव स्रोत, व्यंग्य-विनोद आदि अनेक अद्‌भुत तत्वों से मिलकर बनी हुई होती है।

PD said...

वाह.. दितवार पर आज दो दो पोस्ट पढने को मिला.. पहला आपका और दूसरा दिनेश जी का.. :)
पंजीरी का स्वाद भी बढ़िया था.. अब भले ही गधा(मैं) खाया हो.. :)

डॉ .अनुराग said...

शुक्रिया जानकारी के लिए....फोटो लालच पैदा करने वाला है...कृपया इसे हठाये ......

Richa Joshi said...

कोई खाए या फांके लेकिन पंजीरी अच्‍छी लगती है और जानकारी भी पंजीरी जैसी दी आपने। शुक्रिया।

Pt. D.K. Sharma "Vatsa" said...

बहुत ही पंजीरीमय जानकारी प्रदान की आपने.
बधाई स्वीकारें.........
वाकई आज के समय में पंजीरी गधों के हिस्से मे ही आती है.

Unknown said...

वाह,वाह,वाह,वाह.आपने पंजीरी की याद दिला दी,बहुत दिन हुए खाये.

दिवाकर प्रताप सिंह said...

श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर धनिये वाली पंजीरी यहाँ उत्तर प्रदेश में भी बनती है, हमारी पूर्व शिष्या सोनाली सिंह ने उसकी विधि पोस्ट किया था! देखिये -
http://daalrotichaawal.blogspot.com/2008/08/blog-post_23.html

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

स्वादिष्ट पंजीरी कभी खाई नहीं पर यहाँ देखा कर अनुमान कर लिया कित्ती स्वाद होगी तभी तो इसका भोग चढाते हैं ..बच्चे भी खाते हैं !
बेहद अच्छी पोस्ट -
- लावण्या

Abhishek Ojha said...

खाने और फांकने में बड़ा फर्क है !

Anonymous said...

बडनेरकर जी ,

सोची बी नी थी कि तम म्हारा अंजुली भर फूल के इत्ती इज्ज़त बक्सोगा ! या तो तमारी महानता कि म्हारा फूल तमने पसंद करया |

पंजरी, जाने कि 'कथा की परसादी' ! तमारी कथा को ख़ास गुण यो कि इमे कथा भी चलती रे ने परसाद बी बटतो रे | पण हम, जाने कदी धापा ई नी | ( धापना याने तृप्त होना) गंज दन से या चायना थी कि जानकारी लूं कि कि 'धापनो' काँ से आयो ? कदी मौको लगे, ने बाकी लोग होण पसंद करे तो बताजो जी |

प्यार देता रीजो |

- आर डी सक्सेना भोपाल

Lata kamal said...

aapke dwara banai gayi panjiri bahut achchi lagi.vishesh taur per hindi main aapka lekhan man khush ho gaya thanks

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