Friday, March 19, 2010

अतिशय की महिमा अनंत

girmar-temples

मतौर पर हिन्दी में अतिशय शब्द का प्रयोग बहुत सारा, काफी, बहुलता, अत्यधिक, ज्यादा के अर्थ में होता है। काव्यशास्त्र में एक अलंकार का नाम भी इससे जुड़ा है जिसे अतिशयोक्ति (अतिशय + उक्ति) अलंकार कहते हैं। नाम से ही स्पष्ट है कि बहुत बढ़ा-चढ़ा कर कही गई बात को ही अतिशयोक्ति कहते हैं। इसके अलावा रोजमर्रा में जैन तीर्थों से संदर्भ में भी अतिशय क्षेत्र जैसा शब्द युग्म सुनने पढ़ने को मिलता है। सनातन धर्म से हटकर देखें तो भारत के सभी धर्मों में जैन धर्म ही सर्वाधिक प्राचीन है और देशभर में इससे जुड़े हजारों स्थान मौजूद हैं जिनमें से कई अतिशय क्षेत्र कहलाते हैं।  अतिशय शब्द की अर्थवत्ता बहुआयामी है और इसमें चमत्कार, प्रभाव, अधिकता, श्रेष्ठता, उत्तमता, विशिष्टता जैसे अनेकार्थ निहित हैं। जिन गुणों से तीर्थंकर समूचे जग को प्रकाशित करते हैं उन्हें अतिशय कहा जाता है। जाहिर सी बात है कि समाज को राह दिखानेवाले महापुरुषों का व्यक्तित्व रूप, गुण व वैभव में आम लोगों से कहीं अधिक प्रभावी होता है। यह विशिष्टता ही उन्हें अतिशयता प्रदान करती है। अतः अतिशय में अलौकिक या लोकोत्तर का भाव है।
तिशय शब्द संस्कृत की शी धातु में अति उपसर्ग लगने से बना है। शी धातु में लेटना, विश्रान्ति, आराम, निद्रा जैसे भाव हैं। इसमें अति- लगने से बनता है अतिशी जिसका अर्थ है देर तक सोना या जल्दी सोना। इसके अलावा इसमें आगे बढ़ना, श्रेष्ट होना जैसे भाव भी हैं। देर तक सोने का भाव शी धातु में निहित अर्थ से उत्पन्न है जबकि आगे बढ़ना और श्रेष्ठता जैसे भावों के मूल में शी से पूर्व लगे उपसर्ग अति- का योगदान है। संस्कृत का अति उपसर्ग बहुत महत्वपूर्ण है muktagiri1 जिसे संज्ञा या क्रिया से पूर्व लगा कर विशेषणों की रचना होती है। मुख्यतः इससे ऊंचा, आगे, उत्तम जैसे भावों की रचना होती है। अति बना है अत् धातु से जो गतिवाचक धातु है। बढ़ना, आगे जाना, चलना, घूमना जैसे अर्थ इसमें समाहित हैं। जाहिर है आगे बढ़ने में गति तो है ही, इससे आगे आने का भाव उभर रहा है जो गतिमान या बढ़नेवाली संज्ञा को विशिष्ट बनाता है। इस अत् का ही अगला रूप अट् है जिसमें भी यही भाव हैं और पर्यटन, देशाटन, तीर्थाटन जैसे जाने-पहचाने शब्द इससे ही निकले हैं mahavir-bhagwan-mahavir-swa जिनका अर्थ भी घूमना-फिरना ही है। अतिशी से बना अतिशय जिसका अर्थ आधिक्य, विशिष्टता, प्रमुखता, उत्कृष्टता, श्रेष्ठता आदि होता है। अतिशयन यानी आगे बढ़नेवाला। पर्यटन की तरह अतिशयन गतिवाची न होकर भाववाची है। आगे बढ़ने से अभिप्राय कर्म और गुण में बढ़ा-चढ़ा होना है।
जिनेन्द्र सिद्धान्त कोश के मुताबिक जैन तीर्थंकरों के विशिष्ट गुण ही अतिशय कहलाते हैं। तीर्थंकरों में चौंतीस अतिशय होते हैं जिनमें जन्मजात चार विशेषताएं (अतिशय) प्रमुख हैं -1. इनका स्वरूप लोकोत्तर होता है। मैल, पसीना या कोई दाग नहीं होता। 2. श्वासोच्छवास सुगंधित होता है। 3. वात्सल्य रूप होने के कारण उनके रुधिर का रंग लाल न होकर श्वेत होता है अर्थात दूध की तरह होता है। इसके अनुरूप ही त्वचा भी शुभ्र आभायुक्त होती है। 4. उनके नित्यकर्मों ( भोजन-विसर्जन )का आभास सामान्य मनुष्यों को नहीं होता।
प्राकृत शब्दकोश (पाइवसद्दमहण्णवो) के मुताबिक अतिशय का प्राकृत रूप अइसय है और जैन ग्रन्थों में अतिशय का संदर्भ इसी रूप में आता है। अतिशय यानी श्रेष्ठता, उत्तमता, महिमा, प्रभाव आदि। इसमें वैभवयुक्त व सम्पत्तिशाली, दूसरे को मात करनेवाला, चमत्कारिक और उत्कृष्टता का भाव भी है। जैन पंथ की मान्यता के मुताबिक तीर्थ चार प्रकार के होते हैं –1.सिद्ध क्षेत्र 2.अतिशय क्षेत्र 3.पूर्ण क्षेत्र 4.ज्ञान क्षेत्र। सिद्ध तीर्थ उन्हें कहते हैं जहां तीर्थंकर का वास रहा हो। वे तमाम स्थान जहां तीर्थंकर का जन्म, दीक्षा, कैवल्य ज्ञान, विहार अथवा मोक्ष प्राप्ति जैसी घटनाएं हुई हों, वे सभी सिद्ध क्षेत्र कहलाते हैं। अतिशय क्षेत्र वे हैं जहां प्राचीनकाल में जैन धर्म प्रभावी रहा था और जैन देवालयों की अधिकता हो। यहां स्थापित मंदिर व तीर्थंकरों की मूर्तियां अति प्राचीन, भव्य और कलात्मक हों। उनका सौन्दर्य अप्रतिम हो। इन प्रतिमाओं के साथ आभामंडल हो। स्थान का महा्त्म्य लोकमानस में चमत्कारपूर्ण हो। आस्था के अनुरूप यहां के अधिष्ठाता देव का प्रभामंडल लोगों में मंगलभावना उत्पन्न करता हो। इस क्षेत्र के साथ किसी न किसी प्रभावशीलता या चमत्कार की मान्यता अवश्य जुड़ी रहती है। ऐसे स्थान को अतिशय क्षेत्र कहते हैं।

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10 कमेंट्स:

Udan Tashtari said...

अतिशय महात्म का आभार!

Arvind Mishra said...

अतिशय सुन्दर

Sanjay Kareer said...

बहुत धन्‍यवाद बड़े भाई। अर्थ को लेकर अक्‍सर भ्रम होने लगता था। अब स्‍पष्‍ट हो गया और संतोष है कि मैं गलत नहीं था।

Gyan Dutt Pandey said...

अतिशी का अतिथि से भी कोई लिंक होगा। दोनो ही घोड़े बेच सोते हैं शायद! :-)

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

अच्छी जानकारी देने हेतु धन्यवाद

Baljit Basi said...

सारे विवेचन से आप यह नहीं स्पष्ट कर पाए कि 'अतिशय' शब्द में 'शी' धातु के भाव कहाँ गए. अगर अलोप हो गए हों तो क्यों और अगर कायम हैं तो कहाँ ? वैसे आप की यह पोस्ट बहुत ज्ञानवर्धक है.

dhiru singh { धीरेन्द्र वीर सिंह } said...

आपकी पोस्ट पढ्ने के बाद जब तक बलजित बसी की टिप्पणी ना पढे मज़ा नही आता . शोध पर नुक्ता लगाना उनका शगल है . यह अतिशय नही

उम्मतें said...

अजित भाई
अतिशयता सदैव उत्कृष्टता / उत्तमता / श्रेष्ठता नहीं हुआ करती अगर मैं गलत नहीं हूँ तो इसमें ज़ुल्म/अहंकार/नकारात्मकता का शेड भी है ! वापस आते ही ये लिखना पड़ेगा सोचा नहीं था लेकिन लोक प्रचलित मुहावरा 'अत्त मूतना' और बुंदेलखंड में प्रचलित 'अत्त कर रये' अति शब्द के इस भाव,यानि नकारात्मकता की पराकाष्ठा को अभिव्यक्त जरुर करते है ! वैसे'आतताई'शब्द के बारे में क्या विचार है ?

Himanshu Pandey said...

अति सुन्दर और ज्ञानवर्धक प्रविष्टि ! आभार ।

अजित वडनेरकर said...

अली भाई,
अतिशय विशिष्ट शब्द है और शब्दकोशों के अनुसार उसमें सकारात्मक विशिष्ट अर्थ ही हैं। अलबत्ता अतिशयता जैसा रूप जब हम बनाते हैं तो जाहिर है कि फिर यह विशेषण की श्रेणी में आता है और तब इसे जिस भी गुणवाची संज्ञा या क्रिया के साथ लगाएंगे वैसा अर्थ ध्वनित होगा। वैसे हिन्दी में अतिशय का प्रयोग अति विशेषण की तरह ही किया जाता है।

नीचे दिया गया बक्सा प्रयोग करें हिन्दी में टाइप करने के लिए

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