Sunday, January 13, 2008

गुरू के पास जाना ही उपनयन [जश्न-3]

नेऊ या यज्ञोपवीत संस्कार के लिए ही एक अन्य प्रचलित शब्द है उपनयन संस्कार । वास्तव में यह हिन्दुओं के सभी संस्कारों में सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है। उपनयन का अर्थ है ले जाना, निकट लाना, खोजना, काम पर लगाना वगैरह ।
उपनयन बना है नी धातु में उप् उपसर्ग के प्रयोग से। इस तरह जो शब्द बना वह था उपनयः जिसका मतलब हुआ उपलब्धि, खोज ,काम पर लगाना, वेदाध्यन करना, दीक्षा देना आदि। यह नी धातु वही है जिससे नेता, नेतृत्व, नेत्री, नयन ,न्याय , अभिनय आदि अनेक शब्द बने हैं जिनमे ले जाना अथवा नेतृत्व के भाव शामिल हैं।
गौर करें कि उपनयन के संदर्भ में जो बार बार ले जाना , जाना, काम पर लगाना जैसे भाव सामने आ रहे हैं तो उसका वास्तविक अभिप्राय क्या है। धर्मग्रंथों मे इस शब्द का संदर्भ मूलतः विद्यारंभ से जोड़ा गया है। डॉ पाण्डुरंग वामन काणे के धर्मशास्त्र का इतिहास के मुताबिक इसे दो प्रकार से समझाया जा सकता है। (1) बच्चे को आचार्य के सन्निकट ले जाना (2) वह संस्कार या कृत्य जिसके जरिये बच्चा आचार्य के पास ले जाया जाए। इस संदर्भ में गौरतलब है कि पहला अर्थ आरंभिक अवस्था का है मगर जब इसे विस्तारपूर्वक किया जाने लगा तो दूसरा अर्थ ही प्रमुख हो गया इस संस्कार के बाद ही बालक या बटुक द्विज अर्थात जिसका दो बार जन्म हुआ हो, कहलाता है। । प्राचीनकाल में इसके पीछे भाव यह था कि बच्चे का भौतिक जन्म तो उसके माता-पिता से होता है परंतु सामाजिक रूप से प्रतिष्ठा हासिल करने के लिए आवश्यक बौद्धिक क्षमताओं और नैतिक बल उसे विद्याध्यन से मिलता है जो गुरुकुल में आचार्य प्रदान करते हैं। अतः यह माना गया कि बच्चे को दूसरा जन्म उसके गुरू प्रदान करते हैं। इसलिए द्विज शब्द चलन में आया। उपनयन के लिए आदर्श उम्र पांच वर्ष व अधिकतम आयु पच्चीस वर्ष निर्धारित है।
यह संस्कार अब भी समाज में प्रमुखता से होता है मगर अब इसका संबंध विद्यारंभ से बिल्कुल नहीं जोड़ा जाता। यह सिर्फ एक पारिवारिक , धार्मिक संस्कार भर रह गया है जो उत्सव यानि जश्न का निमित्त बनता है।

आपकी चिट्ठी

सफर के पिछले पड़ाव जनेऊ में जश्न का आनंद उल्लास( जश्न-2) पर सर्वश्री दिनेशराय द्विवेदी, संजय, मीनाक्षी, दिलीप मंडल, और संजीव (छत्तीसगढ़िया) की चिट्ठियां मिलीं। शुभकामनाओं के लिए आप सबका एक बार फिर आभार।

10 कमेंट्स:

Sanjay Karere said...

नी से नेता... अभिनय तो अभिनेता नहीं क्‍या? हिंदी भी कितनी रहस्‍यमयी है और कई बार भरमा देती है. पर आप हैं ना भाई जी.. इसलिए कोई चिंता नहीं. यहां पढ़ने आते रहेंगे तो अपना भी उपनयन हो ही जाएगा.

Pankaj Oudhia said...

अब आपको पढना आरम्भ कर दिया है। कभी जडी-बूटी के विषय मे भी कुछ बताये तो आपके ज्ञान का लाभ मिलेगा। आपकी तस्वीर समीर जी के साथ देखी। आपको पता है कि वे कब ब्लाग जगत मे लौटेंगे? लम्बा गोल हो गया उनका।

36solutions said...

अजीत जी कल मैनें जो बात की थी आज उसे आपने स्‍पष्‍ट किया धन्‍यवाद ।
वास्‍तव में आजकल के युवा इस संस्‍कार के मूल तक जाते ही नहीं जाते । यह मूलत: विद्यारंभ के पूर्व का संस्‍कार है, यही वह अवधि है जहां बालक का बल एवं उर्जा का विकास व अनुशासन का पाठ प्रारंभ होता है । हमारे यज्ञोपवीत मंत्रों में भी यह कहा गया है - यज्ञोपवीतं परमं पवीतं प्रजापतेर्यत् सहजं पुरस्‍तात् , आयुष्‍यमग्र्यं प्रतिमुन्‍च शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्‍तु तेज: ।
यह तंतु बालमन में इतना प्रभाव जगाता है कि वह इसे एक अनुशासनात्‍मक बंधन मानता है साथ ही इस तंतु में निहित परम शक्ति को अनुभव करता है 'ओंकाराग्नि ..... नवसु तन्‍तुषु' ।

संजीव

दिनेशराय द्विवेदी said...

अजीत जी। आप ने इस सफर को इतना रोचक और ज्ञानवर्धक बना दिया है कि किसी दिन पढ़ने को न मिले तो लगता है आज स्नान नहीं किया।

Sanjeet Tripathi said...

ह्म्म! चलो जी अपन उपनयन की अधिकतम सीमा को भी पार कर चुके है! कोई लोचा नई!

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

सर्वश्रेष्ठ साहित्यिक ब्लॉग के प्रथम पुरस्कार से सम्मानित किये जाने पर हार्दिक बधाई।

इष्ट देव सांकृत्यायन said...

bahut badhiya. jari rakhie.

मीनाक्षी said...

इस पोस्ट को पढ़ने के बाद अपने गुरु होने का गर्व हो रहा है...

नारायण प्रसाद said...

<< यह नी धातु वही है जिससे नेता, नेतृत्व, नेत्री, नयन ,निर्देश ,न्याय , अभिनय आदि अनेक शब्द बने हैं >>

निर्देश शब्द "नी" धातु से नहीं बल्कि निर् (निस्, निः) उपसर्ग सहित "दिश्" धातु से बना है ।
न्याय शब्द नि उपसर्ग के साथ "इ" (= जाना) धातु से बना है ।
--- नारायण प्रसाद

अजित वडनेरकर said...

सही कहते है नारायणप्रसाद जी। असावधानीवश यह शब्द चला गया है। मैं अपनी पुरानी पोस्ट का हवाला देते हुए जल्दबाजी में इसे लिख गया। गलती के लिए क्षमा चाहता हूं। ध्यान दिलाने का शुक्रिया।

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