आदर्श हिन्दू उस चूहे की तरह होगा...दिलीप मंडल का एक विचारणीय लेख है जो मौहल्ला पर प्रकाशित हुआ है। इस आलेख की अंतिम पंक्तियां कुछ सवाल खड़े करती हैं, देखें -
विधवा विवाह का निषेध, अंतर्जातीय विवाह पर पाबंदी और रक्त शुद्धता की अवधारणा, अस्पृश्यता, कर्म और जाति का संबंध यानी हर जाति के लिए खास कर्म का प्रावधान, बेटी का पैतृक संपत्ति में उत्तराधिकार का निषेध, कर्मकांड की प्रधानता, वैश्यों, शूद्रों और अंत्यजों के साथ औरतों की अवमानना - क्या इन सारे तत्वों को निकाल देने के बाद भी हिंदू सभ्यता में कुछ बचता है?
इन नकारात्मक तत्वों के होने मात्र से क्या हिन्दुत्व या हिन्दू संस्कृति की पहचान कायम है ? चौथी सदी में भारत आए पहले चीनी यात्री फाह्यान और उसके बाद ह्वेनसांग, सुंगयुन जैसे दो दर्जन से भी ज्यादा पौर्वात्य देशों के अध्येताओं की भारत यात्राएं इस महादेश की किन खूबियों के चलते हुईं? धर्म, राजनीति , संस्कृति-समाज, कृषि, उद्योग , चिकित्सा आदि क्षेत्रों में संचित ज्ञान का उद्गम कभी यही भूक्षेत्र था। यहां जन्में बौद्धधर्म के सहारे भारतीय (हिन्दू!)सभ्यता के न जाने कितने संस्कार जाने-अनजाने दुनियाभर में प्रचलित हो गए। करबद्ध नमस्कार उनमें से एक है। यही नहीं ,इस्लामी पूजा पद्धति नमाज़ शब्द के मूल में भी इसी नमस्कार में निहित नम् यानि शीश झुकाने वाला भाव शामिल है। देखें।
भारतीय हिन्दू समाज की कुरीतियां समय समय पर ताकतवर वर्ग द्वारा समाज को अपने अनुरूप चलाने के प्रयासों या किन्हीं व्यवस्थाओं में हस्तक्षेप का नतीजा थीं। ताकतवर वर्ग कहीं कसर नहीं छोड़ता है। जाहिर है कि राज्यसत्ता द्वारा नियमबाधित करने से लेकर लिखित एवं मौखिक धार्मिक विधि-विधानों में इनका पालन सुनिश्चित करवाने की चेष्टाएं इस वर्ग ने की और इसके प्रमाण अतीत में साफ नज़र आती है।समाज के अन्य वर्ग इसे मानने को बाध्य क्यों हुए इसके मूल में भी कहीं न कहीं हिन्दू सोच रही है।
हिन्दू विचार पद्धति सत्ता मात्र के प्रति उदार है क्योंकि उसके द्वारा ईश्वर खुद को व्यक्त कर सकता है।
(श्रीकृष्ण वेंकटेश पुणतांबेकर-एशिया की विकासोन्मुख एकता)
बस, इसी के चलते ही वैदिक युग में उदारवादी सोच के तहत प्रकृति को परम सत्ता माना गया और उसे बचाए रखने के लिए तरह तरह के प्रबोधन मनीषियों ने रचे। बाद के दौर में प्रकृति से हटकर अन्य सत्ता केन्द्र के रूप में ईश्वर का आविष्कार हुआ। फिर ईश्वर के प्रतिनिधि के तौर पर समय समय पर धर्माचार्य और शासक समेत अन्य ताकतवर तबके सत्ता सुख लेते रहे। जाति व्यवस्था के मूल में ये बाते हैं। कर्मआधारित समाज को सीधे सीधे जाति आधारित समाज मामानने का कोई अर्थ नहीं है। घृणित जातीय व्यवस्था तो आक्रमणों के दौर में पनपी है, जब समाज को उस दौर के झंझावात ने हर तरह की चेतना से वंचित रखा। ज्ञान तक को सीमित कर दिया गया।
अलबत्ता भारतीयता (प्रकारांतर से हिन्दुत्व ) की पहचान की बात की जाए तो इस महादेश ने कभी किसी एक चुने हुए ईश्वर, एक चुनी हुई जाति, एक चुनी हुई व्यवस्था और एक चुनी हुई जीवनचर्या में विश्वास रखने जैसी कट्टरता नहीं दिखाई है।
सुदूर पूर्व से पश्चिम तक ईसा से भी सदियों पहले से भारतीयों के रिश्ते क्या साबित करते हैं? आठवीं सदी में बल्ख बुखारा के विहारों में निवास करने वाले बौद्ध श्रमणों के प्रसिद्ध परिवार परमकों का जिक्र है। वहां जब बौद्धों का दमन हुआ तो इन पारमिको नें इस्लाम कुबूल किया और बरमक कहलाए। अपने संचित ज्ञान के आधार पर ही वे ख़लीफा हारूं अल रशीद के दरबार में वजीर के ओहदे तक पहुंचे।
इससे भी सदियों पहले ईरान के अग्निपूजकों द्वारा मगध के पुरोहितों को सूर्योपासना पद्धतियों के प्रचार प्रसार के लिए ईरान बुलवाना और वहां बसाना क्या जाहिर करता है ? इतिहास में उल्लेख है कि ये मग पुरोहित ही पश्चिमी इतिहास में मागी के रूप में दर्ज है। इसी शब्द से बाद में मैजिक या मैजिशियन शब्द भी बने।
पुत्री को पितृसंपत्ति से दाय की व्यवस्था हिन्दू धर्मशास्त्रों में रही है। बात वही ताकतवर वर्ग की आती है जिसने तमाम षड्यंत्रों के साथ सत्ता की भागीदारी में बहुजन समाज को ज्ञान से वंचित रखा। धर्म को समझने लायक ज्ञान अगर बहुजन समाज में आ जाए तब आज की ज्यादातर समस्याएं सुलझ जाएं। इन हालात में कल्पना करें कि देश के कितने मुस्लिम हैं जो कुरआन को पढ़ना जानते हैं। उसकी व्याख्या के लिए वे मौलवी ( जो सत्ता का प्रतीक है ) पर निर्भर न रहें तो बेहतर होगा मगर क्या ऐसा हो पा रहा है ?
Wednesday, January 2, 2008
बहुत कुछ है हिन्दू सभ्यता में ...
प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर पर 9:15 PM
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
2 कमेंट्स:
हिंदु धर्म विश्व का सबसे प्राचीन और प्रासंगिक धर्म था,है ओर रहने वाला है,कालांतर में कुछ अस्पृश्यता जैसी बुराइयां आई,इनको दूर करना प्रत्येक हिंदु का प्रयास होना चाहिये और हो भी रहा है,समाज में प्रत्येक को बराबरी का हक मिलना ही चाहीये.इसे सुधारने की बजाय हम प्राण पण से इसे बात बिना बात बदनाम करने की कोशिश करना क्या ठीक है,बुराइयों की चर्चा सुधार के लिए ठीक है पर ,तोङने के लिये ठीक नहीं,
अजित जी, नए साल में आप का नया रूप दिखाई दिया। शुभ कामनाओं के साथ बधाई। मिहिरभोज को आप के आलेख मे भी बुराई नजर आई है। लगता है वे आत्मालोचना के लिए तैयार ही नहीं हैं। लेकिन यह उन का ठहराव है जो उनके विकास में बाधक बन गया है। ठहरा हुआ पानी सड़ने लगता है। उन की सोच वैज्ञानिक और विकासवादी नहीं हो कर उस के विपरीत है। यही गड़बड़ है। शब्दों का सफर इतिहास से रुबरू कराता चलता है यह मैं ने पहले कहा था वह वर्तमान से भी प्रतिक्रिया करता है, यह भी आज देख लिया।
Post a Comment