Saturday, January 26, 2008

रगड़-रगड़ हथेली...नुक्ताचीं है ग़मे-दिल...


निर्मल आनंद पर अभयभाई ने भाषायी शुद्धता के संदर्भ में इरफान भाई की आपत्तियों के हवाले से नुक्तों पर एक सामयिक लेख डाला है। इसी बहाने कुछ बातें मैं भी कहना चाहता हूं। अभयजी ने बहुत बढ़िया लिखा, मगर संदर्भ थोड़ा परेशान करने वाला और कन्फ्यूजनकारी था। जनसामान्य के लिए एक भाषा की शुद्धता को दूसरी भाषा पर लादने का आग्रह क्यो ?


रेडियो टीवी जैसे माध्यमों में काम करने वालों , खासतौर पर उद्घोषकों से ही भाषायी शुद्धता की उम्मीद की जानी चाहिए । मगर अफसोस कि टीवी पर ही इसका सबसे भ्रष्ट रूप सामने आ रहा है। यहां मेरा मतलब सिर्फ समाचार चैनलों से ही है। पुरबिया उच्चारण इसमें साफ पहचाना जा सकता है । ऐसा लगता है न्यूज़चैनल वालों को नुक्तों से परहेज है। सईद अंसारी को छोड़कर ज्यादातर उद्घोषकों-एंकरों का उच्चारण सही नही है । और का फर्क नहीं पता। कई शब्दों का उच्चारण तो इस कदर हिन्दी उच्चारण से भिन्न होता है कि समझ में नहीं आता कि वे हिन्दी बोल रहे हैं या अपनी क्षेत्रीय बोली। ऐसे लोगों से यही कहा जा सकता है कि अगर बोलचाल के स्तर पर इतना ही स्थानीय बोली / उच्चारण आदि का खयाल था तो इस धंधे में क्यों आ गए जिसमें उच्चारण ही प्रमुख है। खबरें दिखाना , पत्रकारिता करना तो टीवी पर बिसरी बात हो चुकी हैं, भाई लोगों थोड़ी मेहनत उच्चारण पर ही कर लो। एक हिन्दी चैनल के कर्ता-धर्ता जो अक्सर एंकरिंग करने लगते हैं , बार-बार दोनो हथेलियों को रगड़ते हुए ज़ाहिर को जाहिर है , जाहिर है बोलते चले जाने की वजह से काफी शोहरत पा चुके हैं। ये लोग प्रेरणास्रोत हैं उन लोगों के लिए कि जो यह सोचते हैं कि थोबड़ा दिखाना ही ज्यादा जरूरी है, उच्चारण पर क्यों मेहनत की जाए। रेडियों पर उच्चारण सही होता है पर हिन्दी कठिन है। ऐसे में अनिल रघुराज अगर यह कहते हैं कि टीवी न्यूज़ में नुक्ता बचा हुआ है तो अजीब लगता है। यह मुसलमानी बिंदी तो हुजूर, टीवी पर ही सबसे ज्यादा गैरहाजिर नजर आती है।

हां तक लिखने का सवाल है , हिन्दी में तो नुक्तों का कोई प्रावधान है नहीं। मगर जब अरबी-फारसी के शब्द इस्तेमाल हो रहे हैं तो इन प्रचलित शब्दों के साथ नुक्ते का प्रयोग यथासंभव तब तो जरूर कर लेना चाहिए जब इसकी मौजूदगी या गैरमौजूदगी के चलते अर्थ का अनर्थ हो रहा हो। भाषा का मुख्य प्रयोजन संवाद है। अगर अर्थसिद्धि हो रही है , सम्प्रेषण हो रहा है तो फिर नुक्ते और दूसरी व्याकरणिक बारीकियों में आमजन को उलझाने का क्या मतलब। हिन्दी इससे नष्ट नहीं हो रही है। हिन्दी का व्याकरण कौन सा सैकड़ों साल पहले का रचा हुआ है। हिन्दी की जितनी भी शैलियां या बोलियां हैं उनमें एक ही शब्द के अलग अलग उच्चारण हैं। मीडिया में इन सभी भाषाई क्षेत्रों के लोग हैं और सबके अपने अपने आग्रह है। कायदे से तो उन्हें एंकर बनना ही नहीं चाहिए जिनका उच्चारण सही नहीं है परंतु धन्य हैं न्यूज़ चैनलों के कर्ताधर्ता जिन्हें शायद इस मूलभूत आवश्यकता की जानकारी नहीं है कि टीवी सिर्फ दिखा ही नहीं रहा होता , सुना भी रहा होता है। अब समाचार चैनलों के पास न तो सुनाने लायक कुछ है , न दिखाने लायक। रही सही कसर एंकरों के भ्रष्ट उच्चारणों ने पूरी कर दी है। किस बेख़याली में ख़याल खयाल हो जाता है और ख्याल सुना जाता है ?

हिन्दी समाचार पत्रों से नुक्ता जो गायब हुआ वह इसी सोच-समझ के साथ हुआ कि यहां भी जिस स्तर के प्रूफ रीडर है उनसे यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि उन्हें उर्दू शब्दों का भी ज्ञान हो। उर्दू शब्दों की समझ अगर है तो जरूरी नहीं कि उसका उच्चारण भी वे सही करते हों। इसीलिए अखबारों से नुक्ते गायब हुए । वजह थी शुद्धता के चक्कर में और बड़ी गलती न हो जाए। जिन्हें भाषा की समझ है वे बिना नुक्ते के भी सही अर्थ तक पहुंचेंगे। हां, उर्दू-फारसी की शेरो-शयरी का प्रयोग करते समय नुक्ते अगर लगाए जाएं तो साहित्य के साथ इंसाफ हो जाएगा। बाकी न भी लगाएं तो कोई क्या बिगाड़ लेगा ? हिन्दी में ही कौन सी एकरूपता है। एक ही शब्द के दो दो तरह के उच्चारण शब्दकोशों में मान्य हैं। आँखमिचौनी और आँखमिचौली दोनों सही हैं। मगर इनमें से आँखमिचौनी का प्रयोग करने वाला बड़े ठाठ से , दंभ से आँखमिचौली को गलत ठहरा देता है।

आपकी चिट्ठियां

सफर की पिछले दो पड़ावों- चश्मेबद्दूर ..रायता फैल गया..और लोक क्या है पर सर्वश्री प्रमोदसिंह, अभय तिवारी, अरविंद मिश्रा, दिनेशराय द्विवेदी संजीत त्रिपाठी अनामदास , तरुण, लावण्या ,माला तेलंग,पंकज सुबीर , अनुराधा श्रीवास्तव और मनीष जोशी (जोशिम)जी की प्रतिक्रियाएं मिलीं।
अनामदास जी , लोक पर आपकी सभी बाते सही हैं। तमाम शब्द लोक से ही उपजे हैं। बस, लोकल का लोक से अर्थ और व्याख्या के नज़रिये से तो रिश्ता है मगर व्युत्पत्ति के आधार पर नहीं।

7 कमेंट्स:

Yunus Khan said...

अजीत भाई जो बात सब जगह कही वही यहां कहूंगा । अपन ये मानते हैं कि मीडिया में बोलने वालों को तो शुद्ध ही बोलना चाहिए चाहे वो टी वी हो या रेडियो । अकसर लोग नुक्‍ते पर एतराज़ करते पाए जाते हैं पर राज़ और राज के अलग अलग उच्‍चारण अर्थ भी तो बदल देते हैं । क़लम और कलम का फ़र्क़ बेड़ा ग़र्क़ कर देता है । इसलिए शुद्ध बोलने का आग्रह सदा से रहा है और रहेगा ।

पारुल "पुखराज" said...

bahut shukriyaa...hum seekh rahey hain...aabhaar

VIMAL VERMA said...

आपने सही बात उठाई है,दर असल अब नुक्ते का कोई मतलब नही रह गया है, आज तक हो या कोई भी न्यूज़ चैनल सब की एक जैसी स्थिति है,सईद अंसारी रंगमंच से जुड़े रहे हैं पर रंगमंच से जुड़ा होना कोई पैमाना नही हो सकता,उच्चारण दोष को लेकर कोई भी चिन्ता कहीं भी दिखती नहीं है,यहां महाराष्ट्रा में गलत लिखे हुए तख्तियों को देखेंगे तो सर फ़ोड़ लेने का मन करेगा जैसे एनी बेसेन्ट का नाम यहां जहां भी देखेंगे लिखा होगा एनी बेझंट ये तो चलता है क्योकि मराठी मे कुछ है जहां झ का इस्तेमाल कुछ जगहों पर करते है,पर ज़रा इस पर विचार कीजियेगा कि बिहार और यूपी के देहातों में श शब्द है ही नहीं,इस पर आपका शोध कुछ प्रकाश डाल सकता है?

Sanjay Karere said...

मैं इस बात का समर्थन नहीं कर सकता कि हिंदी लिखने में नुक्‍तों का प्रयोग किया जाए. देवनागरी में लिखते समय इन नुक्‍तों की बात क्‍यों की जा रही है जो उसमें शामिल ही नहीं हैं? उच्‍चारण की बात तो समझ आती है लेकिन लिपि में यह घालमेल क्‍यों? इंग्लिश के ऐसे सैकड़ों शब्‍द हैं जिनका उच्‍चरित स्‍वरूप हिंदी में कभी सही तरीके से लिखा ही नहीं जा सकता. लेकिन बोलने या उन्‍हें पढ़ कर अर्थ समझने में किसी को कठिनाई नहीं होती, तो फिर उर्दू को लेकर इतना एतराज क्‍यों है? साहेबान हिंदी को अभी तक राष्‍ट्रीय स्‍तर पर एक मानक स्‍वरूप ही नहीं मिल सका है. महाराष्‍ट्र में छोटी इ और बड़ी ई की मात्राओं का घालमेल ... इस ब्‍लॉग पर तीसरी टिप्‍पणी करने वाले सज्‍जन ने लिखा है महाराष्‍ट्रा.... क्‍या प्राथमिक पाठशालाओं में नुक्‍तों के बारे में कोई बताता है? और मुझे नहीं लगता कि हाईस्‍कूल या कॉलेज में जाकर आप नुक्‍तों के बारे में सीखना चाहेंगे या कोई आपको वहां सिखाएगा... मुझे इससे ज्‍यादा महत्‍वपूर्ण यह लगता है कि पहले हिंदी का निर्विवाद स्‍वरूप बने और उसे सारे देश में प्रचलन में लाया जाए. भाषाई शुद्धता को उसकी उपयोगिता के संदर्भों और व्‍यावहारिक स्‍तर पर भी परखा जाना आवश्‍यक है न कि नुक्‍तों की खौफनाक दलीलें देना. इस टिप्‍पणी को लिखते समय मैने कई नुक्‍ते छोड़ दिए हैं क्‍योंकि मुझे नुक्‍ते लगाने नहीं आते.

संजय बेंगाणी said...

महाराष्ट्र या महाराष्ट्रा !

और नुक्ते या नुक़्ते...तो भाई हर भाषा का अपना स्वभाव होता है. क्या अरबी शब्द जो अंग्रेजी में गये हैं, वहाँ नुक़्ते लगाये जाते है?

मीनाक्षी said...

छह दिन के सफ़र के बाद लौटे तो माँ के बारे में पढते पढ़ते नीचे उतर आए....नुक़्ते पर....:) पढिए और बताइए कि नुक़्ता हिन्दी में चाहिए या नहीं....
दसवीं बी के सारे लड़के जलील हैं...
मैडम, मिस्टर ज़लील का क्या हाल है?
अब बताइए कि यहाँ क्या खता हो गई ....!

nadeem said...

अजित जी, माफ़ी चाहूँगा मगर मैं, इस मुसलमानी बिंदी का अर्थ नहीं समझा, जहाँ तक भाषा की बात है वो किसीकी पपोती नहीं होती, खासकर धर्म की. अपनी बात को बहतर तरीके से समझाना ही सही भाषा ज्ञान को दर्शाता है. हाँ मैं भाषा और उच्चारण को लेकर आपकी चिंता की क़द्र करता हूँ. मगर इस विषय कुछ साथियों के जवाब ने ये आपको बता दिया होगा की कितने लोगों को इसकी फिक्र है और कितनों को नहीं.

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