... वकील साब दिनेशराय द्विवेदी उर्फ सरदार के बकलमखुद की अन्तिम कड़ी...
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प्रस्तुतकर्ता
अजित वडनेरकर
पर
2:31 AM
बहुत शोधपरक, उपयोगी और महत्वपूर्ण जानकारियां। हिंदी में इतनी संलग्नता के साथ ऐसा परिश्रम करने वाले विरले ही होंगे।
'शब्दों का सफर' मुझे व्यक्तिगत रूप से हिन्दी का सबसे समृद्ध और श्रमसाध्य ब्लॉग लगता रहा है।
आप के समर्पण और लगन के लिए मेरे पास ढेर सारी प्रशंसा है और काफ़ी सारी ईर्ष्या भी।
सच कहूँ ,ब्लॉग-जगत का सूर और ससी ही है शब्दों का सफ़र . बधाई.... अंतर्मन से
लिखते रहें. यह मेरे इष्ट चिट्ठों मे से एक है क्योंकि आप काफी उपयोगी जानकारी दे रहे हैं.
थोड़े में कितना कुछ कह जाते हैं आप. आपके ब्लाँग का नियमित पारायण कर रहा हूं और शब्दों की दुनिया से नया राब्ता बन रहा है.
आपकी मेहनत कमाल की है। आपका ये ब्लॉग प्रकाशित होने वाली सामग्री से अटा पड़ा है - आप इसे छपाइये !
बेहतरीन उपलब्धि है आपका ब्लाग! मैं आपकी इस बात की तारीफ़ करता हूं और जबरदस्त जलन भी रखता हूं कि आप अपनी पोस्ट इतने अच्छे से मय समुचित फोटो ,कैसे लिख लेते हैं.
सोमाद्रि
इस सफर में आकर सब कुछ सरल और सहज लगने लगता है। बस, ऐसे ही बनाये रखिये. आपको शायद अंदाजा न हो कि आप कितने कितने साधुवाद के पात्र हैं.
शब्दों का सफर मेरी सर्वोच्च बुकमार्क पसंद है -मैं इसे नियमित पढ़ता हूँ और आनंद विभोर होता हूँ !आपकी ये पहल हिन्दी चिट्ठाजगत मे सदैव याद रखी जायेगी.
भाषिक विकास के साथ-साथ आप शब्दों के सामाजिक योगदान और समाज में उनके स्थान का वर्णन भी बडी सुन्दरता से कर रहे हैं।आपको पढना सुखद लगता है।
आपकी मेहनत को कैसे सराहूं। बस, लोगों के बीच आपके ब्लाग की चर्चा करता रहता हूं। आपका ढिंढोरची बन गया हूं। व्यक्तिगत रूप से तो मैं रोजाना ऋणी होता ही हूं.
आपकी पोस्ट पढ़ने में थोड़ा धैर्य दिखाना पड़ता है. पर पढ़ने पर जो ज्ञानवर्धन होताहै,वह बहुत आनन्ददायक होता है.
किसी हिन्दी चिट्ठे को मैं ब्लागजगत में अगर हमेशा जिन्दा देखना चाहूंगा, तो वो यही होगा-शब्दों का सफर.
निश्चित ही हिन्दी ब्लागिंग में आपका ब्लाग महत्वपूर्ण है. जहां भाषा विज्ञान पर मह्त्वपूर्ण जानकारी उपलब्ध रह्ती है. 
good,innovative explanation of well known words look easy but it is an experts job.My heartly best wishes.
चयन करते हैं, जिनके अर्थ को लेकर लोकमानस में जिज्ञासा हो सकती हो। फिर वे उस शब्द की धातु, उस धातु के अर्थ और अर्थ की विविध भंगिमाओं तक पहुँचते हैं। फिर वे समानार्थी शब्दों की तलाश करते हुए विविध कोनों से उनका परीक्षण करते हैं. फिर उनकी तलाश शब्द के तद्भव रूपों तक पहुंचती है और उन तद्बवों की अर्थ-छायाओं में परिभ्रमण करती है। फिर अजित अपने भाषा-परिवार से बाहर निकलकर इतर भाषाओँ और भाषा-परिवारों में जा पहुँचते हैं। वहां उन देशों की सांस्कृतिक पृष्टभूमि में सम्बंधित शब्द का परीक्षणकर, पुनः समष्टिमूलक वैश्विक परिदृश्य का निर्माण कर देते हैं। यह सब रचनाकार की प्रतिभा और उसके अध्यवसाय के मणिकांचन योग से ही संभव हो सका है। व्युत्पत्तिविज्ञान की एक नयी और अनूठी समग्र शैली सामने आई है।
16.चंद्रभूषण-
[1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8 .9. 10. 11. 12. 13. 14. 15. 17. 18. 19. 20. 21. 22. 23. 24. 25. 26.]
15.दिनेशराय द्विवेदी-[1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8. 9. 10. 11. 12. 13. 14. 15. 16. 17. 18. 19. 20. 21. 22.]
13.रंजना भाटिया-
12.अभिषेक ओझा-
[1. 2. 3.4.5 .6 .7 .8 .9 . 10]
11.प्रभाकर पाण्डेय-
10.हर्षवर्धन-
9.अरुण अरोरा-
8.बेजी-
7. अफ़लातून-
6.शिवकुमार मिश्र -
5.मीनाक्षी-
4.काकेश-
3.लावण्या शाह-
1.अनिताकुमार-
शब्दों के प्रति लापरवाही से भरे इस दौर में हर शब्द को अर्थविहीन बनाने का चलन आम हो गया है। इस्तेमाल किए जाने भर के लिए ही शब्दों का वाक्यों के बाच में आना जाना हो रहा है, खासकर पत्रारिता ने सरल शब्दों के चुनाव क क्रम में कई सारे शब्दों को हमेशा के लिए स्मृति से बाहर कर दिया। जो बोला जाता है वही तो लिखा जाएगा। तभी तो सर्वजन से संवाद होगा। लेकिन क्या जो बोला जा रहा है, वही अर्थसहित समझ लिया जा रहा है ? उर्दू का एक शब्द है खुलासा । इसका असली अर्थ और इस्तेमाल के संदर्भ की दूरी को कोई नहीं पाट सका। इसीलिए बीस साल से पत्रकारिता में लगा एक शख्स शब्दों का साथी बन गया है। वो शब्दों के साथ सफर पर निकला है। अजित वडनेरकर। ब्लॉग का पता है http://shabdavali.blogspot.com दो साल से चल रहे इस ब्लॉग पर जाते ही तमाम तरह के शब्द अपने पूरे खानदान और अड़ोसी-पड़ोसी के साथ मौजूद होते हैं। मसलन संस्कृत से आया ऊन अकेला नहीं है। वह ऊर्ण से तो बना है, लेकिन उसके खानदान में उरा (भेड़), उरन (भेड़) ऊर्णायु (भेड़), ऊर्णु (छिपाना)आदि भी हैं । इन तमाम शब्दों का अर्थ है ढांकना या छिपाना। एक भेड़ जिस तरह से अपने बालों से छिपी रहती है, उसी तरह अपने शरीर को छुपाना या ढांकना। और जिन बालों को आप दिन भर संवारते हैं वह तो संस्कृत-हिंदी का नहीं बल्कि हिब्रू से आया है। जिनके बाल नहीं होते, उन्हें समझना चाहिए कि बाल मेसोपोटामिया की सभ्यता के धूलकणों में लौट गया है। गंजे लोगों को गर्व करना चाहिए। इससे पहले कि आप इस जानकारी पर हैरान हों अजित वडनेरकर बताते हैं कि जिस नी धातु से नैन शब्द शब्द का उद्गम हुआ है, उसी से न्याय का भी हुआ है। संस्कृत में अरबी जबां और वहां से हिंदी-उर्दू में आए रकम शब्द का मतलब सिर्फ नगद नहीं बल्कि लोहा भी है। रुक्कम से बना रकम जसका मतलब होता है सोना या लोहा । कृष्ण की पत्नी रुक्मिणी का नाम भी इस रुक्म से बना है जिससे आप रकम का इस्तेमाल करते हैं। ऐसे तमाम शब्दों का यह संग्रहालय कमाल का लगता है। इस ब्लॉग के पाठकों की प्रतिक्रियाएं भी अजब -गजब हैं। रवि रतलामी लिखते हैं कि किसी हिंदी चिट्ठे को हमेशा के लिए जिंदा देखना चाहेंगे तो वह है शब्दों का सफर । अजित वडनेरकर अपने बारे में बताते हुए लिखते हैं कि शब्द की व्युत्पत्ति को लेकर भाषा विज्ञानियों का नज़रिया अलग अलग होता है। मैं भाषाविज्ञानी नहीं हूं, लेकिन जज्बा उत्पति की तलाश में निकलें तो शब्दों का एक दिलचस्प सफर नजर आता है। अजित की विनम्रता जायज़ भी है और ज़रूरी भी है क्योंकि शब्दों को बटोरने का काम आप दंभ के साथ तो नहीं कर सकते। इसीलिए वे इनके साथ घूमते-फिरते हैं। घूमना-फिरना भी तो यही है कि जो आपका नहीं है, आप उसे देखने- जानने की कोशिश करते हैं। वरना कम लोगों को याद होगा कि मुहावरा अरबी शब्द हौर से आया है, जिसका अर्थ होता है परस्पर वार्तालाप, संवाद । शब्दों को लेकर जब बहस होती है तो यह ब्लॉग और दिलचस्प होने लगता है। दिल्ली से सटे उत्तर प्रदेश के नोएडा का एक लोकप्रिय लैंडमार्क है- अट्टा बाजार। इसके बारे में एक ब्लॉगर साथी अजित वडनेरकर को बताता है कि इसका नाम अट्टापीर के कारण अट्टा बाजार है, लेकिन अजित बताते हैं कि अट्ट से ही बना अड्डा । अट्ट में ऊंचाई, जमना, अटना जैसे भाव हैं, लेकिन अट्टा का मतलब तो बाजार होता है। अट्टा बाजार । तो पहले से बाजार है उसके पीछे एक और बाजार । बाजार के लिए इस्तेमाल होने वाला शब्द हाट भी अट्टा से ही आया है। इसलिए हो सकता है कि अट्टापीर का नामकरण भी अट्ट या अड्डे से हुआ हो। बात कहां से कहा पहुंच जाती है। बल्कि शब्दों के पीछे-पीछे अजित पहुंचने लगते हैं। वो शब्दों को भारी-भरकम बताकर उन्हें ओबेसिटी के मरीज की तरह खारिज नहीं करते। उनका वज़न कम कर दिमाग में घुसने लायक बना देते हैं। हिंदी ब्लॉगिंग की विविधता से नेटयुग में कमाल की बौद्धिक संपदा बनती जा रही है। टीवी पत्रकारिता में इन दिनों अनुप्रास और युग्म शब्दों की भरमार है। जो सुनने में ठीक लगे और दिखने में आक्रामक। रही बात अर्थ की तो इस दौर में सभी अर्थ ही तो ढूंढ़ रहे हैं। इस पत्रकारिता का अर्थ क्या है? अजित ने अपनी गाड़ी सबसे पहले स्टार्ट कर दी और अर्थ ढूंढ़ने निकल पड़े हैं। --रवीशकुमार [लेखक का ब्लाग है http://naisadak.blogspot.com/ ]
मुहावरा अरबी के हौर शब्द से जन्मा है जिसके मायने हैं परस्पर वार्तालाप, संवाद।
लंबी ज़ुबान -इस बार जानते हैं ज़ुबान को जो देखते हैं कितनी लंबी है और कहां-कहा समायी है। ज़बान यूं तो मुँह में ही समायी रहती है मगर जब चलने लगती है तो मुहावरा बन जाती है । ज़बान चलाना के मायने हुए उद्दंडता के साथ बोलना। ज्यादा चलने से ज़बान पर लगाम हट जाती है और बदतमीज़ी समझी जाती है। इसी तरह जब ज़बान लंबी हो जाती है तो भी मुश्किल । ज़बान लंबी होना मुहावरे की मूल फारसी कहन है ज़बान दराज़ करदन यानी लंबी जीभ होना अर्थात उद्दंडतापूर्वक बोलना।
दांत खट्टे करना- किसी को मात देने, पराजित करने के अर्थ में अक्सर इस मुहावरे का प्रयोग होता है। दांत किरकिरे होना में भी यही भाव शामिल है। दांत टूटना या दांत तोड़ना भी निरस्त्र हो जाने के अर्थ में प्रयोग होता है। दांत खट्टे होना या दांत खट्टे होना मुहावरे की मूल फारसी कहन है -दंदां तुर्श करदन
अक्ल गुम होना- हिन्दी में बुद्धि भ्रष्ट होना, या दिमाग काम न करना आदि अर्थों में अक्ल गुम होना मुहावरा खूब चलता है। अक्ल का घास चरने जाना भी दिमाग सही ठिकाने न होने की वजह से होता है। इसे ही अक्ल का ठिकाने न होना भी कहा जाता है। और जब कोई चीज़ ठिकाने न हो तो ठिकाने लगा दी जाती है। जाहिर है ठिकाने लगाने की प्रक्रिया यादगार रहती है। बहरहाल अक्ल गुम होना फारसी मूल का मुहावरा है और अक्ल गुमशुदन के तौर पर इस्तेमाल होता है।
दांतों तले उंगली दबाना - इस मुहावरे का मतलब होता है आश्चर्यचकित होना। डॉ भोलानाथ तिवारी के मुताबिक इस मुहावरे की आमद हिन्दी में फारसी से हुई है फारसी में इसका रूप है- अंगुश्त ब दन्दां ।
22 कमेंट्स:
ईमानदार और बेहतरीन सफर रहा वकील साहब के साथ. अति आनन्द दायक. उन्हें भरपूर उनकी कलम के माध्यम से जानने का मौका मिला.
अजित भाई, गजब का सराहनीय कदम है यह. जारी रहिये.
जज्बये ब्लागिरी को सलाम ! आपकी अध्यवसायिता,समर्पण ,कठिन श्रम की आदत सभी से कुछ आतंकित तो बहुत कुछ प्रेरित भी हुआ हूँ ! खुद से परिचित कराने के इस अनुष्ठान के समापन पर मैं भावों से आप्लावित हूँ -कई तरह के ,उनमें एक तो शब्दों का सफ़र के प्रति कृतज्ञता भी है जिसने यह यग्य स्थल उपलब्ध किया है ऐसे अनुष्ठानों के लिए ...और आपके प्रति भी कई तरह के स्थायी अस्थायी भाव हैं -मगर अभी रोकते हैं उन्हें व्यक्त होने को....साथ साथ हैं हम भी डगर पर .....कभी आगे पीछे .....
@ सभी को एक उस रास्ते की तलाश है, जो देश और दुनिया को उस रास्ते पर ले जाए जहाँ सभी मनुष्य एक श्रेष्ठ जीवन जी सकें। यदि किसी भी व्यक्ति में इस रास्ते की तलाश शेष हो तो तमाम दुराग्रहों के उपरांत भी वह एक इंसान हो सकता है। तलाश के इस मार्ग में वह लोगों को सुनने-गुनने और स्वयं में परिवर्तन के लिए सदैव तैयार रहे तो सरदार का विश्वास है कि ऐसे तमाम लोग मतभेदों के बावजूद लक्ष्य की ओर चल सकते हैं, लक्ष्य के निकट पहुँचते-पहुँचते सब एक ही रास्ते के राही होंगे।
यह इस श्रृंखला का माखन है। मेरे लिए अनवरत पढ़ना या यह श्रृंखला
पढ़ना रिकॉर्ड बनाने जैसा रहता है/रहा है - बहुत बहुत कम टिप्पणी करते हैं/किए। मौन रह कर ही चले जाना अच्छा लगता है।
जनंतर कथा के लिए तो मैं ग़ैर ब्लॉगर लोगों से भी कहता रहा कि पढ़ लो। अब ये बात अलग है कि वे लोग मुझे ब्लॉगरी का एडिक्टेड समझ मुस्काते रहे :(
चित्रों के साथ तो ये पोस्ट वाकई में जीवन्त हो गई!
"आत्मिक संबंध कहाँ साक्षात के मोहताज है? चित्त में ही मूर्त होने वाले (चिन्मात्र मूर्तये) से भी लोग आजीवन संबंध बनाए लेते हैं। ब्लागीरी में कम से कम आभासी पर्दे पर तो लोग मूर्त हैं। सरदार का ब्लागीरी से संबंध अटूट और आजीवन है, सरदार जब तक है यहाँ बना रहेगा। सब के लिए बेहतर जीवन की उस की तलाश जारी रहेगी।"
आपकी इन पंक्तियों से ब्लॉगरी से जुड़े आपके सरोकार अभिव्यक्त हुए । अंतिम पंक्ति ने तो विभोर कर दिया मुझे - "सब के लिये बेहतर जीवन की तलाश !"
ब्लॉगरी के लिये यदि कह रहे हैं आप, तो सच्ची भारतीय मनीषा का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं । विचार के माध्यम से जीवन की सच्चाई का अन्वेषण । सच्चे बुद्धिजीवी का कार्य है ही क्या सिवाय इसके ? जीवन की समस्या और उसकी बेहतरी की अदम्य इच्छा, जीवन के मूल्यों को समाज-सापेक्षया परिभाषित करते रहने की चाह, अच्छे-बुरे, नैतिक-अनैतिक आदि का विवेकार्जन ! यही न !
ब्लॉगरी से बेहतर जीवन की तलाश का उदात्त लक्ष्य आपको ऐसे व्यक्तित्व की गरिमा देता है जो ’जो है’ का अवलोकन तो करता ही है, ’जो होना चाहिए” उसका विचार भी करता है ।
यह संवहन है critical consciousness का !
सफर जीवन्त रहा।
रोचक श्रंखला का भाव-विभोर कर देने वाला समापन।
जनतंतर एक अनूठी, सारगर्भित श्रंखला रही है। इसे एक पुस्तिका का रूप देना बेहतर होगा।
यह सच है कि ब्लॉगिंग ने हमें बहुत कुछ दिया है। यहाँ भी, मतभेद होते हुए बहुत कुछ एक-दूसरे से सीखने को मिलता है और मतभेदों के बावजूद हम बेहतर जीवन के लक्ष्य की ओर चल सकते हैं।
जो भी हो, हम साथ-साथ हैं।
बी एस पाबला
आदरणीय द्विवेदी जी ,
आपका लेखन मजेदार तो था ही जीवन के कई अद्भुत अनुभव भी देगया जो सभी के काम आएंगे /आपने एक बहुत महत्त्वपूर्ण मुद्दा जो उठा दिया कि जो सम्बन्ध शब्दों पर आधारित हों वे आभासी कैसे हो सकते हैं ?आपने आनंदित किया ,गुदगुदाया और सिखाया भी ,जाते जाते आप कि भावनापूर्ण प्रस्तुति के लिए हम सभी हिंदी ब्लोग्गेर्स का हार्दिक आभार ,धन्यवाद आपको भी और भाई जी को भी क्योंकि इस प्रस्तुति का श्रेया उन्हें भी जाता है /बकलम खुद अब आपकी जिंदगी का एक दस्तावेज हो गया है ,आप चाहें तो इस पर आत्मकथा की इमारत खडी हो सकती है /आपके सम्रद्ध ,सुखी ,स्वस्थ जीवन की अनंत मंगल कामनाएं ,आदर ,स्नेह /आपका ही ,
डॉ.भूपेन्द्र रीवा
एक अ-सरदार को ''सरदार'' साबित करती...असरदार लेखनी, जीवन की सच्चाइयों की रोचक प्रस्तुति, ब्लोगिंग के क्षेत्र को नए आयाम देती हुई, साहित्यिक रस से भरपूर आत्म-कथा, संघर्षरत एक आम आदर्श भारतीय चरित्र का दर्शन करवाती शब्दों के सफ़र में ''बाकलम खुद'' की अंतिम कड़ी तक पहुंचाते हुए दिनेशराय जी द्विवेदी भाव-विभोर कर गए है, धन्यवाद आपको और अजित जी को भी एक उम्दा प्लेटफोर्म उपलब्ध करवाने के लिए.
बस यही दुआ है...हिंदी ब्लॉगिंग को सरदार की सरपरस्ती यूंही हमेशा मिलती रहे...ये द्विवेदी सर का बिना किसी लाग-लपेट सीधी सच्ची बात कहना और प्यार बांटना ही है जिसने सबको उनका मुरीद बना रखा है...
जय हिंद...
ब्लॉगिंग की आभासी दुनिया से निकल कर जब दिनेश राय द्विवेदी जी को अपने समक्ष रुबरू पाया...उनकी बातें सुनी... तो पाया कि वो विभिन्न मुद्दों पे गहरी पकड़ रखते हुए तथ्यजनक ढंग से अपनी बात रखते हैँ...
आपसे मिलकर बहुत अच्छा लगा
द्विवेदी सर ने एक श्रेष्ट राह बनायी है, वे बहुतों के प्रेरणा स्रोत भी है. इस सफ़र के मुसाफिर और भी कई लोग हैं. यहाँ सबसे महत्वपूर्ण और सुखद यही है की हम ऐसे संबंधों को पुरखुलुशी से जी रहे हैं.
जीवंत सफ़र चलता रहे.
आदरणीय द्विवेदी जी आपको प्रणाम करता हूं।आप सरदार ऐसे ही नही है,आप ब्लाग परिवार के भी सरदार हैं।आपकी ब्लागिंग का सफ़र ज़ारी रहे अनवरत।
सफर जीवन्त रहा मैं तो दिवेदी जी की प्रतिभा कर्मनिष्ठा से बहुत प्रभावित हूँ इस के साथ साथ उनकी सुहृदयता भी सब को बान्ध लेती है ।ये ब्लागिरी शायद सब के लिये वरदान साबित होगी। शुभकामनायें और धन्यवाद्
अंतिम कड़ी शब्द देख, थोड़ा दु:ख हुआ फिर लगा हर बात का समापन तो होता ही है. प्रतीक्षा रहेगी एक और प्रारम्भ की.
एक रोचक ,प्रेरणादायक सफ़र था सरदार के साथ हमारा . बकलमखुद को एक ऊचाई जो आपने दी है आने वाले लोगो के लिए प्रेरित करती रहेगी
हम तो आपके फैन कब से हैं :) इस श्रृंखला से बहुत करीब से जानने का अवसर मिला.
इस पड़ाव के दौरान कई सीख मिलीं, अनुभवों के छन्ने से निकली ऐसी सीख जो जिंदगी में लगातार काम आती रहेंगी। सरदार का आभार और भविष्य के लिए शुभकामनाएं।
शब्दों का सफर पर बकलमखुद की पहल सिर्फ इसलिए की गई थी ताकि आभासी दुनिया के लोग, एक दो ईमेल के पत्राचार के बाद एक दूसरे के मित्र तो बन जाते हैं, पर पूरी तरह जान नहीं पाते। सिर्फ आभासी बने रहने का आग्रह हमें खुलने नहीं देता। जब तक इस आभासी आवरण को न हटाया जाए, तब तक बात नहीं बनती।
अलग-अलग क्षेत्रों से जुड़े ब्लागर साथियों के निजी अनुभवों से कुछ सीखने, प्रेरित होने की चाह लिए यह स्तम्भ शुरु किया गया था। आज बीते डेढ़ साल में यह उस मुकाम पर पहुंच गया है जहां द्विवेदी जी जैसे अनुभव से तपे लोग अपनी अनकही से हमें प्रेरित कर रहे हैं। शुक्रिया साहेब और शुभकामनाएं।
मैं देख रहा हूं, हिन्दी समाज जैसा ही हिन्दी ब्लागजगत भी है। बिना आत्मीय हुए यहां हम जैसों का निर्वाह नहीं, सो रिश्ते भी बन रहे हैं और आत्मीय साझेदारियां बढ़ रही हैं। शब्दों का सफर के सभी साथियों का आभार...
हमे तो लग रहा था कि अभी बहुत से मोड़ बाकी है इस सफर मे .. ।
अनवरत श्रृंखला यहां समाप्त हुई सी लगती है...
ब्लॉगिंग चलती रहेगी दोस्तों...अनवरत...
बीच की चैन की सांसों में हम भी शामिल हैं...
द्विवेदी जी के इस आत्मकथात्मक आलेख ने आरंभ से अंत तक बांधे रखा। हार्दिक धन्यवाद।
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