Thursday, May 5, 2016

टीवी वाले पोंगा-पंडित


टी वी वाले आजकल चाहे जिस ज्ञान-पुंगव को पकड़ लाते हैं और पूरे देश से उसका परिचय धर्मगुरू कहकर कराते हैं। उनकी बकवास सुनकर भी शर्म आती है। माथे पर त्रिपुण्ड लगाने, उत्तरीय डाल लेने, गैरिकवस्त्र ओढ़ लेने मात्र से इनकी निगाह में कोई धर्मगुरू हो जाता है... कम से कम वाम विचारधारा वाले चैनल को तो इस बात का ध्यान रखना चाहिए। अव्वल तो धर्म जैसी कोई चीज़ जब उनकी निगाह में नहीं है तब धर्मगुरू क्या चीज़ है? धर्मगुरू वैसे तो नहीं होते जैसे टीवी स्टूडियो में नज़र आते हैं। जैसे टीवी वालों को शब्द और अर्थ की समझ नहीं, वैसे ही धर्म और गुरू की भी समझ नहीं।

प्रसंगवश बताते चले हिन्दी में 'पोंगा' शब्द मूर्ख के अर्थ में इस्तेमाल होता है। पोंगा में खाली, रिक्त, खोखला, थोथा जैसे आशय हैं। अनेक भाषाशास्त्रीय साक्ष्य हैं जिनसे पता चलता है कि पोंगा शब्द दरअसल संस्कृत के 'पुंगव' शब्द का विकास है जिसमें अर्थापकर्ष की प्रक्रिया भी जुड़ी हुई है। पुंगव का मूल अर्थ है अपने क्षेत्र का श्रेष्ठ, नायक, प्रमुख आदि। गौरतलब है नर-पुंगव का अर्थ है नर-श्रेष्ठ।

भाषिक विश्व में ‘ग’ और ‘ज’ में अदला-बदली होती है। गौर करें संस्कृत और हिन्दी के पुंज शब्द पर। हिन्दी की तत्सम शब्दावली में पुंज जिसमें समूह, राशि, अम्बार, आयतन, मात्रा जैसे भाव हैं। पुंज का ही एक रूप पुंग होता है। ज़ाहिर है 'ज' का रूपान्तर 'ग' में होने से पुंज से पुंग बन जाता है। पुंग का अर्थ भी अम्बार, राशि या मात्रा होता है। इससे ही बना है पुंगव जिसमें गुणों की खान, गुणों का समूह, गुणराशि का भाव निहित है। किसी व्यक्ति का सर्वश्रेष्ठ या गुणों की खान होना ही उसे नायक, मुखिया अथवा पुंगव बनाता है। ज्ञानपुंज, प्रतिभापुंज पर भी दूसरे अर्थ में गौर कर लें।

पुंज से ही पूंजी शब्द बना है जिसका अर्थ भी राशि या समूह ही होता है। समाज के नायकों जैसे अर्जुन को नर-पुंगव कहा जाता है। इसी तरह गुरुओं में श्रेष्ठ को गुरू-पुंगव होता है। अक्सर यह होता है कि जब समाज अपने आदर्शों को फ़िसलते देखता है तब उस शब्द के मानी भी बदल जाते हैं। इसे अर्थापकर्ष कहा जाता है यानी लफ्ज़ों का अपने मायने खो देना। दिखावटी समाज में जब मूर्ख लोग गाल बजाने लगें, जयचंद जैसे लोग नायक होने लगें और सन्तों को जेल में शरण मिलने लगे तब पुंगव का अर्थ पोंगा हो जाता है- यानी खोखला, खाली, पोला।

पुंगव से पहले पोंगा बना फिर पुंगी और पोंगली जैसे शब्द भी बन गए जिसका अर्थ नली, खोखल आदि होता है। पुंगी एक किस्म की पीपनी को भी कहते हैं जिसमें हवा फूँकने से बड़ी तेज पीsss आवाज़ होती है। खोखल से हवा के गुज़रने पर ध्वनि निकलती ही है। मस्तिष्क में अगर चिन्तन होगा तो ज्ञान उद्भूत होता है। वर्ना यह समझ लिया जाता है कि उसमें भूसा भरा है। पाण्डित्य प्रदर्शन ऐसी वृत्ति है जिससे बिरले ही बच पाते हैं।

थोथा चना, बाजे घना को ही ले, वजह वही है, खाली जगह पर आवाज़ पैदा होती है। बिना ज्ञान का पण्डित गाल बजाता है... पंडित सोइ जो गाल बजावा। कुछ स्थानों पर इसे मूरख सोई जो गाल बजावा भी कहा गया है। सो ऐसे ज्ञानियों को लोक में बतौर पोंगा-पण्डित ख्याति मिल जाती है। पोंगा-पण्डित का अर्थ है पाण्डित्य जताने का प्रयास करने वाला ऐसा व्यक्ति जो मूलतः मूर्ख है।
ये सफर आपको कैसा लगा ? पसंद आया हो तो यहां क्लिक करें

13 कमेंट्स:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (07-05-2016) को "शनिवार की चर्चा" (चर्चा अंक-2335) पर भी होगी।
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

जीवन और जगत said...

बहुत बढि़या।

Sagar Barad said...

नमस्ते मेरा नाम सागर बारड हैं में पुणे में स्थित एक पत्रकारिकता का स्टूडेंट हूँ.

मेंने आपका ब्लॉग पढ़ा और काफी प्रेरित हुआ हूँ.

में एक हिंदी माइक्रो ब्लॉग्गिंग साईट में सदस्य हूँ जहाँ पे आप ही के जेसे लिखने वाले लोग हैं.

तोह क्या में आपका ब्लॉग वहां पे शेयर कर सकता हूँ ?

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आभार!

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Unknown said...


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Baldev Singh said...

T.V. vale kya karen.Ek hod hai ek-doosre se aage niklne ki.T.V valon ko khud nahi pata ki Pandit aur Ponga Pandit main kya antar hai

Baldev Singh said...

dd

Baldev Singh said...

Bahut Badia

संजय साह said...

आपका यह लेख "टीवी वाले पोंगा-पंडित" पढ़ा अच्छा लगा। अजित सर, आपके ब्लाॅग का मैं नियमित पाठक हूँ। आजकल हिन्दी अख़बारों में जो लिखी जाती है कृप्या उसपर विचार अवश्य करें। हिन्दी हमारी मातृभाषा है इसको समृद्ध बनाने के लिए सभी प्रयासरत हैं, जिनमें से एक मैं भी हूँ; लेकिन हिन्दी में सबसे बड़ी समस्या जो आजकल दिख रही है, वह है एकरूपता की कमी। चन्द्रबिन्दु के जगह अनुस्वार का उपयोग, जिससे बहुत ही भ्रम पैदा होता और अर्थ का अनर्थ हो जाता है। कृप्या मेरे ब्लॉग पर पधारें और इस आलेख को पढ़ने का अनुग्रह प्रदान करें। यह मेरा ब्लॉग के दुनिया का शुरूआती दौर है; फिर भी एक बार जरूर पधारें। धन्यवाद!
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संजय साह said...

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Unknown said...

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Anonymous said...

WELL DONE

Anonymous said...

आपने टीवी के धर्मगुरूओ/ पोंगा पंडित की व्याख्या एकदम सही की है.

L N Srinivasakrishnan said...

गव शब्द साण्ड संकेतक है - यह मेरा मानना है । नरपुंगव और पुरुषर्षभ पर्यायवाची शब्द हैं । देखें -

1 puMgava m. (ifc. f. %{A}) a bull La1t2y. Hariv. ; a hero , eminent person , chief of ifc. cf. %{kuru-p-} , %{gaja-p-} &c.) ; a kind of drug L. ; %{-ketu} m. `" marked by a bull "'N. of S3iva Kum.

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