Wednesday, April 2, 2008

पहले ऑफर में ही मान जाते हैं काकेश [बकलमखुद- 13]



शब्दों के सफर में बकलमखुद की शुरुआत की थी कुछ हम कहें जैसा खिलंदड़ा ब्लाग चलाने वाली अनिता जी ने । उसके बाद ठुमरी वाले विमल वर्मा ने सुनाई अपनी दिलचस्प दास्तान और फिर तीसरे पड़ाव पर लावण्या शाह की प्रवासी डायरी आपने पढ़ी। बकलमखुद के इस चौथे पड़ाव और चौदहवें सोपान में पढ़ते हैं काकेश की बतकही (चिरकुटई)का अगला हिस्सा। खुद काकेश इसे कोलकता प्रवास की मूर्खताएं कहते हैं।



तुक्के में जब जीत मिली


हॉस्टल में हिन्दी के मामले में मैं अन्धों में काना राजा था । इंजीनियरिंग में साथ के अधिकांश लड़के अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों से पढकर आये थे । हिन्दी माध्यम से पढ़े गिने-चुने लोगों में मैं भी एक था तो जाहिर है बाकियों के मुकाबले मेरी हिन्दी अच्छी थी और अंग्रेजी उतनी ही खराब । अंग्रेजी में तो रो-धो के किसी तरह काम चला लिया लेकिन हिन्दी ज्ञान का खूब फायदा भी मिला । हॉस्टल में जब भी कुछ भी हिन्दी में लिखना होता तो मेरे को ही पकड़ा जाता । हिन्दी एंकरिंग भी मुझे ही करनी होती और क्रिकेट मैच में हिन्दी कमेंट्री भी । इसी बीच कानपुर के कालेजों का एक सांस्कृतिक और साहित्यिक उत्सव (कल्चरल एंड लिट्रेरी फैस्ट) हुआ जिसमें हमारे कॉलेज ने भी भाग लिया । हिन्दी की जितनी भी साहित्यिक प्रतियोगिताएं थी जैसे डिबेट,क्रियेटिव राइटिंग, कविता लेखन सबमें हमारा नाम दे दिया गया । सबको उम्मीदें थी कि हिन्दी के अधिकतर पुरस्कार तो हमको ही मिलने हैं । विशेषकर कविता लेखन के बारे में तो सभी आश्वस्त थे कि वह पुरस्कार तो हमें ही मिलना है । लेकिन हमें अपनी औकात मालूम थी, इसलिये नाक कटने के डर से परेशान थे । शुरु के दो दिनों मे हिन्दी में हमारे कॉलेज को कोई पुरस्कार नहीं मिला था । हमारी आधी इज्जत तो जा ही चुकी थी । अंतिम दिन कविता लेखन था । हमारा डर के मारे बुरा हाल था । खैर, किसी तरह इस प्रतियोगिता में शामिल हुए। पहले दिन के कहानी लेखन और एक और लेखन प्रतियोगिता में हमने अपने हिसाब से बहुत सोच समझ कर लिखा था, लेकिन हमारा नाम पहले तीन तो क्या पहले पांच में भी नहीं था। तो इस बार सोचा कि कुछ ऐसा लिखेंगे जो ऊलजलूल हो, थोड़ा बुद्धिजीवी टाइप और भले ही हमारी समझ में ही ना आये लेकिन दार्शनिक सा लगे । लिखने के लिये विषय दिया गया ‘तृष्णा’। हमने जो कविता लिखी वह कुछ इस तरह थी-

ब्रह्मा रचित सुघड़ धरती पर , मानव ने अनुपम गुण पाया
पूरित फलित हुआ बुद्धि से ,पंच तत्व का घड़ा बनाया
आत्मा रही अमर इस जग में, तृष्णा संग संग राह बनाती
यह शरीर-रज रज हो जाता , तृष्णा लेकिन बढ़ते जाती
निकली एक बून्द जब घर से , तरु से प्यासा पत्ता टूटा
तृष्णा बढ़ती रही प्रतिक्षण , चाहे यह भव-बंधन छूटा


ऐसा ही एक दो पद और थे जो अभी याद नहीं। इतना बड़ी मुश्किल से लिखा कि समय समाप्त होने को आया। अन्त में एक दोहे की पहली पंक्ति लिखी थी कि समय समाप्त हो गया और अंतिम पंक्ति को किसी तरह पूरा किया । आप भी देखिये-

धूल हुई संवेदना , लगा गात में दाग
तृष्णा के मारे हे मानव, भाग भाग भाग !!!


जब परिणाम आया तो पता चला कि कविता लेखन में प्रथम पुरस्कार हमें ही मिला है । तब इस बात का का विश्वास ही नहीं हुआ। आज भी नहीं है, लेकिन तब नाक कटते कटते बच गयी। [अब पता नहीं , इस नाटकीय दृश्य में काकेश इस नारी से अपने किस अपराध की माफी मांग रहे हैं। हम तो अप्रैलफूल के मूड में हैं सो चुपचाप उनकी पोटली से ये फोटू मार लाए हैं, कैप्शन लाना भूल गए]

नौकरी,जो बिना तलाशे मिली

हॉस्टल में एक दिन, शायद रविवार था उस दिन। सुबह 11 बजे अपन चादर तान के सो रहे थे कि दरवाजा जो खुला ही हुआ था, उसे किसी ने जोर से खड़काया। अपन ने गालियों से स्वागत करते हुए पूछा कि कौन है तो पता चला की कॉलेज का पियॉन है। उसने बताया कि कैम्पस के लिये कोई कंपनी आयी है। फायनल ईयर के फायनल एक्जाम में अभी छ्ह महीने बाकी थे। कैम्पस के लिये कंपनिया आमतौर से 2-3 महीने पहले आती हैं और फिर आने से पहले नोटिस बोर्ड पर सूचना भी होती है। लेकिन इस कंपनी के आने की कोई सूचना नहीं थी। इसलिये अपन ने कह दिया कि अभी सोने दो यार । लेकिन जब उसने कहा कि प्रिसिपल साहब ने सभी होस्टल वालों को बुलाया है तो अपन भी एक जींस और कमीज डाल के चल दिये। मुँह भी नहीं धोया। कॉलेज पास ही था। वहाँ जाके पता चला कि कोई कलकत्ता की कंपनी है। कंपनी के लोगों ने कंपनी के बारे में बताया तो तीन चार लोग कैम्पस में बैठने के लिये तैयार हो गये। हम भी हॉस्टल के लिये निकल ही रहे थे कि हमारे प्लेसमैंट टीचर आये और बोले ‘अरे तुम नहीं बैठ रहे क्या कैम्पस में.’ हमारे मना करने पर कहने लगे कि ‘बैठ जाओ..पसंद ना आये तो ऑफर मत लेना’। उनके बोलने पर हम भी तैयार हो गये। जब अन्दर जाने लगे तो उन्होने अपना रुमाल दिया (हम रुमाल भी नहीं लाये थे) कि अरे मुंह तो पोछ लो कैसा गन्दा सा हो रहा है। खैर जी चले गये... दो तीन राउंड इंटरव्यू हुए और फायनल इंटरव्यू में सज्जन ने पूछा कि कलकत्ता क्यों आना चाहते हो तो हमने कह दिया कि हमने ये ये किताबें पढ़ी हैं जिससे हमें कलकत्ता को करीब से देखने की इच्छा है। फिर क्या था पूरा का पूरा इंटरव्यू विमल मित्र की ‘साहब बीबी गुलाम‘, शंकर की “चौरंगी” और टैगोर की ‘गीतांजली’ पर केन्द्रित रहा। करीब डेढ़ घंटे तक इसी तरह की साहित्यिक चर्चा हुई। जो सज्जन तकनीकी प्रश्न पूछने के लिये बैठे थे उन्होने एक प्रश्न पूछा और उसका उत्तर भी हमने गलत बता दिया। खैर हमें तो विश्वास था कि अपना सलैक्सन तो होना ही नहीं है तो अपन तो हॉस्टल आ गये। शाम को पता चला कि कुल दो लोग चुने गये जिनमें एक नाम हमारा भी है। बाद में प्लेसमैट टीचर ने पूछा ‘ऑफर लोगे क्या?’ हमने कह दिया हाँ, क्योकि अब तक कलकत्ता जाने का मन बना लिया था। [बाकी हाल अगले पड़ाव पर ]

आपकी चिट्ठियां

सफर की पिछली तीन कड़ियों ईमानदार चिरकुटई काकेश की, यूं ही नही अक्षर अनमोल और हां, हमने ब्रायन को सहर्ष कुबूल किया पर लावण्या शाह, मीनाक्षी , प्रमोदसिंह, दिनेशराय द्विवेदी,अनूप शुक्ल, सुजाता, डॉ चंद्रकुमार जैन, आलोक पुराणिक, विमल वर्मा, अरुण, संजीत त्रिपाठी, माला तैलंग, अजित, काकेश, चंद्रभूषण, पारुल, शिवकुमार मिश्र, प्रियंकर, अविनाश वाचस्पति, उड़नतश्तरी (समीरलाल), संजय पटेल, कल्पकार्तिक वर्मा, अनिताकुमार,संजय और मीनाक्षी जी की चिट्ठियां मिलीं। आप सबका आभार । सफर के सहयात्री बने रहें।

@कल्पकार्तिक -
तुम भी सफर के सहयात्री हो जानकर अच्छा लगा। लख्तेजिगर का जो नाम पापा यानी मेरे गुरुवर ने अक्षर अनन्य रखा है , बहुत पसंद आया।
@संजय भाई -
बस, आप सफर के साथ बने रहें। सफर की तारीफ़ में कोई शब्द खर्च न करें , पहले ही काफी कर चुके हैं। अलबत्ता शब्द खूब हैं मगर उनका इस्तेमाल नहीं करने दूंगा:)

19 कमेंट्स:

Geet Chaturvedi said...

यार मज़ेदार.

Batangad said...

सही जा रहे है काकेशजी

अनूप शुक्ल said...

सही है। आगे का इंतजार है। कविता पर फ़िर उतर के आओ। :)

Dr. Chandra Kumar Jain said...

दूसरी किस्त भी पढ़ ली सुबह-सुबह.
अजित जी के शीर्षक पहले आफर ----
में ही काकेशपन बोले रहा है.
बहुत उम्दा ..... बड़ा ही रोचक.

काकेश जी!तकनीकी ज्ञान क्षेत्र से
आकर भी आपने आम धारणा के विपरीत,
हिन्दी सेवा का सराहनीय
उदाहरण प्रस्तुत किया है.बधाई !

मैं यह मानता और जानता हूँ कि
वाणी का अधिकारी जहाँ भी हो
वह नेतृत्व करता है,आप भी इसकी मिसाल हैं .

एक बात और --------- ऊलजलूल का बुद्धिजीवी टाइप होना
भी बड़ा ही बौद्धिक
बयान है जी !!!......!!!.......!!!
एक और बधाई.

मीनाक्षी said...

कविता तृष्णा की दर्शनवादी पंक्तियाँ प्रभावशाली हैं.

Unknown said...

काकेशजी ,कलकत्ते पहुँच कर ही ब्रेक ले लेते ,ये आउटर पर खड़े होना बड़ा खलता है...

Anonymous said...

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विनीत उत्पल said...

baklamkhud padhne me khub maja aa raha hai.samay ke abhav ke karan kuch likh nahee pata, iske liye ajitjee maf karenge.

anuradha srivastav said...

व्यक्तिगत तौर पर काकेश जी को जानना अच्छा लगा।

VIMAL VERMA said...

अच्छा लग रहा है काकेश जी,सोते सोते नौकरी का मिलना.....और कविता तो आप दिव्य लिखते ही हैं,देखें ज़िन्दगी की राह में आगे क्या क्या होता है,इंतज़ार रहेगा अगली कड़ी का..

azdak said...

स्‍त्री के सामने सिर नवाये अच्‍छे लग रहे हो. और कविता का तो क्‍या कहें, कौन ससुर जज होगा जो ऐसी पंक्तियों पर घबराकर प्रथम पुरस्‍कार न देगा?

Sanjeet Tripathi said...

मस्त!!
क्या किस्मत है, सोते सोते ही मिली नौकरी!!

Anita kumar said...

काकेश जी, अजीत जी प्लीज ये बीच में अल्प विराम न लगाएं जी अब चौबिस घंटे इंतजार करना होगा कि फ़िर आगे क्या हुआ, आप तो टीज़ कर रहे हैं , गलत बात, एक साथ पूरी कथा सुनाइए और कथा कम से कम 300 पन्नों की होनी चाहिए। बहुत अच्छा लग रहा है काकेश जी के बारे में जान कर्।

राजीव जैन said...

मजा आ रहा है

अगली पोस्‍ट का इंतजार

Sanjay Karere said...

बड़े भाई इस पोस्‍ट की हैडिंग के कलर को तुषार क्‍यों मार गया है बमुश्किल पढ़ पाया. ठीक करिए न... दूसरों को सूविधा रहेगी. ये प्रमोद जी काकेश भाई के पीछे क्‍यों पड़े रहते हैं... !

दिनेशराय द्विवेदी said...

ना नुकुर करते करते दूसरे के रूमाल से मुंह पोंछते पोंछते नौकरी हासिल कर कलकत्ते की भूमिका बना ली। ठीक किया या नहीं यह तो काकेश जी की अगली कड़ियां ही बताएंगी। पर आज तो यह हालत है कि अभी अढ़ाई सेमेस्टर शेष हैं साहबजादे इसी से परेशान और टेंशन में हैं कि उन के कॉलेज में कोई कंपनी आएगी भी या नहीं।

Asha Joglekar said...

kakesh ji ke sasmaran bhut achche lage pehale ke bhi maine padhe the lekin pratikriya dene ka awasar isime mila avinash ji badhiya upkram hai.

Anonymous said...

humnee to aaj hi para kakesh ke baare me, achha laga jaankar. wah! kakesh to guno ki khan hain...aage intezar rahega.

Yunus Khan said...

लो भई आप तो अपने वाले निकले । पहाड़ों पर पैदा हुए और कलकत्‍ता में जिए ।
तभी इतनी मीठी कांव कांव है ।
वैसे स्‍त्रियों के सामने शीश नवाने के संस्‍कार याद हैं या भूल गये आप ।

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