गौर करें प्राचीन अरब के बद्दूजन (बेदुइन) कबाइली घुमक्कड़ ही थे। पशुओं और खुद की आहारचर्या की खातिर निरन्तर भटकन ही जीवन। पशुओं के अनेक समूहों में अपने रेवड़ की सुरक्षा, देखरेख तभी बेहतर हो सकती है जब उन पर निशान लगाया जाए। अक्सर पहचान के लिए चिह्नित करने का आसान तरीका था, इन पशुओं की पीठ या पुट्ठों पर तपती छड़ से दाग देना। भेड़, बकरी, ऊँट जैसे पशु ही बद्दुओं की सम्पत्ति थे। इनमें ऊँट के बिना तो रेगिस्तान से पार नहीं जाया जा सकता था। ऊँट बद्दुओं के लिए दुनिया की सबसे सुन्दर चीज़ था। अरबी में ‘ग’ और ‘ज’ आपस में बदलते हैं। अरबी में ऊँट को ‘गमाल’ कहते हैं। ‘क’ और ‘ग’ एक ही वर्णक्रम में आते हैं। इसी ‘गमाल’ से अंग्रेजी में ‘कैमल’ बना। ‘जमाल’ का अर्थ ऊँट भी होता है और यह अनायास नहीं कि इसका अर्थ सौन्दर्य भी होता है। रेगिस्तान में घास नहीं होती, कँटीली झाड़ियाँ होती हैं। अल सईद, एम बदावी के कुरानिक कोश को मुताबिक खा-बा-ता में निहित तोड़ना, कूटना, ठोकना जैसे भावों के अलावा दोनों पैरो से रौंदने का भाव भी निहित है। ध्यान रहे पशुओं के लिए ऊँची झाड़ियों से पत्तियाँ तोड़ने और उन्हें दोनों पैरों से रौंद कर टहनियों से मुक्त करने का आशय है। जॉन रिचर्ड्सन के अरबी-फ़ारसी कोश में इसके अलावा इसमें चीज़ों को एक दूसरे में मिलाने, ऊँट की रानों में निशान लगाने और ऊँट द्वारा अपने चारों खुरों से ज़मीन को खुरचने, कुरेदने जैसे भावों का स्पष्ट उल्लेख भी सिद्ध करता है कि यह मूलतः पशुचारी सभ्यता से विकसित हुआ शब्द है। ख़ब्त के अन्दर मूल भाव है सब कुछ गड्डमड्ड हो जाना, आपस में मिला देना, अव्यवस्था फैलना, उथल-पुथल फैलना
प्रश्न उठता है खब्त में निहित उक्त सारी अभिव्यक्तियों में उन्माद, पागलपन, धुन, सनक या झख जैसे आशय कैसे शामिल हुए ! बात दरअसल ये है कि शब्दों का अर्थान्तर, अर्थविकास, अर्थावनति, अर्थोपकर्ष जैसी स्थितियाँ भी सामाजिक विकास के साथ-साथ अभिव्यक्ति का दायरा बढ़ने से होती चलती हैं। रिचर्ड्सन एक और महत्वपूर्ण अर्थ बताते हैं- किसी भी स्थान पर पर बैठ कर सुस्ता लेना या सो जाना। यह भी गड़रिया समाज का गुण है। जब चरने-विचरने की जगह मिल जाती है तब मवेशी चरते रहते हैं और गोपाल सुस्ताते रहते हैं। कई बार इसी गफ़लत में पशुओं के रेवड़ एक दूसरे में मिल जाते हैं। गौर करें पशुओं पर निशान इसीलिए लगाया जाता है ताकि उन्हें पहचाना जा सके। इसका दूसरा अर्थ यह है कि सारे पशु एक समान दिखते हैं। उन्हें किसी निशान के आधार पर ही पहचाना जा सकता है अन्यथा भ्रम की स्थिति बनी रह सकती है। पशुओं की अदला-बदली, फिर उन्हें सही समूह तक पहुँचाना, उससे उपजने वाले झगड़ों आदि के चलते निशान देने की क्रिया को भी खबाता नाम मिला। खब्ती के लिए भ्रमित शब्द की अर्थवत्ता का एक कारण यह भी है कि भ्रम शब्द ही भ्रमण से बना है अर्थात जिसका दिमाग घूमा हुआ हो।
सो, खब्त का मूलभाव खबाता में निहित मिलावट से ही आ रहा है। वह चाहे मवेशियों का आपस में मिलना हो या उनके लिए दाना-रातिब को आपस में मिलाना हो। आगे चल कर यह भाव सब भ्रमित होने के सन्दर्भ में रूढ़ हुआ। ख़ब्त यानी सब कुछ गड़बड़ कर देना। मद्दाह इसे बुद्धि में पागलपन की मिलावट कहते हैं अर्थात बुद्धि विकार। ख़ब्ती या ख़ब्तुल-हवास यानी विकृतबुद्धि, पागल, मिराक़ी, विकृतमस्तिष्क, दूषितबुद्धि। यूँ देखा जाए तो प्रत्येक व्यक्ति में कुछ न कुछ ख़ब्त तो होती ही है। चलते-चलते अकबर इलाहाबादी साहब के शेर से बात ख़त्म करते हैं-
हम ऐसी कुल किताबें काबिले जब्ती समझते हैं
जिन्हें पढ़कर के लड़के बाप को खब्ती समझते हैं
महत्वपूर्ण कड़ी- रेगिस्तानी हुस्नो-जमाल
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