Thursday, April 28, 2011

अबे ढक्कन! अड़ियल टट्टू!! उल्लू!!!

पिछली कड़ी-ढपोरशंख की पोल...brahmi9_cons

दे वनागरी के ढ वर्ण में निहित ढोल की पोल का भाव तो ढपोरशंख की विवेचना से कुछ स्पष्ट होता है, मगर इस “ढ” की महिमा ही कुछ ऐसी है कि मूर्खता, अपरिपक्वता, अज्ञानी जैसे भाव इसमें समाए हुए हैं। हमारे कहने का यह अर्थ कतई नहीं है प्रत्येक अक्षर या व्यंजन का एक विशिष्ट अर्थ भी होता है, फिर “ढ” के साथ ऐसा क्यों है, इसकी वजह दूसरी है। सबसे पहले देखते हैं ढ की अर्थवत्ता में समाए नकारात्मक भाव की व्याप्ति बोलचाल की हिन्दी में कितनी है। हिन्दी में आमतौर पर किसी व्यक्ति को मूर्ख या अज्ञानी कहने के लिए बीते कुछ दशकों से ढक्कन कहने का चलन बढ़ा है। व्यंग्यस्वरूप “ अबे ढक्कन ” जैसे संबोधन युवापीढ़ी को इस्तेमाल करते हुए सुना जा सकता है। यह ढक्कन दरअसल देवनागरी का ककहरा पढ़ाते वक्त अ-अमरूद का, आ-आम का और ढ-ढक्कन का से आ रहा है। किसी को बेवकूफ़ कहने के लिए अ से बने अमरूद का प्रयोग क्यों नहीं होता अर्थात अबे अमरूद ! या फिर अबे आम ! यह सम्मान सिर्फ़ “ढ”से बने ढक्कन के हिस्से क्यों आया? इसकी वजह ढक्कन शब्द नहीं बल्कि ढक्कन का “ढ” ही है।
मतौर पर माना जाता है कि परिवर्तन ही विकास का चिह्न है। मोटे तौर पर माना जा सकता है कि विकास का अर्थ परिवर्तन भी होता है। किसी व्यक्ति के सोचने-समझने के ढंग में बदलाव से ही उसके बौद्धिक विकास का पता चलता है। वक्त के साथ बदलाव ज़रूरी होता है। अगर कोई चीज़ अपरिवर्तनीय है तो इसका अर्थ यह है कि उसमें विकास की संभावना नहीं है। स्थावर या भौतिक पदार्थों के संदर्भ में यह तथ्य मज़बूती और स्थिरता जैसे गुणों के रूप में देखा जाता है मगर किसी मनुष्य का बौद्धिक विकास नहीं हो रहा है अर्थात उसकी समझ में बदलाव की गुंजाईश नहीं है तो यह माना जाता है कि वह या तो मंदबुद्धि है या मूर्ख है। ऐसे लोगों की एक किस्म को अड़ियल टट्टू भी कहा जाता है। कहने की ज़रूरत नहीं कि मूर्खता के चिर सनातन प्रतीकों में परिंदों में उल्लू और चौपायों में गधे को सर्वोच्च स्थान दिया गया है। उल्लू भी बिना पलक झपकाए एकटक ताकता रहता है। यह मूर्खता की निशानी है। इसीलिए मुहावरा बना है-घुग्घू की तरह ताकना। गधे की एक किस्म टट्टू होती है। यह कहीं भी अड़कर खड़ा हो जाता है, यह जानते हुए की इसके बाद धोबी उस पर डण्डे बरसाएगा।
हाराष्ट्र से सटते हिन्दी भाषी प्रदेशों में तो ढक्कन के स्थान पर सिर्फ़ “ढ” से भी काम चला लिया जाता है। मिसाल के तौर पर परीक्षा लगातार फेल होने वाले छात्र के लिए कहा जा सकता है कि वह तो पढ़ाई-लिखाई में शुरू से ही “ढ” है। मराठी में इस “ढ” की महिमा कहीं ज्यादा व्यापक है और अर्थपूर्ण है। मराठी में गधे को गाढव कहते हैं। गधा और गाढ़व दोनों के ही मूल में संस्कृत का गर्दभ है। गर्दभ > गढ्ढभ > गढ्ढअ > गधा और गर्दभ > गढ्ढभ > गढ्ढव > गाढव यह विकासक्रम रहा।“ढ” की महिमा समझाने के लिए मराठी लोकमानस ने इसी गाढव का सहारा लिया। मूर्ख के संदर्भ में मराठी मुहावरा है- गावातील “ढ” अर्थात गा और के बीच का “ढ”। किसी मूर्ख व्यक्ति को इंगित कर इस मुहावरे का प्रयोग किया जाता है कि फलाँ आदमी गावातील “ढ” है। यानी वह व्यक्ति तो गा और के बीच का “ढ” अर्थात मूर्ख है। इसका दूसरा अर्थ होता है कि फलाँ व्यक्ति तो गाढव यानी गधा है। सीधे सीधे उसे गधा न कह कर वक्रोक्ति का यह तरीका काफी दिलचस्प है। तीसरा अर्थ है गावातील अर्थात गाँव का “ढ” है अर्थात यह तो गाँव का गँवार है।
brahmi_consराठी की इस व्यापक अर्थवत्ता से भी “ढ” की पहेली नहीं सुलझती। इस पहेली का उत्तर मिलता है ब्राह्मी लिपि में। प्रसिद्ध प्राच्यविद्याओं के प्रसिद्ध विद्वान-भाषाविद् महामहोपाध्याय गौरीशंकर हीरानंद ओझा ने ब्राह्मी लिपि का करीब सवासौ साल पहले व्यवस्थित अध्ययन कर उसे पढ़ने में सफलता प्राप्त की थी। गौरतलब है कि भारत की प्रचीनतम लिपियों में ब्राह्मी लिपि को विद्वानों ने एशिया की एक दर्जन से भी ज्यादा लिपियों की जननी बताया है। करीब ढाई से तीन हजार वर्ष पुरानी ब्राह्मी लिपि से ही देवनागरी का भी विकास हुआ। इस अवधि में ब्राह्मी के ध्वनिसंकेतों में बहुत बदलाव हुए किन्तु “ढ” अक्षर का रूप वही रहा जो अशोक के शिलालेखों में ढाई हजार साल पहले था। “ढ” वर्ण की बनावट में ढाई हजार वर्षों में भी बदलाव न होना एक अलग भाषा वैज्ञानिक अध्ययन का विषय है किन्तु अड़ियल, मूर्ख और ढीठ के चरित्र को व्यक्त करने के लिए विद्वानों को “ढ” से बढ़िया प्रतीक और क्या मिल सकता था? ब्राह्मी की वर्ण माला को देखें तो समझ में आता है कि ढ को छोड़कर प्रायः सभी ध्वनिसंकेतों की आकृतियों में भारी बदलाव आया, पर ढ जस का तस रहा। इसकी एक बड़ी वजह यह भी हो सकती है कि प्रायः सभी आर्यभाषाओं में “ढ” व्यंजन का अत्यल्प प्रयोग होता है और संभवतः इसीलिए इस ध्वनिचिह्न में बदलाव की आवश्यकता कम पड़ी।
“ढ” से मूर्ख का रिश्ता महज़ संयोग नहीं है। मूर्ख शब्द के मूल में है संस्कृत का ‘मूढ’ शब्द। मूढ में निहित “ढ” को सहज ही पहचाना जा सकता है। मूढ बना है संस्कृत की मुह् धातु से जिससे हिन्दी के कई अन्य जाने पहचाने शब्द भी बने हैं जैसे मोहन, मोहिनी, मोहक, मोह, मोहाविष्ट आदि। आपटे कोश के मुताबिक मोह यानी किसी पर मुग्ध होना, जड़ होना, घबरा जाना या गलती करना आदि । इसके अलावा अज्ञान, भ्रान्ति, अविद्या, भूल होना जैसे अर्थ भी हैं । गौरतलब है कि मोह और मुग्ध और मूढ ये तीनों शब्द ही संस्कृत की मुह् धातु से बने हैं जिसमें ऊपर लिखे तमाम अर्थ निहित हैं और इससे स्पष्ट है कि विवेक, बुद्धि और ज्ञान के विपरीत अर्थ वाले भाव इनमें समाहित हैं। दिलचस्प बात यह कि उपरोक्त सभी भाव मूर्ख शब्द में समा गए हैं क्योंकि यह लफ्ज़ भी इसी धातु से निकला है जिसका अर्थ हुआ नासमझ, अज्ञानी और बेवकूफ। मुह् धातु में मूलत: चेतना पर किसी के प्रभाव में आकर ज्ञान अथवा बुद्धि पर परदा पड़ जाने अथवा ठगे से रह जाने, जड़ हो जाने, मूढ़ बन जाने का भाव है। यही बात मोह अथवा मुग्ध में हैं। नकारात्मक छाप के साथ मूर्ख शब्द भी यही कहता नज़र आता है। मूर्ख वह जो कुछ न समझे, जड़ हो। इसीलिए मूर्ख के साथ कई बार जड़बुद्धि , जड़मूर्ख या वज्रमूर्ख शब्द का भी प्रयोग किया जाता है। अपनी सुंदरता के लिए पुराणों में मशहूर कामदेव का एक नाम है मुहिर पर मजे़दार बात यह भी कि इसका एक अन्य अर्थ बुद्धू और मूर्ख भी है। श्रीकृष्ण का मोहन नाम भी इसी से निकला है जाहिर है उनकी मोहिनी के आगे सब ठगे से रह जाते थे। इसके अलावा मुग्धा, मोहिनी, मोहित, मोहित जैसे नाम इसी से चले हैं। अब इस ठगा सा रह जाने वाले भाव की तुलना अड़ने, जड़ होने, स्थिर होने, बुद्धि पर परदा पड़ने, टट्टू की तरह अड़ने या उल्लू की तरह ताकने जैसे मुहावरों में निहित भावों से की जा सकती है और तब इस “ढ” की विविध रिश्तेदारियाँ उभरती हैं।

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20 कमेंट्स:

Prabhat PARWANA said...

अपनों के मायने बदलने लगे है.......

चढ़ा मै तो सूरज भी ढलने लगे है
मेरी तर्रकी से जलने लगे है
बुला लेता अपनों को इस खुशी में,
पर अपनों के मायने बदलने लगे है,
उठ उठ के अक्सर सोते है वो,
आँखों को पानी से धोते है वो,
यकीं नहीं उन्हें इस पल पर,
आहे भर भर के रोते है वो,
बिम्ब निहारते है अक्सर पर,
शिरकत-ए-आईने बदलने लगे है,
बुला लेता अपनों को इस खुशी में
पर अपनों के मायने बदलने लगे है,
बहुत कोशिशे हराने की की
बहुत कोशिशे लड़ाने की की
काटे बिछाए उन्होंने जब जब मैंने
कोशिशे कदम बढाने की की
कदम मेरे खू से सने देख कर
दुश्मन तक आँखे मलने लगे है,
बुला लेता अपनों को इस खुशी में
पर अपनों के मायने बदलने लगे है,
जी सही कहा गुनेहगार हूँ मै
जल्दी है आपको इन्तजार हूँ मै,
बस अब खामोशी का इम्तहान ना लो
बोल उठा तो फिर ललकार हूँ मै,
रवैया मेरा कड़ा देखकर,
साजिशो को अपनी धरा देखकर
हद्द है वो संग मेरे चलने लगे है,
बुला लेता अपनों को इस खुशी में
पर अपनों के मायने बदलने लगे है
बुला लेता अपनों को इस खुशी में
पर अपनों के मायने बदलने लगे है...


प्रभात कुमार भारद्वाज "परवाना"
अगर अच्छा लगा तो ब्लॉग पर जाएये, लिंक: http://prabhat-wwwprabhatkumarbhardwaj.blogspot.com/

Amrendra Nath Tripathi said...

यह विवेचन भी खूब रहा ! कल्पना के दौड़ते घोड़े सत्य की जमीन पा जायें तो गजबै मजा आता है!! आभार !

dhiru singh { धीरेन्द्र वीर सिंह } said...

ढ नही तो ढ से कम भी नही है हम

दिनेशराय द्विवेदी said...

बहुत दिनों बाद पोस्ट पढ़ने को मिली,पर आप का श्रम देख कर आनंद आ गया।

Udan Tashtari said...

बेहतरीन पोस्ट...आनन्द आया भाई...

केवल राम said...

ज्ञानवर्धक ....!

Asha Joglekar said...

वाह अजित जी ढ को कहां कहां जुडा पाया पर मोहिनि, मोह इनसे ढ का जुडना कुछ अच्छा नही लगा पर जो है वो तो है ही ।

Mansoor ali Hashmi said...

'टिप्णियों' पे इक 'ढक्कन' लगा देख कर,
'ढ' का मतलब समझना भी आसाँ हुआ,
'ढ' के रिश्तो ने 'मोहित' मुझे भी किया,
डाल ख़ाली है , मुझको बिठाले मियाँ.

मीनाक्षी said...

श्रीकृष्ण का मोहन नाम भी इसी से निकला है जाहिर है उनकी मोहिनी के आगे सब ठगे से रह जाते थे। -- यह तथ्य सबसे अधिक पसन्द आया..

प्रवीण पाण्डेय said...

एक अक्षर का इतना तीक्ष्ण प्रभाव।

रंजना said...

बहुत दिनों बाद पढने का सुखद अवसर मिला यह सारयुक्त गंभीर विवेचना...
बड़ा आनंद आया...
आभार.

डा० अमर कुमार said...

.
सवाल वहीं का वहीं.. ढ से ही क्यों... ढक्कन को दिमाग पर लगे ढक्कन से मान भी लें तो अन्य सँदर्भों में इसकी रिश्तेदारी गहरे पैठने की माँग कर रही है ।
आपके पोस्टों कि ई-मेल सदस्यता ्में आपकी पोस्ट फ़ीड मिलनी ही बन्द हो गयी थी, जाने क्यों ?

रमेश कुमार जैन उर्फ़ निर्भीक said...

श्रीमान जी, मैंने अपने अनुभवों के आधार ""आज सभी हिंदी ब्लॉगर भाई यह शपथ लें"" हिंदी लिपि पर एक पोस्ट लिखी है. मुझे उम्मीद आप अपने सभी दोस्तों के साथ मेरे ब्लॉग www.rksirfiraa.blogspot.com पर टिप्पणी करने एक बार जरुर आयेंगे. ऐसा मेरा विश्वास है.

Pawan Kumar said...

"ढ" का चक्कर इस पोस्ट में वाकई आँखें खोल गया.... भाषा शास्त्र के हिसाब से संग्रहणीय पोस्ट.

Arvind Mishra said...

"उल्लू भी बिना पलक झपकाए एकटक ताकता रहता है। यह मूर्खता की निशानी है। इसीलिए मुहावरा बना है-घुग्घू की तरह ताकना।"
दरअसल इसी भाव भंगिमा के चलते उल्लू को बी विज्ञ पक्षी भी माना गया है -ऐन आऊलिश एक्सप्रेशन (आक्सफोर्ड ऐडवांसड लर्नर डिक्शनरी ) का अर्थ है न्यायाधीश सरीखा भाव! एक कविता भी है जिसका हिन्दी अनुवाद इस तरह शुरू होता है-एक विज्ञ उल्लू बैठा था बलूत की डाल पर .....

रमेश कुमार जैन उर्फ़ निर्भीक said...

प्रिय दोस्तों! क्षमा करें.कुछ निजी कारणों से आपकी पोस्ट/सारी पोस्टों का पढने का फ़िलहाल समय नहीं हैं,क्योंकि 20 मई से मेरी तपस्या शुरू हो रही है.तब कुछ समय मिला तो आपकी पोस्ट जरुर पढूंगा.फ़िलहाल आपके पास समय हो तो नीचे भेजे लिंकों को पढ़कर मेरी विचारधारा समझने की कोशिश करें.
दोस्तों,क्या सबसे बकवास पोस्ट पर टिप्पणी करोंगे. मत करना,वरना......... भारत देश के किसी थाने में आपके खिलाफ फर्जी देशद्रोह या किसी अन्य धारा के तहत केस दर्ज हो जायेगा. क्या कहा आपको डर नहीं लगता? फिर दिखाओ सब अपनी-अपनी हिम्मत का नमूना और यह रहा उसका लिंक प्यार करने वाले जीते हैं शान से, मरते हैं शान से
श्रीमान जी, हिंदी के प्रचार-प्रसार हेतु सुझाव :-आप भी अपने ब्लोगों पर "अपने ब्लॉग में हिंदी में लिखने वाला विजेट" लगाए. मैंने भी लगाये है.इससे हिंदी प्रेमियों को सुविधा और लाभ होगा.क्या आप हिंदी से प्रेम करते हैं? तब एक बार जरुर आये. मैंने अपने अनुभवों के आधार आज सभी हिंदी ब्लॉगर भाई यह शपथ लें हिंदी लिपि पर एक पोस्ट लिखी है.मुझे उम्मीद आप अपने सभी दोस्तों के साथ मेरे ब्लॉग एक बार जरुर आयेंगे. ऐसा मेरा विश्वास है.
क्या ब्लॉगर मेरी थोड़ी मदद कर सकते हैं अगर मुझे थोडा-सा साथ(धर्म और जाति से ऊपर उठकर"इंसानियत" के फर्ज के चलते ब्लॉगर भाइयों का ही)और तकनीकी जानकारी मिल जाए तो मैं इन भ्रष्टाचारियों को बेनकाब करने के साथ ही अपने प्राणों की आहुति देने को भी तैयार हूँ.
अगर आप चाहे तो मेरे इस संकल्प को पूरा करने में अपना सहयोग कर सकते हैं. आप द्वारा दी दो आँखों से दो व्यक्तियों को रोशनी मिलती हैं. क्या आप किन्ही दो व्यक्तियों को रोशनी देना चाहेंगे? नेत्रदान आप करें और दूसरों को भी प्रेरित करें क्या है आपकी नेत्रदान पर विचारधारा?
यह टी.आर.पी जो संस्थाएं तय करती हैं, वे उन्हीं व्यावसायिक घरानों के दिमाग की उपज हैं. जो प्रत्यक्ष तौर पर मनुष्य का शोषण करती हैं. इस लिहाज से टी.वी. चैनल भी परोक्ष रूप से जनता के शोषण के हथियार हैं, वैसे ही जैसे ज्यादातर बड़े अखबार. ये प्रसार माध्यम हैं जो विकृत होकर कंपनियों और रसूखवाले लोगों की गतिविधियों को समाचार बनाकर परोस रहे हैं.? कोशिश करें-तब ब्लाग भी "मीडिया" बन सकता है क्या है आपकी विचारधारा?

SANDEEP PANWAR said...

काफ़ी दिनों से कुछ नया नहीं लिखा जी,

leena malhotra rao said...

बहुत बढ़िया लगा आपका ब्लॉग और ढ का इतिहास.. और वर्तमान.

Anonymous said...

बहुत दूर तक गए हैं आप, एक बेहतरीन पोस्ट. पंजाबी में भी मूर्ख आदमी को 'पतीले दिया ढक्कना' कह कर पुकारा जाता है. शायद ऐसा कहने के लिए कोई और कारण हो. क्या ढक्कन का सबंध 'स्थग्' धातु से नहीं? पंजाबी के एक कोष में ऐसा बताया गया है. Etymology Online अंग्रेज़ी Deck, thatch जैसे शब्दों को इससे सम्बंधित बताता है.-Baljit Basi

अशोक सलूजा said...

अजित जी , नमस्कार !
मैं इनमें ड ढ ड़ ढ़ का फ़र्क समझने कोशिश कर रहा हूँ | कोई और इस बारे में लेख हो तो बताएं |बचपन से ही गलत लिखता आया हूँ |
आज तक नही समझ सका .....
आभार! (फिर भी बहुत कुछ लिए जा रहा हूँ )
खुश रहें !

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