ब्लाग दुनिया में एक खास बात पर मैने गौर किया है।
ज्यादातर ब्लागरों ने अपने प्रोफाइल पेज पर खुद के बारे में बहुत संक्षिप्त सी जानकारी दे रखी है। इसे देखते हुए मैं सफर पर एक पहल कर रहा हूं। शब्दों के सफर के हम जितने भी नियमित सहयात्री हैं, आइये , जानते हैं कुछ अलग सा एक दूसरे के बारे में। अब तक इस श्रंखला में आप अनिताकुमार, विमल वर्मा , लावण्या शाह, काकेश और मीनाक्षी धन्वन्तरि को पढ़ चुके हैं। इस बार मिलते हैं कोलकाता के शिवकुमार मिश्र से । शिवजी अपने निराले ब्लाग पर जो कुछ लिखते हैं वो अक्सर ब्लागजगत की सुर्खियों में आ जाता है। आइये मिलते हैं बकलमखुद के इस छठे पड़ाव और बीसवें सोपान पर मिसिरजी से।
गडोरावाले मिसिर जी...
बनारस जिले में एक गाँव था गडौरा. गाँव था, ऐसा इसलिए लिख रहा हूँ कि अब यही गाँव भदोही जिले में है. वैसे भदोही का नाम भी बदल चुका है. अच्छी बात है. सामजिक और आर्थिक बदलाव न भी आए तो क्या हुआ, हम नाम बदलकर संतोष कर लेते हैं. बदलाव का भ्रम बना रहता है. इसी गाँव में मेरा जन्म हुआ था. २२ फरवरी, सन् १९७०. गाँव को उस समय जैसा होना चाहिए, वैसा ही था. अभी भी वैसा ही है.
भरा भरा सा परिवार...
बहुत बड़ा परिवार है हमारा. बहुत सारे चचेरे भाई और बहनें, बुआ, चाचा वगैरह. पिताजी कलकत्ते के एक कालेज में अध्यापक थे. भूगोल और अंग्रेजी पढाते थे. गाँव में अम्मा के साथ रहता था. बड़े भाई थे. बचपन में जो कुछ सीखा, अम्मा ने सिखाया. साफ सुथरा कैसे रहना है से लेकर लोगों से बात कैसे करनी है तक. किसको कैसे संबोधित करना है. बडों को इज्जत देना चाहिए. ये सारी बातें अम्मा ने सिखाई. कोई नई बात नहीं है. सबकी अम्मा ऐसी ही होती हैं.
बचपन से ही कविता सुनाने का शौक है मुझे. बात तब की है, जब मुझे वर्णमाला का ज्ञान नहीं था. उन दिनों घर में साप्ताहिक हिन्दुस्तान और धर्मयुग जैसी पत्रिकाएं आती थीं. मेरे चाचाजी उन पत्रिकाओं में छपी बाल-कवितायें पढ़कर सुना दिया करते और वो कवितायें मुझे याद हो जाती थीं. लगभग सभी कवितायें अभी तक याद हैं. उस समय मेरी उम्र तीन साल थी. कवितायें याद रखने का एक कारण और भी था.
कविता सुनाऊ प्रतिभा
उन्ही दिनों मैं अम्मा के साथ कलकत्ते आ गया था. पिताजी के मित्रों के बीच मेरी 'कविता सुनाऊ प्रतिभा' का काफ़ी प्रचार हो चुका था. उन दिनों जो भी घर पर आता और मुझसे कविता सुनाने को कहता तो मैं फट से उनसे कविता सुनाने के बदले रसगुल्ला खाने की फरमाईस कर डालता. लघु स्तर पर 'साहित्यिक ब्लैकमेलिंग' का एक उदाहरण. मुझे लगा 'ये तो बड़ा सरल है. बस कुछ कवितायें याद रखनी हैं, रसगुल्ले आते रहेंगे.' ऐसा ही होता भी था. इतने रसगुल्ले खाए कि दांत सड़ गए. कविता में मिठास होती ही है लेकिन कविताओं की वजह से मुंह में मिठास और दांतों में सडन आती गई.
पढ़ाई में तेज समझा जाना
कलकत्ते में दो साल रहने के बाद सन् १९७५ में मैं वापस गाँव लौट गया. गाँव जाने के बाद वहाँ के प्राईमरी स्कूल में मेरी भर्ती हो गई. वही से मैंने अपनी पढाई शुरू की. गाँव में स्कूल के अध्यापक मुझे 'तेज' समझते थे. उनका कहना था कि मुझे सबकुछ याद हो जाता है. और ये 'तेज' होने की निशानी थी. शायद हौसला बढ़ाने का उनका तरीका था. मेरे 'तेज' होने का असर भी दिखा. मुझे कक्षा दो के बाद तरक्की मिल गई और कक्षा चार में पहुँच गया. कक्षा तीन की पढाई नहीं करनी पडी. जिस साल मैंने कक्षा पाँच पास किया ठीक उसी साल मेरे गाँव में एक मिडिल स्कूल खुला. इस स्कूल की स्थापना कैसे हुई, उसके बारे में मैंने एक पोस्ट लिखी थी. उसके पहले गाँव के बच्चों को करीब तीन किलोमीटर पैदल जाकर मिडिल स्कूल की पढाई करनी पड़ती थी.
क्रिकेटीय गुण का विकास
इन दिनों मन में तमाम तरह की बातें आतीं. कभी सोचता; 'मुझे डॉक्टर बनना है. कभी सोचता, नहीं, मुझे इंजिनियर बनना है.' जैसा कि इस उम्र के बच्चों के साथ होता है, ख़याल आते और चले जाते. कभी परुली की तरह नहीं सोचा कि मुझे तो डॉक्टर बनना ही है. इनदिनों मेरे अन्दर 'क्रिकेटीय गुण' का विकास हुआ और मैं क्रिकेट बहुत अच्छा खेलने लगा था. आस-पास के गाँव और स्कूल-कालेज में ये बात फ़ैल चुकी थी कि मैं क्रिकेट अच्छा खेलता हूँ. यही कारण था कि मैं अपने से चार-पाँच साल के सीनियर लोगों के साथ क्रिकेट खेलता था. कई बार सोचता; 'अगर कलकत्ते चला जाऊं तो मैं बंगाल की टीम के लिए खेल सकता हूँ.' ऐसा सोचने के पीछे कारण ये था कि मेरे बहुत ही फेवरिट स्पिनर दिलीप दोषी उन दिनों क्रिकेट छोड़ने वाले थे. मुझे लगता था कि वे अगर क्रिकेट छोड़ देंगे तो बंगाल की टीम में स्पिनर के रूप में मुझे जगह मिल सकती है. बालक का छोटा मन. कुछ भी सोचने के लिए स्वतंत्र है।
अम्मा ने की तबीयत से धुनाई...
इस क्रिकेट की दीवानगी ऐसी थी कि खाने की सुध नहीं रहती. क्रिकेट खेलने की वजह से बहुत बार अम्मा से पिटा. स्कूल में लंच ब्रेक होने के बाद कई बार घर नहीं पहुंचता. ब्रेक में क्रिकेट खेलता. गरमी के महीनों में, जब तापमान चालीस डिग्री से ज्यादा होता है और लू चलती रहती है, उस समय क्रिकेट खेलता. एक बार मई के महीने में क्रिकेट खेलकर पाँच बजे शाम को घर पहुँचा. सामान्य बात होती अगर मैं तुरंत पिट गया होता. लेकिन उस दिन घर पहुँचने के बाद अम्मा ने बहुत अच्छी तरह से बैठाया. ठंडाई बनाकर पिलाया. मैं जब मुतमईन हो चुका था, ये सोचते हुए; 'आज मार नहीं पड़ेगी', तब अम्मा ने पूरी तन्मयता के साथ मेरी धुनाई शुरू की. [जारी]
आपकी चिट्ठियों का हाल अगली कड़ी में
Saturday, April 26, 2008
शिवकुमार मिश्र की डायरी का पहला पन्ना ...[बकलमखुद-20]
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26 कमेंट्स:
हम तन्मय होकर पढ़ रहे हैं पिटाई के किस्से।
अपने चुटीले व्यंग्यों के लिये प्रसिद्ध शिवकुमार जी को यहाँ पिटते देख अच्छा लगा. आगे की कड़ियों का इंतजार है.
शिवकुमारजी
अम्मा की पिटाई के बाद भी क्रिकेटै की तरफ ध्यान लगाए होते तो, अम्मा को लेकर दुनिया घूम ली होती और दुर्योधन की डायरी भी न खोजनी पड़ती। :)
ये बकलम खुद लिखने वाले अंतरिक्षयान की गति से दौड़ रहे हैं। यह ब्लॉग-माया है। वे कहते हैं -ये पृथ्वी है. जब तक पृथ्वी की और निगाह टिकाएं वह कहता है- ये गुलाबी आभा वाला मंगल है। पाठक मंगल ढूंढने लगता है।
पहलवान जवानी में रोज जोर करता है, बुढ़ापे में चेलों से हाथ पैर दबवाता है।
शिवकुमार जी बचपन में खूब पिट लिए। अब हाथ पैर दुखते हैं। सो, व्यंग्य लिखते हैं। लोग अम्मां के रोल में आ जाते हैं। हाथ-पैरों का दुखना बंद।
बुआ ने ठण्डई पिला कर कस कर थुरा; यह जान बहुत सुकून मिला।
जन्मदिन निकल गया। फिर भी उसकी बहुत बधाई।
जन्मदिन अझुराई, थूराई- सब पर बधाई. नीमन पढ़ायी.
मजेदार है.. अगले अंक का इंतजार रहेगा..
ब्लॉगर्स के जिंदगीनामा की ये कड़ियां सुपठनीय और साथियों से निकटता का एहसास कराती हैं। वाकई ये प्रयास कितने भी सराहे जाएं, कम होंगे। मैंने पहली बार पढ़ते ही जाना कि मिसिर जी त आपन पड़ोसी हउवैं। खैर, पड़ोसी तो सभी ब्लॉगर साथी हैं।
पिटाई की बात सुनकर बहुतै मजा आया ।
और बतावैं कब कब थुरे गये आप ।
मिसिर जी की शैली अलहदा है भाई
माँ के हाथों से ठंडाई फिर पिटाई !
वो ज़ुनून क्रिकेटरी और वह ढिठाई
कहने की रीत हमें बहुत रास आई !!
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डायरी के पन्ने का खुलना काफ़ी है
पन्ने पर लिखा अभी पढ़ना बाक़ी है.
जल्दी आइयेगा .
डा.चंद्रकुमार जैन
क्या बात है जी :) खिल पिला कर होती पिटाई का असर ज्यादा देर तक रहता होगा..?
भदोही के भिखारी रामपुर का यह मिसिर ब्लॉगर भी आपके लिखे का दीवाना है.....लिखें....गड़ोरा वाले मिसिर जी मस्त लिखें...
हाह, कतना सकून मिलता है ये जान कर कि किरकिट के नाम पे हम अकेले ही नही है पिटने वाले ;)
वैसे शिव जी आपको नही लग रहा कि आपने शब्दों की रेलगाड़ी कुछ ज्यादा ही स्पीड चला दी है।
पन लिखा मस्त है!
यह पिटने-टीटने के किस्से बड़े आनन्द देते है. मजा आया. :)
आपके अन्दर के कवि के क्या हाल है? उसे फिर से जगाइये यदि सो गया हो तो। यह एक कवि से कवि का आग्रह है।
अगली कडियो का बेसब्री से इंतजार है।
यादाश्त तो आप की आज भी उतनी ही तेज है, ये हम जानते हैं। अम्मा जी का पिटाई का नया अंदाज हमें भी कौतुहल में डाल गया कि क्या रणनीति सोची थी उन्होनें । अगली कड़ी का इंतजार है।
ये पंकज जी भी कवि हैं? अजीत जी पंकज जी का बकलम कब आ रहा है?
माँ ने पिटाई की ठंडई भी पिलाई और हमे यह पन्ना पढने को मिला ,नहीं तो हम दुयोंर्धन की डायरी ही पढते रहते ,जन्म दिन की शुभकामनाएँ ..
आदमी के बनने में अम्मा जी की धुलाइयों का बड़ा योगदान होता है. एक बार फिर साबित हुआ.
सब के सब खुश हो रहे हैं आपकी पिटाई पर........ऐसा लग रहा है मानों बच्चे अपनी माँ से पिट कर आये हों और एक दूसरे को चिढा रहे हो - "अच्छी पड़ी" - "अच्छी पड़ी"....
:)
पढकर ये पता चला कि आप भी क्रिकेटिया बुखार के शिकार थे..अच्छा लग रहा है....आगे की कड़ी का इंतज़ार रहेगा...
अच्छा है आपकी कविता सुनाऊ प्रतिभा www.ramrotiaaloo.blogspot.com में खुलकर सामने आ रही है. राज़ खुला अब!
शिव जी आपका expression बहुत रोचक है। आप चाहें तो अपने पाठक का हाथ पकड़ कर उसे कहीं भी ले जा सकते हैं। और वो खुशी-खुशी चल भी देगा।
इस आत्मकथ्य के बाद आज पांडेजी और मिश्राजी 'ब्लॉगवाणी' के सबसे ज्यादा पढ़े गए लोगों की लिस्ट में शीर्ष के दो स्थानों पर कब्जा जमाये हुए हैं. क्या बात है! ब्लॉग की दुनिया में यह भी किसी किस्म का रिकॉर्ड तो नहीं बन गया है. पड़ताल कीजिये.
Shiv bhai,
Bahut badhiya laga aapka ye pehla panna BAKALAMKHUD
Ajit bhai ne sach mei, shaandaar series shuru karvayee hai.
Aapko Janm din ki der se badhaai !
Aage ki katha ka intezaar-
L
हाँ भईये क्वार्टर सेंचुरी अप
सादर नमस्कार। बहुत ही अच्छा लगा एक अग्रज और शीर्ष चिट्ठाकार के बारे में जानना।
आपके लेखन की सबसे बड़ी खूबी मेरे देखने में यह होती है कि वह पाठक को बाँधे रहती है और शब्दों का चयन भी विषय के आधार पर बहुत ही उच्च स्तर की होती है।
बहुत कुछ सीखने को मिलता है आप बड़ों से।
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