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संस्कृत में जाने, चलने, गति करने, कहीं निकल जाने के भावों के भाव गम् धातु में अभिव्यक्त होते हैं । गमन एक क्रिया है जिसका अर्थ है जाना । यह हिन्दी में भी प्रचलित है। किसी चीज़ के लापता हो जाने या गायब हो जाने के लिए फ़ारसी का गुम शब्द इसी गमन वाले गम् से सम्बन्धित है । अवेस्ता और पहलवी में भी गम् ही सुरक्षित है मगर फ़ारसी में इसका कायान्तरण गुम के रूप में हो जाता है और अर्थवत्ता में भी खो जाने, गायब हो जाने गुम हो जाने का भाव आ जाता है। जब दिमाग़ कहीं गायब हो जाता है, चला जाता है तब व्यक्ति गुम्मा हो जाता है। गुमसुम हो जाता है। दरअसल गमन्या की आमद भी इसी गम् से हो रही है जिससे फ़ारसी का गुम जुड़ता है। गमन्या का मूल गमन से माना जा सकता है। गमन्या वह है जो प्रकट रूप में आपके सामने है मगर जिसका ध्यान कहीं ओर गमन करने चला गया है। ठीक वही बात की एक ही स्थान पर बैठे हैं, न खुद का ध्यान, न दुनिया का। अब ऐसी अवस्था तो जड़ की ही होती है जो टस से मस नहीं होती। गमन्या में भी वही बात है। दीन-दुनिया से बखबर, मूढ़मति ही गमन्या है।
यही बात गेल्या के सन्दर्भ में भी लगती है। ब्रज भाषा में गैल शब्द का अर्थ होता है राह, रास्ता। गेल्या का रिश्ता इस गैल से नहीं है। गम का ही भूतकालिक रूप गत् होता है। मराठी में भी इल्ल, अल्ल प्रत्ययों के लगने से पूर्वी बोलियों की तरह ही नए शब्द बनते हैं जैसे मैथिली, भोजपुरी में गत में इल्ल लगने से गइल्ल > गेल्ल> गेल के क्रम से विकास होगा। मराठी में गईल के अर्थ में गेला शब्द बनेगा जिसका अर्थ है चला गया। मुझे लगता है मालवी का गेल्या इसी तर्ज पर गेला के “चला गया” वाले अर्थ में प्रचलित हुआ होगा। शब्द बनने की प्रक्रिया वही रही होगी जो गमन से गमन्या बनने में नज़र आ रही है।
हालाँकि ये मेरा अनुमान है। मालवी भाषा पर भाषा वैज्ञानिक नज़रिये से बहुत कम काम हुआ, जबकि राजस्थानी, मराठी, गुजराती, ब्रज, बुंदेली, निमाड़ी जैसी अनेक लोकबोलियों के जीवंत सम्पर्क से यह खूब समृद्ध रही है। पर हमारी लोकबोलियों की तरफ विद्वानों का ध्यान कम ही गया है इसीलिए इस विषय में सन्दर्भ सामग्री बहुत कम है। इच्छा है कि सेवानिवृत्ति के बाद मालवा में घूम-फिर कर इस विषय पर कुछ काम किया जाए, काम का तलाशा जाए।
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