यह आलेख अहा जिंदगी के ताजे अंक में प्रकाशित हुआ है। दीवाली के मौके पर हमारी जुए पर लिखने की तैयारी थी। कुछ दिनों पहले संपादक जी का आदेश हुआ कि जुआ पर कुछ लिखना है। बस, हमारी तैयारी की दिशा बदल गई। अपने ब्लाग के पाठकों के लिए प्रस्तुत है वही लेख।
प्राचीन रूप
आज जिस तरह जुए के कई रूप प्रचलित हैं मसलन- सट्टा, मटका, लॉटरी, रोलेट , इंटरनेट गैंबलिंग, पोकर, ताश, और स्लॉट मशीन आदि उसी तरह प्राचीन काल में भी जुआ के पच्चीस प्रकारों का उल्लेख है मगर आमतौर पर द्यूतक्रीड़ा और समाह्वय इन दो रूपों में प्रचलित था। महामहोपाध्याय डॉ पांडुरंग वामन काणे अपने धर्मशास्त्र का इतिहास में पुराणों के हवाले से लिखते हैं कि जुआ वह खेल है जो पासे अथवा हाथीदांत के गुटकों से खेला जाए और जिसमें कोई न कोई बाजी ज़रूर हो। इसी तरह समाह्वय वह खेल है जिसमें जीवों यानी मुर्गों, कबूतरों, भेड़ों, भैंसों अथवा पहलवानों ( मल्लों ) के बीच लड़ाई कराई जाए। इसमें भी हार-जीत की बाजी लगी रहती है।
मौर्य एवं गुप्तकाल में जुआ खेलने के स्थान यानी द्यूत भवन को सभा या द्यूतसभा कहा जाता था और जुआ खिलानेवाले को सभापति कहा जाता था। इसी से इसके लिए एक अन्य शब्द भी प्रचलित हुआ सभिक। इसके अलावा प्राचीनग्रंथों में माथुर शब्द भी इसी संदर्भ में आता है।
ईमानदारी की अपेक्षा
प्राचीनकाल में जुआ खेलना अगर ज़रूरी हो तो बजाए किसी अन्य स्थान पर खेलने के द्यूतभवन में सभापति या द्यूतअध्यक्ष की मौजूदगी में खेलना नैतिकता के दायरे में था, क्योंकि इससे राज्य को टैक्स के रूप में आय हो जाती थी। आज की तरह पुराने ज़माने में भी लड़ाई-झगड़े होते ही थे। अगर किसी झगड़ालू या फ़सादी जुआरी को कोई सभापति अपने जुआघर में न खेलने देता तो वह जुआरी राजा को उचित टैक्स चुकाकर मनमर्जी के किसी भी अन्य स्थान पर खेलने को स्वतंत्र होता। जिस मुद्रा में बाजियां लगाई जाती थीं वे पण या ग्लह् कहलाती थी। एक पण का दाम सौ कौड़ियों के बराबर होता। इस तरह १०० पणों या १००० कौड़ियों की या इससे अधिक राशियों की बाजी यदि खेली जाती तो सभिक यानी द्यूतअध्यक्ष को जुआरियों से १/२० हिस्सा या ५ फीसदी ऱाशि प्राप्त होती। कुछ संदर्भों में यह राशि सीधे सीधे दस फीसदी बताई गई है। इसकी एवज में सभापति (सभिक) या द्यूताध्यक्ष जुआरियों को बैठने का स्थान, जलपान और जुए की सामग्री उपलब्ध कराता था। शासन की आज्ञा के तहत जुआ खिलाने के लिए सभिक को एक निश्चित शुल्क राजा को देना पड़ता था।
महामहोपाध्याय डा काणें ने कात्यायन के हवाले से लिखा है कि अगर हारनेवाला जुआरी जीतनेवाले को रकम चुकाने से इन्कार कर कर दे या भाग खड़ा हो तो द्यूताध्यक्ष की जिम्मेदारी थी कि वह द्यूतकर यानी जुआरी को पकड़े, गिरफ्तार करे और उससे जीत की राशि वसूल कर विजेता को दिलवाए।
कुल मिलाकर सभिक के फैसले पर ही जुआरियों के झगड़े तय होते थे । ईसा से चार सदी पूर्व द्यूत सोलह हजार दीनारों की बाजी का आधा हिस्सा जीतनेवाले और आधा हिस्सा सभापति को देने का उल्लेख है।
दंड भी कैसा ?
अगर जुआरियों ने आपसी सहमति से किसी अन्य स्थान पर जुआ खेल लिया और राजा को कर न चुकाया तो उसे सजा दी जाती थी। सबसे पहले तो उन्हें उस जुए की समूची राशि से हाथ धोना पड़ता था। दूसरे उनके माथे पर कुत्ते के पैर का निशान दाग दिया जाता था या इसी तरह का कोई अपमानजनक चिह्न गोद दिया जाता था। इसके बाद गले में पांसों की माला डाल दी जाती थी। पकड़े गए लोगों में अगर कोई अबोध या जुए का नया पंछी होता तो उसे छोड़ दिया जाता मगर धुरंधरों के साथ कतई रियायात का प्रावधान नहीं था। यही नहीं उन्हें देशनिकाला तक दिया जाता था।
Friday, November 16, 2007
चुनरी का सबसे पुराना दाग-3 जुआ खिलाने वाला सभापति
प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर पर 1:42 PM लेबल: business money
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4 कमेंट्स:
एक प्रसिद्ध लेखक ने लिखा था कि पतितावृत्ति के बाद राजनीति ही मानव के सबसे पुराने पेशों मे से एक है!!
इसी तरह देखें तो द्यूत मानव के सबसे पुराने दुर्गुणों में से एक है!!
बहुत ही जानकारी पूर्ण रही यह!!
आभार!
अच्छी जानकारी. आशा करते हैं अब आपका कंप्यूटर ठीक हो गया होगा और आप ब्लॉगस्पॉट भी देख पा रहे होंगे.
तो अब नियमित लिखिये पहले की भांति.
अजीत जी,
जुआ तो हमेशा से ही समाज के दुर्गुणों में रहा है लेकिन कमाई के चक्कर में ना तब और ना आज इस पर रोक लग पाती है। चाहे िकतने ही घर बरबाद हो जाएं।
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