Saturday, May 2, 2009

गुलमर्ग में मुर्ग़े की बांग…

... मुर्गा बांग न देगा तो क्या सुबह न होगी...? Bantam Hen

दना और निरीह सा जीव मुर्गा इनसान के लिए बेहद खास है। मांसाहारी भोजन के शौकीन लोगों की थाली को तो इसने समृद्ध किया ही है, भाषा को भी इसने मालामाल किया है। हिन्दी उर्दू में इसे लेकर कई कहावतें-मुहावरे प्रचलित है जैसे घर की मुर्गी दाल बराबर यानी उपलब्ध पदार्थ या व्यक्ति को महत्व न दिया जाना। मुर्गे की बांग मुहावरा भी इसका महत्व बताता है। यह पक्षी भोर से पहले ही जाग जाता है और शोर मचाता है जिसे बांग देना कहा जाता है। इसे सुनकर ही पुराने ज़माने में लोगों की नींद खुलती थी। मुर्गे पर इसी निर्भरता ने एक अन्य कहावत को जन्म दिया-मुर्गा बांग न देगा तो क्या सुबह न होगी? इसके मूल में किसी कार्य विशेष के लिए परनिर्भरता को लेकर उलाहना छुपा है।
…कश्मीर वादी के गुलमर्ग,सोनमर्ग जैसे स्थान अपने नर्म घास के मैदानों के लिए जान जाते हैं…IMG_0471
मुर्गा या मुर्गी शब्द हिन्दी, उर्दू फारसी में प्रचलित हैं। अरबी में भी इसका प्रयोग होता है मगर मुर्ग के रूप में। मूलतः यह शब्द फारसी का है जिसका सही रूप भी मुर्ग ही है। इंडों-ईरानी भाषा परिवार के इस शब्द का संस्कृत रूप है मृगः जो बना है मृग् धातु से जिसमें खोजना, ढूंढना, तलाशना जैसे भाव निहित हैं। आमतौर पर हिन्दी में मृग से तात्पर्य हिरण प्रजाति के पशुओं जैसे सांभर, चीतल से है मगर इस शब्द की अर्थवत्ता बहुत व्यापक है। इसके कई अर्थ हैं जो विभिन्न भावार्थों के साथ इस शब्द के सामूहिक इतिहास का संकेत देते हैं। इसमें न सिर्फ चौपाए बल्कि पक्षी भी शामिल हैं। वैदिक काल में संस्कृत में मृग का अर्थ हिरण तक सीमित न होकर किसी भी पशु के लिए था। मनुष्येतर सामान्य सभी प्राणी इसके अंतर्गत आ जाते थे। इस तरह शाकाहारी से लेकर मांसाहारी तक सभी थल चर पशुओं का इसमें समावेश था। शिकार के लिए संस्कृत में मृगया शब्द है जो इस बात को स्पष्ट करता है कि मृग की अर्थवत्ता में हर तरह के पशु शामिल थे। जाहिर सी बात है कि शिकार या आखेट के दायरे में सिर्फ हिरण ही नहीं थे। प्राचीनकाल से ही शेर चीतों के आखेट में मनुष्य की सहज रुचि रही है। शिकार शब्द में खोज का भाव ही निहित है। चिरंतन प्यास के लिए मृगतृष्णा और दृष्यभ्रम के लिए मृगमरीचिका शब्द इसी सिलसिले की कड़ी हैं जिनमें तलाश, खोज स्पष्ट है।
मृग शब्द का अर्थ हरी घास भी है। पूर्ववैदिककाल में इस शब्द में ऐसे स्थान या घाटी का भाव था जो हरी भरी हो। पहाड़ों पर आमतौर पर हरियाली जहां होती है उसे ही वादी की संज्ञा दी जाती है, शेष ऊंचाइयां उजाड़ और अनुर्वर होती हैं। लगता है प्राचीनकाल में मृग शब्द में चरागाह या चरने का भाव प्रमुख था। संस्कृत शब्द मृगणा का अर्थ होता है अनुसंधान, शोध, तलाश।  जिस तरह से चर् धातु में चलने, गति करने का भाव प्रमुख है उसी के चलते इससे चारा (जिसका भक्षण किया जाए), चरना (चलते चलते खाने की क्रिया), चरागाह (जहां चारा हो) जैसे विभिन्न शब्द बने है। कुछ यही प्रक्रिया मृग के साथ भी रही। पथ, राह, रास्ता के अर्थ में संस्कृत का मार्ग शब्द है जो इसका ही रूपांतर है। मार्ग में भी खोज और अनुसंधान का भाव स्पष्ट है। कभी जिस राह पर चल कर मृगणा अर्थात अनुसंधान या तलाश की जाती थी, उसे ही मार्ग कहा गया।  चर् के उदाहरण से स्पष्ट है कि मृग नामक घास के विशाल चारागाहों में पशुओं द्वारा इसके भक्षण करते चलने से यह शब्द बना जो बाद में व्यापक तौर पर मार्ग यानी रास्ता के अर्थ में प्रचलित हुआ।
श्मीर घाटी में कई बस्तियां हैं जिनके नाम के साथ मर्ग शब्द जुड़ता है जो इसी श्रंखला का हिस्सा है जिसका मतलब होता है हरी भरी वादी मसलन सोनमर्ग, गुलमर्ग, तंगमर्ग आदि। वादी के ये तमाम स्थान अपने नर्म घास के मैदानों के लिए ही जाने जाते हैं। इसी श्रंखला में पक्षी को भी फारसी में मुर्ग़ का नाम मिला जिसका मतलब हुआ चुगने वाला जीव। थलचर पक्षियों में मुर्ग़ सर्वाधिक लोकप्रिय आहार है। अरबी में इससे एक सामिष पकवान बनता है जिसे मुर्ग़मुसल्लम कहते हैं यानी साबुत भुना हुआ मुर्गा।  इसी तरह एक और पक्षी होता है जिसे मुर्गाबी कहा जाता है। मुर्गाबी बतख की प्रजाति की जीव है और जल-थल दोनो जगहों पर रहती है। यह बना है मुर्गआब यानी पानी में रहनेवाला मुर्ग जिसका देशी रूप हुआ मुर्गाबी। उर्दू-फारसी में पानी को आब कहते हैं। यूं आब शब्द भी संस्कृत मूल का है और अप् धातु से बना है जिसका अर्थ पानी होता है। फारसी में मुर्ग़ से बने कई शब्द युग्म है जिनमें मुर्ग शब्द का अभिप्राय चिडिया या परिंदे के तौर पर ही उभरता है जैसे मुर्गबाग़ यानी पक्षी विहार या मुर्गीखाना यानी पंछीघर, मुर्गसुलेमान यानी राजा सॉलोमन की चिडिया आदि। प्रचलित अर्थ में जो मुर्गी है उसके लिए मुर्ग-सुब्हख्वान यानी सुबह का पंछी जैसा आलीशान शब्द है।

ये सफर आपको कैसा लगा ? पसंद आया हो तो यहां क्लिक करें

16 कमेंट्स:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

भाई वडनेकर जी!
आपने मुर्गे की पोल भी खोल ही डाली। मुर्गा बाँग दे या न दे। सुबह तो हो ही जाती है, प्रातः होते ही शब्दों के सफर से मेरी दिनचर्या प्रारम्भ हो जाती है और सबसे पहली टिप्पणी से मेरा भी शब्दों का सफर शुरू हो जाता है।

दिनेशराय द्विवेदी said...

अब मुर्गे तो आसपास दिखाई नहीं देते। लेकिन सामने के पार्क के वृक्षों पर बहुत पक्षियों का बसेरा है। सुबह उन के स्वरगान से ही होती है। हमारे वकीलों को किसी दिन कोई मुर्गा नहीं मिलता तो निराश होते हैं। जीवन ही मुर्गों से चल रहा है।

मुनीश ( munish ) said...

वाह जी वाह यहाँ भी मुर्गा !

Smart Indian said...

बहुत खूब अजित भाई, मुर्ग के चक्कर में लगता है शुतुरमुर्ग कहीं रेत में सर छिपाकर बैठ गया है.

dhiru singh { धीरेन्द्र वीर सिंह } said...

मुर्ग पर आपकी मृगणा तारीफ के काबिल है . आप शब्दों की मृगया जो करते है वह लाजबाब है .

नितिन | Nitin Vyas said...

मुर्ग का विश्लेषण बढिया लगा। आजकल हर कोई अपनी गलती थोपने के लिये मु्र्गे तलाशता रहता है। "मुर्गा बनाना" कैसे बोलचाल में आया होगा?

अजित वडनेरकर said...

@smart indian
शुतुरमुर्ग भी इसी कड़ी में शामिल था भाई, पर पोस्ट बहुत लंबी हो गई थी, सो उसे अलग करना पड़ा। वह हिस्सा अगली किसी कड़ी में दूंगा। यूं भी उसमें कुछ अन्य शब्द संदर्भ भी जुड़े हुए थे।

Abhishek Ojha said...

मुर्ग के बारे में जानना बढ़िया रहा.

नीलिमा सुखीजा अरोड़ा said...

मुर्गमुसल्लम से लेकर मृगमरीचिका का सफर मजेदार रहा

Anonymous said...

मुर्गे की मेरे जीवन में एक और याद अपनी क्लास में मुर्गा बनने से भी है .अच्छी जानकारी,साथ ही आब शब्द लिख कर आपने अच्छा किया .

-मयूर

Dr. Chandra Kumar Jain said...

सुबह की बातें आज
शाम को पढ़ पाया,
यह पड़ाव भी रास आया.
========================
आभार
डॉ.चन्द्रकुमार जैन

RDS said...

इस आलेख सहित समूची यात्रा की प्रशंसा जितनी भी की जाए, कम है | इतने उद्धरण इतने सन्दर्भ व्यवस्थित और क्रमबद्ध रूप में किस प्रकार प्रस्तुत किये जाते रहे हैं, हमें तो हैरत होती है !

आधुनिक धूर्त समाज में मुर्गा स्वयं मनुष्य के लिए एक मुहावरा भी है | एक आसान शिकार के रूप में सीधा सादा मनुष्य तो मुर्ग - मुसल्लम ही है | जो चालाक हो वही ज्ञानी ध्यानी और वही विजेता | हम जैसे लोग अभी भी जीवित और सही सलामत हैं क्या यह आश्चर्य नहीं ?

- RDS

Alpana Verma said...

मार्ग,मृग,और मुर्ग....बहुत सी नयी जानकारी मिलीं .अच्छी लगी यह पोस्ट भी.

रावेंद्रकुमार रवि said...

शीर्षक से लेकर अंत तक रोचक!

Baljit Basi said...

भले जमाने में मुझे तीन चार बार कश्मीर जाने का मौका मिला . जो मर्ग आप ने बतलाए उन के इलावा युसमर्ग और खिलनमर्ग भी देखे . जिसको आप ने 'तंगमर्ग' बतलाया हमने उसका नाम तब 'टांगमर्ग' सुना था . 'तंगमर्ग', 'टांगमर्ग' 'टंगमर्ग', कई तरह लिखा मिलता है. मेरे पास यहाँ के डाकखाने की तस्वीर है जिस के बोर्ड पर हिंदी में टांगमर्ग ही लिखा है. मैं यह तस्वीर आप को ईमेल क्र रहा हूँ . फिर भी आप चेक करे लेना. श्रीनगर से गुलमर्ग जाना हो तो तब यहाँ रुकना पड़ता था. टांगमर्ग छोटा सा गाँव था वहां से गुलमर्ग तक सीधी चढ़ाई है, दस मील तो होगी . थक कर जब हम गुलमर्ग पहुँचते थे तो एक दम दूर दूर तक फैली घास की गोलाईआ देख कर सारी थकावट दूर हो जाती थी. इसके आगे और चढ़ाई चढ़ने के बाद खिलनमर्ग आता है यहाँ जंगली फूल खिले रहते हैं.
मुर्गे के जिक्र से मुझे कश्मीर के अनंतनाग जिले के कुकड्नाग की याद आ गई. ये एक चश्मा है यहाँ से बहुत सी पानी की धाराएं निकलती हैं. इन की शकल कुकड़ (पंजाबी और कश्मीरी में मुर्गे को कुकड़ बोलते हैं ) की कलगी जैसी या इधर उधर फैले खंभों जैसी लगती है. दिलचस्प बात है की जब हम वहां जाते थे तो वहां के दुकानदार गम गर्म उबले हुए मुर्गी के अंडे पेश करते थे. कश्मीर में बहुत से नाग (चाश्मे) हैं और पहाड़ों में नाग पूजा का कल्ट तो है ही.

Kavita Prasad said...

आपकी शोध, पाठकों के लिए बहुत रोचक और ज्ञानवर्धक है| पोस्ट को उदाहरण के साथ जोड़ कर यह सार्थक और रुचिकर लग रही है|
शुभकामनायें!

नीचे दिया गया बक्सा प्रयोग करें हिन्दी में टाइप करने के लिए

Post a Comment


Blog Widget by LinkWithin