ब्लाग दुनिया में एक खास बात पर मैने गौर किया है। ज्यादातर ब्लागरों ने अपने प्रोफाइल पेज पर खुद के बारे में बहुत संक्षिप्त सी जानकारी दे रखी है। इसे देखते हुए मैं सफर पर एक पहल कर रहा हूं। शब्दों के सफर के हम जितने भी नियमित सहयात्री हैं, आइये , जानते हैं कुछ अलग सा एक दूसरे के बारे में। अब तक इस श्रंखला की पंद्रह कड़ियों में आप अनिताकुमार, विमल वर्मा , लावण्या शाह और काकेश को पढ़ चुके हैं। इस बार मिलते हैं दुबई में निवासी मीनाक्षी धन्वन्तरि से । मीनाक्षी जी प्रेम ही सत्य है नाम का ब्लाग चलाती हैं और चिट्ठाजगत का एक जाना पहचाना नाम है। हिन्दी के परिवेश से दूर रहते हुए भी वे कविताएं लिखती हैं खासतौर पर उनके हाइकू बहुत सुंदर होते हैं जिन्हें उन्होने त्रिपदम् जैसा मौलिक नाम दिया है। तो शुरू करतें बकलमखुद का पांचवां चरण और सोलहवी कड़ी -
शुरू से शुरू करते हैं
अजित जी का मेल मिला कि शब्दों के सफर में हमसफर एक-दूसरे को जाने-पहचाने, इसलिए अपना आत्मकथ्य लिख भेजिए. एक पल के लिए हम झिझके लेकिन दीदी सम्बोधन ने हमें बाँध लिया. निश्चय कर लिया कि किसी भी तरह से अपने जीवन का एक सरल रेखाचित्र तो ज़रूर भेजेंगे. चार-पाँच बार लिखने बैठे, लिखने की बहुत कोशिश की लेकिन उंगलियाँ कीबोर्ड पर आते ही सन्न सी हो जाएँ. क्या लिखें कहाँ से शुरु करें......
[ मैं ये कहना चाहूंगा कि मीनाक्षीदी और अनितादी को ही सबसे पहले हमने अपने बकलमखुद के बारे में सबसे पहले बताया था और उनसे लिखने का आग्रह किया था ]
बचपन के मस्ती भरे दिन...
जन्म से ही शुरु करते हैं. दिल्ली में पैदा हुए. मम्मी बताया करती हैं, जब हम जन्मे तो
अपने देश की रीत के अनुसार दादी रोईं थी लेकिन डैडी ने विपरीत किया, झट से हमें मीठी मधु कह कर गोद में ले लिया था. पाँच साल के बाद छोटी बहन आ गई. दोनों को अपने बाज़ू कह कर डैडी दोनों बाँहों में हम दोनों बहनों को उठा लेते. फिर आया नन्हा-मुन्ना भाई और राखी बाँधने की हमारी चाहत पूरी हुई.
हमकितने भी बड़े हो जाएँ लेकिन बचपन नहीं भूलता, उसकी यादें साँसें बनी दिल में धड़कती रहती हैं. अप्रैल 7 को 48 साल के हो गए लेकिन फिर भी लगता जैसे बचपन छूटा नहीं. पल पल महसूस होता है कि परिपक्व होने में कसर रह गई है. अभी बहुत कुछ सीखना है, बहुत कुछ जानना समझना है. इसी सीखने की राह पर चलते चलते कभी दो पल रुक कर पीछे मुड़कर देखने को जी चाहता है. रुकते हैं, पीछे छूटे पलों को हसरत भरी निगाहों से देखते हैं और सपनों में खो जाते हैं. बार बार पीछे मुड़ मुड़ कर बचपन को हसरत भरी नज़रों से देखते ही रहते हैं.
बचपन के मस्ती भरे दिन नानी के घर बीते. जहाँ गौ मूत्र और गोबर की महिमा जानी. गेहूँ चुनकर, धो-सुखाकर चक्की पर पीसने का आनन्द अभी भी ताज़ा है. चाँदनी रात में खुले गगन के अनगिनत तारों के नीचे छत पर सोते समय नानी के मधुर स्वर में गीता का पाठ सुनना कानों में मिश्री सी घोल देता था. गर्मी की छुट्टियों में कुल्लू मनाली मौसी के घर पहाड़ों पर सपनों के बादल छूने की होड़ लगती तो हम सबसे आगे होते
बस, नाक पर बैठा गुस्सा भन्ना उठा...
तितली बन उड़ निकले थे अकेले दिल्ली से कश्मीर की वादियों में. प्रकृति की सुन्दरता ने मन को ऐसा मोह लिया कि मैदान वापिस जाने से पहले ही हमने सपनों की अपनी एक दुनिया बना ली. बस तो फिर क्या था, उन्हीं सपनों में खोए कॉलेज खत्म किया. सपनों की दुनिया में आकर अगर कोई छेड़खानी करता तो आग-बबूला हो जाते. कई बार चाचू को साथ लेकर उन सभी लड़कों को तमाचे लगाए जो अपने आप को मजनू के वंशज समझते थे. एक दिन डैडी जूडो कराटे के क्लब में ले गए. बोले कब तक दूसरे के कन्धे पर बन्दूक रखकर चलाओगी. खुद सामना करना सीखो. इसी से जुड़ी घटना याद आ गई. एक बार हम जूडो-करांटे के कम्पीटशन के लिए ट्रेन से कलकता जा रहे थे. सफर के दौरान देखा कि अपने ग्रुप की एक लड़की के साथ कुछ लड़के छेड़खानी करने लगे. बस फिर क्या था नाक पर बैठा गुस्सा भन्ना उठा. आव देखा न ताव लड़के के नाक पर हाथ पड़ा तो लगा कि उसका नाक ही टूट गया. उसी पल अपने ग्रुप के लड़के भी आ गए जिन्हें देखकर छेड़खानी करने वाले लड़के नज़र नीची करके दूर जा बैठे
और जा पहुंचे धीरेन्द्र ब्रह्मचारी के मानतलाई आश्रम
घर तक बात पहुँची तो गुस्सा शांत करने के लिए योगा करने के लिए धीरेन्द्र ब्रह्मचारी के आश्रम मानतलाई भेज दिया गया. हमने भी ईमानदारी से गुस्से को मारने की कोशिश की लेकिन थोड़े बेईमान हो गए और उसे दिल में गहरे बहुत गहरे दबा दिया. मानतलाई आश्रम की बनावट , उसकी सुन्दरता हमारे लिए अद्भुत थी. आश्रम बहुत बड़े इलाके में था. चीड़ के पेड़ , हरी भरी घास और चारों ओर रंग-बिरंगे फूल जिनमें बैठकर ध्यान लगाने का एक अलग ही आनन्द था. सन्ध्या के समय जब शिव के मन्दिर में बैठ कर ध्यान लगाते तो आकाश में टिमटिमाते तारे और दूर कुद शहर के पहाड़ों के घरों की टिमटिमाती बत्तियों में कोई फर्क न दिखाई देता. धीरेन्द्र ब्रह्मचारी जी जहाँ रहते थे, वहाँ जाने की मनाही थी लेकिन जहाँ वे समाधि में लीन होते , वह गुफा दिखाई गई. हमारा और लड़को का होस्टल कुछ दूरी पर ...शुद्ध देसी घी में शाकाहारी खाना बनता था . सुना था कि गाय, शाक भाजी फल और वनस्पति भी आश्रम की सम्पत्ति थे. योग पर अलग अलग पुस्तकों की लाइब्रेरी जिसमें घंटों बैठकर थ्योरी पेपर की परीक्षा के लिए हम नोटस तैयार करते.
सुबह षटकर्मा की क्रिया करके कुछ देर के अंतराल में नाश्ता करते. उसके बाद योग और आसन के लिए जाते, फिर कुछ घंटे क्लास में थ्योरी पढ़ने जाते. दोपहर आराम करके शाम फिर योग और आसन करते. उसके बाद ही ध्यान और समाधि लगाने की प्रक्रिया में सभी सभी अपने अपने पसन्दीदा स्थान पर एकांत भाव से ध्यान में मग्न हो जाते या होने का प्रयास करते.
बिजनेसवुमैन बनने का शौक...
वापस लौटने पर बिजनेसवुमैन बनने का अनुभव लेने के लिए मौसेरे भाई भाभी के ऑफिस जाकर बैठने लगे. हिन्दी भाषा को सपनों की भाषा समझते थे सो पत्राचार से हिन्दी मे एम.ए किया. मम्मी बार बार पैरों पर खड़ा होने की नसीहत देतीं तो दूसरी तरफ हमारी मस्ती देखकर डैडी बस मुस्कुरा कर रह जाते. मम्मी मनाती रह गईं कि बी.एड कर लेते तो टीचर बन जाते, जितना वह कहतीं उतना हम उस विषय को बदलने की कोशिश करते. मशरूम उगाने का बिजनेस करने का भूत जो सवार था सो भइया के ऑफिस में काम करते हुए सपना देखते कि एक दिन हम भी बिजनेस की दुनिया में नाम कमाएँगें.
सपनों की दुनिया से निकल कर बसना परदेश में ...
भाग्य में कुछ और कहानी लिखी थी. साउदी अरब से एक इंजीनियर लड़का आया. बँध गए एक नए बँधन में. शादी हुई...अपना देश छोड़ा और साउदी अरब के होकर रह गए. 1986 में नन्हें वरुण रेगिस्तान में स्वाति नक्षत्र की स्वाति बूँद बन कर आए . विजय अक्सर पति का पद छोड़कर दोस्त बन जाते और शांत भाव से हमारा जीना आसान कर देते. 'love it or leave it' का महामंत्र हमे बहुत आसानी से सिखा दिया. कभी कभी विचारों में टकराव होता है जो स्वाभाविक है, ऐसा होना भी चाहिए. कम बोलना और खाना देख कर कभी कभी हैरानी होती है क्योंकि हम बिल्कुल विपरीत स्वभाव के हैं. उनके शौक हैं संगीत और सर्फिंग के साथ साथ ऑनलाइन दोस्ती करना. मेहमान नवाज़ी में उनका कोई जवाब नहीं. जारी
Wednesday, April 9, 2008
उस लड़की ने मजनूं की नाक तोड़ दी....[बकलमखुद- 16]
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
24 कमेंट्स:
अजितजी,
बकलमखुद एक अनूठा प्रयोग है । ब्लागजगत के साथियों के बारे में जानकर उनके चिट्ठों पर लिखे जाने वाले कंटेन्ट और उनके स्वयं के व्यक्तित्व में साम्य भी देखा जा सकता है ।
मीनाक्षीजी के बारें में पढकर बहुत अच्छा लगा, अगली कडी का बेसब्री से इन्तजार रहेगा ।
काकेशजी की जानकारी पढकर मैने अपने बंगाली मित्र से पूछकर कि तुम्हारा बीए कब हो रहा है चौंका दिया :-)
आव देखा न ताव लड़के के नाक पर हाथ पड़ा तो लगा कि उसका नाक ही टूट गया.
-------------------
खतरनाक! :)
आपके त्रिपदम देख कर तो नहीं लगता कि आप इतनी खतरनाक हैं...अब बच कर रहना पड़ेगा आपसे :-) विजय जी को भी बोलें कि अपना हिन्दी ब्लॉग शुरु करें.
मीनाक्षी जी का बकलम खुद-1 पढ़ कर चक दे इंडिया की लड़कियाँ याद आ गईँ।
मीनाक्षीदी आपकी पुरानी तस्वीरें देखकर बहुत अच्छा लगा....बस यह गुस्से वाली छवि ज़रा मुश्किल हो रही है समझने में....जूड़ो कराटे और योग...deadly combination!!
bahut achchhaa laga meenaaxi ji ke baare me jaankar
बचपन की मस्ती में मिश्री
जब गीता की घुली हुई है !
नयनों के उज्ज्वल गवाक्ष से
शुभ्र चाँदनी मिली हुई है !!
गौ-धन और धन-धान्य से
भोलेपन यादें जुड़ी हुईं हैं !
जिसमें पल-पल धरा-गगन की
गरिमा-महिमा पढ़ी हुई है !!
वह बचपन हिन्दी का यौवन
बनकर वीणा बजा रहा है !
अपनी भाषा ,अपनी माटी का
नित गौरव बढ़ा रहा है !!
प्रेम से सत्य और
सत्य से प्रेम तक की यात्रा को
मंगल-कामनाएँ.
डा. चंद्रकुमार जैन
भोलेपन की बात पर
भोलेपन में एक त्रुटि रह गई !
देखिए न ---- लिख गया
भोलेपन याद ! ....इसे
भोलेपन की याद ! पढ़िएगा .
धन्यवाद.
मीनाक्षी को मैं बहुत करीब से जानती हूँ, एक बहुआयामी प्रतिभा(versatile personality) होने के साथ साथ वह एक अच्छी दोस्त भी है। और भी बहुत सी खूबियाँ हैं उसमें। मुझे खुशी हो रही है कि और बहुत से लोगों को शब्दों के सफर के माध्यम से उसके बारे में जानने का अवसर मिल रहा है।
राम राम, इत्ती खतरनाक हो आप , लोचा है ये तो भई!!
उम्मीद की जाए कि योगा के दौर ने आपके नाक पे बैठे गुस्से हो आराम करवा दिया होगा!!
आपके त्रिपदम पढ़कर वाकई आपके गुस्से का अनुमान नही किया जा सकता!!
वरूण और विद्युत, भाई तुम दोनो कैसे बचते हो इनके गुस्से से!!
प्लीज़, इस बात को सीरियसली नोट किया जाये कि नाक तुड़वानेवाला वह लड़का मैं नहीं था.. मेरे चाचा भी नहीं थे.. विमल की पहचान का भी कोई नहीं था?
प्रमोदजी , वैसे भी इतनी पुरानी बातों को कोई सीरियसली नहीं लेता। विमलजी लिख चुके हैं कि आप लोग देशभर में घूमघूम कर नाटक कर रहे थे :)
अजीतजी, बाकलम खुद बहुत अच्छा प्रयोग रहा। पढ़ने में मजा आ रहहा है। मीनाक्षी जी बहुत खूबसूरत लग रहा है आपके बारे में पढ़ना। जब आप मुम्बई आईं थीं तो आशीष ने आपके बारे में कुछ जानकारी दी थी, लेकिन ये तो बड़ा ही मजेदार काम्बिनेशन है कराटे और योग।
मिलाड नोट किया जाये प्रमोद जी की मूछ मे तिनका है जिसको छिपाने के लिये इन्होने लंबी लंबी मूछे उगा ली है,ये नाक इन्ही की थी, पुराने जमाने मे जब लोग दाढी रखते थे,तब कहा जाता था चोर की दाढी मे तिनका,अब तिनका मूछ मे होता है..:)
क्या बात है .अजित दद्दा के मार्फ़त नए-नए सूरमाओं से परिचय हो रहा है.
बहुत खूब!
पहले कुछ झिझके, कुछ डरे, फिर शब्दों के सफ़र में आगे बढ़ चले...सभी राही अपने से ही लगते हैं.
@ज्ञानजी,काकेशजी यकीन मानिए अब उतने खतरनाक बिल्कुल नहीं हैं.
@दिनेशजी,चक दे इंडिया फिल्म अब देखनी पड़ॆगी.
@बेजी, गुस्सा कभी था..अब नहीं..सफ़ेद और काले का... मीठे और नमकीन का combination भी खूब होता है.
@डॉ.जैन, प्रेम से सत्य और सत्य से प्रेम तक की यात्रा के लिए आपकी मंगलकामना अनमोल है.
@अर्बुदा, शुक्रिया..तुम जानती हो कि हम गुस्से से कोसों दूर हैं अब..
@संजीतजी, गुस्सा दूध के उफान की तरह होता है. जल्दी उतर
भी जाता है.
@प्रमोद्जी, सच कहें तो लगता कुछ ऐसा ही है..कहीं आप तो नहीं.....:)
@नीलिमा, क्या आप भी मुम्बई में थी उन दिनों?
@अरुणजी, पुरानी बातों को भुलाने में ही भला है.
स्वप्नदर्शीजी,नीरजजी और सिद्धेश्वरजी इस सफ़र में आपको अपने साथ देखकर अच्छा लगा.
स्नेह सहित आभार
मीनू दी आप तो हमारी सबसे अच्छी वाली दीदी hai. aapsey jo sneh mila hai vo shabdon me likha nahi jaa saktaa..agli kadi kaa besabri se intzaar rahegaa di .
गुस्से वाली बात का इतिहास भी है - उंह... हूँ ... हाँ [ :-)]
बहुत खूब। मजा आ रहा है। आगे का इंतजार है।
arre waah minu di kab aa gai.n hame pata bhi nahi chala...ham bahut kuchh janana chahate hai di aapke vishay me.n
अनूप जी, जोशिम जी , पारुल और कंचन शब्दों के इस सफर में हमारे पड़ाव में आने का शुक्रिया... कंचन, कोशिश होगी कि जवाब दे सकूँ .
लाजवाब। किसी स्वादिष्ट व्यंजन से भी ज्यादा, स्वादिष्ट। अजीतजी ने अनूठा प्रयोग किया है। और, मीनाक्षीजी ने क्या सही शब्दों का सफर तय किया है। उनके बारे में मेल के लिए जरिए या टिप्पणियों के जरिए अब तक जो समझ बनी उसमें कई गुना चक्रवृद्धि ब्याज जुड़ गया। आगे और विविधता की उम्मीद है।
चलिए अच्छा हुआ कि योगा के जरिए गुस्सा तो शांत कर लिया जी.
योगा लिखने के लिए क्षमा. इसे योग ही पढ़ें.
Post a Comment