इस कविता को किसी भूमिका की दरकार नहीं है । फ़क़त इतना ही बताना चाहूंगा कि ये मेरी उस थाती का हिस्सा है जिसे मैने बड़े जतन से संजोया है और ये सिलसिला जारी है। इसे सुरक्षित रखने की खातिर मैं अपनों से भी बुरी तरह झगड़ने लगता हूं। जगतार पपीहा साहब की यह रचना ज्ञानोदय के अक्तूबर 1961 के अंक से ली गई है यानी मेरे जन्म से भी पहले की है। काफी जर्जर अवस्था में है यह अंक। इस कविता को पढ़ें और देखें कि इसमें क्या आपको आज की दिल्ली नज़र आती है ? लुधियाने की लड़की की चिंताएं अपनी जगह वाजिब हैं मगर मुझे ये सोचकर बड़ा
अच्छा लग रहा है कि देर रात आने वाले पति के साथ उसके दोस्त के बारे में सिर्फ दिमाग मे कूड़े वाली चिंता ही लड़की को परीशां कर रही है कोई और नहीं। सच कह रहा हूं न.....?
लुधियाने की लड़की बहुत परीशान है
अकेली इंडिया गेट तक घूमने कैसे जाए
अकेली बाजार से साग -सब्जियां कैसे लाए
अकेली सारा दिन कैसे रहे एक कमरे में बंद
अकेली कैसे ढोलक पर गीत गाए
लुधियाने की लड़की बहुत परीशान है
शौहर दस बजे रात को दफ्तर से आता है
अक्सर ही साथ में दोस्त कोई लाता है
करता रहता है मोटी किताबों की भारी भारी बातें
इतना कूड़ा दिमाग में कैसे समाता है
लुधियाने की लड़की बहुत परी शान है
इतनी तेज़ी में कहां भागते हैं सड़को पर इतने लोग
जीवन में मिलता नहीं, कहीं रुकने का संयोग
टैक्सी के नीचे एक बूढ़ी औरत दब जाती है
मौत ही दवा है, इतना कठिन है शहर का रोग
लुधियाने की लड़की बहुत परीशान है
आओ, आज घर में ही बैठो, कुछ बात करें
टप्पे गा-गाकर आंगन में फूलों की बरसात करें
लोग पागल कहेंगे, कहे, अपना क्या बिगड़ता है
गीतों की शादी रचाएं, प्यार की बारात करें
लुधियाने की लड़की बहुत परीशान है
-जगतार पपीहा
Thursday, January 17, 2008
लुधियाने की लड़की
प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर पर 3:56 AM
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6 कमेंट्स:
मेरे बचपन के समय की सुन्दर कविता। एक पत्नी की शिकायत कि उसके पति को कभी उसे भी समय देना चाहिए। आज और अधिक प्रासंगिक हो गई है।
ममता जी। जब उपभोक्ता के स्थान पर अपने व्यवसाय की फिक्र करने का रिवाज बन जाए तो ऐसा ही होता है। यह होता भी रहेगा। इसलिए कि अब स्कूलों का स्थान दुकानों ने ले लिया है। मेरी पुत्री एक ही स्कूल में चौदह वर्ष अध्ययन किया, लेकिन उसी स्कूल से पुत्र को शिक्षकों के व्यवहार के कारण हटना पड़ा था।
ईश..मोटी किताबों की भारी भारी बातें
इतना कूड़ा दिमाग में कैसे समाता है
पूरी कविता आज भी प्रासंगिक.
बेचारी लड़की आज तक परीशान है ।
अजित जी आपने लुधियाना की लड़की के माध्यम से जो बात कही हैं, वो मेरे गांव की लड़की से लेकर बनारस,कानपुर, पटना, जयपुर और आजमगढ़ तक की लड़कियों पर एकदम सटीक बैठती है, रचना खूबरसूरत है
लड़की को परीशान देखकर...एक गीत याद आ गया जो हमेशा गुनगुनाते हैं...इस शहर में हर शख्स परीशान सा क्यों है !!!!
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