प्राचीन भारत की कर्मप्रधान व्यवस्था की एक महत्वपूर्ण इकाई कर्मकार की थी अर्थात ऐसे कुशल श्रमिक जो दैनन्दिन उपयोग का विभिन्न सामान बनाने में सिद्धहस्त थे । यह हुनर दस्तकारी कहलाता था और इन श्रमिकों को दस्तकार कहते थे । बाद में कर्मकार या दस्तकारों की जातियाँ उभर आईं । गहनों का काम करने वाले, मूलतः स्वर्णाभूषण बनाने वाले स्वर्णकार ( स्वर्णकार > सोनार > सुनार ) मिट्टी का सामान या मूलतः मटका यानी कुम्भ बनाने वाले कुम्भकार (कुम्भकार > कुम्भार > कुम्हार ) लौहकर्म करने वाले लुहार ( लौहकार > लौहार > लुहार), कांस्यकर्म करने वाले कसेरे ( काँस्यकार > कंसार > कसेरा) कहलाए । पुराने ज़माने में बर्तन काँसे के बनते थे । कसेरों के लिए ही ठठेरा शब्द भी प्रचलित हुआ । आमतौर पर समझा जाता है कि ठठेरा शब्द ध्वनिअनुकरण से उपजा शब्द है क्योंकि धातु के बर्तन बनाने के लिए उसे ठोकना-पीटना पड़ता है । ठक-ठक, ठन-ठन ध्वनि से इसका रिश्ता जोड़ते हुए ठठेरा में ध्वनिअनुकरण की प्रवृत्ति नज़र आना सहज है । मगर ऐसा नहीं है । ठठेरा का रिश्ता दस्तकारी से है । सबसे पहले जानते हैं ठठेरा में छुपे हस्तकौशल को । संस्कृत में हाथ के लिए हस्त शब्द है। बरास्ता अवेस्ता, इसका फ़ारसी रूप होता है दस्त । डॉ रामविलास शर्मा के अनुसार पूर्ववैदिक किसी मूल मूल भाषा में इन दोनों का रूप था धस्त । अवेस्ता में धस्त से ह का लोप होकर दस्त शेष रहा और संस्कृत में ‘द’ का लोप होकर हस्तः बचा । धस् में शामिल दस् से संस्कृत की दक्ष् धातु सामने आई। इससे बने दक्ष का अर्थ है कुशल, चतुर, सक्षम या योग्य । इसमें उपयुक्तता या खबरदारी और चुस्ती का भाव भी है । इससे जो बात उभरती है वह है जो हाथों से काम करने में कुशल हो, वह दक्ष । दक्ष की व्याप्ति भारोपीय भाषा परिवार में भी है । भाषा विज्ञानियों नें इंडो-यूरोपीय परिवार में दक्ष् से संबंधित - dek धातु तलाश की है जिसका अर्थ भी शिक्षा, ज्ञान से जुड़ता है । डॉक्टर शब्द इसी कड़ी का है ।
दक्ष का अगला रूप तक्ष बनता है । तक्ष का ही एक अन्य रूप त्वक्ष भी होता है । संस्कृत में बढ़ई को तक्षन् या तक्षक भी कहा जाता है । तक्षक यानी किसी भी कार्य का सूत्रधार, देवताओं का वास्तुकार । तक्ष् की व्याप्ति पूर्व वैदिक भाषाओं में भी थी और इसीलिए यह अवेस्ता में भी था । संस्कृत में क्ष का रूपान्तर ख में होता है । ग्रीक में तैख़्ने इसी मूल से आया है जिससे अंग्रेजी के टेकनीक, टैक्नीशियन जैसे शब्द बने । तक्ष / त्वक्ष का तख़्त में बदलाव सहज है । खास बात यह कि लकड़ी के काटे और तराशे जा चुके सुडौल टुकड़े के लिए फ़ारसी में तख़्तः शब्द बना है जिसे हिन्दी में तखता या तखती कहते हैं । बाद में लकड़ी से बनी चौकी, पलंग और बादशाह के आसन के अर्थ में फारसी उर्दू में तख़्त शब्द चल पड़ा । गौरतलब है कि दक्ष, तक्ष से जुड़े सभी शब्दों में काम करना प्रमुख है। दूसरी महत्वपूर्ण बात है हाथों का प्रयोग । दक्ष में दाहिने हाथ का भाव निहित है। दिशा के लिए दक्षिण शब्द इसी मूल का है । ज़ाहिर है बाँए की तुलना में दायाँ हाथ अधिक कुशल होता है सो कुशल के अर्थ में दक्ष शब्द रूढ़ हो गया । दक्ष का अगला रूप तक्ष हुआ जिसमें कुशल कारीगर, कलाकार की अर्थवत्ता निहित है । जिस तरह वैदिक तक्ष से बरास्ता अवेस्ता तख्त बनता है उसी तरह वैदिक तक्ष का एक रूप तष्ट भी बनता है । संस्कृत में तष्ट में वही सारी क्रियाएँ समाहित हैं जो दस्तकारी के पारम्परिक कर्म हैं अर्थात छाँटना, विशेष प्रकार की आकृति प्रदान करना बनाना, कुल्हाडी से काटना, काट कर बनाना, काटना , गढ़ना, चीरना, ठीक करना, तैयार करना, रूप देना, ढालना आदि । जॉन प्लैट्स के मुताबिक इस तष्ट का ही जेन्दावेस्ता में तस्त रूप हुआ और फिर पहलवी में इसने तश्त रूप अख्तियार किया जिसमें परात, थाली, कटोरा, बॉऊल, चषक, प्याला, कप, सॉसर जैसे भाव थे । तश्त से ही फ़ारसी में तश्तरी शब्द तैयार हुआ जिसका अर्थ था चौड़े मुँह वाला कोई बर्तन, परात या थाली जिसमें रोटियाँ रखी जा सकें, आटा गूँथा जा सके और खाना खाया जा सके । तश्त का ही एक रूप तसला हुआ । तश्त का तस्स, त का लोप और उसमें ला प्रत्यय लगने से तसला बना । बड़ी थाली, थाल या परात को भी तसला कहते हैं । “हिन्दी भाषा की संरचना” पुस्तक में डॉ भोलानाथ तिवारी तिवारी लिखते हैं कि तष्ट का जेंद रूप तस्त हुआ उसी तरह इसका प्राकृत रूप टट्ठ या ठट्ठ बनता है । गौरतलब है कि थाली के लिए मराठी में ताट, ताटली, अवधी, भोजपुरी में टाठी शब्द इसी तष्ट-त्वष्ट के प्राकृत रूप टट्ठ के रूपान्तर हैं । समझा जा सकता है कि आकार देना, तराशना, सजाना, गढ़ना, तैयार करना जैसे अर्थों में हिन्दी का ठठेरा भी इसी टट्ठ / ठट्ठ से विकसित हुआ है न कि ध्वनि अनुकरण की प्रक्रिया से क्योंकि ठक-ठक, ठन-ठन जैसी ध्वनियाँ और भी कई नियमित क्रियाओं का संकेत हो सकती हैं । ठठेरा वह जो ताट, ताटली या टाठी बनाए । बर्तन बनाए । धस् -दक्ष -तक्ष -त्वक्ष - तष्ट -त्वष्ट - टट्ठ - ठट्ठ जैसे रूपों से साबित होता है कि इस शब्द का रिश्ता दस्तकारी से से है और ठठेरा मूलतः दस्तकार है ।
कुछ कोशों में ठठेरा का सम्बन्ध स्थ धातु से बताया गया है, जो ठीक नहीं है अलबत्ता हिन्दी के थाली शब्द की व्युत्पत्ति ज़रूर स्थ से हुई है । स्थ से संस्कृत का स्थालिका बनता है । प्राचीनकाल में यह रोजमर्रा के इस्तेमाल का बर्तन होता था जो मिट्टी की बटलोई या तवे के आकार का होता था जिसमें अन्न पकाया जाता था या रखा जाता था । आज हम स्टील, पीतल, कांच या चीनीमिट्टी की जिन प्लेटों में खाना खाते हैं उसे हिन्दी में थाली कहते हैं, वह इसी स्थालिका की वारिस है । बड़ी थाली के लिए थाल शब्द प्रचलित है। दिलचस्प यह कि सम्पदा का रिश्ता थैली से ही नहीं थाली से भी है। अन्न वैसे भी समृद्धि अर्थात लक्ष्मी का प्रतीक है । प्राचीनकाल से ही थाली को भारत में सर्विंग - ट्रे का दर्जा मिला हुआ है । प्राचीन काल में राजाओं श्रीमंतों के यहाँ थाली या थालों में आभूषण प्रस्तुत किए जाते थे । इनाम-इकराम के लिए मुग़लों के ज़माने में भी थालियाँ चलती थीं । आज भी शादी ब्याह में नेग और पूजा की सामग्री थाली में ही सजाई जाती है। थाली का महत्व इससे भी समझा जा सकता है कि यह मेहमाननवाजी का ऐसा पर्याय बनी कि एक थाली में खाना जैसा मुहावरा अटूट लगाव का प्रतीक बना वहीं विश्वासघात के प्रतीक के तौर पर “जिस थाली में खाना, उसी में छेद करना” जैसा मुहावरा भी बरसों से उलाहना के तौर पर जनमानस में पैठा हुआ है ।
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9 कमेंट्स:
कल्पना की उड़ान है उड़नतश्तरी..
चलिए, हमारे नजदीक के जितने ठठेरे थे वे सब इस की उत्पत्ति ठक ठक से ही मानते थे और हम भी। बेचारे इसी लिए कसेरा कहलाना पसंद करते थे। अब उन्हें भी बताएंगे कि आखिर ठठेरा आया कहाँ से।
थाली के लिए छत्तीसगढ़ी शब्द है टठिया.
'ठठेरी' खेल ठठ्ठा तो नहीं है,
बड़ी बड़ी ठुक-पिट के 'थाली' ये बनी है.
'ठठेरे' है 'अजित' और 'शब्द' बर्तन,
मुसलसिल ही 'सफ़र' पे 'तश्तरी' है.
"ठठेरा, तश्तरी का मूल है इक",
बना कर हमसफ़र वो 'उड़ चली है'.
परोसे है नए अल्फाज़ नित दिन,
वो इक 'थाली' ही हम ने बाँट ली है.
http://aatm-manthan.com
क्षमा करें अजित जी, यह बहुत खींच तान कर निकाला गया अर्थ लग रहा है. मैं सहमत नहीं हो पा रहा हूं.
@francis shane
प्रियवर,
सहमत होना ज़रूरी नहीं । मैने प्रयास किया । खींच-तान नहीं है, बल्कि तमाम सन्दर्भों के साथ बात कही है ।
आप अगर तष्ट् से ताठ, टाठ और ठठेरा को सही नहीं मानते तो आपका मत किस तरफ़ है यह जानना चाहूँगा ।
सफ़र पर आए, उसका शुक्रिया ।
अजित भाई,
मेरे अनुरोध पर प्रकाशित इस आलेख को मैंने पढ़ तो उसी दिन लिया था, किंतु जयपुर से बाहर होने के कारण टिप्पणी नहीं लिख पाया। वास्तव में पूर्व-वैदिक काल के धस्त से लेकर ठठेरा तक के सफर को जिस करीने से आपने हर पड़ाव का समुचित खुलासा करते हुए इस आलेख में प्रस्तुत किया है, वह निस्संदेह अप्रतिम और अद्वित्तीय है। फिर से साधुवाद, शुक्रिया।
विनोद
"बेचारा"ने बहुत कुछ स्पष्ट किया है भद्रजन। ये अलग बात है कि गांधीजी ने कुछ जातियों के नाम बदले और हम और आप उसे आज भी भंगी और मेहतर ही कहते हैं। हर मुस्लिम ने ठठेरा को ठठेरा कहा,हर पंजाबी ने,हर रापजस्थानी ने,हर हरियाणवी ने भी। ऐसा कैसे हो सकता है। अजित जी शोध की कद्र करता हूं पर यह स्थानिक विशेष सा प्रतीत होता है। आपने जूझकर अर्थ निकाला भी है। लेकिन तश्तरी को आधार बनाया, ताठी को भी समेकित करने की चेष्टा की लेकिन ऐसा केसे हो सकता है के कहीं भी ठठेरा के बनाए किसी अन्य वस्तु से वो जरा भी संबंधित ना हो। जैसा अन्य जातियों के नाम के साथ है वैसा सरल नाम उद्भव के आधार पर इसके साथ नहीं है। कंसारा,कसारा,तामेरा,तमीरा,तमैरा,कसेरा,फिर भी संबंधित होते है। विश्वकर्मा कुल के सर्वश्रेष्ठ मानस को अभी भी अपनी पहचान का इंतजार है।
बहुत बढ़िया श्री अजित अनुसंधान के लिए आभार।लेकिन एक जाति को केवल टाठी से जोड़ा ये समझ से बाहर है। एक सुनार कई वस्तुएं बनता है, चर्मकार कई वस्तुएं बनाता है, बदई या खाती भी,कुम्हार भी,किसान कई खाद्यान्न उगाता है,वणिक भी कई वस्तुएं बेचता है,किसी को किसी एक वस्तु से संबंधित नहीं किया गया।ना जाने क्यों विरोधाभास होता है
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