Friday, January 15, 2010

फाटक, फुरती और विस्फोट

 big-bang

क्सर बंद दरवाज़े नहीं खुलते तब उन्हें तोड़ा जाता है और तब भी राह न बनें तो विस्फोट किया जाता है। विस्फोट और फाटक में दरअसल पुरानी रिश्तेदारी है। विस्फोट शब्द जिस धातु से बना है, उसी से बना है हिन्दी का फाटक। गौर करें कि दरवाज़ा, द्वार अथवा अंग्रेजी का डोर भारोपीय मूल के शब्द हैं। इसी मूल से जन्मा है दर्रा यानी दो पहाड़ों के बीच का संकरा स्थान जहां से पर्वतीय उपत्यका या वादी में प्रवेश आसान होता है। संस्कृत में एक धातु है स्फट् जिसमें विभाजन, दो हिस्सों में बंटना, टूटना आदि भाव हैं। गौर करें कि किसी वस्तु का विभाजन दरअसल विस्तार की क्रिया है। बंटवारा होने पर विस्तार ज़रूर होता है। मात्रा चाहे उतनी ही रहे, आकार बढ़ जाता है। दरअसल स्फट् में ध्वनि अनुकरण का लक्षण स्पष्ट है। प्रकृति में विभीषिका और विध्वंस की घटनाओं में मानव ने स्फट् या फट्  ध्वनियों को अपने मन में सहेजा। उनका अध्ययन कर उससे जुड़े विभिन्न अर्थों को ग्रहण करते हुए भाषा में  सहेज लिया। यूं देखें तो समूची सृष्टि ही महाविस्फोट अर्थात बिगबैंग से जन्मी है। सृजन को ध्यान में रखे तो उसमें विस्तार का गुण ही महत्वपूर्ण है। देवनागरी के फ वर्ण में विस्तार का भाव विलक्षण है।  

संस्कृत की स्फ ध्वनि में विभाजन, कंपन, आघात, फैलाव जैसे भाव जुड़ते हैं। गौर करें कि हिन्दी-संस्कृत का sआम शब्द है फुरती या फुरतीला। इसका तत्सम रूप है स्फूर्ति जिसका शाब्दिक अर्थ है उत्साही, तेजी से काम करनेवाला या ऊर्जावान। यह बना है स्फुर् धातु से जन्में स्फूर्तिः से जिसमें कंपन, जगमग, अकस्मात जागृत या चेतन होना, तेज क्रियाशीलता, चौकड़ी भरना आदि भाव समाए हैं। चेतना के अर्थ में स्फुरण शब्द का प्रयोग संस्कारी हिन्दी में होता है। चंचल, चपल या फुरतीले जीव के शरीर में हमेशा कम्पन होता है। वह हमेशा क्रियाशील रहने को तत्पर रहता है। कम्पन में मूल रूप से कांपना का भाव न होकर क्रिया कि तीव्रता का भाव है। कम्पन यानी तेजी।  स्फुट् में निहित विभाजन का अर्थ जुड़ता है दरवाजे के अर्थ में प्रचलित फाटक शब्द से। जॉन प्लैट्स के हिन्दुस्तानी-उर्दू-इंग्लिश कोश के अनुसार इसका संस्कृत रूप है स्फाटः+कः से जिसका अर्थ हुआ द्वार, गेट, आगम, दर्रा, दरवाज़ा आदि। जाहिर है जहां से प्रवेश होता है वह स्थान चौड़ा, फैला हुआ होता है। सामान्य दो पल्लों वाले द्वार की कल्पना करें तो सहज ही समझ में आता है कि स्फुट्  में निहित विभाजन या बांटने वाले अर्थ का फाटक के संदर्भ में क्या महत्व है। हालांकि ख्यात भाषाविद् रामचंद्र वर्मा अपनी कोशकला पुस्तक मे इसकी व्युत्पत्ति संस्कृत के कपाट शब्द से बताते हैं। उनका कहना है कि कपाट का रूपांतर कपाटकः में हुआ फिर इसमें से क लुप्त हुआ और पाटकः बचा जो बाद में फाटक बना। कपाट से फाटक शब्द की व्युत्पत्ति कहीं अधिक तार्किक लगती है।
तेज आवाज़ या धमाके के लिए हिन्दी में विस्फोट शब्द भी खूब प्रचलित है जो इसी धातु से आ रहा है। धमाका दरअसल तेज आवाज के साथ किसी वस्तु के विभाजित होने, छितराने या फैलने की क्रिया है। फटना शब्द बड़ा आम है जो स्फुट से ही बना है। बम का फटना ही विस्फोट है। यूं इस विस्फोट को फाटक से नहीं जोड़ा जा सकता मगर किसी वजह से मूल रचना के विभाजन या उसके विस्तार में आए परिवर्तन, विस्तार या फैलाव को स्फुट् धातु से बने शब्द व्यक्त कर रहे हैं। स्फुर्, स्फुट की कड़ी में स्फुल् धातु भी आती है। बिजली, तड़ित या आग की चिंगारी को स्फुल्लिंग कहते हैं। और में परिवर्तन आम बात है। स्फुर का ही अगला रूप स्फुल् हुआ जिसमें कंपकंपाना, विस्तार होना जैसे भाव हैं। संस्कृत की एक अन्य धातु है फू जिसमें फूंक मारना, हवा भरना जैसे भाव हैं। जाहिर है किसी वस्तु को फूंक मारने से वह दूर जाती है  यानी दूरी का विस्तार होता है। चारों ओर से बंद वस्तु के भीतर हवा भरने से उसका आकार बड़ा होता है अर्थात वह फूलती है। यह फूलना, फैलना जैसी क्रियाएं भी इसी मूल से आ रही है। कलियों के खिलने की क्रिया को भी फूलना कहते हैं और कली की पूर्ण विकसित-विस्तारित अवस्था इसीलिए फूल कहलाती है। रोटी, चपाती का एक नाम फुलका भी है जो इसी मूल से आ रहा है। जो रोटी सेंकते वक्त गर्म भाप से फूल जाए उसे ही फुलका कहते हैं। ये अलग बात है कि फुलाने से पहले उसे हथेलियों पर  थपकी देकर, चपत लगाकर चपटा किया जाता है। इसी क्रिया के चलते उसे चपाती नाम भी मिल गया। यानी पेट में जाने से पहले रोटी ने एक साथ कई शब्दरूपों में जन्म लिया!!
ल शब्द के मूल में भी वर्ण का विस्तारवादी रुख नजर आ रहा है। फल् धातु का अर्थ है पकना, फटना, परिणाम आना आदि। 339147किसी कार्य का पूरा होने का तथ्य जब सिर्फ व्यक्ति विशेष तक सीमित नहीं रहता है, तब वह सूचना कहलाती है। उसे सार्वजनिक करने, विस्तारित करने की क्रिया ही घोषणा है। फल मिलना या फल आना अपने आप में ऐसे तथ्य हैं जिन्हें कभी न कभी सूचना बनना ही है अर्थात उनका विस्तार होना ही है। खेती का सबसे महत्वपूर्ण उपकरण हल कहलाता है। उसके सिरे पर लगा लोहे का तीखा हिस्सा फल कहलाता है जिसका काम सूखी कठोर धरती को दो भागों में विभाजित करना है। यह भूमि में उस द्वार या फाटक का निर्माण करता है जिससे होकर बीज धरा के गर्भ में जाता है। फिर प्रकृति खुद उसमें जीवन ऊर्जा भरती है कि वह धरा का पेट चीर कर, अन्नकण बनकर बाहर आता है। यह अन्नकण एक आवरण में लिपटा रहता है जिसे शल्क या छिलका कहते हैं। भोजन योग्य बनाने से पहले इसे फटका जाता है। फटकने की यह क्रिया अन्नकण या बीज से उस छिलके को दूर करना ही है। किसी वस्तु से सम्प्रक्त अन्य पदार्थ को दूर करना भी विस्तार के दायरे में ही आता है। फटकना में इसे स्पष्ट समझा जा सकता है।
क पत्थर का नाम स्फटिक है। आकर्षक श्वेत आभा वाला यह पत्थर सूर्य की रोशनी में किरणें बिखेरता है मगर बेहद कच्चा होने की वजह से जल्दी टूटता भी है। पानी को शुद्ध करने वाली फिटकरी का नाम भी इसी मूल से आ रहा है। फलों का पकना और फिर सूख कर बिखरना प्रस्फुटन कहलाता है। यह फटना शब्द इसी स्फुट् से बना है। फटना ही विस्फोट है। इसका परिमाण इसे विध्वंसकारी बनाता है अन्यथा पका फल भी फटता है, आवाज भी फटती है, गुस्सा भी फटता है, काग़ज़ भी फटता है और दूध भी फटता है। फटने में विस्तार छुपा है। यह विस्तार विध्वंसकारी भी है और विकास का पर्याय भी। एक किशोर का जब कण्ठ  फूटता है तो उसके माता-पिता के लिए ये उसके वयस्क होने की राह पर सही विकास का लक्षण होता है। कोयल के कण्ठ से जब कूक फूटती है तब यह अनुकूल मौसम का संकेत होता है। सूखी ज़मीन से जब पानी का सोता फूटता है तो यह खुशहाली का संकेत होता है। बोवनी के बाद जब बीजों से अंखुवे फूटते हैं तो किसान के चेहरे से खुशी फूटने लगती है। मगर जब मानसून के बादल फटने से तबाही आती है तब न सिर्फ किसान बल्कि सामान्य जन का कलेजा भी दर्द से फटने लगता है।
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13 कमेंट्स:

Udan Tashtari said...

आभार ज्ञानवर्धक पोस्ट का.

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

फाटक, फुरती और विस्फोट!
मन पर करते सीधे चोट!!

dhiru singh { धीरेन्द्र वीर सिंह } said...

कुछ फूटना भी नए का संकेत है क्या

RAJ SINH said...

ज्ञानवर्धक विस्फोट !

अब समझा हमारे मित्र संजय तिवारी ने अपनी साईट का नाम ' विस्फोट ' क्यूं रखा :)

Baljit Basi said...
This comment has been removed by the author.
Vivek Ranjan Shrivastava said...

अजित जी , बहुत ही अच्छा ब्लाग ... कृपया बताये सही क्या है नई दिल्ली या नयी दिल्ली ?

दिनेशराय द्विवेदी said...

पुंकेसर फटता है
बिखर जाते है परागकण
शेष आधी दुनिया की तलाश में
किसी किसी को मिलती है, वह
होता है आरंभ फिर नवसृजन का

नवबीज लेता आकार
कहीं खोल के भीतर
जब हो जाता तैयार
तब फिर फटता है खोल
निकल आते हैं बीज
विश्वभ्रमण पर
तलाश में कि
कहीं मिले माटी
थोड़ी सी नमी और
कुछ हवा
कि उग सकें
ले सकें आकार
एक नए विश्व का।

इस फटने से ही सृष्टि का निर्माण है। प्रधान के फटने से ही गतिमय प्रकृति अस्तित्व में आती है और जब तक प्रलय न हो फिर से प्रकृति प्रधान न हो जाए यह गति विद्यमान रहती है। (सांख्य)

अजित वडनेरकर said...

@बलजीत बासी
कम से कम मैं ज्ञानी नहीं हूं। आप भी मेरे बारे में मुगालता न पालें। मैं जो पढ़ रहा हूं, सोच रहा हूं, यहां रख रहा हूं, साझा कर रहा हूं। मैने घुमाने का प्रयास नहीं किया है। विभाजन, फैलाव, विस्तार और फूलना जैसे भावों की रिश्तेदारी फ वर्ण से बताई है। संदर्भित शब्दों में चंद धातुएं हैं जिनका उल्लेख आपने किया है। फाटक शब्द तो सिर्फ पोस्ट की शुरुआत के लिए आधार है। यही सफर की शैली है। भाषाविज्ञानी नहीं हूं और न ही इसका शास्त्र पढ़ा है। सो कुछ अस्पष्टता रह सकती है। इसे आप जैसे सुधि लोगों के ध्यान दिलाने पर ठीक करता रहता हूं। यहां मैने दोबारा पढ़ा और घुमाने वाली बात से सहमत नहीं हूं। फाटक मूल में नहीं है, बल्कि फ वर्ण से जुड़े कुछ शब्द हैं जिनमें अंतर्संबंध की ओर इशारा किया है।

abcd said...

अजित भैय्या...शानदार जानकारी है

अजित वडनेरकर said...

@दिनेशराय द्विवेदी
ये तो शानदार कविता रच दी आपने टिप्पणी की जगह।
बहुत बढ़िया। सृजन का ही एक आयाम विस्तार है। जीवन में सृजन और विस्तार दोनों हैं। विस्तार शब्द में बहुत गहराई है।

निर्मला कपिला said...

यूं देखें तो समूची सृष्टि ही महाविस्फोट अर्थात बिगबैंग से जन्मी है। सृजन को ध्यान में रखे तो उसमें विस्तार का गुण ही महत्वपूर्ण है। देवनागरी के फ वर्ण में विस्तार का भाव विलक्षण है।
सही बात है। बहुत अच्छा लगा ये सफर भी शुभकामनायें

रंजना said...

वाह अतिरोचक और ज्ञानवर्धक विवेचना....आभार...

विष्णु बैरागी said...

आप चौंकाते भी हैं और भ्रम भी दूर करते हैं। शब्‍द समृध्‍द तो अइाप करते ही हैं।

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