पिछली कड़ी-मेवाड़ के पंडित, बारां आ बसे से आगे>
दिनेशराय द्विवेदी सुपरिचित ब्लागर हैं। इनके दो ब्लाग है तीसरा खम्भा जिसके जरिये ये अपनी व्यस्तता के बीच हमें कानून की जानकारियां सरल तरीके से देते हैं और अनवरत जिसमें समसामयिक घटनाक्रम, आप-बीती, जग-रीति के दायरे में आने वाली सब बातें बताते चलते हैं। शब्दों का सफर के लिए हमने उन्हें कोई साल भर पहले न्योता दिया था जिसे उन्होंने सहर्ष कबूल कर लिया था। लगातार व्यस्ततावश यह अब सामने आ रहा है। तो जानते हैं वकील साब की अब तक अनकही बकलमखुद के सोलहवें पड़ाव और बानवे सोपान पर... शब्दों का सफर में अनिताकुमार, विमल वर्मा, लावण्या शाह, काकेश, मीनाक्षी धन्वन्तरि, शिवकुमार मिश्र, अफ़लातून, बेजी, अरुण अरोरा, हर्षवर्धन त्रिपाठी, प्रभाकर पाण्डेय, अभिषेक ओझा, रंजना भाटिया, और पल्लवी त्रिवेदी अब तक बकलमखुद लिख चुके हैं।
आठवीं कक्षा मोड़क स्टेशन के स्कूल से जिस में पिताजी हेड मास्टर थे, उत्तीर्ण यहाँ तक सरदार ने प्रथम श्रेणी कभी देखी नहीं थी, बावजूद इस के कि वह कक्षा में हमेशा अव्वल रहता। नवीं में भरती होने पर समस्या हो गई कि विषय चुनने हैं। विज्ञान तो पहले से ही तय था। गणित में रुचि थी, सरदार वही पढ़ना भी चाहता था। लेकिन इंजिनियरों के बेकार बैठे रहने के किस्से उन दिनों मशहूर थे, डाक्टरों की चांदी थी। इसलिए परिवार में पंचायती फैसला हुआ और सरदार जीव-विज्ञान का विद्यार्थी हो गया। दसवीं कक्षा तक गणित पढ़नी पड़ी थी, जब भी उस के सवाल करता तो दाज्जी कापी देखते और कहते -तुम मुझ से “लीलावती” सीख लो, गणित में कभी मात न खाओगे। लेकिन इसे दाज्जी से नहीं पढ़ सका। सरदार को तो यह भी नहीं पता था कि यह “लीलावती” क्या है? जरूर कोई गणितीय विद्या रही होगी। फिर पता लगा कि वह भास्कराचार्य की किताब है, जिसे भारत के गणित के विद्यार्थी करीब आठ शताब्दियों तक एक टेक्स्ट-बुक के रूप में पढ़ते रहे। वकालत आरंभ होने के भी पन्द्रह बरस बाद एक किताबों की दुकान पर “लीलावती” मिंली। खरीद कर घर लाया और उस के सारे सवाल हल किए। तब सरदार को महसूस हुआ कि वास्तव में दाज्जी से पढ़ लेता तो गणित बहुत आसान हो जाती।
दसवीं की परीक्षा जिस दिन समाप्त हुई, उसी शाम दाज्जी ने सरदार से उन की अलमारी में रखे पीपे के बक्से (तेल के पन्द्रह किलो के टिन को आड़ा काट कर ढक्कन लगा कर बनाया गया बक्सा) में अखबार का कवर लगी एक कॉपी निकलवाई और कहा –इस में तुम्हारे पिताजी ने जन्मपत्री बनाने की विधि हिन्दी में लिखी है। पंचांग लो और अपनी जन्मपत्री की गणित करो। यह रोचक लेकिन थकाने वाला काम निकला। सरदार गणित करता, दाज्जी से जँचवाता, आखिर एक सप्ताह में गणित सीख ली गई। अब दाज्जी उन के पास कोई जन्म पत्री बनने आती तो सारी गणित सरदार से कराने लगे। जब गणित हो जाती तो दाज्जी खुद अपने हाथ से खुद की बनाई गई चमकदार काली और लाल स्याही से सुंदर हस्तलिपि में पत्रिका लिखते। फलित सिखाने के लिए दाज्जी ने हिन्दी में लिखी या हिन्दी टीका वाली बहुत पुस्तकें मंगा कर सरदार को दीं। उस ने पढ़ी भी, पर फलित का टोटका आज तक भी समझ में नहीं आया। उन्ही दिनों मोहन चाचा जी की जन्मपत्री बनाने को सरदार को दी गई। किताबों में कुछ सूत्र जातक की आयु निकालने के भी थे। सरदार ने उत्साह में चाचा जी की आयु और उस के हिसाब से मृत्यु की तारीख भी लिख दी। दाज्जी ने देखा तो बहुत नाराज हुए। कहने लगे यह जन्मपत्री में यह नहीं लिखा जाता। बरसों बाद दिल के मरीज हो जाने के पर चाचा जी एक दिन सरदार से बोले -तुमने मरने की जो तारीख मेरी जन्मपत्री में लिखी है। उस ने हमेशा मुझे यह विश्वास दिलाया कि उस से पहले तो मैं मर ही नहीं सकता। सरदार उस तारीख को भूल चुका था, वह मन ही मन आशंकित हो गया कि जब वह तारीख नजदीक आएगी तो चाचा जी पर पता नहीं क्या असर छोड़ेगी?
जन्मपत्री सीखने के कुछ दिन बाद ही सरदार को माउंट आबू में राष्ट्रपति स्काउट के लिए ट्रेनिंग केम्प में जाना पड़ा। पहली बार गर्मी के मौसम में पहाड़ की ठंडक और जमीन पर सरकते बादल देखे, उन में हो कर गुजरना उस समय एक स्वर्गिक अनुभव था। केम्प में बांस और रस्सी से अनेक गैजेट्स बनाए। खास तौर पर एक रस्सी का पुल, जिस पर आखिरी दिन उस वक्त के राजस्थान के राज्यपाल सरदार हुकुमसिंह चल कर निकले। माउंट आबू के सभी दर्शनीय स्थल पगडंडियों के रास्ते पहाड़ियों को पार कर पैदल घूम कर देखे, जिस ने पर्वतारोहण जैसा आनंद प्रदान किया और जीवन के लिए नया साहस भी। केंप में रहते हुए ही दसवीं कक्षा का परीक्षा परिणाम आ गया। सरदार ने बहुत मिन्नतें की लेकिन इस भय से अखबार भी केम्प में न आने दिया गया कि परीक्षा में असफल होने पर कोई पहाड़ पर कुछ न कर बैठे। लेकिन। वापसी पर अजमेर में परिणाम का अखबार तलाशने का यत्न भी किया लेकिन असफलता हाथ लगी। सरदार ने तय कर लिया कि वह अपना परीक्षा परिणाम बाराँ घर पर लौट कर ही देखेगा। [बाकी अगले मंगलवार ]
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20 कमेंट्स:
लीलावती तो हमने भी नहीं पढ़ी-अच्छा चल रहा है सरदार का बचपन. :)
सरदार के बचपन के बारे में बहुत कुछ जाना।
अगली कड़ी का इन्तजार।
दाज्जी की बात पहले मान लेता तो शायद प्रथम श्रेणी आ जाती... लीलावती पढ़कर बाद में पढ़ने का क्या फ़ायदा... और सिर कूटने का भी कि पहले पढ़ लेते तो आसान हो जाती..
सुंदर बचपन ,आगे के हाल की प्रतीक्षा .
शेर बच्चा -जासूसी उपन्यासों की लत मेरी ही तरह -गणित में विशेष योग्यता -यही मात खा गया मैं आपसे दिनेश जी ! और हाँ आपकी मृत्यु की भविष्यवाणी का क्या हुआ जिज्ञासा बलवती है!
सरदार ’क” था और मेरी बिटिया ’बुलबुल’ ।
"स्वैच्छिक सेवाओं ने सरदार को उदात्त बनाया। छूतछात, धर्म और जाति के भेदों से दूर सब के साथ समानता से बर्ताव करने की प्रायोगिक शिक्षा वहीं मिली"- इसमें कोई दो राय नहीं । रचनात्मक काम परिवर्तन की ताकत देते हैं । फिर एक विशिष्ट धारा की स्वयंसेवा इससे विपरीत स्थाई किस्म की संकीर्णता और कट्टरता कैसे प्रदान करती है?
मेरी टीप के पहले वाक्य में " सरदार’क" था " को सरदार ’कब’(शेर-बच्चा)था पढ़ें ।
आगे के हाल की प्रतीक्षा
रोचक और प्रेरक.
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डॉ.चन्द्रकुमार जैन
बहुत रोचकता लिये हुये है. आगे का इंतजार है.
रामराम.
bhut rochak sansmarn aur prernadayk bhi .
agle ank ki prteeksha.
रोचक, सहज विवरण कौतुहल कायम रखते हुए बचपन से नौजवानी की तरफ बढती हुई आप बीती . स्काउट कैम्प,किताबो का चस्का और इत्तेफाक से वही सारे लेखक जिसको अपने स्कूली दौर में पढने का मै भी आदि हो गया था, यादो की दुनिया में ले गया.
''बरसों बाद दिल के मरीज हो जाने के पर चाचा जी एक दिन सरदार से बोले -तुमने मरने की जो तारीख मेरी जन्मपत्री में लिखी है। उस ने हमेशा मुझे यह विश्वास दिलाया कि उस से पहले तो मैं मर ही नहीं सकता।''
इस कथन पर ये शेर बरबस याद आ गया है:-
# ये बात है कलीद* दरे काएनात* की ,
यानी अजल* है खुद ही मुहाफिज़ हयात* की.
*कलीद = कुंजी , दरे काएनात= सृष्टि का द्वार, अजल= मौत, हयात= ज़िन्दगी.
जासूसी नॉवल पढ़ने की लत तो अपन को भी थी। अब सिर्फ सुमोपा को ही पढ़ते हैं।
दिलचस्प विवरण।
अजित जी पाठक साहब का मुकाबला नहीं,लम्बे अरसे तक सोहल, सुनील, सुधीर वगैरह भीतर उगे रहे.
काश लीलावती मुझे भी मिल जाती तो मैं भी गणित से डरता नहीं . दिवेदी जी की लिखी जीवनी किसी रोचक उपन्यास से कम नहीं .
बहुत ही रोचक
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बहुत ही रोचक विवरण लगा.पढ़ते समय सारी दृश्यावली जीवित हो उठी.पढ़कर आनंद आगया.
बहुत रोचक जिक्र चल रहा है... अभी पिछला भी पढ़ कर आ रहा हूँ. जारी रहे. ये रिजल्ट कितने दिनों बाद देखा आपने... दसवी का रिजल्ट तो हमने भी कुछ दिनों बाद देखा था :)
बहुत रोचक रहा :)
जासूसी उपन्यास तो हमने भी खूब बांचे।
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