अवधू माया तजि न जाई... कबीर बानी में कई बार एक शब्द आता है अवधू । कौन है यह अवधू ? दरअसल अवधूत ही अवधू है। मोटे तौर पर सन्यासियों-साधुओं के एक वर्ग को अवधूत कहते है । कबीरबानी के निहितार्थ से अली सरदार जाफरी ने इस शब्द की व्युत्पत्ति बताई है अ+वधू यानी जिसकी वधू न हो अर्थात अकेला, सांसारिक बंधनो से मुक्त । भाव ग्रहण करने के स्तर पर तो यह व्युत्पत्ति आनंदित कर सकती है मगर यह सही नहीं है। अवधूत बना है संस्कृत के धूत शब्द में अव उपसर्ग लगने से । अव + धूत = अवधूत । अव उपसर्ग का मतलब होता है दूर, परे, फासले पर , नीचे( अवतल ) वगैरह। धूत शब्द भी मूलतः धू धातु से बना है जिसका अर्थ है झकझोरना, हिलाना, अपने ऊपर से उतार फेंकना, हटाना आदि। इससे बने धूत शब्द में हटाया हुआ, भड़काया हुआ, फटकारा हुआ, तिरस्कृत, परित्यक्त, पापमुक्त जैसे भाव उजागर होते हैं। इस तरह देखें तो अवधूत का मतलब निकलता है वह सन्यासी जिसने सांसारिक बंधनों तथा विषयवासनाओं का त्याग कर दिया है। सभी प्रकार से मुक्त, धूत अर्थात परिष्कृत ।
वैष्णव एवं शैव अवधूत
अवधूत सन्यासी वैष्णव और शैव दोनों ही सम्प्रदायों में होते हैं। शैव अवधूत वे हैं जो कठोर साधना में जीवन व्यतीत करते हैं। तपस्या धर्म के पालन में रत रहते हुए वे शरीर पर वस्त्र को भी बंधन मानते हुए उससे मुक्त रहते हैं। प्रतीक स्वरूप सिर्फ भस्म का आवरण शरीर पर धारण करते है। वाणी का तिरस्कार करते हैं अर्थात मौन रहते हैं। योगी सम्प्रदाय के प्रवर्तक गोरखनाथ को इसीलिए विचित्र अवधूत कहा जाता है। इसी तरह रामानन्दी वैष्णव साधुओं को भी अवधूत कहा जाता है। स्वामी रामानंद ने जब सामान्य जनो को वैष्णव बनाने का अभियान चलाया तो उन्होंने जातिभेद हटा दिया और जो दीक्षित हुए उन्हें अवधूत कहा । इससे उनका अभिप्राय यही था कि नवदीक्षितों ने अपने पुराने स्वरूप का त्याग कर दिया है ।
और बात दुत्कार की
बोलचाल की हिन्दी में आमतौर पर एक शब्द प्रचलित है दुत्कार । इसका क्रियारूप हुआ दुत्कारना। जब कभी किसी के साथ तिरस्कारपूर्ण शैली में बातचीत हो, या उसका बहिष्कार किया जाए अथवा उसे फटकारा जाए तो इन तमाम बातों को दुत्कारना के अर्थ में ही देखा जाता है। यह दुत्कार भी गौर करें धूत् में शामिल तिरस्कार के भाव से ही आ रही है।
आपकी चिट्ठी
सफर की पिछली कड़ियों छकड़े में समाई शक्ति और फिर तो बाल ठाकरे हुए बिहारी पर कई साथियों की प्रतिक्रियाएं मिलीं। सर्वश्री संजय , दर्द हिन्दुसतानी, स्वप्नदर्शी , प्रभाकर पांडे, तरुण, आशा जोगलेकर ,आशीष महर्षि, नृपति, मीनाक्षी और मनीष जोशी ( जोशिम ) इन उत्साह बढ़ाने वाली चिट्ठियों के लिए आप सबका आभारी हूं।
Monday, January 21, 2008
अवधू माया तजि न जाई...और दुत्कार
प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर पर 2:30 AM
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10 कमेंट्स:
खूब, वैसे इस बारे में हमने बहुत पहले पढ़ा था आपने एक बार फिर रिवीजन करवा दिया धन्यवाद
:)यानि अवधूत तो हम भी हुए पर शैव परंपरा के नहीं हैं...
लेकिन ये बताइए कि सही क्या है, सन्यासी या संन्यासी? कंफ्यूज़न हो गया है.
धत तेरी की.. आप को धत पर केन्द्रित करना था इस पोस्ट को.. अवधूत तो ठीक है लाखों में एकाध होता है.. पर धत.. धता बताने वाले तो तमाम हैं.. इस धत का राज़ खोलकर तो आपने आनन्द दे दिया..
अजीत जी आप की कोई किताब निकली है क्या इस शब्द संसार पर । मैं अवश्य पढ़ना चाहुंगा । साहित्य का पृष्ठ इन दिनों सीहोर में नहीं आ रहा है क्या उसको केवल भोपाल का ही कर दिया गया है ।
तो अवधूत बाबा इसी श्रेणी मे आते है।
बिल्कुल सही. सटीक.
ज्ञानवर्धक!!
bahut achha likha hai. mere gyan me kafeee vridhi huyi hai.
अवधूत के बारे मे जानकारी पाकर अच्छा लगा ।
मेरी जानकारी में अवधूत का एक अर्थ निष्पाप भी है, क्या यह सही है ? दत्तात्रय जी को अवधूत भी कहा जाता है।
अवधूत सदानंद परब्रह्म स्वरूपिणे
विदेह देह रूपाय दत्तात्रेय नमोस्तुते ।।
अवधू ये माया ( शब्द सम्पदा बढ़ाने की) मत तजना। वर्ना शब्दों के सफर पर हम सब को कैसे ले चलेंगे।
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