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Tuesday, July 31, 2012
मीरासियों के वारिस
हि न्दी में नाचने-गाने वालों, वाचिक व आंगिक चेष्टाओं के जरिये मनोरंजन करने वालों को भांड-मीरासी कहा जाता है । यह शब्दयुग्म दरअसल सामंती व्यवस्था में ज्यादा प्रयोग में आता था । आज के दौर में इसका प्रयोग मुहावरे की तरह होता है जिसमें चाटूकारिता और खुश करने की चेष्टाओं का संकेत है । प्राचीनकाल मे भी इस पद का सम्बन्ध दरबार संस्कृति से जुड़ता था और आज भी किसी राजनेता के टहलुओं, चमचों, चापलूसों को भांड-मीरासी कह कर ही नवाज़ा जाता है । इस शब्दयुग्म का पहला पद भाण्ड हिन्दी की तद्भव शब्दावली का है तो मीरासी शब्द फ़ारसी से आया है जिसके जन्मसूत्र सेमिटिक परिवार की अरबी से जुड़ते हैं । हिन्दी में मीरासी शब्दको ह्रस्व इ लगा कर मिरासी लिखने की प्रवृत्ति ज्यादा है जबकि यह शब्द बना है अरबी के मीरास से जिसका अर्थ है विरासत या वंशानुगत प्राप्ति । ग़ालिब ने दुखों को मीरास-ऐ-ज़िंदगी कहा है अर्थात जीवन का अनिवार्य तत्व । ज़िन्दगी की विरासत । मीरासी में सीन का प्रयोग भी मिलता है और शीन का भी । मराठी में मीराशी भी लिखा जाता है और मीरासी भी जबकि हिन्दी में ज्यादातर मीरासी ही चलता है ।
सबसे पहले बात करते हैं मीरासी की । मीरासी का प्रयोग उत्तर और दक्षिण भारत में अलग-अलग तरह से होता है । उत्तर भारत का मीरासी नचैया-गवैया-बजैया होने के साथ-साथ मूलतः संगीतजीवी-कलाजीवी तबका है, जिसका काम लोकरंजन है मगर जो लोक उपेक्षा और उपहास का पात्र भी था । दूसरी तरफ़ दक्कन का मीरासी ऐसा प्रभावशाली ज़मींदार तबका था । खासतौर पर मध्यभारत के खानदेश से लेकर कर्नाटक तक फैले शिवाजी के विस्तृत मराठा साम्राज्य की ज़मीन-बंदोबस्त और भू-राजस्व प्रणाली का अहम हिस्सा था मीरासी वर्ग । मीरासी बना है मीरास से जिसके मूल में है अरबी का मीराथ । गौरतलब है कि अरबी के “थ” वर्ण का उच्चार उर्दू में “स” की तरह होता है । जैसे हदीथ को उर्दू में हदीस कहते हैं । इसलिए मूल सेमिटिक उच्चारण वाले मीराथ का उर्दू रूप मीरास होता है जिसका अर्थ है विरासत । मीराथ के मूल में वारिथा waritha अथवा वारिसा है जिसमें परम्परा से पाने का भाव है जैसे उत्तराधिकार में पाना, विरासत में पाना, स्वामी या वारिस बनना आदि ।
उत्तराधिकारी के लिए हिन्दी में वारिस शब्द आमतौर पर इस्तेमाल होता है । इसीतरह उत्तराधिकार, वंशाधिकार, कुलाधिकार जैसे आशयों के लिए विरासत बेहद सामान्य शब्द है । इसी कड़ी से मीराथ का जन्म हुआ है जिसमें विरासत का ही भाव है । इसी कड़ी में अरबी का एक शब्द है मूरिस । अगर उत्तराधिकार पाने वाला वारिस है तो उत्तराधिकार सौंपनेवाला कौन ? ज़ाहिर है वसीयतकर्ता ही मूरिस है इसके अलावा पुरखा, वंश प्रवर्तक या पूर्वज भी इसकी अर्थवत्ता में आते हैं । हिन्दुस्तानी ज़बान से हिन्दी को यह शब्द उत्तराधिकार में तो नहीं मिला मगर शेरो-शायरी में यह मूरिस चलता है जैसे, अकबर इलाहाबादी साहब ने फ़र्माया है – डारविन साहब हक़ीक़त से निहायत दूर थे । मैं न मानूंगा कि मूरिस आप के लंगूर थे ।। हाँ, मूरिस की कड़ी में मौरुस ज़रूर नज़र आता है जिसका इस्तेमाल अदालती भाषा में आज भी खूब होता है और बोलचाल में भी इसका दख़ल बना हुआ है । मौरुस का शुद्ध अरबी रूप मौरुथ है जिसका अर्थ है पैतृक या उत्तराधिकार में प्राप्त । हिन्दी में उत्तराधिकार, विरासत आदि अर्थों में इसका मौरूसी रूप ज्यादा प्रचलित है ।
इतिहासविद् डॉ. रहीस सिंह अपनी पुस्तक मध्यकालीन भारत में लिखते हैं कि “मध्यकालीन दक्कन की मीरासी व्यवस्था भूमि-व्यवस्था में सबसे प्रमुख और प्रथम श्रेणी की थी । यह कृषक स्वामित्व की व्यवस्था थी । भू-व्यवस्था के तहत मीरास का तात्पर्य उस भूमि से है जिस पर व्यक्ति का एकछत्र पुश्तैनी अदिका हो । मराठी दस्तावेजों में इसका प्रयोग ऐसे किसी पुश्तैनी और हस्तान्तरित अधिकार के लिए किया गया है जिसे व्यक्ति ने उत्तराधिकार में खरीदकर या उपहार द्वारा प्राप्त किया हो ।” महाराष्ट्र में वंशानुगत रूप से भूमि स्वामित्व अधिकार प्राप्त व्यक्ति को मीरासदार (मीराज़दार) कहते हैं और जागीरदार, जमीनदार की तरह मीरासदार का प्रयोग कुलनाम के तौर पर भी होता है । मोल्सवर्थ के कोश में मीरासी का एक रूप मीराशी भी बताया गया है । मध्यकालीन दक्कन में मीरासी का तात्पर्य खुदकाश्त के सम्बन्ध में चार वर्गों से भी था जिसमें सबसे क्रमशः ‘वतनदार’, ‘मीरासदार’, ‘ऊपरी’ और ‘ओवांडकरू’ शामिल थे । महारों के लिए भी ‘मिरासी’ नाम प्रचलित था जो गांव की चौकीदारी करते थे ।
उत्तर भारत में ‘भांड-मीरासी’ युग्म के दोनो ही शब्दों को जातीय पहचान भी मिली हुई है । उस्ताद रजब अली खाँ पर लिखी अपनी पुस्तक में अमीक हनफ़ी कहते हैं- “मीरासी शब्द का अर्थ आनुवंशिक है । ऐसी संगीतजीवी जातियाँ जिन्होने कालान्तर में धर्म-परिवर्तन कर लिया और मुसलमान हो गईं, मीरासी कहलाने लगीं ।” जब राजे-रजवाड़े न रहे, इन कलाजीवी वर्ग के लोगों की अवनति हुई और ये गाने-बजाने वाले कहलाने लगे । कोठों के साज़िन्दों को भी मीरासी कहते हैं । मज़हबी तौर पर ये मुसलमान होते हैं मगर मुस्लिमों में भी इनकी जात नीच समझी जाती है । शेरो-सुख़न की भूमिका में अयोध्याप्रसाद गोयलीय लखनऊ के वाजिदअली शाह के दरबार का वर्णन करते हुए लिखते हैं –“उनके दरबार में शायरों-गवैयों का तो बोलबाला था ही, नचैयों, भांडों, मसख़रों और लतीफ़े कहनेवालों की भी एक बहुत बड़ी जमाअत थी । ‘भड़ुवे-मीरासी’ मीर साहब कहलाए जाते थे ।” ऐसा भी माना जाता है कि मीरासियों का रिश्ता पैगम्बर मोहम्मद की शिक्षाओं को सुनने वाले शुरुआती लोगों के समूह से है । इनमें से कुछ लोग इस्लाम के प्रचारक बने और ईरान, अफ़गानिस्तान तक आए । सूफ़ी-सन्तों के काफ़िलों में के साथ ये मीरासी चलते थे । ख़्वाज़ा मोईनुद्दीन चिश्ती के साथ भी ऐसे ही मीरासी जत्थे आए जो बाद में राजस्थान में बस गए । इनके डेरो प्रायः आबादी के बाहर होते थे और इनका मुखिया मीर कहलाता था
अब बात भांड की । संस्कृत में कहने, सुनने, पुकारने, शोर मचाने के आशय वाली धातु भण् है । कहने की ज़रूरत नहीं कि दरबारों में राजाओं की कीर्ति का बखान करनेवाले भांड समुदाय का नाम भी इसी भण् धातु से हुआ है। भण् से बने भाण्डकः का मतलब होता है घोषणा करनेवाला। किसी ज़माने में भाण्ड सिर्फ विरुदावली ही गाते थे और वीरोचित घोषणाएं करते थे ताकि सेनानियों में शौर्य और वीरता का भाव जागे। कालांतर में एक समूचा वर्ग राज्याश्रित व्यवस्था में शासक को खुश करने के लिए झूठा स्तुतिगान करने लगा । इसे समाज ने भँड़ैती कहा और शौर्य का संचार करनेवाला पुरोहित भाण्ड बनकर रह गया। जोर-शोर से मुनादी करनेवाले को जिस तरह से ढ़िंढोरची, भोंपू आदि की उपमाएँ मिलीं जिनमें चुगलखोर, इधर की उधर करनेवाला, एक की दो लगानेवाला और गोपनीयता भंग करनेवाले व्यक्ति की अर्थवत्ता थी उसी तरह भांड शब्द की भी अवनति हुई और भाण्ड समाज में हँसी का पात्र बन कर रह गया। स्वांग करनेवाले व्यक्ति, हास्य कलाकार, विदूषक भी भाण्ड की श्रेणी में आ गए । इसके अलावा चुगलखोर और ढिंढोरापीटनेवाले को भी भाण्ड कहा जाने लगा। यही नहीं, चाटूकार और चापलूस व्यक्ति को दरबारी भांड की उपाधि से विभूषित किया जाने लगा जो किसी ज़माने में दरबार का सम्मानित कलाकार का पद होता था । जब बहुत कुछ कहने-सुनने को कुछ नहीं रहता तब भी अक्सर हम कुछ न कुछ कहते ही हैं जिससे भुनभुनाना कहते हैं ।
प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर पर 3:14 PM लेबल: god and saints, government, इतिहास, इस्लाम islam, नामपुराण, पद उपाधि, व्यवहार, संस्कृति
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6 कमेंट्स:
अर्थ अभी भी बहुत नहीं बदला है भांड का..मतलब वही है..
'साहबे मीरास' थे पहले कभी,
'भांड' होते जा रहे है आजकल.
http://aatm-manthan.com
सुन्दर आलेख.मीर शब्द की उत्पत्ति और विकास पर ध्यान दें. मीर शब्द का अमीर से भी संबंध है. मीर और मिर्ज़ा शब्द का चलन शाहजहाँ काल से मिलता है. संयोग से ये दोनों शब्द मुसलमानों में शिया संप्रदाय या समुदाय में मिलते है. मीर सय्यद होते थे और वाजिद अली शाह के शासनकाल में मीर साहेबान की बड़ी इज्ज़त थी. मीर अनीस, मीर दबीर जैसे मर्सिया-गो तो उर्दू अदब में मर्सिया जैसे सिंफ को अमर बनाने में मील का पत्थर साबित हुए. मीर शिया-सय्यद होते हैं. भांड या मीरासी नहीं. इनके पूर्वजों का संबंध मूलतः ईरान से था क्योंकि ईरान की शहजादी शहरबनों मुहम्मद साहब के निवासे हज़रत इमाम हुसैन की निकाही पत्नी थीं. जिन्हें कर्बला की जंग के बाद कैदियों के रूप में शाम यानि अज के सीरिया की गलियों में नंगे सिर फिराया गया था. इसी काफले के बहुत से सदस्य खैबर के रस्ते लाहौर, वहां से गुजरात, उत्तरप्रदेश और हैदराबाद में आकार बस गए. उनमें अनेक हुसैनी ब्रह्मण भी थे जिनके परिवार आज भी इलाहाबाद और बिजनौर में बसे हुए हैं.
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एक उत्तम लेख. मी स्वत: आडणावाने मिराशी आहे. पूर्वी वा वि मिराशी, यशवंतबुवा मिराशी अशी काही प्रसिद्ध व्यक्तीमत्व महाराष्ट्रात होउन गेली. मिरास किंवा मिराशी हे पड़ा असल्याकारणे हे आडनाव सर्व जातीत आढळते. परन्तु प्रामुख्याने कराडे ब्राम्हण, कुणबी व मराठा या जातीमधे दिसते. परंतु आपल्या लेखातून अत्यंनत उपयुक्त माहीती मिळाली. धन्यवाद.
Sahi bol rhe ho janab
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