Sunday, March 27, 2011

पापड़ बेलने की मशक्कत

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कि सी वृक्ष या शरीर के ऊपरी हिस्से के उस स्तर को परत कहते हैं जो सूखने के बाद अपने मूल आधार को छोड़ देता है। इसी परत को पपड़ी भी कहा जाता है। पपड़ी आमतौर पर किसी पदार्थ की अलग हो सकनेवाली ऊपरी परत के लिए प्रयुक्त शब्द है किन्तु सामान्य तौर पर कोई भी परत, पपड़ी हो सकती है। भूवैज्ञानिक नज़रिये से धरती के कई स्तर हैं। धरती के सबसे ऊपरी स्तर को भी पपड़ी कहा जाता है। पपड़ी से मिलता जुलता एक अन्य शब्द है पापड़। चटपटा-करारा मसालेदार पापड़ भूख बढ़ा देता है और हर भोजनथाल की शान है। पपड़ी पापड़ सरीखी भी होती है, मगर पापड़ पपड़ी नहीं है। अर्थात पापड़ किसी चीज़ की परत नहीं है। स्पष्ट है कि पपड़ी के रूपाकार और लक्षणों के आधार पर पपड़ीनुमा दिखनेवाले एक खाद्य पदार्थ को पापड़ कहा गया। चना, उड़द या मूँग की दाल के आटे से बनी लोई को बेलकर खास तरीके से बनाई अत्यंत पतली-महीन चपाती को पापड़ कहते हैं। पापड़ बनाने की प्रक्रिया बहुत बारीक, श्रमसाध्य और धैर्य की होती है इसीलिए हिन्दी को इसके जरिए पापड़ बेलना जैसा मुहावरा मिला जिसमें कठोर परिश्रम या कष्टसाध्य प्रयास का भाव है। किसी ने भारी मेहनत के बाद अगर कोई सफलता पाई है तो कहा जाता है कि इस काम के लिए उसे बहुत पापड़ बेलने पड़े हैं। पापड़ में हालाँकि मशक्कत बहुत है और यह देश का यह प्रमुख कुटीर उद्योग है।
पड़ी और पापड़ शब्द का मूल एक ही है। संस्कृत के पर्पट, पर्पटक या पर्पटिका से पापड़ की व्युत्पत्ति मानी जाती है। हिन्दी समेत विभिन्न बोलियों में इसके मिलते-जुलते रूप मिलते हैं जैसे सिन्धी में यह पापड़ु है तो नेपाली में पापड़ो, गुजराती, हिन्दी, पंजाबी में यह पापड़ है। बंगाली में यह पापड़ी है। दक्षिण भारतीय भाषाओं में भी इससे मिलते  जुलते नामों से इसे पहचाना जाता है। मलयालम में यह पापडम् pappadam है तो कन्नड़ में इसे हप्पाला happala है। तमिल में इसे अप्पलम और पप्पपतम् pappaṭam कहते हैं। तेलुगू में इसे अप्पादम कहते हैं। भारतीय भाषाओं में प्रचलित पापड़ के 19 तरह के नाम  विकीपीडिया में दर्ज हैं। मराठी में छोटे पापड़ को पापड़ी कहा जाता है। पापड़ हमेशा मसालेदार तीता ही नहीं होता बल्कि मीठा भी होता है। महाराष्ट्र मे चावल या अनाज के आटे से एक विशेष चपाती बनाई जाती है जिसे पापड़ी कहते हैं। इसकी एक किस्म को गूळपापड़ी भी कहते हैं। पपड़ी की व्युत्पत्ति पर्पटिका से ज्यादा तार्किक है। रोटी की ऊपरी परत को मराठी में पापुद्रा कहते हैं जिसमें आवरण, कवच, रक्षापरत का भाव है। यह पापुद्रा भी पर्पट का विकास है कुछ इस तरह-पर्पटिका > पप्पड़िआ > पापुद्रा आदि। इसी तरह पर्पटक > पप्पटक > पप्पड़अ > पापड़ के क्रम में हिन्दी व्यंजनों की शब्दावली में एक नया शब्द जुड़ा।
र्पटक के मूल में संस्कृत की पृ धातु है जिसमें रखना, आगे लाना, काम कराना, रक्षा करना, जीवित रखना, उन्नति करना, पूरा करना, उद्धार करना, निस्तार करना जैसे भाव हैं। ध्यान रहे देवनागरी के वर्ण में ही रक्षा, बचाव जैसे भाव हैं। इसके साथ का मेल होने से बना पृ। याद रहे देवनागरी का अक्षर दरअसल संस्कृत भाषा का एक मूल शब्द भी है जिसका अर्थ है जाना, पाना। जाहिर है किसी मार्ग पर चलकर कुछ पाने का भाव इसमें समाहित है। इसी तरह के मायने गति या वेग से चलना है जाहिर है मार्ग या राह का अर्थ भी इसमें छुपा है। ऋ की महिमा से कई इंडो यूरोपीय भाषाओं जैसे हिन्दी, उर्दू, फारसी
fafdaमालवा, निमाड़, गुजरात और महाराष्ट्र में एक से डेढ़ फुट लम्बा, और कुछ कुछ गोलाई लिए हुए एक व्यंजन का नाम भी फाफड़ा है जो इसी पापड़ का रिश्तेदार होता है।
अंग्रेजी, जर्मन वगैरह में दर्जनों ऐसे शब्दों का निर्माण हुआ जिन्हें बोलचाल की भाषा में रोजाना इस्तेमाल किया जाता है। में राह दिखाने, पथ प्रदर्शन का भाव भी है। इसी से बना है ऋत् जिसका अर्थ है घूमना। वृत्त, वृत्ताकार जैसे शब्द इसी मूल से बने हैं। संस्कृत की ऋत् धातु से भी इसकी रिश्तेदारी है जिससे ऋतु शब्द बना है। गोलाई और घूमने का रिश्ता ऋतु से स्पष्ट है क्योंकि सभी ऋतुएं बारह महिनों के अंतराल पर खुद को दोहराती हैं अर्थात उनका पथ वृत्ताकार होता है। दोहराने की यह क्रिया ही आवृत्ति है जिसका अर्थ मुड़ना, लौटना, पलटना, प्रत्यावर्तन, चक्करखाना आदि है। खास बात यह कि किसी चीज़ को सुरक्षित रखने के लिए उसके इर्दगिर्द जो सुरक्षा का घेरा बनाया जाता है उसे भी आवरण कहते हैं। आवरण बना है वृ धातु से जिसमें सुरक्षा का भाव ही है।
सी तरह प में के मेल से पृ धातु बनी। इसमें प में निहित पालने पोसनेवाला अर्थ तो सुरक्षा से सबंद्ध है ही साथ ही इसके साथ ऋ में निहित चारों ओर से घिरे रहनेवाली सुरक्षा भाव भी पर्पट या पर्पटिका में जाहिर हो रहा है। पपड़ी मूलतः एक शल्क या छिलका ही होती है जिससे तने की या शरीर की सुरक्षा होती है। पपड़ी जैसा पदार्थ ही पापड़ है। मालवा, निमाड़, गुजरात और महाराष्ट्र में एक से डेढ़ फुट लम्बा, और कुछ कुछ गोलाई लिए हुए एक व्यंजन का नाम भी फाफड़ा है जो इसी पापड़ का रिश्तेदार होता है। मालवा में सेव-पपड़ी का भी खूब चलन है। हिन्दी शब्दसागर में पापड़ा या पापड़ी नाम के एक वृक्ष का भी उल्लेख है जो मध्यप्रदेश, बंगाल, मद्रास और पंजाब में होता है। इसकी पत्तियाँ खूब झड़ती है और इसकी खाल पीलापन लिए सफ़ेद होती है।

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Tuesday, March 22, 2011

कृति सम्मान की कुछ छवियाँ, कुछ बातें

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न दिनों शब्दों का सफ़र लगभग अनियमित है क्योंकि मैं सचमुच दूरियाँ नाप रहा हूँ। मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र के बीच। छह माह से यह क्रम जारी है। पहले सफ़र के पुस्तकाकार आने की तैयारी की व्यस्तता और अब दफ्तरी व्यवस्तता। छह साल के सतत सफ़र का प्रकाशित रूप सामने आया। किताब का विमोचन भोपाल में हुआ। सबने इसे सराहा। इस बीच पुस्तक के अगले खण्ड की पाण्डुलिपि के लिए राजकमल प्रकाशन का प्रतिष्ठित कृति सम्मान भी बीती अट्ठाईस फरवरी को मिला। कई साथियों को शिकायत थी कि इस आयोजन की विस्तार से ब्लॉगजगत में चर्चा नहीं हुई। अब इसके पीछे भी मेरी व्यस्तता ही वजह बनी। हालांकि कुछ अखबारों में इसके समाचार छपे। पुरस्कार के चयनकर्ताओं में ख्यात आलोचक नामवरसिंह, विश्वनाथ त्रिपाठी और प्रसिद्ध कोशकार अरविन्द कुमार थे। नामवरसिंह का वक्तव्य तो जानकी पुल ब्लॉग पर एक अलग संदर्भ में प्रकाशित हो चुका है। बाकी दोनों महानुभावों के वक्तव्य हमें कल ही प्राप्त हुए हैं जिन्हें सफ़र के साथियों से यहाँ साझा कर रहा हूँ। नुक्कड़ पर श्री अविनाश वाचस्पति ने समारोह की चित्रमय झाँकी पहले ही दिखा दी है। उससे भी पहले महाखबर के जरिए इस सम्मान पर ही प्रश्न भी खड़े हो चुके थे। यहाँ पेश हैं चंद और छवियाँ-

 

002कमलकान्त बुधकर, हरिकृष्ण देवसरे, विभा देवसरे के साथ 020पल्लव बुधकर तस्वीर लेते हुए
028लेले साहब, अशोक वाजपेयी और कमलकान्त बुधकर 033ख्यात आलोचक विश्वनाथ मिश्र के साथ
037पंकज बिष्ट और राजेन्द्र यादव 056अशोक माहेश्वरी और नामवरसिंह के साथ
005कृति-पाण्डुलिपि  के साथ 014पल्लव बुधकर के साथ
151समारोह से पहले-त्रिवेणी सभागार, दिल्ली 046मंच पर....
060अपनी बात 040नामवरसिंह, अविनाश वाचस्पति और राजेन्द्र यादव
156समारोह से पहले गपशप 170अनामिका, कमलकान्त बुधकर, अनिता ताटके व विश्वनाथ त्रिपाठी
177विश्वनाथ त्रिपाठी, वसंत बुधकर व कमलकान्त बुधकर 164रवीन्द्र शाह, नीलाभ मिश्र, मैत्रेयी पुष्पा व अन्य
उपन्यास का आनंद है सफ़र में
मैं श्री अजित वडनेरकर की पुस्तक शब्दों का सफर हाथ में आते ही उसे रुचिपूर्वक पढ़ गया। पुस्तक यद्यपि भाषा शास्त्र से सम्बन्धित है लेकिन पढ़ने में उपन्यास का आनन्द देती है। कहते हैं कि सच्चा ज्ञान आनन्द के द्वारा प्राप्त होता है। इस पुस्तक के पाठक भी मनोरंजन और कथा रस के आस्वाद की प्रक्रिया से ज्ञान-लाभ करेंगे। ऐसी पठनीय पुस्तकें आए दिन पढ़ने को नहीं मिलती जिसमें इतने सहज और अनायास पाठकों को जानकारी काखजाना मिले और यह समझने का मौका मिले कि भाषा में देश जाति धर्म आदि का बन्धन नहीं रहता। और वे मुक्त भाव से परस्पर आदान-प्रदान करते हुए विकसित और समृद्ध होती हैं। हमारी भाषा हिन्दी भी इसी प्रक्रिया से फलती-फूलती हुई हमें प्राप्त हुई हैं। शब्दों का सफर निःसन्देह एक उल्लेखनीय प्रकाशित पुस्तक है जो पाठकों को पसन्द आएगी।
-विश्वनाथ त्रिपाठी
अपने से लगते हैं वडनेरकर
ब से पहले राजकमल पुरस्कार पाने पर भाई अजित वडनेरकर को बधाई। मैंने अजित को कभी देखा नहीं है, लेकिन वह बहुत जाने-पहचाने से, अपने से लगते हैं। कारण हिन्दी विमर्श पर उनका शब्दों कासफर मैं नियमित पढ़ता रहा हूं। उनकी हर मेल अपने कम्प्यूटर पर सेव कर के संजो कर रखता रहा हूं। नम्बर दो पर - राजकमल प्रकाशन के अशोकजी को बधाई कि उन्हें अजित की किताब छापने को मिली। साथ ही धन्यवाद भी कि उन्होंने यह किताब छापी। छापी में कोई अनोखपन नहीं है। अब तक जितना मैंने उन्हें जाना है। उनकी नज़र बढ़ी पारखी है। वह देखते ही ताड़ लेते हैं कि असली माल कहां है। उनके पास शब्दों कासफर कैसे पहुंची यह मैं तो नहीं जानता, लेकिन उसमें भरे असली माल को पहचानने में देर नहीं लगी।
प्रसंगवश एक और उदाहरण। 1990 के आसपास हंस पत्रिकामें शब्दों पर मेरी लेखमाला छप रही थी। एक सुबह एक अनजान नौजवान मेरे घर आ पहुंचा, मेरी आने वाली किताब को छापने काप्रस्ताव लिए। तब उसके पास लगभग कुछ नहीं था। बस भविष्य था। वह था। अशोक माहेश्वरी। मैंने उससे वादा किया कि पूरा होने पर मेरा कोश उसे मिलेगा। ऐसा नहीं हुआ इसके कारण विचित्र थे। यह सबूत है कि अशोक दूर तक देख पाते हैं।
कुछ ऐसा ही गुण अजित वडनेरकर में भी है। वह दूर तक देख पाते हैं। न केवल भविष्य में बल्कि भूत में भी। एक संस्कृति से दूसरी तक शब्दों का सफर में। पता नहीं कैसे वह इतनी गहराई से देख पाते हैं। फिर इस सफर काबयान हाल बेहद आसान भाषा में रोचक तरीके से, कमाल है। आप लोग कई जाने-माने विदेशी कोश देखिए। कई में शब्दों के बारे में अलग से बॉक्स बना होता है। अजित उन से आगे, बहुत आगे जाते हैं। व्युत्पति बताते हैं, कई देशों, समाजों में कोई शब्द कैसे पहुंचा, बदला, रंगा, संवरा सब दिखाते हैं। कुल तीन-चार हद से हद पांच-छह पैरों में। पाठक के ऊबने से पहले विदा हो जाते हैं। जाते-जाते शब्दों में पैठने की हमारी रुचि, हमारी तमन्ना जगा जाते हैं।
उन के शब्दों के सफर केतीन खण्ड तैयार हैं। ऐसा मुझे बताया गया है। पर मैं कल्पना कर सकता हूं की उनके पास अभी और तीस खण्डों का मसाला तैयार होने को होगा। मैं उन सब लोगों को, जिन्हें हिन्दी डूबती नज़र आती है और आप सबको आश्वस्त करना चाहता हूं, भरोसा दिलाना चाहता हूं कि मेरा दावा 125 प्रतिशत सही निकलेगा कि 2050 तक हिन्दी संसार कीसमृद्धतम भाषा में होगी। आंखें खोलकर देखिए, हिन्दी पढ़ने वाले बढ़ रहे हैं, हिन्दी वालों के पास पैसा बढ़ रहा है। हाल ही में मुझे पता चला कि अकेले एक प्रमुख हिन्दी दैनिक के पास देशभर में फैला पांच हजार कम्प्यूटर से जुड़ा पत्रकारों कामहाजाल है। आज कम से कम 50 हजार हिन्दी पत्रकार तो हैं ही, पांच लाख भी हो सकते हैं। और लेखक गांव-गांव में, अनजाने अनचीन्हे लोग हिन्दी लिखने में लगे हैं। अन्त में बस इतना ही... हिन्दी रुकेगी नहीं, बढ़ती रहेगी। अजित वडनेरकर और उन की यह किताब इस बात काएक और सबूत है। दूसरा सबूत है राजकमल कीयह पुरस्कार योजना। मुझे भरोसा है, और आप को भी यह भरोसा दिलाता हूं कि धीरे-धीरे अशोक माहेश्वरी इस पुरस्कार को हिन्दी कानहीं भारत का सबसे बड़ा अवॉर्ड बनाकर रहेंगे। हिन्दी के और भारत के बढ़ते रहने का यह दूसरा सबूत होगा।
-अरविन्द कुमार, 26 फरवरी, 2011

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Wednesday, March 9, 2011

भाड़े की देन हैं भड़ुआ और भाड़ू

pimp016संबंधित पोस्ट-मियां करे दलाली, ऊपर से दलील!![मध्यस्थ-2]

देशज बोलियों में ऐसे कई आम शब्द हैं जिनका इस्तेमाल बोलचाल की हिन्दी में अशोभनीय माना जाता है। ऐसे कई शब्द गाली समझे जाते हैं। हालाँकि इन शब्दों के मूल में किसी तरह का अशोभनीय संकेत नहीं होता है। ऐसा ही एक शब्द है भाड़ू। परिनिष्ठित हिन्दी में यह शब्द निषिद्ध है किन्दु आंचलिक बोलियों में इसका खूब प्रयोग होता है साथ ही बोलचाल की ज़बान में भी यह ज़िन्दा है। गली मोहल्लों में आज भी ठसके से लोग इसका प्रयोग करते हैं। हालाँकि भाड़ू शब्द की अर्थवत्ता विशाल है मगर इसका इस्तेमाल बहुत सीमित अर्थ में किया जाता है। भाड़ू का आज सीधा सा अर्थ है वेश्या की कमाई खानेवाला यानी दलाल या दल्ला। भाड़ू वह भी है जो रूपजीवाओं का सौदा कराता है और उसके बदले में पैसे लेता है। इसी तरह भाड़ू उसे भी कहते हैं जो अपने घर की स्त्रियाँ किसी ओर को उपभोग के लिए सौंपता है और बदले में कोई राशि प्राप्त करता ।
लाली या कमीशन पर पलते व्यक्ति को समाज में हमेशा ही नीची निगाह से देखा जाता है। इस नज़रिये से देखें तो भाड़ू का रिश्ता स्त्री, वेश्या अथवा देहव्यापार से बाद में जुड़ता है, सबसे पहले आता है कमीशन, दलाली या किराया। भाड़ू शब्द बना है भाड़ा शब्द से जिसका अर्थ है किराया। भाड़ा शब्द बना है संस्कृत के भाटकः से जिसका रूपान्तर भाटक > भाड़अ > भाड़ा हुआ। भाड़े पर काम करनेवाले के अर्थ में हिन्दी में एक अन्य शब्द भी प्रचलित है-भाड़ैती या भाड़ौती मगर इसकी अर्थवत्ता में नकारात्मक कुछ नहीं है। मराठी में तो किराएदार के लिए भाड़ैती शब्द प्रचलित है। दरअसल दलाली या कमीशनखोर के अर्थ में ही भाड़ा से बने भाड़ शब्द में जब खाऊ प्रत्यय लगा तब इसकी अर्थवत्ता बदली। भाड़खाऊ > भाड़ऊ > भाड़ऊ > भाड़ू कुछ इस क्रम में भाड़खाऊ से भाड़ू का विकास हुआ है।
राठी और हिन्दी दोनों में ही भाड़खाऊ शब्द चलता था, अब सिर्फ़ भाड़ू रह गया है। इसी शृंखला का शब्द है भड़वा या भड़ुआ जो भाड़ू या भाड़खाऊ से हटकर घोषित गाली है और इसका अर्थ रण्डी का दलाल ही होता है। दलाली या कमीशनखोरी के दायरे में देखें तो कोई नेता, कमीशनएजेंट, आयकर-विक्रयकर सलाहकार, हथियारों का दलाल, किसी चेन से जुड़े सभी डॉक्टर, अध्यापक, पत्रकार, वकील सब भाड़ू हैं क्योंकि किसी न किसी स्तर पर ये सब दलाली कर रहे हैं, दलाली कमा रहे हैं और दलाली खा रहे हैं। मगर इन्हें भाड़ू कहा नहीं जा सकता। भाटक शब्द से और भी कई शब्द बने हैं जैसे भू-भाटक अर्थात ज़मीन का किराया अथवा ज़मीन का सालाना लगान। भाटक से बना है मराठी का भाटि शब्द जिसका अर्थ स्पष्टतः व्यभिचार का पैसा है।

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Friday, March 4, 2011

तस्करी यानी चोर की जोरू!!!

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हि न्दी में तस्करी शब्द बहुत आम है जिसका अर्थ है चोरी-छिपे या गैरक़ानूनी तरीके से सामान इधर से उधर भेजना। इसमें प्रतिबंधित सामान भी शामिल है और ऐसा सामान भी जिसके परिवहन पर सरकारी शुल्क का भुगतान बकाया हो और बिना शुल्क चुकाए उसे इधर से उधर भेजा जा रहा हो। प्रतिबंधित वस्तुओं का व्यापार या चोरी छिपे इधर से उधर भेजना भी तस्करी में शामिल होता है। तस्करी शब्द बना है तस्कर से जो मूलतः संस्कृत से हिन्दी में आया है। इसका सामान्य सा अर्थ है चोर जबकि तस्कर शब्द सुनते ही दिमाग़ में अंग्रेजी का स्मगलर शब्द घुमने-फिरने लगता है। वैसे स्मगलर शब्द भी अब हिन्दी में आमतौर पर इस्तेमाल होता है।
स्कर शब्द की व्युत्पत्ति के बारे में विद्वान एकमत नहीं है। आप्टे कोश के मुताबिक तस्कर शब्द के मायने हैं चोर, लुटेरा आदि। आप्टे के मुताबिक तस्कर की व्युत्पत्ति है- (तद् + कृ + अच्, सुट्, दलोपः) जबकि अमरकोश के मुताबिक इसकी व्युत्पत्ति “तत् करोति इति अच्, सुट्तलोपौ च” बताई गई है। ऑर्थर एंथोनी मैकडॉनेल के शब्दकोश में भी तस्कर के बारे में यही कहा गया है। कृ.पा.कुलकर्णी के कोश में तत् + कर इसकी व्युत्पत्ति बताई गई है साथ ही यह भी कहा गया है कि पाणिनी सूत्र के अनुसार यहाँ त का लोप होकर स का आगम होता है। इस तरह तस्कर शब्द बना। कुलकर्णी को यह व्युत्पत्ति स्वीकार नहीं है। उनके मुताबिक ठक्कर, ठाकर या ठाकरले जैसे शब्दों से तस्कर शब्द का कुछ न कुछ संबंध होना चाहिए।
मारे विचार में मोनियर विलियम्स के कोश में तस् धातु का उल्लेख है जिसमें धुंधलाने, कम होने, मुरझाने, गायब होने, नष्ट होने जैसे भाव हैं। स्पष्ट है कि यहाँ किसी चीज़ के लोप होने या मिटने का भाव ही उभर रहा है। तस् से अगर तस्कर की व्युत्पत्ति पर विचार करें तो बात कुछ आसान होती लगती है। वस्तुओं के चोरी जाने का संदर्भ उनके मूल स्थान से लोप होने से जुड़ता है। यूँ भी माल गायब करना, माल उड़ाना यानी चोरी करना जैसे मुहावरों में लोप का यह भाव उजागर हो रहा है। तस्कर का एक अर्थ छुईमुई या पीले फूलों वाला एक पेड़ भी है। हिन्दी शब्दसागर में इसे मैनफल या मदनवृक्ष कहा गया है। हिन्दी मे चाहे तस्कर का क्रिया रूप तस्करी बना लिया गया है मगर संस्कृत में तस्करी का अर्थ है चोर की बीवी। जाहिर है यहाँ तस्कर का स्त्रीवाची तस्करी है। तस्कर अगर चोर है तो तस्करी उसकी बीवी। यही नहीं, चोरनी या स्त्री ठग को भी तस्करी के दायरे में रखा जा सकता है।
रतितस्कर वह है जो किसी स्त्री से रति का आनंद छीन ले। यहाँ भाव बलात्कार से है। इसी तरह नवनीततस्कर अर्थात वह जो दही को चुराए। जाहिर सी बात है यह कृष्ण का विशेषण हुआ।
इस ढंग से सोचें तो नौकर की बीवी को नौकरी नौकरी कहा जा सकता है। शब्दसांगर में वृहत्संहिता के हवाले से यह भी पता चलता है कि तस्कर केतुओं का नाम भी है जो लंबे और सफेद होते हैं और इनकी 51 हैं। केतु बुध के पुत्र माने जाते हैं।
स्कर से तस्करता, तस्करवृत्ति, तस्करी, तस्करत्व जैसे शब्द भी बने हैं मगर इनका चलन हिन्दी में नहीं होता है। तस्कर का एक अर्थ कान भी होता है सो तस्करता के मायने हुए सुनना। किसी की जेब से बटुआ उड़ाने जैसा काम भी तस्करता की श्रेणी में ही आता है। हालाँकि आज के संदर्भ में उसे तस्करी नहीं कहा जाएगा बल्कि पॉकेटमारी, जेबतराशी आदि कहा जाएगा। यूँ देखा जाए तो तस्करी शब्द संस्कृत में खूब इस्तेमाल होता रहा है। संस्कृत में रतितस्कर या नवनीततस्कर जैसे शब्द के जरिए इसकी अर्थवत्ता का अंदाज़ा लगता है। रतितस्कर वह है जो किसी स्त्री से रति का आनंद छीन ले। यहाँ भाव बलात्कार से है। इसी तरह नवनीततस्कर अर्थात वह जो दही को चुराए। जाहिर सी बात है यह कृष्ण का विशेषण हुआ। इन तमाम अर्थों का सादृश्य तस्कर के आज प्रचलित अर्थ से मेल नहीं खाता। प्राचीनकाल में तस्कर सिर्फ एक सामान्य चोर भर है जबकि आज तस्कर का दर्जा चोर से कुछ ऊंचा है। चोर जहाँ सिर्फ़ माल को चुराता है वहीं तस्कर करों की अदायगी से बचने और प्रतिबंधित सामग्री के व्यापार के लिए उसका परिवहन करता है।

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Wednesday, March 2, 2011

बेपेंदी का लोटा और लोटा-परेड

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र्तन भाण्डों में लोटा एक ऐसा पात्र है जो पुराने ज़माने से ही बहुउपयोगी है। लोटा दरअसल धातु से बना ऐसा पात्र है जो घड़े जैसा दिखता है मगर आकार में उससे बेहद छोटा होता है। लोटा कलसी से छोटा पात्र है। लोटा का भी एक छोटा रूप होता है-लुटिया जो प्रायः वृद्धों के हाथों में होती है। पुराने ज़माने जब उनके हाथों से यह लुटिया पानी में डूब जाती थी तो मानो मुश्किलों की शुरुआत ही हो जाती थी। वानप्रस्थी हो या सन्यासी, पानी की लुटिया सबके लिए ज़रूरी थी। दिशा मैदान यानी प्रातःकालीन संस्कारों से लेकर सन्ध्यावंदन के समय तक यह लुटिया जीवनसंगिनी की तरह न जाने कितने कर्तव्य निभाती थी। सुबह का मुख प्रक्षालन, स्नान, जाप, सूर्य को अर्घ्य, कलेवा के वक्त यज्ञोपवीत के कर्तव्य। फिर सन्ध्यावन्दन आदि। अब स्नान के वक्त कुएं या नदी में जिसकी लुटिया डूबी, समझो उस पर तो आफ़त का पहाड़ टूट पड़ता था। इसीलिए सर्वनाश, नुकसान आदि के अर्थ में लुटिया डूबना जैसा मुहावरा आज तक प्रचलित है।
 लोटा शब्द की व्युत्पत्ति कुछ लोग संस्कृत की लुट् धातु से जोड़ते हैं जिसमें लोटना, लुढ़कना जैसे भाव शामिल हैं। लुट् धातु में मूलतः प्रतिकार या प्रतिरोध मूलक भाव हैं जिसका अर्थ मुकाबला करना, पीछे धकेलना है। इससे मिलती जुलती धातु है लुठ् जिसमें स्पष्टतः प्रहार के साथ पछाड़ने का भाव है। यहाँ साफ हो रहा है कि प्रतिस्पर्धी को धराशायी कराने की क्रिया प्रमुख है। धराशायी होना अर्थात भूमि पर लोट-पोट होना। लुठ् से ही लुठनम् बना है जिसका अर्थ है लोटना, लोटा हुआ आदि। लुट्, लुठ् के बाद लुड् धातु भी है जिसमें भी मूलतः गोलगोल घूमने का भाव ही है मगर इसकी क्रिया लोड़न अर्थात विलोड़न की है जैसे दही बिलोना। बेपेंदी का लोटा जैसी कहावत पर अगर गौर करें और लुट् में निहित लुढ़कने की क्रिया को महत्वपूर्ण मानें तो लुट् से लोटा की व्युत्पत्ति सही नज़र आती है। हालाँकि एक पात्र के रूप में विचार करने पर लुट् से लोटा के जन्मसूत्र की कल्पना गले नहीं उतरती। लोटा एक पात्र है जिसमें किसी तरल को आश्रय पाना है। लोटे के लुढ़कने से बर्तन के रूप में लोटा अपने इस्तेमाल की गुणवत्ता पर सौ फ़ीसद खरा नहीं उतरता। दूसरी बात, लोटा ही क्यों, प्राचीनकाल में अधिकांश बर्तन जैसे बटलोई, देगची, कढ़ाही, घड़ा, मटका आदि बेपेंदी के ही होते थे। तब इन सबको भी लोटा ही कहा जाना चाहिए था। मगर इनके लिए अलग अलग नाम प्रचलित हुए।
कृ.पा. कुलकर्णी के मराठी व्युत्पत्ति कोश के अनुसार मराठी के लोटा या लोटके जैसे शब्दों की व्युत्पत्ति संस्कृत के लोष्ट से हुई है। आपटे कोश के अनुसार लोष्ट् क्रिया का अर्थ है ढेर लगा, अंबार लगाना। इसी तरह लोष्टु का अर्थ है ढेला, मिट्टी का लौंदा। स्पष्ट है कि ये दोनों ही अर्थ लोटा शब्द से ध्वनिसाम्य तो बना रहे हैं, मगर इससे अर्थस्थापना नहीं होती। लोटा महज़ एक ढेर या लौंदा नहीं है। अगर कल्पना करें कि यहाँ अभिप्राय कुम्हार के चाक पर रखे मिट्टी के उस लौंदे से है जिससे लोटा गढ़ा जाना है, तब भी कुछ सिद्ध नहीं होता क्योंकि लोष्ट से लोटा बनने की क्रिया दरअसल मिट्टी से पात्र बनने की क्रिया है। तब लोष्ट के भौतिक रूपान्तर को भी लोष्ट ही कहना तार्किक नहीं लगता। दूसरी खास बात यह भी कि लोटा हमेशा धातु का ही बनता रहा है, मिट्टी का नहीं। बड़े बड़े घड़े ज़रूर मिट्टी के बनते रहे। बात दरअसल यह थी कि बड़े घड़े तो पानी के स्थायी इंतजाम के लिए थे, जिन्हें साथ लेकर चलना नहीं पड़ता था। इसके विपरीत साथ ले जानेवाले छोटे पात्र के रूप में धातु के लोटे इसलिए उपयोगी थे क्योंकि लगातार गतिशील रहते मनुष्य के साथ इनके साथ टूट-फूट का खतरा नहीं था।
राठी के विद्वान द.ता. भौंसले लोटा के मराठी रूप लोटका की व्युत्पत्ति के संदर्भ में कन्नड़ भाषा के लोटो का उल्लेख किया है, मगर यह स्पष्ट नहीं है कि कन्नड़ का लोटो कहाँ से आया। हालाँकि भौंसले लोटा शब्द की व्युत्पत्ति लौहघट से बताते हैं मगर उस पर कन्नड़ के लोटो को वरीयता देते हैं। उनका मत है कि लौहघट में तो सभी तरह के धातु के बर्तन आ जाते हैं। हमारा मानना है कि यह कमजोर तर्क है। लौहघट में लोटा की व्युत्पत्ति के अर्थसाम्य और ध्वनिसाम्य वाले उपकरण भी काम कर रहे हैं साथ ही यह व्युत्पत्ति तार्किक भी है। लौहघट में लोटे के घट की आकृति का ब्योरा छुपा है। लोटे से जुड़े भी कुछ मुहावरे हिन्दी में प्रचलित हैं जैसे बेपेंदी का लोटा यानी अस्थिर चित्त व्यक्ति। अपने मत पर दृढ़ न रहनेवाले शख्स के लिए यह मुहावरा अक्सर सुना जाता है। लोटा थाली बिकना एक ऐसा मुहावरा है जिसमें निर्धनता और दारिद्र्य का भाव है। सीधी सी बात है। न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए मनुष्य को दो वक्त का भोजन चाहिए और इस इच्छा की पूर्ति के लिए लोटा-थाली की ज़रूरत पड़ती है। यही मनुष्य की सर्वाधिक ज़रूरी निजी सम्पत्ति भी कहलाती है। अगर धन की व्यवस्था के लिए भोजन और दैनन्दिन कर्म से जुड़े ये उपकरण भी बिक जाएं तो निश्चित ही दुर्भाग्य के बादल उस व्यक्ति को निर्धन बनाने के लिए उमड़ पड़े हैं। पेचिश या दस्त लगने के संदर्भ में भी यही लोटा मरीज को तक़लीफ़ का नाम लेने से उबारता है। समझदार लोगों ने दस्त लगने के  संदर्भ में लोटा-परेड उक्ति बना कर दस्त शब्द के प्रयोग से मुक्ति पा ली। दस्त पेचिश के शिकार व्यक्ति को  बार बार हाज़त होने की अभिव्यक्ति लोटा-परेड में बखूबी हो रही है। 

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