Thursday, January 17, 2008

लुधियाने की लड़की

स कविता को किसी भूमिका की दरकार नहीं है । फ़क़त इतना ही बताना चाहूंगा कि ये मेरी उस थाती का हिस्सा है जिसे मैने बड़े जतन से संजोया है और ये सिलसिला जारी है। इसे सुरक्षित रखने की खातिर मैं अपनों से भी बुरी तरह झगड़ने लगता हूं। जगतार पपीहा साहब की यह रचना ज्ञानोदय के अक्तूबर 1961 के अंक से ली गई है यानी मेरे जन्म से भी पहले की है। काफी जर्जर अवस्था में है यह अंक। इस कविता को पढ़ें और देखें कि इसमें क्या आपको आज की दिल्ली नज़र आती है ? लुधियाने की लड़की की चिंताएं अपनी जगह वाजिब हैं मगर मुझे ये सोचकर बड़ा
अच्छा लग रहा है कि देर रात आने वाले पति के साथ उसके दोस्त के बारे में सिर्फ दिमाग मे कूड़े वाली चिंता ही लड़की को परीशां कर रही है कोई और नहीं। सच कह रहा हूं न.....?




लुधियाने की लड़की बहुत परीशान है

अकेली इंडिया गेट तक घूमने कैसे जाए
अकेली बाजार से साग -सब्जियां कैसे लाए
अकेली सारा दिन कैसे रहे एक कमरे में बंद
अकेली कैसे ढोलक पर गीत गाए
लुधियाने की लड़की बहुत परीशान है

शौहर दस बजे रात को दफ्तर से आता है
अक्सर ही साथ में दोस्त कोई लाता है
करता रहता है मोटी किताबों की भारी भारी बातें
इतना कूड़ा दिमाग में कैसे समाता है
लुधियाने की लड़की बहुत परी शान है

इतनी तेज़ी में कहां भागते हैं सड़को पर इतने लोग
जीवन में मिलता नहीं, कहीं रुकने का संयोग
टैक्सी के नीचे एक बूढ़ी औरत दब जाती है
मौत ही दवा है, इतना कठिन है शहर का रोग
लुधियाने की लड़की बहुत परीशान है

आओ, आज घर में ही बैठो, कुछ बात करें
टप्पे गा-गाकर आंगन में फूलों की बरसात करें
लोग पागल कहेंगे, कहे, अपना क्या बिगड़ता है
गीतों की शादी रचाएं, प्यार की बारात करें
लुधियाने की लड़की बहुत परीशान है


-जगतार पपीहा अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...

Wednesday, January 16, 2008

प्रत्यंचा से छूटे तीर सा हो लक्ष्यवेध [जश्न-4]

ज्ञ अर्थात् अग्निपूजा संस्कार से उद्भूत यज्ञोपवीत और उपनयन संस्कारों के बारे में सफर की पिछली कड़ियों में चर्चा हुई । इस कड़ी में जानते हैं इसी संस्कार के एक अन्य नाम मुंज और नवजोत के बारे में ।हिन्दू संस्कारों में उपनयन, मुंज या यज्ञोपवीत विद्यारंभ संस्कार से जुड़ा है। इसके तहत पुराने ज़माने से ही बटुक को गायत्री उपदेश दिया जाता है। मराठीभाषी समाज में उपनयन या यज्ञोपवीत संस्कार इन नामों से भी जाना जाता है मगर इसका सर्वाधिक प्रचलित नाम है मुंज । मुंज यानी एक खास तरह की घास की करधनी जिसे मेखला की तरह बटुक की कमर में बांधा जाता है। मुंज बना है संस्कृत के मौंज से जिससे ही हिन्दी में बना मूंज शब्द जिससे रस्सी बुनी जाती है। जनेऊ, उपनयन या यज्ञोपवीत के वक्त इसे पहनना सबके लिए अनिवार्य कहा गया है चाहे वह ब्राह्मण हो या वैश्य। मुंज के अलावा मूर्वा नामक एक वृक्षलता का भी उल्लेख है जिससे मेखला बनाई जाती थी । गौरतलब है इस लता का सर्वाधिक व्यावहारिक उपयोग प्राचीनकाल में धनुष की प्रत्यंचा बनाने में किया जाता था। धनुष की प्रत्यंचा से से तान कर छोड़ा गया तीर जिस तरह सीधे लक्ष्य के वेधता है वैसे ही गुरू की दीक्षा रूपी कमान से निकल कर शिष्य भी जीवन लक्ष्यों को प्राप्त कर ही लेता है। शायद यही प्रतीक रहा होगा मूंज या मुर्वा की मेखला या करधनी बनाने के पीछे।
दिलचस्प बात यह कि अग्निपूजा से जुड़े इस प्रमुख संस्कार का संबंध प्राचीन ईरानियों अर्थात् जोरास्ट्रियन (जरथुस्त्रवादियो) से भी है। उनके यहां भी ऐसी ही क्रिया होती थी जिसे अब
नवजोत कहा जाता है। नवजोत पारसियों अथवा जरथुस्त्रवादियों की एक परम पवित्र रस्म होती है जिसे अग्नि की उपस्थिति में किया जाता है। दरअसल यह जनेऊ क्रिया ही है। इस रस्म के बिना पारसी कुल में जन्मा कोई भी व्यक्ति पारसी नहीं कहला सकता । नवजोत का मतलब भी यही है नव यानी नया और जोत यानी पूजा , भक्ति । इस तरह नवजोत का अर्थ हुआ नया भक्त । अर्थात पंथ का नया सेवक । इसके बिना पारसी धर्म में प्रवेश नहीं माना जाता। इसके अंतर्गत सदरः नाम का एक विशेष अंग वस्त्रम और कश्ती नाम का एक धागा जो जनेऊ जैसा ही होता है , आजीवन धारण करना अनिवार्य होता है । ब्राह्मणों में भी जब तक बच्चे का जनेऊ नहीं हो जाता उसे ब्राह्मण नहीं समझा जाता है। भारतीय पारसियों के अलावा नवजोत रस्म नौजूद के नाम से आज भी ईरानी जरथुस्त्रवादियों में प्रचलित है। नौजूद और नवजोत की समानता गौरतलब है। इनका मूल अवेस्ता ही है जो संस्कृत की बहन है।

आपकी चिट्ठी

सफर के पिछले पड़ाव गुरू के पास जाना ही उपनयन पर कई साथियों की चिट्ठियां मिलीं। इनमें सर्वश्री संजय, दर्द हिन्दुस्तानी, संजीव तिवारी , मीनाक्षी , इष्टदेव सांकृत्यायन, नारायणप्रसाद, जाकिर अली रजनीश, दिनेशराय द्विवेदी और संजीत त्रिपाठी हैं। आपका आभार। नारायणप्रसाद जी ने इस पोस्ट में जा रही एक चूक की तरफ ध्यान दिलाया । उनका आभारी हूं। और सावधानी बरतने का प्रयास करूंगा। भूल सुधार ली गई है। दर्द हिन्दुस्तानी जी भी सफर के हमराही बन गए हैं। उनका स्वागत है और उन्हें सफर से जोड़े रखने का प्रयास रहेगा। जाकिर अली रजनीश का भी स्वागत है।
अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...

Sunday, January 13, 2008

गुरू के पास जाना ही उपनयन [जश्न-3]

नेऊ या यज्ञोपवीत संस्कार के लिए ही एक अन्य प्रचलित शब्द है उपनयन संस्कार । वास्तव में यह हिन्दुओं के सभी संस्कारों में सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है। उपनयन का अर्थ है ले जाना, निकट लाना, खोजना, काम पर लगाना वगैरह ।
उपनयन बना है नी धातु में उप् उपसर्ग के प्रयोग से। इस तरह जो शब्द बना वह था उपनयः जिसका मतलब हुआ उपलब्धि, खोज ,काम पर लगाना, वेदाध्यन करना, दीक्षा देना आदि। यह नी धातु वही है जिससे नेता, नेतृत्व, नेत्री, नयन ,न्याय , अभिनय आदि अनेक शब्द बने हैं जिनमे ले जाना अथवा नेतृत्व के भाव शामिल हैं।
गौर करें कि उपनयन के संदर्भ में जो बार बार ले जाना , जाना, काम पर लगाना जैसे भाव सामने आ रहे हैं तो उसका वास्तविक अभिप्राय क्या है। धर्मग्रंथों मे इस शब्द का संदर्भ मूलतः विद्यारंभ से जोड़ा गया है। डॉ पाण्डुरंग वामन काणे के धर्मशास्त्र का इतिहास के मुताबिक इसे दो प्रकार से समझाया जा सकता है। (1) बच्चे को आचार्य के सन्निकट ले जाना (2) वह संस्कार या कृत्य जिसके जरिये बच्चा आचार्य के पास ले जाया जाए। इस संदर्भ में गौरतलब है कि पहला अर्थ आरंभिक अवस्था का है मगर जब इसे विस्तारपूर्वक किया जाने लगा तो दूसरा अर्थ ही प्रमुख हो गया इस संस्कार के बाद ही बालक या बटुक द्विज अर्थात जिसका दो बार जन्म हुआ हो, कहलाता है। । प्राचीनकाल में इसके पीछे भाव यह था कि बच्चे का भौतिक जन्म तो उसके माता-पिता से होता है परंतु सामाजिक रूप से प्रतिष्ठा हासिल करने के लिए आवश्यक बौद्धिक क्षमताओं और नैतिक बल उसे विद्याध्यन से मिलता है जो गुरुकुल में आचार्य प्रदान करते हैं। अतः यह माना गया कि बच्चे को दूसरा जन्म उसके गुरू प्रदान करते हैं। इसलिए द्विज शब्द चलन में आया। उपनयन के लिए आदर्श उम्र पांच वर्ष व अधिकतम आयु पच्चीस वर्ष निर्धारित है।
यह संस्कार अब भी समाज में प्रमुखता से होता है मगर अब इसका संबंध विद्यारंभ से बिल्कुल नहीं जोड़ा जाता। यह सिर्फ एक पारिवारिक , धार्मिक संस्कार भर रह गया है जो उत्सव यानि जश्न का निमित्त बनता है।

आपकी चिट्ठी

सफर के पिछले पड़ाव जनेऊ में जश्न का आनंद उल्लास( जश्न-2) पर सर्वश्री दिनेशराय द्विवेदी, संजय, मीनाक्षी, दिलीप मंडल, और संजीव (छत्तीसगढ़िया) की चिट्ठियां मिलीं। शुभकामनाओं के लिए आप सबका एक बार फिर आभार। अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...

जनेऊ में जश्न का आनंद-उल्लास [जश्न -2]

नेऊ एक संस्कार है जो हिन्दुओं में होता है। आमतौर पर माना जाता रहा है कि सिर्फ ब्राह्मण ही जनेऊ के अधिकारी हैं। धर्मग्रंथों में उल्लेख है कि वर्णव्यवस्था के तहत प्रथम तीन वर्ण जनेऊ धारण कर सकते हैं । आर्यसमाज ने इसके खिलाफ आंदोलन चलायाथा। उनका मानना था कि चारों वर्ण इस संस्कार के अधिकारी हैं।
जनेऊ शब्द बना है यज्ञोपवीत से। एक मान्यता के मुताबिक इस शब्द के मायने हुए यज्ञ के दौरान शरीर पर धारण किया हुआ वस्त्र। यह वस्त्र मृगचर्म अथवा कपास का हो सकता था। माना जाना चाहिए कि यज्ञ की अग्नि के ताप से बचने के लिए यह व्यवस्था रही होगी मगर बाद में इस वस्त्र का रिश्ता यज्ञ करने के अधिकार और रुतबे से जुड़ गया।
यज्ञोपवीत की व्युत्पत्ति को अगर देखें तो इसके उपरोक्त भाव में आंशिक फर्क नज़र आता है। यह बना है यज्ञ + उपवीत से। इसका प्राकृत रूप हुआ जण्मोवअं जिसने हिन्दी मे जनेऊ रूप धारण किया। संस्कृत के उपवीत का शब्दार्थ है उपनयन संस्कार जो हिन्दुओं के प्रथम तीन वर्णों के लिए मान्य है। यह शब्द बना है वे धातु से जिसमें बुनना, गूंथना, बनाना जैसे भाव शामिल है। जाहिर है कि ये सीधे-सीधे वस्त्र से न जुड़ते हुए सूत्र यानी धागे से ज्यादा जुड़ते हैं और जनेऊ इसे ही कहते हैं। हिन्दू धर्मकोष के मुताबिक ब्राह्मण के लिए कपास, क्षत्रिय के लिए अलसी और वैश्य के लिए ऊन का जनेऊ होना चाहिए।
यज्ञ के अर्थ में देखें तो प्रायः हिन्दुओं के सभी धार्मिक संस्कारों में अग्निपूजा जुड़ी हुई है जिसमें हवन अनिवार्य है। इस रूप में गौर करें की यज्ञोपवीत जब अपने प्राचीन रूप से आगे बढ़कर द्विजों के प्रमुख उपनयन संस्कार का पर्याय बन गया तो इसकी महत्ता लगातार बढ़ती चली गई। कालांतर में अन्य वर्णों में भी यह होने लगा। मूलतः जनेऊ भी सामूहिक उपस्थिति वाला प्रमुख हिन्दू संस्कार बन गया । आज के दौर में चाहे जनेऊ पहनना कोई पसंद न करे मगर इसके जरिये होने वाले उत्सवी आनंद यानी जश्न से कोई वंचित नहीं रहना चाहता इसलिए ज्यादातर हिन्दू परिवारों मे विवाह योग्य पुरुषों का इस रस्म से गुज़रना अनिवार्य माना जाता है। ब्राह्मणों में तो खासतौर पर ।

आपकी चिट्ठी

सफर के पिछले पड़ाव यजमान तो डूबा है जश्न में ( जश्न-1) पर कई सहयात्रियों ने चिट्ठी लिखी। सर्वप्रथम दिनेशराय द्विवेदी, संजय , ममता, पल्लव, जोशिम, मीनाक्षी, संजीत और मनीष। आप सबने हमारी यजमानी भी देख ली । जश्न में हम डूबे रहे और आपको शुक्रिया तक न कह सके। क्षमा चाहते हैं। कुछ विवादी सुरों से विचलित होते लग रहे थे खुद को। मगर आप सब का ख्याल आया और फिर जुट गए। अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...

Friday, January 11, 2008

शुक्रिया ब्लागजगत का और सफर के हमराहियों का...

ये संयोग ही था कि गुरूवार को सफर का पड़ाव था यजमान तो डूबा है जश्न में .....[जश्न-1] और इस पड़ाव पर ही हमारा जन्मदिन भी आने वाला है ये खयाल नहीं था। ब्लाग पर , फोन पर साथियों की मुबारकबाद ने दिन को खुशनुमा बनाए रखा । मगर देर शाम करीब आठ बजे मैथिलीजी की मेल में सृजन-सम्मान वाली सूचना मिली जिसने सचमुच मन मे जश्न वाला भाव पैदा कर दिया।
मैं छत्तीसगढ़ की साहित्यिक सांस्कृतिक संस्था सृजन-सम्मान का आभारी हूं कि उन्होने हिन्दी ब्लागिंग को एक घटना के रूप में देखा और उसे सम्मान-मान्यता दिलाने के लिए प्रतीक स्वरूप हर वर्ष कुछ नाम तय करने का काम शुरू किया है। संयोग से इस वर्ष मेरा नाम भी इसमें है। इसके लिए सृजन-सम्मान के नियामकों, निर्णायकों और सबसे ऊपर समूचे ब्लाग जगत का मैं आभारी हूं जिसने बमुश्किल छह महिने पहले शुरू हुए शब्दों के सफर की जबर्दस्त हौसला अफज़ाई की। निर्णायक श्री रविरतलामी जी ने एकदम सही कहा है कि-

हर चिट्ठाकार और उसका हर चिट्ठा महत्वपूर्ण है।वो हर मामले में परिपूर्ण होता है। कोई भी पुरस्कार या प्रशस्ति उसकी परिपूर्णता में बालबराबर भी इजाफ़ा नहीं कर सकती।

बालेंदुजी और रविजी ने चयनित तीनों ब्लागों का जिस आत्मीयता से परिचय दिया है उससे भी मैं अभिभूत हूं। मुझसे कोई बातचीत , पूर्वपरिचय हुए बिना जिस तरह से इन्होंने शब्दो के सफर के बारे में बातें कहीं हैं, वो सब जैसे मेरे ही मन की बातें हैं। संयोजक जयप्रकाश मानस को इस आयोजन के लिए बधाई।
वाद-विवाद होते रहेंगे। ये ज़रूरी भी है चीज़ों को सही परिप्रेक्ष्य में समझे जाने के लिए। मगर सृजन-सम्मान के उद्धेश्य में कोई खोट ढूंढना या निर्णायकों के परिश्रम में शॉर्टकट तलाशना बहुत ग़लत बात होगी।
शब्दों का सफर शुरू करने से पहले मैने नहीं सोचा था कि लोगों को इतना पसंद आएगा अलबत्ता इतना ज़रूर पता था कि यह लंबा चलेगा क्यों कि अपने काम के आकार का मुझे अंदाजा अब पहले से था।
सफर के एकदम शुरुआती दौर में मेरे साथियों अनूप शुक्ला , अभय तिवारी अनामदास, अविनाश, संजीत , हरिराम , शास्त्री जेसी फिलिप,और उड़नतश्तरी ने ( कुछ नाम छूट भी गए हों तो क्षमा करेंगे ) मेरी जबर्दस्त हौसलाअफ़जाई की जिसकी वज़ह से हर हफ्ते एक पोस्ट लिखने का मंसूबा बांधकर ब्लागिंग करने निकला यह यायावर बीते छह महिनों से क़रीब करीब रोज़ ही एक पोस्ट लिखने की हिम्मत जुटा सका है। आगे ये क्रम कब तक जारी रहेगा , कह नहीं सकता , मगर सफर तो चलता रहेगा। अनूप जी और ममता जी को भी मेरी ओर से हार्दिक बधाइया।
एक बार फिर आप सबका शुक्रिया..... अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...

Thursday, January 10, 2008

यजमान तो डूबा है जश्न में .....[जश्न-1]


क ही मूल से उत्पन्न होते हुए भी कई बार दो शब्दों का अर्थ ठीक उसी तरह अलग अलग होता है जैसे दो जुड़वां इन्सानों का रूप रंग एक होते हुए भी स्वभाव एकदम अलग हो। हिन्दी उर्दूमें एक शब्द है जश्न या जशन। इसका अर्थ है उत्सव, समारोह या जलसा। अपने मूल रूपप में तो यह शब्द फारसी का है। पुरानी फारसी यानी अवेस्ता में यह यश्न रूप में मौजूद है। संस्कृत का यज्ञ ही फारसी का यश्न है। दरअसल भारतीय आर्यो और ईरानियों का उद्गम आर्यों के एक ही कुटुम्ब से हुआ जिसकी बाद में दो शाखाएं हो गई। गौरतलब है कि प्राचीन ईरानी या फारसवासी अग्निपूजक थे। पारसी आज भी अग्निपूजा करते है । पारसी शब्द भी अग्निपूजकों के एक समूह के फारस से पलायन कर भारत आ जाने के कारण चलन में आया। । यज्ञ की परंपरा भारतीय और ईरानी दोनों ही दोनों ही आर्य शाखाओं में थी। फारसी और हिन्दी भी एक ही भाषा परिवार से संबंधित हैं। फारसी का प्राचीन रूप अवेस्ता में जिसे यश्न कहा गया है और हिन्दी के प्राचीन रूप संस्कृत में जो यज्ञ के रूप में विद्यमान है। उत्तर पश्चिमी भारत में कई लोग इसे यजन भी कहते हैं। यह माना जा सकता है कि इरान में इस्लाम के आगमन के बाद यज्ञ ने अपने असली मायने खो दिए और यह केवल जलसे और उत्सव के अर्थ में प्रचलित हो गया । जबकि भारत में न सिर्फ यज्ञ की पवित्रता बरकरार रही बल्कि यज्ञ न करने वालों के लिए एक मौका जश्न का भी आ गया।

यज्ञ करे सो यजमान

संस्कृत और फारसी के यज्ञ/यश्न शब्द की मूल धातु है यज् जिसका मतलब होता है अनुष्ठान, पूजा अथवा आहुति देना। ये सभी शब्द कहीं न कहीं समूह की उपस्थिति, उत्सव-परंपरा के पालन अथवा सामूहिक कर्म का बोध भी कराते हैं । जाहिर है ये सारे भाव जश्न में शामिल हैं जो अंततः यज्ञ के फारसी अर्थ में रूढ़ हो गए। इससे ही बन गया यजमानः जिसके हिन्दी में जजमान, जिजमान, जजमानी वगैरह जैसे कई रूप प्रचलित हैं। यजमान के सही मायने हैं जो नियमित यज्ञ करे। वह व्यक्ति जो यज्ञ के निमित्त पुरोहितों को चुनता है और व्यव वहन करता है। दानकर्म आदि करता है। इसी तरह यज्ञकर्मी ब्राह्मण के शिष्य को भी यजमान कहा जाता है। समाज के धनी, कुलीन, आतिथेयी अथवा प्रमुख पुरूष को भी यजमान कहने का चलन उत्तर भारत में रहा है।चार वेदों में प्रमुख यजुर्वेद को यह नाम भी यज् धातु के चलते ही मिला है क्यों कि ज्ञान का यह भंडार यज्ञ संबंधी पवित्र पाठों का संग्रह है। इसकी दो प्रमुख शाखाएं है कृष्णयजुर्वेद और शुक्लयजुर्वेद

आपकी चिट्ठी

फर की पिछली पोस्ट इक बंगला बने न्यारा .... पर जिन हमराहियों की चिट्ठियां मिलीं उनमें हैं सृजनशिल्पी, प्रत्यक्षा, मीनाक्षी, राजेश रोशन और संजीत। आप सबका बहुत बहुत शुक्रिया। प्रत्यक्षा और मीनाक्षी जी , आप दोनों को मेरी बहुत बहुत शुभकामनाएं कि जल्दी ही अपने अपने मनभावन बंगले में जाएं। अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...

Wednesday, January 9, 2008

इक बंगला बने न्यारा ... एक पुरानी पोस्ट [संशोधित]

सत हिन्दुस्तानी के दिल में एक सुंदर-सलोने घर की फैंटेसी को जिंदा कर देने
वाले कुंदनलाल सहगल के इस मशहूर गीत में बंगला शब्द की जगह अगर कोई दूसरा शब्द होता तो मुमकिन है न तो इस नगमे को न इतनी शोहरत हासिल होती और न ही हिन्दी को रूमानियत और रोबदाब से भरपूर बंगला जैसा लफ्ज मिलता। आखिर ये बंगला या बंगलो आया कहां से? ये हिंदी लफ्ज है या अंग्रेजी का? अंग्रेजी और हिन्दी में मिलते-जुलते उच्चारण वाला ये शब्द मूलत:अंग्रेजी का है मगर जन्मा भारत में ही है और बंगाल से इसका गहरा रिश्ता है। बंगले के पीछे जो शख्स खड़ा नजर आता है वह है जाब चार्नक । गौरतलब है कि सन 1615 में इंग्लैंड के राजा जेम्स प्रथमने मुगल बादशाह जहांगीर के दरबार में सर टामस रो को राजदूत बना कर भेजा जो तीन साल यहां रहा मगर भारत से कारोबारी रिश्ते बनाने की काबिलियत न दिखा सका। इससे पहले तक अंग्रेजों को देश के दक्षिण-पश्चिमी तट के रजवाडे़ ही व्यापार की सीमित अनुमति देते रहे। टामस रो, जहांगीर को चाहे प्रभावित न कर पाया हो मगर उसके बेटे शहजादा खुर्रम (शाहजहां) से सूरत औरत भरुच का कारोबारी फरमान लेने में सफल रहा । खुर्रम उन दिनों गुजरात का सूबेदार था। इसके बाद अंग्रेजों ने पूर्वी तट पर अपनी निगाहें जमाई जहां उनसे काफी पहले ही डच लोगों ने अपनी धाक जमा रखी थी।
ईस्ट इंडिया कंपनी यहां भी कामयाब रही और 1651 तक हुगली, मुर्शिदाबाद , ढाका और कासिम बाजार तक उसकी व्यापारिक कोठियां खड़ी हो गई। करीब साढ़े तीन सौ साल पहले ईस्ट इंडिया कंपनी की इसी कासिम बाजार कोठी का फर्स्ट आफिसर था जाब चार्नक जो बाद में कंपनी एजेंट बना। इसी आदमी ने 1690 के आसपास सूतानटी नामक जगह पर कोलकाता की नींव डाली और कंपनी के अफसरों-कारिंदों के लिए खास शैली के मकान बनवाए। जैसे-जैसे बंगाल में कंपनी बहादुर का कामकाज जमता गया वैसे-वैसे कंपनी के आला मुलाजिमों के लिए भी मकान बनने लगे। इन एकमंजिला मकानो के आगे लंबा लान, घर के अंदर खुली जगह, वरांडा और दूसरे मकानों से सटा हुआ न होना इन्हें विशिष्ट बनाता था । देश के बाकी इलाकों मे जैसे-जैसे अंग्रेज पहुचते गए इन मकानों के लिए बंगाल स्टाइल हाउसेज़ जैसा शब्द चल पड़ा जिसे बाद में बंगलो कहा जाने लगा। इसी से बना बंगला शब्द आज तक उसी शान से हिन्दुस्तान ही नहीं बल्कि दुनियाभर की भाषाओं में मौजूद है। अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...

Tuesday, January 8, 2008

साधुवाद-साधुवाद समीर जी.....

हिन्दुस्तानी उड़नतश्तरी जो बीते करीब नौ बरसों से कनाडा में पाई जाती थी और वहीं से शुभ संकेत ब्लागजगत पर भेज रही थी , अब लगातार हिन्दुस्तान में भी नज़र आती रहेगी। हाज़रीन समझ ही गए होंगे की हम समीर लाल की बात कर रहे हैं। उड़नतश्तरी का डेरा सोमवार को भोपाल में था।
समीर भाई रविवार को सीहोर आए थे। पंकज सुबीर जी ने वहां काव्य सन्ध्या का आयोजन किया और समीर जी ने इस मंगल अवसर को ऐसे थाम लिया जैसे स्पीलबर्ग की फिल्मों के एलियन अक्सर थामा करते हैं। भोपाल से सीहोर करीब चालीस किमी है और हमने भी वहां जाने का मंसूबा बांधा था, मगर तय नही किया था पर सुबीर भाई ने इस समाचार को बेसब्र रिपोर्टर वाले अंदाज़ में प्रसारित कर दिया। रविवार शाम सुबीर जी का फोन आया और उन्होने समीर जी से बात कराई । तय हुआ कि चूंकि समीर भाई को भोपाल होते हुए ही जबलपुर लौटना है इसलिए सोमवार को झीलों की नगरी में ही मुलाकात ठहरी। समीर जी ने फोन पर ही बता दिया कि वे अलसुबह ही हमें फोन कर देंगे। अब हम लगातार इंतजार करते रहे कि फोन आएगा , मगर नहीं आया। हारकर हमने ही जब फोन लगाया तो पता चला की सुबीर जी ने काव्यसंन्ध्या के बाद इस क़दर दाल बाफले खिलाए कि श्रीमानजी की नींद बारह बजे खुली।
खैर, समीर जी से उनके मुकाम मोटेल शीराज़ में मुख्तसर सी मुलाकात हुई। बड़े भले से और समृद्ध सेहत के प्राणी है समीर जी। कनाडा में नौ बरसों से है। उनसे जब पूछा कि आपका वर्तमान भूगोल कनाडा की देन है ? एक अच्छे भारतीय की तरह उन्होंने इसका आधा श्रेय अपनी जन्मभूमि को भी दिया। समीरजी अपने उड़नतश्तरी रूप में इस क़दर लोकप्रिय हैं कि सीहोर जैसी छोटे कस्बे में भी लोग उन्हें जानते है। कालेज की एक लड़की ने उन्हें बताया कि उन्होने आज तक उड़नतश्तरी नहीं देखी थी, मगर अब वो अपने घर और कालेज में सबको ज़रूर बताएगी कि उसने उड़नतश्तरी न सिर्फ देखी है बल्कि उसकी कविताएं भी सुनी हैं। समीर जी, ईर्ष्या हो रही है आपसे ।
समीरजी से बातचीत में कुछ ब्लागिंग से जुड़ी कोई गंभीर चर्चा नहीं हुई हमने जब पूछा कि ब्लागजगत में वे साधुवाद के जनक है मगर अब यह साधुवाद संस्कृति जबर्दस्त विवाद में आ गई है तो वे मुस्करा कर रह गए। अलबत्ता उन्होने इतना ज़रूर कहा कि वे ब्लागजगत में विवाद पसंद नहीं करते । उन्होंने बताया कि एक बार किसी पोस्ट पर विवाद होने की शुरूआत के चंद लम्हों के भीतर ही उन्होने वह पोस्ट हटा ली थी। उनका ऐसा ही रुख साधुवादी उपकरण के प्रति भी रहेगा या नहीं , इस पर बात नहीं हो पाई। अब वे मुंबई आ रहे हैं।
समीर जी ने एक अच्छा संकेत यह दिया कि वे भारत में बने रहने के बारे में गंभीरता से सोच रहे हैं और फिलहाल मार्च तक इधर ही डेरा है। उनके दोनो युवा पुत्र बहुत अच्छे तरीके से अमेरिका , कनाडा में सैटल हो गए हैं। अब समीर भाई को ससुर बनने की जल्दी है सो साथियों , तैयार हो जाइये एक बेहतरीन न्योते के लिए । छह महिने से साल भर के भीतर बैंडबाजे बज सकते हैं समीर जी के धाम जबलपुर में। समीर जी से बातें करते हुए वक्त तेजी से बीता और हमारे दफ्तर जाने का वक्त आ गया। चलने से पहले उन्होने हमारे साथ एक तस्वीर ली जो उनक साथ आए एक मित्र ने खींची। हमारे पास सिर्फ मोबाइल था सो यह तस्वीर जो यहां छापी जा रही है हमने एक हाथ समीर जी के कंधे पर रख, दूसरे से झट खींच ली। कुछ इफैक्ट्स वगैरह डाल कर इसे छापने लायक बना लिया है।
समीर भाई, आपसे मिलकर अच्छा लगा। कुछ बातें सार्वजनिक कर दी हैं, बुरा न मानियेगा। आप जिस आत्मीयता, स्नेह से मिले उसके लिए साधुवाद-साधुवाद...सम्पर्क-संवाद होता रहेगा। अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...

Sunday, January 6, 2008

घास चरने से ही कुशाग्र बुद्धि

किसी कार्य को बहुत ही चतुराई और उत्तम प्रणाली से करने के लिए हिन्दी में आम प्रचलित शब्द है कुशल। खैरियत , मंगल और प्रसन्नता के अर्थ में भी कुशल शब्द का प्रयोग होता है। कुशल-क्षेम , कुशल-मंगल से यह साफ जाहिर है। यह बना है संस्कृत के कुशः से । हिन्दी में यह भी काफी आम है और इससे बने शब्द खूब प्रचलित हैं। संस्कृत के कुशः का मतलब होता है एक प्रकार की वनस्पति, तृण, पत्ती,घास जो पवित्र-मांगलिक कर्मों की आवश्यक सामग्री मानी जाती है। प्रायः सभी हिन्दू मांगलिक संस्कारों में इस दूब या कुशा का प्रयोग पुरोहितों द्वारा किया ही जाता है।

तेज, नुकीला


कुशः से ही बना है कुशाग्र। हिन्दी के इस शब्द का मतलब होता है अत्यधिक बुद्धिमान, अक्लमंद। चतुर आदि। गौर करें कुशः के घास या दूब वाले अर्थ पर । यह घास अत्यंत पतली होती है जो अपने किनारों पर बेहद पैनी हो जाती है। चूंकि इसका आगे का हिस्सा नोकीला होता है इसलिए इस हिस्से को कुशाग्र कहा गया अर्थात कुश का अगला हिस्सा ( जो नोकीला है )। जाहिर सी बात है कि कालांतर में बुद्धिमान व्यक्ति की तीक्ष्णता आंकने के लिए कुशाग्र बुद्धि शब्द चल पड़ा। तुलसीदास जी ने रामचरित मानस में जो लिखा वो एक प्रसिद्ध उक्ति बन गई- पर उपदेश कुशल बहुतेरे, जे अचरहिं ते नर न घनेरे

दूब-दर्भ-दुर्वा

कुशः या कुश का एक अन्य नाम है दुर्वा या दूब। मांगलिक कार्यों के लिए इसके उपयोग से सभी परिचित हैं और इसीलिए कुश की तुलना में दूब नाम ज्यादा प्रचलित है। आयुर्वेद में दूब को महौषधि भी कहा गया है क्योंकि रोजमर्रा की आम व्याधियों में इसके जरिये किए उपचार को रामबाण माना गया है। पौराणिक ग्रंथों में इसका उल्लेख दूर्वा, अनंता, गौरी , भार्गवी और शतपर्वा जैसे नामों से भी है। यह बना है दर्भः से । संस्कृत में इसका अर्थ है एक प्रकार की घास जो यज्ञानुष्ठानों में काम आती है। दर्भः ने ही हिन्दी में दूब का रूप लिया । मराठी में इसे दुर्वा कहते है। यह वही घास है जो प्रायः भारत के मैदानों में उगती है और जिस पर जमी ओस पर चलना नेत्रज्योति बढ़ाने के लिए काफी फायदेमंद माना जाता है। जाहिर है कि नेत्र ज्योति बढ़ने से दुनियादारी की समझ तो ज्यदा ही होगी सो अक्ल के घास चरने वाले मुहावरे में ज्यादा अर्थ नज़र नही आता क्योंकि घास चरने से नही, मगर घास पर चलने से तो अक्ल तेज़ हो ही रही है न...।

कुश पर कुछ और जानते हैं अगले पड़ाव में ...

आपकी चिट्ठी

सफर के पिछले पड़ाव दोपहर की पहरेदारी और प्रहार पर कई साथियों से मिलना हुआ। कुछ ने पास आकर दस्तक दी। इनमें हैं सर्वश्री दिनेशराय द्विवेदी, अफलातून, संजय, मीनाक्षी, राजेश रोशन , सिद्धेश्वर और ममता। आप सबका आभार। अफलातून जी की चिट्ठी पर साभार मैं संबंधित पोस्ट पर भी दे चुका हूं। अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...

दोपहर की पहरेदारी और प्रहार

हिन्दी शब्द प्रहार का अर्थ होता है आघात करना,चोट पहुंचाना,वार करना, घायल करना आदि जबकि पहरेदार का मतलब होता है निगरानी करने वाला,रक्षा करने वाला आदि। एक अन्य शब्द है पहर जिसका मतलब होता है तीन घंटे की अवधि। मोटे तौर पर इन तीनों ही शब्दों में इसके अलावा कोई समानता नज़र नहीं आती कि इनमें वर्ण समान रूप से विद्यमान हैं। मगर इनमें न सिर्फ गहरी रिश्तेदारी है बल्कि ये एक ही मूल से जन्में भी हैं।
गौरतलब है कि संस्कृत में पहर को प्रहरः कहा जाता है। पहर यानी दिन का आठवां भाग अर्थात तीन घंटे का समय । गौरतलब है कि प्राचीनकाल में चौबीस घंटों को तीन-तीन घंटों के हिसाब से आठ हिस्सों में बांटकर कालगणना की जाती थी। इस हिसाब से चार पहर का दिन और चार पहर की रात। प्रत्येक तीन घंटे की सूचना राज्यसत्ता की ओर से घंटे को बजाकर दी जाती थी जो प्रायः नगर के मुख्य स्थान पर होता था। इस घंटे पर जोरदार आघात अर्थात प्रहार करने से जो ध्वनि होती थी उसे ही प्रहरः यानी पहर कहा जाता था। गौर करें कि सूर्योदय के दो पहर बीत चुके समय तक छह घंटे व्यतीत हो चुके होते हैं इसीलिए बारह बजे के आसपास के समय को दोपहर कहा जाता है जो इससे ही बना है। बाद में अलग अलग बोलियों में दुपहरिया, दोपहरी जैसे शब्द रूप भी बन गए। चूंकि आठों पहरों की सूचना के लिए लगातार , दिन-रात एक ही व्यक्ति घंटा नहीं बजा सकता थी, इसलिए अलग-अलग व्यक्ति एक-एक या दो-दो पहर के लिए बारी बारी से घंटा बजाने का काम करते थे। इसी वजह से उन्हें प्रहरिन् कहा जाता था। इसी प्रहरिन् का हिन्दी रूप हुआ प्रहरी । अर्से बाद प्रहरिन के बजाए घंटे की घनघोर गूंज में खुद प्रहरी इस क़दर गुम हुआ कि उसकी जगह आ गया पहरी , जिसने फिर कभी घंटा नहीं बजाया और सिर्फ चौकसी ही करता रहा कि कोई आ न जाए, या ग़ायब न हो जाए-प्रहरिन की तरह। इस शब्द के साथ कालांतर में निगरानी का भाव भी जुड़ गया सो पहरी का अर्थ हुआ सुरक्षाकर्मी । बाद में इससे ही बना पहरा शब्द जो उर्दू-फारसी में भी गया। पहरे के साथ प्रमुखता से सुरक्षा का भाव चस्पा हो गया। इसमें फारसी का दार प्रत्यय लग जाने से बना पहरेदार। अर्थात् रक्षक, चौकीदार, रखवाला आदि।

आपकी चिट्ठी

सफर की पिछली कड़ी अफीमची और पोस्ती पर कई हमराहियों की टिप्पणियां मिलीं जिनमें है लावण्याजी, संजीत त्रिपाठी, ज्ञानदा, सागरचंद नाहर, मीनाक्षी,पद्मनाभ मिश्र और ममताजी। आप सबका आभार । अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...

Thursday, January 3, 2008

अफीमची और पोस्ती


फीम शब्द मूलत: यूनानी भाषा का शब्द है न कि एशियाई। इसका मूल अर्थ है एक खास किस्म के पौधे पौपी का रस। पौपी को हिन्दी उर्दू में पोस्त के नाम से जाना जाता है। यूनानी भाषा में इसे opion कहा जाता है। पोस्ते के रस से अफीम का निर्माण संभवत: सबसे पहले यूनान से ही शुरू हुआ हो। यूनान से निकला ये शब्द आज दुनियाभर में रोज इस्तेमाल होता है। यूनान से यह पहुंचा लैटिन में और इसका रूप हो गया ओपिअम। लैटिन से ही जर्मन , फ्रैंच, अंग्रेजी, आदि कई भाषाओं में थोड़े बहुत परिवर्तन केसाथ ये यूरोप में फैल गया। यूनान से ही इस शब्द ने एशिया की यात्रा की और सबसे पहले अरब पहुंचा afyun यानी अप्यून के रूप में। वहां से ये ईरान होते हुए भारत पहंचा। यही शब्द हिन्दी में अफीम, गुजराती व मराठी में अफीण, मालवी में आफू आदि रूपों में इस्तेमाल किया जा रहा है। अफगानिस्तान से सिल्क रूट के जरिये ये शब्द चीन भी गया और इसने चीनी रूप ग्रहण कर लिया अ-फू-युंग जो मूलत: अरबी रूप अफ्यून का ही रूपांतर है।
बात पोस्त और पोस्ट की
संस्कृत में अफीम के लिए अहिफेन नाम मिलता है। अहि का मतलब होता है सांप, अजगर आदि। फेन का मतलब हुआ झाग अर्थात सांप के मुंह से निकला फेन। फारसी में अफीम के आदी के लिए अफीमची शब्द खूब चलता है और इसे हिन्दी - उर्दू में भी बोला जाता है। फारसी में अफीम को पोस्तः कहते हैं। मज़ेदार बात ये कि इस ज़बान में अग्रेजी का पोस्ट शब्द हो जाता है पोस्तः यानी पोस्ता। अब कई बार यह ग़लतफहमी हुई है कि कह ये जाता रहा कि पोस्ती है अर्थात अफीमची है और सुना ये जाता रहा कि चिट्ठी आई है। पोस्त से बना पोस्ती यानी अफीमची या मदकची। हिन्दी की प्रसिद्ध कहावत नौदिन चले अढ़ाई कोस को अगर आप पूरा सुनें तो यही पोस्त नुमायां होता है। पूरी कहावत है-पोस्ती ने पी पोस्त, नौ दिन चला अढ़ाई कोस।
गौरतलब है कि चीनी लोग अफीम के इतने लती रहे कि चीन पर कब्जा करने के बाद अंग्रेजों ने लंबे समय तक अफीम के जरिये राजनीति की। यही नहीं अफीम का जन्मदाता चाहे यूनान हो मगर दुनिया में सबसे ज्यादा अफीम की पैदावार उससे हजारों किलोमीटर दूर अफगानिस्तान, पाकिस्तान, भारत और चीन जैसे एशियाई इलाकों में होती है।

चित्र-लेख के बीच में दिया गया चित्र ट्यूनिशिया के चित्रकार अली बिन सालेम की प्रसिद्ध कृति ओपियम का है।
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आपकी चिट्ठी

सफर की पिछली धारावाही कड़ियों छैला-छबीला और छमक छल्लो पर सर्वश्री संजय , दिनेशराय द्विवेदी, हरिराम, महर्षि, काकेश , रवीन्द्र प्रभात, संजीत त्रिपाठी डा अजीत की टिप्पणियां मिलीं। आप सबका आभार । अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...

Wednesday, January 2, 2008

बहुत कुछ है हिन्दू सभ्यता में ...

आदर्श हिन्दू उस चूहे की तरह होगा...दिलीप मंडल का एक विचारणीय लेख है जो मौहल्ला पर प्रकाशित हुआ है। इस आलेख की अंतिम पंक्तियां कुछ सवाल खड़े करती हैं, देखें -
विधवा विवाह का निषेध, अंतर्जातीय विवाह पर पाबंदी और रक्त शुद्धता की अवधारणा, अस्पृश्यता, कर्म और जाति का संबंध यानी हर जाति के लिए खास कर्म का प्रावधान, बेटी का पैतृक संपत्ति में उत्तराधिकार का निषेध, कर्मकांड की प्रधानता, वैश्यों, शूद्रों और अंत्यजों के साथ औरतों की अवमानना - क्या इन सारे तत्वों को निकाल देने के बाद भी हिंदू सभ्यता में कुछ बचता है?


न नकारात्मक तत्वों के होने मात्र से क्या हिन्दुत्व या हिन्दू संस्कृति की पहचान कायम है ? चौथी सदी में भारत आए पहले चीनी यात्री फाह्यान और उसके बाद ह्वेनसांग, सुंगयुन जैसे दो दर्जन से भी ज्यादा पौर्वात्य देशों के अध्येताओं की भारत यात्राएं इस महादेश की किन खूबियों के चलते हुईं? धर्म, राजनीति , संस्कृति-समाज, कृषि, उद्योग , चिकित्सा आदि क्षेत्रों में संचित ज्ञान का उद्गम कभी यही भूक्षेत्र था। यहां जन्में बौद्धधर्म के सहारे भारतीय (हिन्दू!)सभ्यता के न जाने कितने संस्कार जाने-अनजाने दुनियाभर में प्रचलित हो गए। करबद्ध नमस्कार उनमें से एक है। यही नहीं ,इस्लामी पूजा पद्धति नमाज़ शब्द के मूल में भी इसी नमस्कार में निहित नम् यानि शीश झुकाने वाला भाव शामिल है। देखें
भारतीय हिन्दू समाज की कुरीतियां समय समय पर ताकतवर वर्ग द्वारा समाज को अपने अनुरूप चलाने के प्रयासों या किन्हीं व्यवस्थाओं में हस्तक्षेप का नतीजा थीं। ताकतवर वर्ग कहीं कसर नहीं छोड़ता है। जाहिर है कि राज्यसत्ता द्वारा नियमबाधित करने से लेकर लिखित एवं मौखिक धार्मिक विधि-विधानों में इनका पालन सुनिश्चित करवाने की चेष्टाएं इस वर्ग ने की और इसके प्रमाण अतीत में साफ नज़र आती है।समाज के अन्य वर्ग इसे मानने को बाध्य क्यों हुए इसके मूल में भी कहीं न कहीं हिन्दू सोच रही है।

हिन्दू विचार पद्धति सत्ता मात्र के प्रति उदार है क्योंकि उसके द्वारा ईश्वर खुद को व्यक्त कर सकता है।
(श्रीकृष्ण वेंकटेश पुणतांबेकर-एशिया की विकासोन्मुख एकता)

बस, इसी के चलते ही वैदिक युग में उदारवादी सोच के तहत प्रकृति को परम सत्ता माना गया और उसे बचाए रखने के लिए तरह तरह के प्रबोधन मनीषियों ने रचे। बाद के दौर में प्रकृति से हटकर अन्य सत्ता केन्द्र के रूप में ईश्वर का आविष्कार हुआ। फिर ईश्वर के प्रतिनिधि के तौर पर समय समय पर धर्माचार्य और शासक समेत अन्य ताकतवर तबके सत्ता सुख लेते रहे। जाति व्यवस्था के मूल में ये बाते हैं। कर्मआधारित समाज को सीधे सीधे जाति आधारित समाज मामानने का कोई अर्थ नहीं है। घृणित जातीय व्यवस्था तो आक्रमणों के दौर में पनपी है, जब समाज को उस दौर के झंझावात ने हर तरह की चेतना से वंचित रखा। ज्ञान तक को सीमित कर दिया गया।

अलबत्ता भारतीयता (प्रकारांतर से हिन्दुत्व ) की पहचान की बात की जाए तो इस महादेश ने कभी किसी एक चुने हुए ईश्वर, एक चुनी हुई जाति, एक चुनी हुई व्यवस्था और एक चुनी हुई जीवनचर्या में विश्वास रखने जैसी कट्टरता नहीं दिखाई है।
सुदूर पूर्व से पश्चिम तक ईसा से भी सदियों पहले से भारतीयों के रिश्ते क्या साबित करते हैं? आठवीं सदी में बल्ख बुखारा के विहारों में निवास करने वाले बौद्ध श्रमणों के प्रसिद्ध परिवार परमकों का जिक्र है। वहां जब बौद्धों का दमन हुआ तो इन पारमिको नें इस्लाम कुबूल किया और बरमक कहलाए। अपने संचित ज्ञान के आधार पर ही वे ख़लीफा हारूं अल रशीद के दरबार में वजीर के ओहदे तक पहुंचे।
इससे भी सदियों पहले ईरान के अग्निपूजकों द्वारा मगध के पुरोहितों को सूर्योपासना पद्धतियों के प्रचार प्रसार के लिए ईरान बुलवाना और वहां बसाना क्या जाहिर करता है ? इतिहास में उल्लेख है कि ये मग पुरोहित ही पश्चिमी इतिहास में मागी के रूप में दर्ज है। इसी शब्द से बाद में मैजिक या मैजिशियन शब्द भी बने।
पुत्री को पितृसंपत्ति से दाय की व्यवस्था हिन्दू धर्मशास्त्रों में रही है। बात वही ताकतवर वर्ग की आती है जिसने तमाम षड्यंत्रों के साथ सत्ता की भागीदारी में बहुजन समाज को ज्ञान से वंचित रखा। धर्म को समझने लायक ज्ञान अगर बहुजन समाज में आ जाए तब आज की ज्यादातर समस्याएं सुलझ जाएं। इन हालात में कल्पना करें कि देश के कितने मुस्लिम हैं जो कुरआन को पढ़ना जानते हैं। उसकी व्याख्या के लिए वे मौलवी ( जो सत्ता का प्रतीक है ) पर निर्भर न रहें तो बेहतर होगा मगर क्या ऐसा हो पा रहा है ? अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...

छमक छल्लो और छैल चिकनिया [ छवि-2]

( संदर्भ के लिए कृपया पिछली पोस्ट ज़रूर पढ़ें। )
छैल छबीला, छैला, छैल बिहारी जैसे शब्दों की कड़ी में ही आता है एक और शब्द छमक छल्लो। छबीली, नखराली और नाजों-अंदाज वाली महिला के लिए छमक छल्लो शब्द की उत्पत्ति भी इसी
छवि > छइल्ल > छल्लो वाले क्रम से हुई है। बस, इसमें घुँघरू की छम-छम और जुड़ गई है। इस छम-छम से जो नाज़ो-अंदाज पैदा हो रहा है उसे किसी व्याख्या की ज़रूरत नहीं है।

चिकना, चॉकलेटी, प्लेबॉय

बदलते वक्त में छबीला या छैल छबीला जैसे शब्दों के साथ कुछ नकारात्मक भाव भी जुड़े और पुरुषों में कमनीयता, स्त्रैणता जैसे अर्थ भी इसमें समाहित हो गए। दरअसल यह हुआ एक अन्य शब्द के जन्म से। पूरबी हिन्दी में छैल-छबीला जैसा ही एक और शब्द प्रचलित है -छैल चिकनिया। इस शब्द का अर्थ भी सजीला, बना-ठना रहने वाला बांका जवान ही होता है। बस, चिकनिया शब्द उसमे इसलिए जुड़ गया क्यों कि सजीला दिखने के लिए क्लीन शेव्ड दिखना ज़रूरी है। अब दाढ़ी -मूंछ में मर्दानगी तलाशने वाले समाज में क्लीन-शेव्ड लोगों को हिकारत से तो देखा जाना ही था। कुलीनों की बात अलग थी, मगर आम समाज में उन्हें चिकनिया कहा जाने लगा। चिकनिया या चिकना शब्द बना है संस्कृत के चिक्कण से जिसका मतलब चमक, स्निग्ध, चर्बीला है। आज भी हिन्दी में चाकलेटी हीरो के लिए मुंबईया ज़बान में चिकना शब्द खूब सुनने को मिलता है। । आमतौर पर अंग्रेजी में जिस पुरूष को चाकलेट या चाकलेटी या प्लेबॉय कहा जाता है छैल-छबीला कुछ इन्हीं अर्थों में प्रचलन में आया था। हिन्दी के यशस्वी साहित्यकार पाण्डेय बेचन शर्मा उग्र ने एक उपन्यास लिखा था चाकलेट। इसे अश्लील माना गया था । बताया जाता है कि गांधीजी ने भी इसे पढ़ा और उन्हें कहना पड़ा कि इसमें कुछ भी अश्लील नहीं है।

आपकी चिट्ठिया

नए साल के शुभारंभ पर लिखी पोस्ट बारिश के मौसम में आया नया साल पर कई साथियों की शुभकामनाएं मिलीं। सर्वश्री विजयशंकर, नीरज गोस्वामी, महर्षि, रजनी भार्गव, ज्ञानदत्त पाण्डेय , डिवाइन इंडिया , अफलातून, संजय, दर्द हिन्दुस्तानी, महावीर , लावण्या , प्रत्यक्षा , संजीत, मीनाक्षी और विमल वर्मा का हम शुक्रिया अदा करते हैं हौसला अफजाई और नए साल की बधाई के लिए । अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...

Tuesday, January 1, 2008

छैलाबाबू और छबीली नार [छवि-1]

भाषा मे विविधता या लालित्य लाने के लिए समाज में अपने आप प्रयोग होते हैं जो प्रचलन बन जाते है। इन शब्दों की पड़ताल करें तो पाएंगे कि जैसे एक ही चेहरे में कई भाव समाए होते है वैसे ही एक ही शब्द से बने शब्दों के भी कई रूप होते हैं। सफर की इस कड़ी में परखते हैं शब्दों की ऐसी ही छवि को। छैला, छैल-छबीला, छैल बिहारी, छैलाबाबू, जैसे शब्दों के मूल में आखिर है क्या....

छवि में समायी राजनीति

संस्कृत का एक शब्द है छवि जिसे बोलचाल की हिन्दी में भी खूब समझा जाता है। यह एक शृंगारिक शब्द है और ज्यादातर काव्य में प्रयुक्त होता आया है। इसका अर्थ होता है रूप, सुंदरता, चमक आदि। मध्यकालीन कवियों जैसे सूर,तुलसी , मीरा आदि ने न जाने शृंगार और वात्सल्य के प्रसंगों में इस शब्द का प्रयोग किया है। मगर दिलचस्प बात यह कि बोलचाल की हिन्दी में किसी के रूप की प्रशंसा में इस शब्द का प्रयोग कम और राजनीतिक रूप की चर्चा में ज्यादा होता है, मसलन राजनीतिक छवि । यह एक मुहावरा सा बन चुका है। छवि बना है संस्कृत की धातु छो से जिसका मतलब होता है अंश या खंड। छो से ही बने हैं छाया अथवा छवि जैसे शब्द । इसका अर्थ होता है रंग-रूप, चेहरे की आभा, कांति, चमक, सौन्दर्य आदि। इसी तरह छाया का अर्थ होता है प्रतबिंब, अक्स, समरूप आदि। इसके अतिरिक्त छवि शब्द में निहित रंगरूप और चमक जैसे भाव भी इसमें शामिल हैं। गौर करें कि प्रतिबिंब या अक्स मूल वस्तु या आकृति का खंड या अंश जैसा ही होता है इसलिए इसकी मूल धातु छो में निहित भाव एकदम साफ है।

छैलाबाबू, छैलबिहारी

बांके-सजीले युवा अथवा युवती के लिए हिन्दी में छैल-छबीलाया छैल-छबीली जैसे शब्द कहावत की तरह इस्तेमाल होते आए हैं। मज़े की बात यह कि छैल और छबीला ये दोनों ही
शब्द छवि से ही बने हैं। संस्कृत से प्राकृत में क्रमशः छवि > छइल्ल > छइल्लो > छैला के रूप में ढल गया। इसी तरह छवि से छबि रूप बना और फिर उससेबीला या छबीली जैसे रूप विकसित हो गए। ये शब्द दशकों पहले तक समाज में खूब लोकप्रिय थे। गौर करें महारानी लक्ष्मीबाई का नाम छबीली ही था। छबीली अर्थात् रूपवती। सुभद्राकुमारी चौहान ने अपनी कविता में लिखा है-

कानपुर के नाना की
मुँहबोली बहन छबीली थी
लक्ष्मीबाई नाम , पिता की
वह संतान अकेली थी


छबीला शब्द ऐसे नौजवानों के लिए इस्तेमाल होता था जो न सिर्फ रूपवान थे बल्कि चुस्त, खुशमिजाज़, रसिक बातूनी और खूब बन-ठनकर रहने के आदि होते थे। तो इन्हीं गुणों के आधार पर हिन्दी के शब्द भंडार को समाज ने एक नया शब्द दे दिया छैल-छबीला । छैलाबाबू जैसे शब्द भी चल पड़े। भगवान श्रीकृष्ण के लिए भी छैलबिहारी शब्द कहा जाता है। ....अगले पड़ाव पर भी जारी अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...


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