सफर की पिछली पोस्ट- डाकिया डाक लाया ... समीर भाई.. में कई प्रतिक्रियाएं मिलीं। इनमें सबसे ज्ञानवर्धक थी पहलू वाले चंद्रभूषणजी की। जिन लोगों ने यह पोस्ट नहीं पढ़ी थी उनके लिए वह टिप्पणी जस की तस यहां पेश है –
-मुझे आपकी इस खोज में लंतरानी ज्यादा नजर आती है। मेरे ख्याल से पोस्टऑफिस का अनुवाद 'डाकघर' गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर का किया हुआ है, जिनकीएक कविता की पंक्ति है- 'जोदि तोमार डाक शुने केऊ ना आशे तोबे ऐक्ला चालोऐक्ला चालो ऐक्ला चालो रे...।' यहां डाक का सपाट अर्थ 'पुकार' है और डाकघर, डाकिया आदि शब्द इसी के व्युत्पन्न हैं। डाकिए या संदेशवाहक केलिए संस्कृत और पुरानी हिंदी का शब्द पायक है, जिसका द्रा धातु से कोई संबंध नहीं
डाकिये की पुकार और डाक की रफ्तार
मैने उक्त पोस्ट के अंत में क्रमशः इसीलिए लिखा था क्यों कि अभी यह जारी है। अगली कड़ी में बांग्ला के डाक का संदर्भ ही आने वाला था मगर चंदूभाई ने वह काम कर दिया। बेशक, गुरूदेव वाला, बांग्ला वाला संदर्भ सही हो सकता है। डाक के 'पुकार' अर्थ में अगर डाकिये को देखें तो यह बात नज़र भी आती है। संदेश-संवाद लाने के बाद उसे हांक लगाकर सुनाने या संदेश पाने वाले का नाम पुकारने वाले के तौर पर डाक से डाकिया शब्द चल पड़ा होगा। मगर बांग्ला डाक की व्युत्पत्ति क्या हो सकती है ? पोस्टआफिस के अर्थ में डाकघर अनुवाद गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर का किया हुआ माना जा सकता है मगर डाक में खाना लगाकर उर्दू का जो डाकखाना बना वह चलन कब का है ? ( ये अलग बात है कि उर्दू में ड वर्ण ही नहीं है। ) गुरूदेव द्वारा पोस्ट आफिस को डाकघर नाम देने से दशकों पहले से डाक शब्द अंग्रेजीराज में दाखिल हो चुका था। जाहिर है कि डाकखाना भी डाकघर से पहले बन चुका होगा । एक और बात है। बांग्ला के डाक ( पुकार ) शब्द में कहीं भी संवाद या संदेश जैसा अर्थ ध्वनित नहीं हो रहा है।
खासतौर पर चिट्ठी-पत्री या दस्तावेज़ी संदेश जैसी बात तो कतई नहीं। यही बात द्राक् के बारे में भी कही जा सकती है। मगर संदेश पहुंचाने की प्रणाली के संदर्भ में द्राक का रिश्ता जुड़ता हुआ लग रहा है।
रही बात पायक की सो संस्कृत में इसका रूप पायिकः है जो हिन्दी में पायक हो गया। संस्कृत में संदेश वाहक नहीं बल्कि पैदल सिपाही के तौर पर इसका अर्थ बताया गया है (आपटे कोश) और ज्ञानमंडल हिन्दी कोश में भी इसका अर्थ पैदल सिपाही, सेवक या दूत बताया गया है। संदेशवाहक की प्रकृति पर अगर ध्यान दें तो पायक की व्युत्पत्ति चाहे द्रा से न जुड़ती हो मगर प्रकृति एक ही है। पायक पैदल चलने वाला है और द्रा या द्राक् में शीघ्रता है। दोनों में ही गति तो है। दस्तावेज़ी संदेश के अर्थ में पुकार वाले भाव का डाक से रिश्ता थोड़ा पीछे जुड़ता हुआ लगता है बनिस्बत द्राक् या पायक में निहित गति या शीघ्रता वाले भाव के । आपटे के कोश में एक और भी शब्द है - ढौक् जिसका अर्थ है जाना, पहुंचाना,निकट लाना या प्रस्तुत करना । ये तमाम भाव भी डाक में निहित संदेश वाले अर्थ से जुड़ते हैं न कि पुकार वाले अर्थ से। अर्थसाम्य और ध्वनिसाम्य व्युत्पत्ति तलाशने वालों के प्रिय उपकरण रहे हैं और यहां ये दोनों ही काम दे रहे हैं।
ये लंतरानी कैसे हुई ?
चंदूभाई की ऐक ही बात काबिले ऐतराज लगी और वह ये कि उन्होने हमारे लिखे को लंतरानी कहा। मैं सोचता हूं कि ये ज्यादती है। द्राक् का डाक से रिश्ता मैं अपने मन से नहीं जोड़ रहा हूं। यह व्युत्पत्ति जान प्लैट्स की हिन्दी उर्दू इंग्लिश डिक्शनरी में दी गई है। इसे लंतरानी कैसे कहेंगे ?
लंतरानी के मायने तो बढ़चढ़ कर बोलना होता है। दरअसल शुद्ध रूप में तो ये 'लनतरानी' है जो बिगड़कर लंतरानी हो गया। हजरत मूसा के मन में जब ईश्वर के दिव्य दर्शन की ख्वाहिश जगी तो आकाशवाणी हुई कि 'तू मुझे देख नहीं सकता'बाद में इसके मायने डींग हांकना या शेखी बघारना भी हो गए। हम क्या डींगें हांकेंगे ? जो कुछ पढ़ – समझ रहे हैं उसे सबके साथ शेयर कर रहे हैं। अपने ब्लाग के परिचय में पहले ही साफ कर चुके हैं। एक बार फिर कहे देते हैं-
शब्द की व्युत्पत्ति को लेकर भाषा विज्ञानियों का नज़रिया -अलगहोता है। मैं न भाषा विज्ञानी हूं और न ही इस विषय का आधिकारिकविद्वान। अब तक जो कुछ इस विषय में पढ़ा-समझा-जाना उसे आसान भाषा में छोटे-छोटे आलेखों में बताने की कोशिश है मेरी। [डाक पर कुछ और अगली कड़ी में ] ......क्रमशः
Sunday, November 18, 2007
चंदूभाई की चिट्ठी आई [ डाकिया डाक लाया- 2 ]
प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर पर 2:58 PM
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6 कमेंट्स:
हमारे ज्ञानचक्षु ऐसे ही क़ाबिलेतारीफ़ और क़ाबिलेएतराज़ जैसे प्रसंगों के बीच खुलते हैं। शुक्रिया।
ये 'लंतरानी' भी खूब रही ।
संधान जारी रहे.. वैसे उर्दू में ड है.. अरबी और फ़ारसी में नहीं है..
भाई साहब आप भले ही न भाषाविज्ञानी न हों या फ़िर न हों आप इस विषय के आधिकारिक विद्वान। लेकिन फ़िर भी आप इन दोनो से बेहतर इसलिए हुए क्योंकि आप जो ज्ञानार्जन कर रहे हैं उसे बांट भी
रहे हैं सबके साथ!!
यही बात तो आपको अलग बना रही है।
'लंतरानी' से नाराज न हों। मित्रों से अनौपचारिक होना अच्छा लगता है और किसी से भी अनौपचारिक होते ही मित्रता सी लगने लगती है...
पता नहीं कैसे बांग्ला 'डाक' से डाकिए का नाता नहीं दीख रहा ? डाकिए भी पुकारा करते थे ।
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