किसी व्यक्ति की विद्वत्ता का उल्लेख करते हुए हम ‘आलिम-फ़ाज़िल’ पद का प्रयोग भी करते हैं । यह हिन्दी साहित्य में भी मिलता है और बोलचाल बोलचाल की भाषा में भी इसका प्रयोग होता है । ‘आलिम-फ़ाज़िल’ में मूलतः खूब पढ़े-लिखे होने का भाव है । शाब्दिक अर्थ की दृष्टि से देखें तो ‘आलिम’ यानी शिक्षक, जानकार । जिसने बुनियादी तालीम ली हो । इस तरह आलिम का अर्थ स्नातक होता है । ‘फ़ाज़िल’ में उत्कृष्टता का भाव है ज़ाहिर है ‘फ़ाज़िल’ यानी उच्चस्नातक । इस तरह आलिम-फ़ाज़िल की मुहावरेदार अर्थवत्ता बनी खूब पढ़ा-लिखा, विद्वान, काबिल आदि । जहाँ तक आलिम-फ़ाज़िल वाले फ़ाज़िल का प्रश्न है, यह सेमिटिक धातु f-z-l (फ़ा-ज़ा-लाम) का शब्द है इसका सही रूप ‘फ़ज़्ल’ है जिसमें मेहरबानी, कृपा, दया, योग्यता, क़ाबिलियत, गुणवत्ता के साथ साथ आधिक्य, श्रेष्टत्व, अत्युत्तम जैसे भाव हैं । '”खुदा के फ़ज़ल से” या “अल्लाह के फ़ज़ल” से जैसे वाक्यों में हम इसे समझ सकते हैं । f-z-l के भीतर सम्मानित करना, विभूषित करना जैसे भाव हैं । ‘फ़ज़्ल’ की कड़ी में ही आता है ‘अफ़ज़ल’ जो चर्चित व्यक्तिनाम है जिसका अर्थ है आदरणीय, सम्मानित, मेहरबान, कृपालु, गुणवान, सर्वोत्तम आदि । स्पष्ट है कि आलिम यानी होने के बाद फ़ाज़िल होना भी ज़रूरी है । यह उससे ऊँची उपाधि है । इल्म की तालीम लेने के बाद आप आलिम बनते हैं । यह ज्ञान जब चिन्तन की ऊँचाई पर पहुँचता है तो ‘आलिम’ आगे जाकर ‘फ़ाज़िल’ बनता है ।
इसी कड़ी में ‘फ़ुज़ूल’ भी आता है । ‘फ़िज़ूल’ का सबसे ज्यादा प्रयोग अत्यधिक खर्च सम्बन्ध में होता है जैसे ‘फ़िज़ूलखर्च’ या ‘फ़िज़ूलखर्ची’ आदि । दिलचस्प यह है कि यह फ़िज़ूल दलअसल फ़ज़ल या फ़ज्ल के पेट से निकला है जिसका अर्थ है कृपा, दया, सम्मान, मेहरबानी, विद्वत्ता, श्रेष्ठत्व आदि । फ़ज़्ल में निहित तमाम सकारात्मक भावों से फ़ुज़ूल / फ़िज़ूल में निहित अनावश्यक, अत्यधिक, बेकार, बेमतलब, बेकार, निकम्मा जैसे भावों से साम्य नहीं बैठता । जान प्लैट्स के अ डिक्शनरी ऑफ उर्दू, क्लासिकल हिन्दी एंड इंग्लिश के मुताबिक यह फ़ज़्ल का बहुवचन है । फ़ज़्ल में निहित अत्यधिक के भाव पर गौर करें । हर पैमाने पर जो अपने चरम पर हो, उसका बहुवचन कैसा होगा ? अति सर्वत्र वर्जयेत । अत्यधिक मिठास दरअसल कड़ुआ स्वाद छोड़ती है । फ़ज़्ल के फ़ुज़ूल बहुवचन का लौकिक प्रयोग दरअसल इसी भाव से प्रेरित है । अत्यधिक श्रेष्ठत्व दम्भ पैदा करता है । दम्भ के आगे श्रेष्ठत्व फ़िज़ूल हो गया । बहुत सारी चीज़ों का संग्रह भी बेमतलब का जंजाल हो जाता है । फ़िज़ूल में यही भाव है ।
आलिम शब्द का ‘इल्म’ से रिश्ता है । अन्द्रास रज्की के अरबी व्युत्पत्ति कोश में आलिम के मूल में ‘अलामा’ शब्द है जिसमें ज्ञान का भाव है । जिस तरह विद्वत्ता का विद्या से रिश्ता है और विद्या के मूल में ‘विद्’ धातु है जिसमें मूलतः ज्ञान का भाव है । वह बात जो उजागर हो, पता चले । इसीलिए ‘ज्ञानी’ को ‘जानकार’ कहते हैं । ‘ज्ञान’ का ही देशी रूप ‘जान’ है जिससे ‘जानना’, ‘जाना’ (तथ्य), ‘जानी’ (बात) या ‘जानकारी’ जैसे शब्द बने हैं । अरबी मूल का है इल्म जिसमें जानकारी होना, बतलाना, ज्ञान कराना, विज्ञापन जैसे भाव है । सेमिटिक धातु अलीफ़-लाम-मीम (a-l-m) में जानना, मालूम होना, अवगत रहना, ज्ञान देना या सूचित करना जैसे भाव हैं । इससे बने कई शब्द हिन्दी में प्रचलित हैं । ‘आलिम’ का मूल अर्थ है अध्यापक, पंडित, अध्येता, विद्वान आदि । महाकवि सर मोहम्मद इक़बाल की ख्याति एक दार्शनिक कवि की थी और इसीलिए उन्हें ‘अल्लामा’ की उपाधि मिली हुई थी जिसका अर्थ है सर्वज्ञ, सर्वज्ञाता, पंडित आदि । इसी कतार में आता है ‘उलेमा’ जिसका अर्थ भी ज्ञानी, जानकार, शिक्षक होता है । इसका सही रूप है ‘उलमा’ ulama मगर हिन्दी में इसे उलेमा ही लिखा जाता है । बहुत सारे आलिम यानी उलमा यानी विद्वतजन । मगर हिन्दी के बड़े-बड़े ज्ञानी भी का बहुवचन ‘उलेमाओं’ लिखते हैं । यह ग़लत है । उलेमा अब धार्मिक शिक्षक के अर्थ में रूढ़ हो गया है ।
हिन्दी में ‘तालीम’ talim शब्द भी शिक्षा के अर्थ में खूब चलता है । ‘तालीम’ भी ‘इल्म’ से जुड़ा है और इसके मूल में अरबी का ‘अलीमा’ है । अन्द्रास रजकी के कोश के मुताबिक अरबी के ‘अलामा’ और ‘अलीमा’ शब्दों में मूलतः ज्ञान का आशय है । तालीम शब्द के मूल में अलीमा है जिसमें अलिफ़-लाम-मीम ही है मगर ‘ता’ उपसर्ग लगा है जिसमें परस्परता, सहित या तक का भाव है । कृपा कुलकर्णी के मराठी व्युत्पत्ति कोश के मुताबिक इसका अर्थ अध्यापन, अनुशासन, नियम, व्यायाम और प्रशिक्षण है । इसका मूल रूप तअलीम t’alim है । इधर मराठी में शारीरिक व्यायाम के अर्थ में तालीम शब्द रूढ़ हो गया है । मराठी में तालीमखाना यानी व्यायामशाला या अखाड़ा होता है और तालीमबाज यानी व्यायामप्रिय । जबकि हिन्दी में तालीम से बने तालीमगाह यानी पाठशाला और तालीमयाफ़्ता यानी पढ़ा-लिखा जैसे शब्द हिन्दी के जाने-पहचाने हैं । आजकल हमारे शिक्षा संस्थानों में भी दरअसल दाव-पेच ज्यादा होते हैं । उन्हें तालीमगाह की बज़ाय तालीमखाना यानी अखाड़ा कहना बेहतर होगा ।
झंडे को अरबी में अलम alam कहा जाता है । सेमिटिक धातु a-l-m में निहित जानकारी कराने के भाव पर गौर करें । कोई भी ध्वज दरअसल किसी न किसी समूह या संगठन की पहचान होता है । अलम का अर्थ चिह्न, निशान इस मायने में सार्थक है । ध्वजवाहक के लिए हिन्दी में झंडाबरदार शब्द है जिसकी मुहावरेदार अर्थवत्ता है । यह हिन्दी के झंडा के साथ फ़ारसी का बरदार लगाने से बना है । मुखिया, नेता या अगुवा के अर्थ में भी झंडाबरदार शब्द प्रचलित है । ध्यान रहे किसी संगठन या समूह की इज़्ज़त, पहचान उसके मुखिया से जुड़ी होती है । उसे बरक़रार रखने वाला ही झंडाबरदार कहलाता है । हालाँकि इसमें भाव ध्वज थामने वाले का ही है । अरबी के अलम के साथ फ़ारसी का बरदार लगाने से बना है जिसका ‘वाला’ का भाव है । इस तरह अलमबरदार का अर्थ भी पताका थामने वाले के लिए प्रचलित है ।
जिस तरह अलीमा अर्थात ज्ञान में ‘ता’ उपसर्ग लगने से तालीम बनता है उसी तरह ‘मा’ उपसर्ग लगने से ‘मालूम’ बनता है । अवगत रहने, पता रहने, जानकारी होने के अर्थ में मालूम शब्द रोज़मर्रा की हिन्दी के सर्वाधिक प्रयुक्त शब्दों में शुमार है । मालूम में ज्ञात अर्थात known का भाव है । अलीमा में know का भाव है तो ‘मा’ उपसर्ग लगने से यह ज्ञात में बदल जाता है । उत्तर प्रदेश के देवबंद में इस्लामी शिक्षा का विख्यात केन्द्र ‘दारुलउलूम’ है जिसका अर्थ है विद्यालय यानी वह स्थान जहाँ ज्ञान मिलता हो । इसमें जो उलूम है उसका अर्थ है विविध विद्याएँ, विषय अथवा ज्ञान की बातें । दरअसल यह इल्म यानी ज्ञान का बहुवचन है । जिस तरह आलिम का बहुवचन उलमा हुआ वैसे ही इल्म का बहुवचन उलूम हुआ अर्थात विविध आयामी सांसारिक और आध्यात्मिक ज्ञान । हमें जिस चीज़ का भी इल्म है, दरअसल वह सब संसार और भवसंसार से सम्बन्धित है इसलिए इसी कड़ी में आता है आलम यानी संसार । जो कुछ भी ज्ञात है, वही संसार है ।
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